लोगों की राय

मूल्य रहित पुस्तकें >> भूतनाथ - खण्ड 4

भूतनाथ - खण्ड 4

देवकीनन्दन खत्री

Download Book
प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :300
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8363
आईएसबीएन :978-1-61301-021-1

Like this Hindi book 4 पाठकों को प्रिय

349 पाठक हैं

भूतनाथ - खण्ड 4 पुस्तक का ई-संस्करण

चौथा बयान


काशीजी से जमानिया की तरफ आने वाली सड़क पर हम दो सवारों को देख रहे हैं।

ये दोनों सवार मर्द नहीं बल्कि औरतें हैं। यद्यपि इनके चेहरे नकाबों से ढंके हुए हैं तथापि हम इन्हें बखूबी जानते हैं क्योंकि दोनों गौहर और गिल्लन हैं जो इस समय काशी से जमानिया की तरफ बढ़ रही हैं, पर इन दोनों की चाल तेज नहीं है क्योंकि दोनों ही के घोड़े थके हुए और दूर से मंजिल मारते हुए आ रहे हैं अस्तु हम इनके साथ-साथ चलकर इनकी बातें सुन सकते हैं।

गौहर : जहाँ तक मैं समझती हूँ अब जमानिया दो कोस से ज्यादा नहीं रह गया होगा।

गिल्लन : हाँ, हम लोगों का सफर बहुत ही जल्दी खतम हुआ, अब देखें नतीजा क्या निकलता है।

गौहर : मुझे तो पूरा भरोसा है कि नतीजा अच्छा ही होगा। नन्हों की बदौलत मुझे अपने काम में कुछ सुभीता हो गया है। मगर मेहनत बहुत पड़ी कभी बेगम के यहाँ, कभी नन्हों के यहाँ, कभी मनोरमा के पास, कभी काशी, कभी जमानिया, इधर के दिन दौड़ते ही बीते हैं।

गिल्लन : मगर मेरी समझ में तो तुम व्यर्थ को ही यह सब तरद्दुद उठा रही हो।

गौहर : क्यों?

गिल्लन : तुम्हें इन झगड़ों से मतलब ही क्या है? तुम जिस काम के लिए आई हो उसे खतम करो और घर लौटो, इन सब फजूल के पचड़ों से तुम्हें वास्ता ही क्या?

गौहर : (हँसकर) हाँ तुम अपना काम करने में क्यों चूको! तुम मुझे लौटा ले जाने के लिए भेजी गई हो और साथ ले जाकर ही छोड़ोगी सो मैं बखूबी जानती हूँ। खैर अब तुम मेरा काम समाप्त ही समझो सिर्फ एक दफे दारोगा साहब से और एक दफे हेलासिंह से मिल लेने से ही मेरा काम पूरा हो जाएगा।

गिल्लन : जान पड़ता है तुमने अपना इरादा बिलकुल पक्का कर लिया है।

गौहर : बेशक, मगर मैं यह नहीं समझ पाती कि तुम्हारे घबराने की वजह क्या है! तुम इधर बात-बात में डर रही हो, बात-बात पर हिचकती हो, ऐसा पहिले तो न था!

गिल्लन : इधर जो-जो और जैसा काम कर रही हो उसी से मेरी यह हालत हो रही है। दारोगा साहब, जैपालसिंह या हेलासिंह ऐसे भयानक आदमी हैं कि इनके साथ चालाकी बरतना और साँप से खेलना मैं एक-सा समझती हूँ अगर इनमें से किसी को भी तुम्हारे असली इरादे का पता लग गया तो फिर तुम निश्चय रक्खो कि जीती न लौटने पाओगी।

गौहर : (जोर से हँसकर) वाह क्या कहना है!

गिल्लन : खैर तुम्हारी मर्जी जो चाहो, मैं बोल नहीं सकती, मगर यह राय देने से बाज नहीं आ सकती कि तुम इस प्रपंच को छोड़ो और घर लौट चलो।

गौहर : खुदा तुम्हारे ऐसे डरपोक को कभी साथी न बनाये! अजी तुम देखो तो सही कि मैं क्या-क्या करती हूँ और क्या आफत ढाती हूँ। तुमने मुझे क्या समझा है, अभी आज ही जो मैंने किया है क्या वह तुम्हारे किए हो सकता था? मनोरमा के सामने बात करना तुम्हारा काम था? ओफ, वह जैसी धूर्त है वैसी ही चालाक भी, जैसी-जैसी बातें उसने मुझसे कीं वह तुम अगर सुनती तो ताज्जुब करतीं। (हँसकर) मगर मेरे आगे उसकी कुछ पेश न आई, उस जाली चीठी ने जो मैंने तुम्हारी मदद से लिखी थी वह काम किया, उसे पढ़ते ही वह घबड़ा उठी और मुझे साथ लेकर दारोगा और हेलासिंह के पास चलने को तैयार हुई। (रुककर) अच्छा वह जगह कहाँ है जहाँ साँवलसिंह से मिलने की बात है?

गिल्लन : (हाथ से बताकर) बस थोड़ी ही दूर पर है, सड़क का वह मोड़ घूमते ही कूँआ नजर आने लगेगा। हम लोगों को देर हो गई है इससे मैं समझती हूँ कि साँवलसिंह वहाँ बैठा हमारी राह देख रहा होगा।

थोड़ी दूर जाने के बाद सड़क के किनारे ही एक ऊंचा कूँआ नजर पड़ा यह कूँआ बहुत बड़ा और मजबूत बना था और इसकी ऊँची जगत के नीचे चारों तरफ मुसाफिरों के टिकने और मौसिम के बचाव के लिए कई कोठरियाँ भी बनी हुई थीं जिनमें यद्यपि पल्ले (किवाड़) दिखाई नहीं देते थे पर तो भी और सब तरफ से मजबूर और दुरुस्त थीं। इस समय इस कूएं के ऊपर एक आदमी लेटा हुआ था जो गौहर और गिल्लन को आते देख उठ खड़ा हुआ। यह आदमी वही सावलसिंह था जिसे गौहर के साथ कई बार हमारे पाठक देख चुके हैं।

गौहर और गिल्लन घोड़ों से उतर पड़ीं। साँवलसिंह ने दोनों घोड़े पेड़ से बाँध दिये और तब गौहर के बैठने के लिए एक कपड़ा बिछा दिया। सब कोई उस पर बैठ गए तथा इस तरह बातें होने लगीं :-

साँवल : आपने जो समय दिया था उससे बहुत विलम्ब कर दिया। मैं आज सुबह से ही यहाँ पर बैठा आपके आने की राह देख रहा हूँ।

गौहर : हाँ, मुझे जरूर देर हो गई, मगर काम भी बहुत अच्छी तरह हो गया!

साँवल : हाँ! अच्छा क्या कर आई?

गौहर : सुनो मैं सब हाल खुलासा सुनाती हूँ, तुमसे बिदा होकर मैं सीधी नन्हों के पास पहुँची। मैं समझती थी कि उससे मिलने या अपना परिचय आदि देने में कुछ तरद्दुद करना पड़ेगा ऐसा न हुआ। रामदेई ने अपना वादा पूरा किया था और नन्हों मुझसे बहुत अच्छी तरह पेश आई, मेरी उससे खूब बातें हुईं और अन्त में मैंने उसे अपने ढब पर उतार ही लिया।

वह तो मुझे साथ ले उसी समय बेगम या मनोरमा के पास जाने को तैयार हो पड़ी पर मैंने मुनासिब यही समझा कि उसको साथ न लूँ बल्कि सिर्फ उसकी चीठी लेकर ही उन लोगों के पास जाऊँ, अस्तु उससे मैंने ऐसे मजमून की चीठी लिखवा ली जिसे देख मनोरमा और बेगम को मुझ पर विश्वास करना पड़े। यह देखो वह चीठी-

इतना कह गौहर ने एक चीठी निकाल साँवलसिंह को दिखाई जो गौर से उसे पढ़ गया : यह लिखा था-

‘‘प्यारी बेगम,

जिसके हाथ मैं यह चीठी तुम्हारे पास भेजती हूँ वह बहुत ही तेज़ और चालाक ऐयार है। तुम्हारे और दारोगा साहब के बहुत से भेद इसे मालूम हो गए हैं।

परन्तु यह पूरी तरह से मेरे बस में है। इसके मतलब को समझ तुम्हारे पास भेजती हूँ, इस पर विश्वास करना और जरूरत समझना तो इससे काम लेना!

तुम्हारी प्यारी नन्हों।’’

साँवलसिंह ने यह चीठी पढ़कर गौहर को लौटा दी और कहा, ‘‘नन्हों को आपने क्या पट्टी पढ़ाई जो उसने इस तरह की चीठी आपको लिख दी?’’

गौहर : (खिलखिलाकर) अरे कुछ पूछो मत! मेरी उसकी बड़ी-बड़ी बातें हुईं। वह कम्बख्त भी बड़ी शैतान है, उसे कुछ कम न समझो। वह तो इस चीठी में पूरा परिचय ही दे देना चाहती थी मगर मैंने यह कहकर उसे रोका कि ऐसा करने से मेरे काम में हर्ज पड़ेगा।

साँवल : मगर उसे इस बात को जानने की इच्छा नहीं हुई कि आप क्यों यह सब कर रही हैं?

गौहर : हुई क्यों नहीं, मगर मैं क्या बताने वाली थी? मैंने कोई अनूठी बात गढ़कर उसे सुना दी और साथ ही इस बात की भी कसम ले ली कि बगैर मेरी इजाजत मेरा भेद किसी से न कहे।

साँवल : खैर तो आप इस चीठी को लेकर बेगम के पास गईं?

गौहर : नहीं तुम सुनो तो सही, बेगम के पास जाना तो जरूरी था ही मगर इस तरह से ठीक न होता अस्तु मैंने एक जाली चीठी तैयार की। मेरे पिता ने जो चीठी मुझे दी थी वह तो मैं गँवा चुकी थी, तो भी मैंने अन्दाज से उसका जो मजमून होना चाहिए सो बनाकर लिखा और उसके नीचे उनका दस्तखत भी तैयार किया। देखो मैं वह चीठी भी दिखाती हूँ।

इतना कह गौहर ने एक दूसरी चीठी निकाली और साँवलसिंह के हाथ में दी, इसमें यह लिखा था :-

‘‘मेरे प्यारे दोस्त बलभद्रसिंह,

‘‘मुझे पक्की तौर से पता लगा है कि जमानिया के दारोगा साहब जिन्हें आप अपना मेहरबान समझते हैं आपके दुश्मन हो रहे हैं।

बहुत जल्द उनका वार आप पर और आपकी लड़कियों पर होगा और खास कर आपकी बड़ी लड़की लक्ष्मीदेवी जिसे मैं प्यार करता हूँ बहुत जल्द किसी मुसीबत में पड़ा चाहती है! मेरी बेटी गौहर ने जिसे ऐयारी करने का बहुत शौक है अपनी चालाकी से इन बातों का पता लगाया है इसलिए यह चीठी मैं उसी के हाथ आपके पास भेजता हूँ, खुलासा हाल आपको उसी की जुबानी मालूम होगा।

आपका- शेरअलीखाँ।’’

साँवल : (मुस्कराकर) यह तो आपने बड़ी विचित्र कार्रवाई की! खाँ साहब का दस्तखत तो बहुत ही साफ बना है, मगर क्या वास्तव में यह चीठी आप ही के हाथ की लिखी है?

गौहर : (हँसकर) हाँ, मगर देखो तुम्हें सब हाल साफ-साफ कह रही हूँ सो तुम कहीं भण्डाफोड़ न कर देना, नहीं तो अगर मेरे बाप यह हाल सुनेंगे तो सख्त नाराज होंगे।

साँवल : नहीं-नहीं, क्या आप मुझे ऐसा समझती हैं? क्या मुझ पर आपको भरोसा नहीं?

गौहर : नहीं-नहीं, मुझे पूरा भरोसा है। अच्छा तो मैंने यह चीठी बनाई और अब अपनी सूरत बदल बेगम और मनोरमा से मिलने के लिए तैयार हुई, मगर उसी समय मुझे यह ख्याल हुआ कि मनोरमा, बेगम और दारोगा ने तो मुझे इधर बहुत दिनों से नहीं देखा है इससे पहिचान नहीं सकेंगे पर जैपाल शायद सूरत बदली रहने पर भी पहिचान जाय क्योंकि वह मेरे बाप के पास कई दफे आ-जा चुका है, अस्तु कोई तर्कीब करनी चाहिए जिसमें इस बात का डर भी न रहे, (हँसकर और गिल्लन की तरफ देखकर) और इनकी मदद से वह बात भी बड़े मजे में हो गई।

साँवल : सो कैसे?

गौहर : दवाइयों और रंग की मदद से इन्होंने मेरे चेहरे पर दो-चार दाग इस तरह के बना दिए जो ऐसे मालूम होते थे मानों किसी मर्ज के हों। बस इस तौर पर मेरा काम बखूबी निकल गया क्योंकि मनोरमा से मिलने पर मैंने अपनी सूरत नकाब से ढँक रक्खी और उसके पूछने पर अपना चेहरा दिखा कह दिया कि इन्हीं जख्मों की वजह से मैंने अपना चेहरा ढाँक रक्खा है और जब तक ये अच्छे नहीं होंगे किसी को अपनी सूरत नहीं दिखाऊँगी।

साँवल : तो क्या सबसे पहिले आप मनोरमा से ही मिलीं?

गौहर : नहीं, नन्हों की चीठी लेकर जब मैं बेगम के घर पहुँची तो भाग्य से मनोरमा भी वहाँ मौजूद मिली, फिर तो दोनों से मुझसे खूब ही बातें हुईं। मैंने जो जाली चीठी बनाई थी वह जब मनोरमा को दिखाई तो उस पर बड़ा ही असर पड़ा और उसने मुझे लेकर दारोगा के पास जाना मंजूर कर लिया। अब मैं बेखटके उसके साथ जमानिया पहुँच दारोगा वगैरह से मिलूँगी और सब भेदों का पता लगाऊँगी।

गिल्लन : (हँसकर) और उन जख्मों की बदौलत आपको अपनी सूरत भी किसी को दिखानी न पड़ेगी।

साँवल० : तब और क्या! मगर क्या आप दारोगा साहब से भी मिलेंगी?

गौहर : हाँ, कल सन्ध्या को मनोरमा ने नागर के घर पर मुझे बुलाया है और यह भी कहा है कि मैं वहाँ मौजूद रहूँगी और हो सका तो वहीं दारोगा साहब से तुम्हारी मुलाकात कराऊँगी,’ अब मैं कल शाम को नागर के मकान पर पहुँचूँगी।

गिल्लन : (सांवल से) मैंने इनको बहुत समझाया कि इन झगड़ों में न पड़ें और घर लौटें मगर ये किसी तरह मानती ही नहीं।

गौहर : अब इतना करके मुझे पीछे हटने को मत कहो, क्या करी-कराई सब मेहनत चौपट किया चाहती हो?

गिल्लन : खुशी तुम्हारी, अब मैं तुमसे इस बारे में कुछ बोलने की नहीं।

गौहर : तुम्हारा न बोलना ही अच्छा। (साँवलसिंह से) अच्छा साँवलसिंह!

साँवल० : कहिए।

गौहर : दारोगा साहब से तो अब कल मुलाकात होगी ही, पर इस बीच में मैं चाहती हूँ कि वह काम पूरा कर डालूँ जिसके लिए मेरे बाप ने मुझे यहाँ भेजा है यानी बलभद्रसिंह से मिल कर इन सब बातों की खबर उन्हें दे दूँ।

सांवल० : बेशक अब आपको यह काम तो कर ही डालना चाहिए।

गौहर : मेरे हाथ से वह चीठी निकल गई जो मेरे बाप ने दी थी तो भी अगर मैं खुद उनसे मिलूँ और सब हाल सुना दूँ तो बेशक होशियार हो जाएँगे हेलासिंह के वार का बचाव भी कर सकेंगे।

सांवल० : हाँ सम्भव है।

गौहर : क्यों, क्या तुम्हें इसमें कुछ सन्देह है?

सांवल० : जिन दारोगा और हेलासिंह ने जमानिया के महाराज को अपनी कार्रवाइयों से परेशान कर रक्खा है उनकी चालों से बलभद्रसिंह अपने को बचा लेंगे ऐसा तो मुझे विश्वास नहीं होता।

गौहर : हाँ यह तो तुम ठीक कहते हो, मगर तुम यह भी तो देख ही रहे हो कि मैं इन सभी का कैसा खूबसूरती से बन्दोबस्त कर रही हूँ। जरा हेलासिंह तक तो मेरी पहुँच हो जाने दो, फिर देखो मैं इन लोगों को कैसा नाच नचाती हूँ!

सांवलसिंह ने इस बात का कुछ जवाब न देकर कहा, ‘‘आप जो कुछ हुक्म दीजिए मैं बजाने को तैयार हूँ, मगर इस बात का ख्याल रखिए कि अगर आप किसी तरह की मुसीबत में फंस गईं तो सब सोचा-विचारा रह जाएगा और मुझ पर जो मुसीबत आवेगी सो तो अलग!’’

गौहर : नहीं नहीं, मैं अपने बचाव का पूरा खयाल करूँगी और इसीलिए बहिन गिल्लन को बराबर अपने साथ रक्खूँगी, तुम मेरी तरफ से बेफिक्र रहो।

सांवल० : तो अब मुझे आप क्या कहने को कहती हैं?

गौहर : मैं चाहती हूँ कि तुम बलभद्रसिंह से जाकर मिलो, मुझको भी जब मौका मिलेगा मैं जरूर ही मिलूँगी मगर तुम आज ही चले जाओ। जो कुछ बातें इधर हुई हैं उनकी तुम्हें पूरी-पूरी खबर है, अस्तु तुम अपना परिचय देकर हेलासिंह की तरफ से उन्हें होशियार करो और जो-जो कार्रवाई वह कर चुका है उससे भी आगाह करो, बाद में मैं मिलकर उनसे अच्छी तरह बातें कर लूँगी।

तुमसे यह कहने को मैं इसलिए कहती हूँ कि कही मैं दारोगा वगैरह के फन्दे में पड़ ही गई, यद्यपि अपने भरसक तो मैं अपने को सब तरह से बचाऊँगी तो भी कुछ न कुछ डर तो बना ही है, तो फिर बेचारे बलभद्रसिंह अँधेरे में ही पड़े रह जाएँगे, उन्हें इन सब बातों की कुछ भी खबर न लग सकेगी और दारोगा की कार्रवाई चल जाएगी। अस्तु तुम्हारा जाना ही उचित है।

सांवल० : (सिर झुकाकर) बहुत अच्छा।

गौहर : अस्तु तुम अभी चले जाओ। मैं अभी दो रोज तक दौड़-धूप में पड़ी रहूँगी मगर आज के तीसरे दिन दोपहर को तुमसे अजायबघर के पास मिलूँगी, तुम्हारे सफर का क्या नतीजा निकला यह मैं उसी जगह तुमसे सुनूँगी और यदि संभव हुआ तो उस समय बलभद्रसिंह से मिलने के लिए भी तुम्हारे साथ चल पड़ूँगी।

सांवल : बहुत अच्छा।

गौहर : तो बस अब तुम उठो और जाओ, मगर परसों मुझसे मिलने का जरूर खयाल रखना।

सांवलसिंह के भाव से मालूम होता था कि उसे गौहर का साथ छोड़ना मंजूर नहीं है मगर तो भी लाचारी के साथ उसे उसी समय उठना और इस काम के लिए जाना ही पड़ा। उसने अपने कपड़े पहिने जो उतार कर एक तरफ रक्खे हुए थे, ऐयारी का बटुआ लगाया और सफर के सामान से दुरुस्त होकर कूएँ से नीचे उतर गया। गौहर और गिल्लन भी उठ खड़ी हुईं। सांवलसिंह ने पश्चिम का रास्ता लिया और गौहर तथा गिलल्न अपने-अपने घोड़ों पर सवार हो आपुस में बातें करती हुई जमानिया की तरफ चल पड़ीं।

न जाने कब से एक आदमी इस कूएँ के पिछवाड़े की तरफ छिपा हुआ खड़ा था। इन तीनों में किसी को भी इस बात का सन्देह नहीं हुआ था कि कोई गैर आदमी भी हमारी बातें सुन रहा है, मगर वास्तव में वह बहुत देर से छिपा हुआ था और इसने इन सभों की बातें बहुत ध्यान के साथ सुनी थीं। गौहर और सांवलसिंह के दो तरफ निकल जाने के बाद यह आदमी आड़ के बाहर आया और उन दोनों की तरफ देखता हुआ बोला, ‘‘इस मौके को हाथ से जाने देना उचित नहीं। इनमें से किसी-न-किसी को जरूर गिरफ्तार करना चाहिए, बेशक मेरा बहुत काम निकलेगा।’’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book