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भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

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भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

बारहवाँ बयान


अब हम अपने पाठकों को लेकर उस टीले वाले मकान के अन्दर चलना चाहते हैं जिसमें कई बार एक औरत के साथ प्रभाकरसिंह को आते-जाते देख चुके हैं और जिसका जिक्र भी कई जगह आ चुका है।

पहली बार जब पाठकों को उस मकान के पास जाने की जरूरत पड़ी थी तो समय रात का था पर आज ठीक दोपहर का मौका है और टनटनाती धूप में उनकी सुफेद झलक दूर से नजर आ सकती है क्योंकि टीले पर बने रहने के कारण पेड़ों की आड़ उसको पूरी तरह छिपा नहीं पाती।

घूमघूमौवा पगडंडी पर होते हुए जब आप उस टीले के ऊपर पहुँचेंगे तो आपको एक अजब समा नजर आयेगा। आप देखेंगे कि घने और भयानक जंगल ने तीन तरफ से उस टीले को घेरा है और चौथी तरफ कुछ जमीन छोड़कर एक नाला बह रहा है जिसकी चौड़ाई बहुत कम नहीं है।

इस नाले के साथ-साथ जब आप निगाह को दूर ले जाएँगे तो अजायबघर का भी कोई अंश आपको अवश्य दिखाई पड़ जायेगा क्योंकि नाले के ऊपर बनी हुई एक वह विचित्र इमारत यहाँ से बहुत दूर नहीं है। दक्खिन की तरफ यदि आप निगाह करेंगे और आपकी आँखें तेज़ होंगी तो आपको कुछ पहाड़ियों की कालिमा दिखाई पड़ेगी, मगर ये पहाड़ियाँ बहुत दूर हैं और सिवाय एक लम्बी नीली लकीर के और कुछ मालूम नहीं होता।

इस टीले के ऊपर कुछ जगह चारों तरफ छोड़कर वही मकान है जिसका ऊपर जिक्र हो चुका है। सरसरी निगाह से देखने पर आपको वह मकान कुछ अजीब तरीके का नजर आवेगा क्योंकि इसके चारों तरफ सिवाय ऊँची दीवारों के कोई दरवाजा, खिड़की या झरोखा तक भी दिखाई नहीं पडता।

परन्तु बाहर से वह इमारत चाहे कैसी भी भोंडी, बेडौल या साधारण मालूम हो पर असल में वह एक विचित्र स्थान है और उसके अन्दर जाने वाले को आश्चर्यजनक चीजें नजर आ सकती हैं। इस समय हमें इस मकान के अंदर चलना है इससे यदि आप भी हमारे साथ ही चलें तो भीतर की कुछ अद्भुत् चीजें अवश्य देख पाएँगे।

यदि मकान का सदर दरवाजा बन्द है तो आप कोई फिक्र न कीजिए और हमारे साथ पश्चिम तरफ वाले हिस्से के सामने पहुँचिए जहाँ आपको एक पुरसे से कुछ कम की ऊँचाई पर बनी हुई ‘गणेश’ की लाल रंग की मूर्ति नजर आवेगी। यह मूर्ति कुछ अजीब ढंग की बनी हुई है और इसका भाव यह है कि बालक गणेश दो साँपों को हाथ में लिये उनके साथ खेल रहे हैं। यदि आप मकान के अन्दर जाना चाहते हैं तो आपको इन साँपों में से बाईं तरफ वाले का फन पकड़कर खींचना चाहिए।

यदि मकान के अन्दर रहने वालों ने यह राह बन्द करने के लिए खास तरकीब नहीं कर दी है तो फन खींचते ही हलकी आवाज होगी और सामने की दीवार का इतना बड़ा हिस्सा जमीन की तरफ धंस जायगा कि जिसके अन्दर दो आदमी बाखूबी घुस सकते हैं। बस दरवाजा खुल गया और आप बेखटके अन्दर जा सकते हैं।

अन्दर जाकर आप अपने को ऐसी जगह पावेंगे जो लगभग दस गज के लम्बी और दो गज को चौड़ी होगी। इसके दाहिने और बाएँ दोनों तरफ दो दालान हैं जो जमीन के लगभग हाथ भर ऊँचे पर बने हुए हैं और सामने की तरफ एक और दरवाजा है जिसके खोलने की जरूरत पड़ेगी। पहिले दरवाजे की तरह इस दरवाजे के ऊपर भी वैसी ही मूर्ति बनी हुई नजर आवेगी और उसी तरकीब से यह दरवाजा भी खुल जायगा मगर इसके खुलने से पहले ही पहिला दरवाजा बन्द हो जायगा।

दूसरा दरवाजा टप कर जब आप दूसरी तरफ पैर रक्खेंगे तो अपने को विचित्र जगह में पावेंगे। आपके दाहिने और बायें तरफ तो पतली सी गली होगी जो ऊपर से खुली और सामने की तरफ लोहे की एक दीवार होगी जो बहुत ऊँची और पालिशदार है।

इस दीवार के दूसरी तरफ हो जाने पर असली इमारत में पहुँचेंगे मगर इसके अन्दर जाने का रास्ता इतना पेचीला और खतरनाक है कि हम इस समय अपने पाठकों को उस रास्ते से ले जाया नहीं चाहते, वे हमारे साथ-साथ यह लोहे की दीवार टपकर दूसरी तरफ पहुँच जाएँ और एक तरफ खड़े होकर कुछ अद्भुत चीज देखें।

एक छोटा-सा मैदान है जिसमें चारों तरफ किसी समय सुन्दर पौधे और गुलबूटे लगे हुए अपनी खुशबू से इस जगह आने वाले का दिमाग मुअत्तर कर देते होंगे पर इस समय सब सूखे पड़े हैं। इस बगीचे या मैदान को चारों तरफ से उस लोहे की ऊँची चारदीवारी ने घेर रक्खा है जिसे टपकर आप इस तरफ आए हैं और इसके बीचोबीच में एक छोटी मगर सुन्दर इमारत है।

इस खूबसूरत इमारत की कुर्सी जमीन से छाती बराबर ऊँची है। सामने की ओर दरावाजा पड़ता है और उस तक पहुंचने के लिए सुन्दर चार-चार अंगुल ऊँची सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। मगर यह सीढ़ियाँ, दरवाजा, यहाँ तक कि यह पूरी इमारत बिल्कुल लोहे की बनी हुई जान पड़ती है और यह लोहा भी इतना साफ और चमकदार है कि सूरज की तेज रोशनी में उस पर आँख ठहरना मुश्किल है। इस इमारत को देखने वाला पहिली ही निगाह में कह देगा कि यद्यपि यह इमारत बहुत खूबसूरत बनी हुई है मगर साथ ही मजबूत भी इतनी है कि हजारों वर्षों तक इसका कुछ नहीं बिगड़ सकता और इसमें रहने वाले आदमी का सैकड़ो दुश्मन भी कुछ नहीं बिगाड़ सकते।

इस समय इस मकान का दरवाजा खुला हुआ है अस्तु आप बेधड़क इसके अन्दर जा सकते हैं। दरवाजा पार कर सामने बढ़ते ही मकान का चौक (सहन) पड़ता है और चारों तरफ खूबसूरत दालान तथा इन दालानों से चारों कोनों पर चार कोठरियाँ हैं, बस इस मंजिल में इतना ही है, हाँ ऊपर जाने पर मुमकिन है कि कोई विचित्र चीजें नजर आ जायें।

यह सहन, दालान और कोठरियाँ, यहाँ तक कि यहाँ की छत और दीवारें तथा जमीन भी बिल्कुल लोहे की बनी लगती हैं और ऊपर वाली मंजिल का भी जो कुछ अंश आँखों के सामने है वह भी लोहे ही का मालूम पड़ता है। मगर हमें अभी ऊपर जाने की कोई जरूरत नहीं, चारों तरफ की इन कोठरियों ही से इस समय हमारा मतलब है।

मकान में घुसते ही बाईं तरफ जो कोठरी है उसमें ऊपर की मंजिल में जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं।

कोठरी के दोनों तरफ दो दरवाजे हैं जो दोनों तरफ के दालानों में खुलते हैं और इसी प्रकार इन चारों कोठरियों में दो-दो दरवाजे हैं। ये सभी दरवाजे इस समय खुले हुए हैं और इसलिए आप हर एक कोठरी के अन्दर घूम आ सकते और वहाँ का हाल-चाल देख सकते हैं।

दाहिने तरफ जो कोठरी है उसकी दीवारों में सिर्फ आलमारियाँ नजर आती हैं जिनमें तरह-तरह की विचित्र और अद्भुत चीजें रक्खी हुई हैं जो इस लायक हैं कि फुर्सत के समय देखी जाएं।

इस कोठरी के अन्दर से होते हुए दालान पार कर आप दूसरी कोठरी में पहुँचेंगे तो उसे अन्दर से ईंट और चूने की बनी हुई पायेंगे। कोठरी के बीचोंबीच में पत्थर का लाल रंग से रंगा हुआ एक चबूतरा है और उस पर लाल ही रंग के पत्थर का एक शेर बैठा हुआ है। बस इसके सिवाय उस कोठरी में और कुछ नहीं है। चौथी कोठरी में जब आप जायेंगे तो उसे बारूद के थैलों, गोलों, छोटी तोपों और लड़ाई के दूसरे सामानों से भरा हुआ पावेंगे, और एक तहखाने की सीढ़ियों की तरफ गौर करने से मालूम होगा कि इसके नीचे भी कोई कोठरी है जो शायद ऐसी ही भयानक चीजों से भरी हुई हो।

बस यही सब सामान है जो पहिली निगाह में यहाँ आने वाले को दिखाई देता है और जिसका बयान करने में इतना समय नष्ट करना पड़ा है क्योंकि अभी तक कोई आश्चर्यजनक चीज यहाँ देखने में नहीं आई। हाँ यहाँ इतना कह देना हम मुनासिब समझते हैं कि इस इमारत का नाम लोहगढ़ी है और कहने के लिये तो यह जमानिया के राजा के कब्जे में है मगर इस समय तो यहाँ कोई और ही रहता है जिसका अभी तक कोई हाल हमने नहीं बताया।

सामने वाले दालान में इस समय उम्दा फर्श बिछा हुआ है और दो-चार तकिये भी पड़े हैं जिनके सहारे एक आदमी अधलेटा-सा पड़ा हुआ एक पंखे से अपनी गर्मी दूर कर रहा है क्योंकि इस मकान के अन्दर गर्मी मामूल से कुछ ज्यादा है। इस आदमी की पोशाक सिपाहियाना है और इसके बगल में तलवार और दूसरी तरफ एक साफा रक्खा हुआ है जिससे मालूम होता है कि शायद कहीं जाना चाहता है और या फिर अभी कहीं से आ रहा है। हमारे पाठक इस नौजवान को बखूबी पहिचानते हैं क्योंकि यह हमारा प्रसिद्ध पात्र प्रभाकरसिंह है।

प्रभाकरसिंह के चेहरे से प्रसन्नता नहीं प्रकट होती बल्कि वे कुछ चिन्तित और उदास से मालूम होते हैं और थोड़ी-थोड़ी देर पर उनका लम्बी साँसें लेना साफ कहे देता है कि इनका दिल किसी बोझ के नीचे दबा हुआ है। इस समय इनकी आँखें बन्द हैं और ये किसी सोच में डूबे एक तकिए के सहारे अधलेटे पड़े हुए हैं।

कुछ देर बाद प्रभाकरसिंह आप ही आप इस प्रकार कहने लगे- ‘‘कुछ समझ में नहीं आता कि यह बात आखिर क्या है? यह औरत कौन है। इसका मुझसे क्या संबंध है और यह मुझसे क्या चाहती है या किस बात की आशा रखती है? यह भी साफ-साफ नहीं मालूम होता है कि यह मेरी दोस्त है या दुश्मन! अगर दोस्त ही होती तो असल भेद मुझसे क्यों छिपाती और इस जगह मुझे कैद क्यों रखती? इसे कैद रखना ही कहते हैं कि अपनी मर्जी से मैं इस मकान के बाहर नहीं जा सकता हूँ।

‘‘मगर दुश्मन ही इसे क्योंकर कहूँ! अभी तक कोई बुरा बर्ताव तो इसने मेरे साथ नहीं किया, कोई तकलीफ़ नहीं दी, कोई कष्ट नहीं पहुँचाया बल्कि मेरे दोस्तों को खोजने और उनका पता लगाने में यह मेरी मदद कर रही है, अस्तु इसे दुश्मन भी नहीं मान सकता।

‘‘इस मकान का भी कुछ पता नहीं चलता कि क्या बला है! न जाने कोई तिलिस्म या जादूगरी! इसके गुप्त दरवाजों, रास्तों और सुरंगों का कुछ अन्त ही नहीं मालूम होता। मजबूत भी इतना है कि गोलों की मार से भी इसे नुकसान नहीं पहुँच सकता, बिल्कुल लोहे का बना मालूम होता है। न जाने इतना मजबूत क्यों बनाया गया! इसमें तो कोई शक नहीं कि यह मकान विचित्र है और सम्भव है कि तिलिस्म से भी इसका कुछ संबंध हो, मगर जान पड़ता है इस औरत को भी इसका पूरा हाल मालूम नहीं है, यदि मालूम होता तो कुछ जरूर प्रकट होता।

‘‘यह सब जाने भी दें तो कुछ भी तो नहीं मालूम होता कि आखिर मुझे कब तक इस तरह सड़ते रहना पड़ेगा, कब तक अपने दोस्तों और मेहरबानों से अलग रहना पड़ेगा!

इससे जब कहता हूँ तो बहाना कर जाती है, इस मकान के बाहर निकलने नहीं देती और यदि कभी निकलने दिया तो खुद बराबर साथ बनी रहती है, शायद यह सोचती हो कि कही मैं भाग न निकलूँ! यदि मुझे बाहर निकलने का रास्ता मालूम होता तो मैं कभी न रुकता, अवश्य बाहर निकल जाता पर वह रास्ता भी तो नहीं बताती और जै दफै यहाँ आती है एक नई राह से ही आती है!

‘‘जो कुछ हो पर इस जगह से बाहर निकलने के रास्ते का तो जरूर ही पता लगाना चाहिए। उस शेर वाली कोठरी में से उसे निकलते मैंने कई बार देखा है और वहाँ से कोई न कोई रास्ता जरूर है। अगर कोशिश करूँ तो मुमकिन है कि कोई राह निकल आये। आखिर बैठे-बैठे भी तो तबीयत घबराती है, कुछ मन ही बहलेगा!!’’

प्रभाकरसिंह उठ खड़े हुए। उनसे बाईं तरफ वह कोठरी पड़ती थी जिसमें शेर की लाल मूरत पत्थर के चबूतरे पर बैठी हुई हम ऊपर लिख आये हैं। प्रभाकरसिंह उसी कोठरी में पहुँचे और शेर को बड़े गौर से देखने लगे, कुछ देर बाद उन्होंने उसके भिन्न-भिन्न अगों पर हाथ फेरना और टटोलना शुरू किया।

नाक-कान आदि भिन्न-भिन्न अंगों को देखते-भालते हुए प्रभाकरसिंह ने उस शेर की एक आँख उगली से छुई तो पुतली कुछ हिलती हुई सी जान पड़ी। अंगूठे से जोर किया और दबाया, दबाने के साथ ही उस शेर ने मुँह खोल दिया और प्रभाकरसिंह कुछ चिहुककर अलग हो गये। कुछ देर तक अलग खड़े देखते रहे, जब कोई बात पैदा नहीं हुई तो कुछ सोचते और हिचकते हुए उस शेर के मुँह में हाथ डाला। एक मुठ्ठा सा मालूम पड़ा, जिसे उन्होंने खींचना, दबाना और उमेठना चाहा। वह सहज ही में घूम गया और प्रभाकरसिंह ने उसे उमेठना शुरू किया। यकायक कुछ खटके की आवाज हुई, चबूतरे के सामने वाला पत्थर हट हट गया और आदमी के जाने लायक छोटा रास्ता दिखाई देना लगा। प्रभाकरसिंह कुछ प्रसन्नता से इस विचित्र रास्ते को देखने लगे। (१. यह रास्ता या सुरंग और टीला वही है जिसका हाल चन्द्रकान्ता सन्तति के नौवें भाग के आठवें बयान में लिखा गया है। इसी सुरंग की राह ‘देवमन्दिर’ में जाने का रास्ता था। मगर उस जगह जो हालत इस स्थान की बयान की गई है वह बाद की दशा है और वैसी गति अभी यहाँ की नहीं हुई है।)

प्रभाकरसिंह अभी यह सोच ही रहे थे कि उस सुरंग में उतरें या न उतरें कि उन्हें अपने सामने किसी तरह की आहट सुनाई पड़ी जो उस सुरंग की राह आती मालूम होती थी।

कुछ आश्चर्य के साथ झुककर देखने लगे और उसी समय एक औरत को जिसके चेहरे पर नकाब पड़ी हुई थी सीढ़िया चढ़कर उसी राह से निकलते हुए पाया। नकाब से चेहरा ढका रहने पर भी प्रभाकरसिंह उस औरत को बखूबी पहिचान गए क्योंकि उसी की बदौलत उन्हें कैदियों की तरह इस लोहगढ़ी में बन्द रहना पड़ता था। वह औरत सुरंग के बाहर आ गई और प्रभाकरसिंह को सामने देख आश्चर्य करने लगी।

औरत : (प्रभाकरसिंह से) आप यहाँ खड़े क्या कर रहे हैं?

प्रभा० : (मुस्कुराकर) यह रास्ता खोलने की कोशिश कर रहा था।

औरत : क्यों?

प्रभा० : ऐसे ही बैठे-बैठे जी उकता गया यहाँ आकर इसकी देखभाल करने लगा।

औरत : खैर कोई हर्ज नहीं, चलिए बाहर।

प्रभा० : इस समय कहाँ से आ रही हो?

औरत : जमानिया से।

प्रभा० : क्या खबर है?

औरत : चलिए बाहर चलिए, कई नई बातें मालूम हुई हैं।

प्रभाकरसिंह को साथ ले वह औरत उस कोठरी के बाहर निकल आई। उस दरवाजे को जिसकी राह आई थी उसी तरह खुला छोड़ दिया और न जाने क्या सोचकर प्रभाकरसिंह ने भी उसके विषय में कुछ कहना या पूँछना मुनासिब न समझा। वह औरत दालान में आकर फर्श पर बैठ गई मगर नकाब चेहरे से नहीं उतारी। प्रभाकरसिंह भी उससे कुछ हटकर बैठ गए।

प्रभा० : कहो क्या नई बात तुम्हें मालूम हुई है?

आज कुंअर गोपालसिंह का कहीं पता नहीं है, न मालूम वे कहाँ चले गए या क्या हुए।

प्रभा० : (चौंककर) सो क्या! क्या वे महाराज से रंज होकर कहीं चले गए हैं?

औरत : नहीं नहीं, सो बात नहीं, कुछ और ही बात है! उनका गायब होना बेसबब नहीं है।

प्रभा० : बेशक नहीं है और मुमकिन है कि यह काम भी दारोगा या उसकी कमेटी का ही हो।

औरत : सम्भव है।

प्रभा० : सम्भव क्या निश्चय ऐसा ही है, अभी उस दिन दामोदरसिंह मारे गए, आज यह बात हुई, कल को महाराज के ऊपर कोई वार होगा!

उस औरत ने कोई जवाब न दिया। प्रभाकरसिंह बोले, ‘‘बड़े अफसोस की बात है कि महाराज हैं तो तिलिस्म के राजा मगर उन्हें अपने घर ही की खबर नहीं है कि क्या हो रहा है और उन्हीं के नौकर-चाकर उनके साथ कैसा बर्ताव कर रहे हैं, अब मैं कदापि चुप नहीं रह सकता, बेशक महाराज से मिल कर उन्हें होशियार करूँगा।’’

औरत : (चौंककर) तो क्या आप महाराज से मिलेंगे?

प्रभा० : बेशक, अब मैं कदापि रुक नहीं सकता? तुम मुझे इस मकान के बाहर करो, मैं इसी समय जाकर उनसे मिलूँगा और उन्हें सावधान करूँगा।

औरत : मगर आपको इस झगड़े में पड़ने से मतलब ही क्या!

प्रभा० : क्यों नहीं मतलब है! क्या महाराज गिरधरसिंह मेरे रिश्तेदार नहीं हैं?

औरत : जरूर हैं मगर आपने जब अब तक उनसे भेंट नहीं की तो अब थोड़े दिन और चुप रहिए।

प्रभा० : नहीं नहीं, सो किसी तरह न होगा, तुम उठो और मुझे इस मकान के बाहर करो, मैं इसी समय उनसे मिलने जाऊँगा।

औरत : जरा ठहरिए, इतना घबराये क्यों जाते हैं, आखिर यह भी तो सोचिए कि आप...

प्रभा० : मैं सब कुछ सोच-समझ चुका हूँ, बस अब तुम मुझे यहाँ से बाहर करो, मैं एक सायत के लिए नहीं रुक सकता।

इतना कह प्रभाकरसिंह उठ खड़े हुए। उस औरत ने यह देख कहा, ‘‘आप इतनी जल्दी न मचाइए, जरा सोचिए विचारिए और साथ ही इस बात पर भी गौर कीजिए कि आपके ऐसा करने से नतीजा क्या निकलेगा? आपके ऐसा करने से मेरे काम में बहुत भारी हर्ज पड़ेगा।’’

प्रभा० : जो कुछ हो, अब मैं इस कैदखाने में एक सायत नहीं रह सकता।

औरत : (हँसकर) क्या यह मकान आपको कैदखाना मालूम होता है? यहाँ आपको क्या तकलीफ है?

प्रभा० : मेरे लिए यह कैदखाना नहीं तो क्या है?

औरत : मैंने आपको बाहर जाने से कब रोका है?

प्रभा० : खैर इस झगड़े से कोई मतलब नहीं, इस समय मैं बाहर ही जाया चाहता हूँ।

औरत : और अगर मैं न जाने दूँ तो?

प्रभा० : तो जो कुछ मुझसे बन सकेगा मैं करूँगा और जिस तरह हो सकेगा बाहर जाऊँगा, फिर मुझे दोष न देना!

औरत : क्या आप एक औरत पर हाथ उठावेंगे?

प्रभा० : वैसा भी न करूँगा, मगर मेरा बाहर निकलना बहुत जरूरी है, अब मैं कदापि नहीं रुक सकता!

वह औरत प्रभाकरसिंह की बात सुन गौर में पड़ गई और कुछ सोचने लगी, तब वह उठ खड़ी हुई और प्रभाकरसिंह से बोली, ‘‘अच्छा आप इसी जगह बैठे मैं अभी आती हूँ तो आपको साथ लिए बाहर चलूँगी।’’

प्रभा० : नहीं सो नहीं हो सकता, जहाँ जाती हो मुझे भी लेती चलो।

औरत : मैं कहीं नहीं जाती और एक काम करके अभी लौटती हूँ क्या आप समझते हैं कि मैं कहीं भाग जाऊँगी? अब इतना अविश्वास मेरे ऊपर करने लगे!

प्रभा० : बेशक करने लगा। अब मैं मकान के बाहर गये बिना तुम्हारा साथ एक पल के लिए भी नहीं छोड़ूँगा।

औरत : (हँसकर) आज आप मुझ पर बहुत खफा मालूम होते हैं, क्या मामला है? मुझसे कोई कसूर तो नहीं हो गया? आखिर बात क्या है?

प्रभा० : सच तो यह है कि मुझे तुम्हारा ढंग बिलकुल पसंद नहीं आता! मुझे कुछ मालूम ही नहीं होता कि क्यों तुमने मुझे यहाँ बन्द कर रक्खा है। न तो मैं तुम्हारी सूरत-शक्ल से वाकिफ हो पाता हूँ और न तुम अपना नाम या कुछ हाल ही बताती हो। मैं नहीं जानता कि तुम कौन हो और न यही जानता हूँ कि मुझसे तुम क्या काम निकाला चाहती हो?

न मैं अपनी मरजी से इस मकान के अन्दर आ ही सकता हूँ और न ही बाहर निकल पाता हूँ! यदि कभी बाहर निकलने को मिला भी तो तुम्हारे साथ रहने के कारण स्वतंत्रता से कुछ करने का मौका ही नहीं पाता, ऐसी हालत में इस तरह पराधीन बना हुआ मैं क्योंकर तुम्हारा विश्वास कर सकता हूँ!

औरत : आखिर मैं आपकी भलाई में ही तो लगी हूँ, आपके दोस्तों ही का पता तो लगा रही हूँ, आपके दुश्मनों ही से बदला लेने का बन्दोबस्त तो कर रही हूँ! क्या आप यह समझते हैं कि मैं आपके साथ दुश्मनी का बरताव कर रही हूँ!

प्रभा० : मैं ऐसे किसी से न तो मदद ही लिया चाहता हूँ और न उसे साथी ही बनाया चाहता हूँ जिनका न तो मैं कोई हाल जानता हूँ न नाम-पते से वाकिफ हूँ यहाँ तक कि जिसकी सूरत भी कभी नहीं देख पाता। फिर दूसरी बात यह है कि अगर तुम मेरी मदद ही पर हो तो मुझे यहाँ से जाने क्यों नहीं देती!

औरत : मैं आपको जाने से कब रोकती हूँ!

प्रभा० : इसे रुकावट डालना नहीं तो क्या कहते हैं?

औरत : खैर यदि आप ऐसा ही समझ लें तो कोई हर्ज नहीं। मैं इसलिए आपको बाहर जाने से रोकती हूँ कि आपके दुश्मन चारों तरफ फैले हुए हैं, उनकी चालाकियों का जाल अच्छी तरह बिछा हुआ है, आप उनसे अपने को किसी तरह नहीं बचा सकेंगे।

प्रभा० : कुछ नहीं, यह सब तुम्हारी बनावटी बातें हैं, मेरा दुश्मन कोई नहीं है और अगर है भी तो वह मेरा उस समय तक कुछ नहीं बिगाड़ सकता जब तक कि मैं होश-हवास में हूँ या तलवार का कब्जा मेरे हाथ में है।

औरत : मगर मुझे डर है कि आप उनसे कभी अपने को बचा न सकोगे, वे सब बहुत जबर्दस्त हैं।

प्रभा० : नहीं यह सब कोई बात नहीं है या अगर है तो सिर्फ तुम्हारा ढोंग है! मैं तुम्हारी बातों पर विश्वास नहीं करूँगा।

औरत : अख्तियार आपको है, विश्वास करें या न करें, मैं कुछ नहीं बोल सकती, मगर ख्याल रखिए कि यदि आप इस समय मेरी बात न मालेंगे तो पछतायेंगे फिर मुझको दोष न दीजिएगा!

प्रभा० : नहीं कभी न दूँगा!

औरत : खैर तो चलिए, मैं आपको यहाँ से बाहर किए देती हूँ।

प्रभाकरसिंह को साथ लिए हुए वह औरत उस दालान के नीचे उतरी और उस छोटे बगीचे या मैदान को तय करके उस लोहे की चारदीवारी के पास पहुँची जिसने इस इमारत को चारों तरफ से घेरा हुआ था।

मामूली तौर पर बाहर निकलने का रास्ता पैदा किया और दीवार के दूसरी तरफ पहुँच गई। वे दोनों दरवाजे भी पार किए जिनका हाल ऊपर लिख आए हैं और प्रभाकरसिंह ने अपने को उस मकान के बाहर पाया। उस औरत ने इन्हें कुछ आगे तक पहुँचा दिया और तब प्रभाकरसिंह बोले-

प्रभा० : अच्छा अब तुम जाओ, मैं भी जाता हूँ।

औरत : जो आज्ञा।

इतना कह वह औरत तुरंत घूम पड़ी, मगर उसी समय प्रभाकरसिंह ने टोका और कहा, ‘‘अगर मुनासिब समझो तो कम से कम अपना नाम तो बताती जाओ जिससे मैं यह तो जान सकूँ कि फलानी औरत ने विचित्र ढंग से मुझे रक्खा और मदद की थी, नकाब हटाने के लिए तो कहना ही व्यर्थ है!’’

औरत : नहीं नहीं, आप मेरी सूरत भी देख सकते हैं और नाम भी जान सकते हैं।

इतना कहकर उस औरत ने चेहरे पर से नकाब उलटकर पीछे की तरफ कर दी।

हम कह सकते हैं कि प्रभाकरसिंह ने अपनी जिन्दगी भर में कभी ऐसी सुन्दर औरत न देखी होगी। यद्यपि ये अपनी इन्दुमति के ही ध्यान में मस्त हो रहे थे तथापि इस औरत के खूबसूरत चेहरे ने इनका ध्यान अपनी तरफ खींच ही लिया।

मगर अफसोस, दिल की दिल ही में रह गई! नजर भर उसकी सूरत देखने भी न पाये थे कि उसने पुन: चेहरे पर नकाब डाल ली और उन्हें उसी तरह खड़े छोड़ पीछे चल पड़ी। प्रभाकरसिंह कहते ही रहे कि ‘‘अपना नाम तो बताती जाओ’’! पर उसने फिरकर भी नहीं देखा।

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