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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक) चन्द्रहार (नाटक)प्रेमचन्द
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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है
रमानाथ– (दीनता से) एक बार मैं उससे मिल लेता, तो मेरे दिल का बोझ उतर जाता।
जोहरा– (चिन्तित) यह तो मुश्किल है, प्यारे। तुम्हें यहाँ से कौन जाने देगा?
(बाहर से दारोगा जी पुकारते हैं।)
दारोगा—मुझे भी खिलवत में आने की इजाजत है? (अन्दर आ जाते हैं।) यहाँ आज सन्नाटा कैसा। क्या आज खजाना खाली है? जोहरा आज अपने दस्ते हिनाई से एक जाम भर दो।
रमानाथ– (क्रोध) इस वक्त तो रहने दीजिए, दरोगा जी। आप तो पिये हुये नजर आते हैं।
दारोगा—(जोहरा का हाथ पकड़ कर) बस, एक जाम जोहरा। एक बात और…
रमानाथ– (तेवर बदल कर) दरोगा जी, आप इस वक्त यहाँ से जायँ। मैं यह गवारा नहीं कर सकता।
दारोगा—(नशे में) क्या अपना पट्टा लिखा लिया है?
रमानाथ– (कड़क कर) जी हाँ, मैंने पट्टा लिखा लिया है?
दारोगा—तो आपका पट्टा खारिज!
रमानाथ– मैं कहता हूँ, यहाँ से चले जाइए!
दारोगा—अच्छा। अब तो मेढ़कों को भी जुकाम पैदा हुआ है। क्यों न हो! चलो जोहरा, इन्हें बकने दो।
(दारोगा आगे बढ़ कर जोहरा का हाथ पकड़ना चाहता है। रमानाथ शीघ्रता से उसके हाथ को झटका देता है)
रमानाथ– मैं कह चुका, आप यहाँ से चले जायँ। जोहरा इस वक्त नहीं जा सकती। अगर वह गयी, तो मैं उसका और आपका दोनों का खून पी जाऊँगा। जोहरा मेरी है, और जब तक मैं हूँ कोई उसकी तरफ आँखें नहीं उठा सकता।
(यह कहते– कहते वह दारोगा साहब को धक्के देता हुआ बाहर निकाल देता है। जोहरा मुस्कराती है।)
जोहरा– तुमने बहुत अच्छा किया, सुअर को निकाल दिया। मुझे ले जा कर दिक करता।
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