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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक)

चन्द्रहार (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8394
आईएसबीएन :978-1-61301-149

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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है

नवाँ दृश्य

(रमा के रहने का बँगला। नौ बजने वाले हैं। कमरे में रमानाथ सोया पड़ा है। पर जैसे परदा उठता है वह काँप कर उठता है। आँखें मल कर चारों ओर देखता है)

रमानाथ– (स्वगत) ओह। कैसा भयंकर स्वप्न था! उस दिनेश को फाँसी हो रही थी। सहसा एक स्त्री तलवार लिये हुए फाँसी की ओर दौड़ी। फाँसी की रस्सी काट दी– वह औरत… वह जालपा थी, कोई उसके पास जाने का साहस न कर सका। रस्सी काट कर वह तलवार लिये मुझ पर झपटी… ओह, कल शाम उसका रूप ठीक ऐसा ही था…

(तभी डिप्टी, इन्स्पेक्टर और दारोगा का प्रवेश)

दारोगा—अहा, आज तो खूब सोये बाबू साहब!

डिप्टी– (एक लिफाफा देते हुए) लीजिए, यह डी.डी.ओ. कमिश्नर साहब ने आपको दिया है। यू.पी. के होम सेक्रेटरी के नाम है। आप ज्यों ही यह डी.ओ. दिखायेंगे वह आपको कोई बहुत अच्छी जगह दे देगा।

इन्स्पेक्टर– हलफ से कहता हूँ, कमिश्नर साहब आपसे खुश हैं।

(रमानाथ लिफाफा खोलता है और चिट्ठी को फाड़ कर पुरजे– पुरजे कर देता है। तीनों चौंकते हैं।)

दारोगा—यह क्या किया? क्या रात बहुत पी गया थे?

इन्स्पेक्टर– हलफ से कहता हूँ, कमिश्नर को मालूम हो जायगा तो बहुत नाराज होंगे।

डिप्टी–  इसका मतलब क्या है?

रमानाथ–  मतलब साफ है? मैं नौकरी नहीं चाहता। मैं आज ही यहाँ से चला जाऊँगा।

डिप्टी– जब तक हाईकोर्ट का फैसला न हो जाय, तब तक आप कहीं नहीं जा सकते।

रमानाथ– क्यों?

डिप्टी–  कमिश्नर साहब का हुक्म है?

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