नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
जालपा– हटो– हटो, कैसे देखते हो! पान खाओगे?
रमा– खिलाओ तो!
जालपा– अभी लायी। (शीघ्रता से कमरे में जाती है।)
रमा– पान…(हँसता है) वह तो बहाना है। आइने में छवि देखने गयी है। (हँसता है) है भी देखने लायक। पिछने जन्म में मैंने जरूर बड़े पुण्य किये थे जो इतनी सुंदर पत्नी मिली। (साँस खींच कर) पर…..पर मैं इसी से कपट व्यवहार कर रहा हूँ…..कपट नहीं……नहीं (क्षणिक सन्नाटा) मैं कितना कायर हूँ? क्या मैं बाबू जी को साफ– साफ जवाब न दे सकता था? मैंने हामी क्यों भरी? क्या जालपा से घर की दशा साफ– साफ कह देना मेरा कर्तव्य न था?
(आँख भर आती है, पर तभी जालपा आती है, वह सँभल जाता है।)
जालपा– (आ कर) लीजिए (पान देती है)।
रमा– लाओ। (मुस्कराता है, दोनों एक दूसरे को देखते हैं।)
जालपा– आज तुम बाजार की तरफ़ गये थे या नहीं?
रमानाथ– (सर झुका कर) आज तो फुरसत नहीं मिली।
जालपा– (रूठ कर) जाओ, मैं तुमसे न बोलूँगी। रोज हीले– हवाले करते हो।
रमानाथ– नहीं– नहीं, कल जरूर जाऊँगा।
जालपा– जा लिये!
रमानाथ– मानो तो, इधर देखो।
जालपा– (हँस कर) हटो भी….अच्छा कल ला दोगे न?
रमानाथ– जरूर। अब सोओ, मुझे भी नींद आ रही है।
जालपा– अच्छा।
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