नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
पहला अंक
पहला दृश्य
(गाँव के एक पक्के घर में एक एकांत कमरा। यद्यपि बाहर कोलाहल मचा हुआ है पर वहाँ अपेक्षाकृत शांति है। सामान अस्त–व्यस्त पड़ा है, जैसे विवाह के घर में होता है। कपड़ों का ढेर। नय साड़ियाँ। नये दुपट्टे। बक्स। बिस्तरे और बिछावना। कहीं गिलास लुढ़क रहा है तो कहीं तश्तरी पड़ी है। किसी बर्तन में मिठाई हैं, तो कहीं पूरियाँ, किसी आले में देवता की मूर्ति है, तो किसी में मेंहदी की चूड़ियाँ। कभी बाहर से बाजों का स्वर उठता है, तो कभी गीत और कभी कौतूहल और गर्व से हँसी। कभी–कभी कोई तेजी से आता है। और चला जाता है। ध्यान से देखने पर पता लगता है कि यहीं एक कोने में एक लड़की बैठी है। उसने अपेक्षाकृत पीली धोती पहनी है। उसके लम्बी–लम्बी उँगलियों वाले गोरे हाथ मेंहदी से लाल हो रहे हैं और छविमय मुख लाज से। लम्बी– लम्बी पलकों वाली बड़ी–बड़ी आँखों में काजल भरा हुआ है और कोमल शरीर पर चन्द्रकलंक की भाँति हल्दी और मेंहदी के धब्बे लगे हैं। इसका विवाह होनेवाला है। नाम है जालपा। इस समय वह खड़ी–खड़ी बड़े ध्यान से कान लगाये सुन रही है। बाहर से कभी धीरे, कभी जोर से कोई बोल उठता है।)
एक नारी– चहेदंती कितनी सुंदर है। कोई दस तोले की होगी।
दूसरी नारी– वाह! साढ़े ग्यारह से रत्ती– भर भी कम निकल जाय तो कुछ हार जाऊँ।
पहली नारी– यह शेरहदाँ तो देखो, क्या हाथ की सफाई है! जी चाहता है कि कारीगर के हाथ चूम ले। यह भी १२ तोले से कम न होगा।
दूसरी नारी– तू तो यूँही रही। कभी देखा भी है। १६ तोले से कम निकल जाय तो मुँह न दिखाऊँ। हाँ, माल उतना चोखा नहीं है।
तीसरी नारी– यह कंगन तो देखो, बिल्कुल पक्की जड़ाई है। कितना बारीक काम है कि आँख नहीं ठहरती।
पहली नारी– बात तो ऐसी ही है, कैसा दमक रहा है! सच्चे नगीने हैं, झूठे नगीनों में वह आब कहाँ!
दूसरी नारी– चीज तो गुलूबंद है भाई, कितने खूबसूरत फल हैं?
और उनके बीच के हीरे कैसे चमक रहे हैं।
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