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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक)

चन्द्रहार (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8394
आईएसबीएन :978-1-61301-149

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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है

आठवाँ दृश्य

(वहीं सातवें दृश्य वाला रामनाथ का कमरा। जालपा व्यग्रता से कभी बाहर जाती है कभी भीतर। वह उद्विग्न है। उसके चेहरे पर प्रौढ़ता में पलट चुका है। उसके नयनों में दृढ़ता है पर इस समय वह जैसे किसी की राह देख रही है। उसी समय देवीदीन हाथ में अखबार लिये जल्दी– जल्दी आता है।)

देवीदीन– लो बहू, अखबार आ गया।

(जालपा शीघ्रता से अखबार पढ़ने लगती है, उसके मुख के भाव तेजी से पलटते हैं।)

देवीदीन– फैसला छपा है?

जालपा– हाँ है तो।

देवीदीन– किसकी सजा हुई?

जालपा– सबकी।

देवीदीन– (काँप कर) सबकी। कैसे– कैसे हुई?

जालपा– पाँच को दस– दस साल और आठ को पाँच– पाँत साल। दिनेश को फाँसी।

देवीदीन– (हाथ मल कर) दिनेश को फाँसी!

जालपा– (करुणा से) हाँ दादा!

(क्षण भर चुप रहती है। मुख पर ग्लानि उभरती है। पर वह सँभलती है और साँस खींच कर बोलती है– )

बेचारों के बाल– बच्चों का न जाने क्या हाल होगा?

देवीदीन– तुमने जिस दिन मुझसे कहा था उसी दिन से मैं इन सबों का पता लगा रहा हूँ। आठ आदमियों को अभी तक तो विवाह ही नहीं हुआ। और उनके घरवाले मजे में हैं। पाँच आदमियों का विवाह तो तो हो गया पर घर के खुश हैं। खाली दिनेश तबाह है।

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