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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक)

चन्द्रहार (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8394
आईएसबीएन :978-1-61301-149

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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है

दूसरा दृश्य

(बँगले का वही कमरा। संध्या बीत गयी है। रमानाथ किसी विचार में डूबा हुआ घूम रहा है। कभी मुस्करा पड़ता है, कभी गंभीर पड़ेगा, तो कभी लापरवाही के चिह्म दिखाई पड़ने लगते हैं। वैसे भी उसके मुख पर एक तरह का विराग है। सहसा वह फुसफुसा उठता है)

रमानाथ– (स्वगत) एक हफ्ता हो गया जोहरा के दर्शन नहीं हुए। आखिर वह भी बेवफा निकली। कहीं पुलिसवालों ने उसे आने की मनाही तो नहीं कर दी। पर कम– से– कम मुझे एक पत्र तो लिख ही सकती थी। मुझे कितना धोखा हुआ है। व्यर्थ ही उससे दिल की बात कही… लेकिन नहीं, जोहरा बेवफाई नहीं कर सकती। शुरू– शुरू में जरूर उसने लुभाने की चेष्टा की लेकिन फिर तो उसके व्यवहार में परिवर्तन होने लगा। वह बार– बार सजल नेत्र होकर कहती थी, देखो बाबू जी, मुझे भूल न जाना।

(जोहरा का प्रवेश। वह केवल एक सफेद साड़ी पहने हैं। शरीर पर एक आभूषण नहीं है। ओंठ मुरझा रहे हैं, पर चेहरे पर क्रीड़ामय चंचलता की जगह तेजमय गंभीरता झलकती है। रमा उसे देख कर एक बार तो चौंकता है। फिर सहसा मुँह फिरा लेता है। जोहरा एक मिनट खड़ी रहती है।, फिर रमा के सामने जा कर बोलती है– )

जोहरा– क्या मुझसे नाराज हो? बेकसूर, बिना कुछ पूछे– वूछे?

(रमा तब भी नहीं बोलता। जोहरा उसका हाथ पकड़ लेती है।)

जोहरा– क्या यह खफगी इसलिए है, कि मैं इतने दिनों आयी क्यों नहीं?

रमानाथ– (रुखाई) अगर तुम अब भी न आतीं, तो मेरा क्या अख्तियार था। तुम्हारी दया थी कि चली आयीं?

जोहरा– (मुस्करा कर) यह अच्छी दिल्लगी है। आपने ही तो एक काम सौंपा और वह काम इतना आसान समझा था कि चुटकी बजाने में पूरा हो जायगा? (रमा सहसा लज्जित हो कर उसको देखता है।) तुमने मुझे उस देवी वरदान लेने भेजा था जो ऊपर से फूल हैं, पर भीतर से पत्थर है, जो इतनी नाजुक हो कर भी इतनी मजबूत है।

रमानाथ–  (एकदम) तुम उससे मिल आयीं?

जोहरा– हाँ।

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