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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
देवीदीन– दरयाफ्त करूँगा। लेकिन मामला जोखिम है।
जालपा– क्या जोखिम है बताओ?
देवीदीन– भैया पर झूठी गवाही का इलजाम लगा कर सजा कर दे तो…
जालपा– तो कुछ नहीं। जो जैसा करे वैसा भोगे।
(देवीदीन चकित हो कर जालपा को देखता है।)
देवीदीन– चकित होकर खटका है। सबसे बड़ा डर उसी का है।)
जालपा– वह क्या?
देवीदीन– पुलिस वाले बड़े कायर होते हैं। किसी का अपमान कर डालना तो इनकी दिल्लगी है। पुलिस कमीश्नर को जब पता लगेगा कि यह औरत सारा खेल बिगाड़ रही है तो कहेगा इसी को गिरफ्तार कर लो। इनकी माया अपरम्पार है।
जालपा– आपका मतलब है दादा, वे मेरा अपमान करेंगे?
देवीदीन– (दृढ़ता से) हाँ।
जालपा– वे मेरा अपमान करेंगे..अपमान…
(जालपा सहसा सोच में पड़ती हैं जैसे डर गयी हो, पर सँभल कर कहती है।)
जालपा– अब तो उनसे मुलाकात न हो सकेगी?
देवीदीन– भैया से?
जालपा– हाँ।
देवीदीन– किसी तरह नहीं। पहरा और कड़ा कर दिया गया होगा। और अब उनसे मुलाकात हो ही गयी तो क्या फायदा। अब किसी तरह बयान नहीं बदल सकते है। दरोगाहल्फी में फँस जायेंगे।
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