लोगों की राय

नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक)

चन्द्रहार (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8394
आईएसबीएन :978-1-61301-149

Like this Hindi book 11 पाठकों को प्रिय

336 पाठक हैं

‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है


राधा– (हँसी को रोकती है) इनसे न बने तो तुम्हें बुला लें, क्यों? अब उठोगी की सारी रात उपदेश ही करती रहोगी?

शाहजादी– चलती हूँ, ऐसी क्या भगदड़ पड़ी है। हाँ, खूब याद आयी। क्यों जल्ली तेरी अम्मा जी के पास बड़ा अच्छा चन्द्रहार है? तुझे न देंगी?

जालपा– (लम्बी साँस) क्या कहूँ बहन; मुझे तो आशा नहीं है।

शाहजादी– एक बार कह कर देखो तो, अब उनके कौन पहनने– ओढ़ने के दिन बैठे हैं?

जालपा–  मुझसे तो न कहा जायेगा।

शाहजादी– मैं कह दूँगी।

जालपा– नहीं, नहीं, तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ। मैं जरा उनके मातृस्नेह की परीक्षा लेना चाहती हूँ।

वासंती– (शाहजादी–  का हाथ पकड़ कर) अब उठेगी भी कि यहाँ सारी रात उपदेश ही देती रहेगी।

शाहजादी– (उठती– उठती) अरी चलती हूँ।

जालपा– (रास्ता रोक कर) नहीं, अभी बैठो बहन, तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ।

शाहजादी– ये दोनों चुड़ैल बैठने भी दें। मैं तो तुम्हें गुण सिखाती हूँ और ये मुझ पर झल्लाती हैं। कि मैं विष की गांठ हूँ

वासंती– विष की गाँठ तो तू है ही।

शाहजादी– तुम भी तो ससुराल से साल भर बाद आयी हो, कौन कौन– सी नयी चीजें बनवा लायीं।

वासंती– और तुमने तीन साल में क्या बनवा लिया है?

शाहजादी– मेरी बात छोड़ो, मेरा खसम तो मेरी बात ही नहीं पूछता।

राधा– प्रेम के सामने गहनों का कोई मूल्य नहीं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book