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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक)

चन्द्रहार (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8394
आईएसबीएन :978-1-61301-149

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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है


दारोगा—वही डकैतियों वाला मुआमला है, जिसमें कई गरीब आदमियों की जान गयी थी।

देवीदीन—(उपेक्षा से) अच्छा तो मुखबिर बन गये? यह बात है। इसमें तो जो पुलिस सिखायेगी वही तुम्हें कहना पड़ेगा, भैया। मुझसे मुखबिर बनने को कहा जाता तो मैं न बनता, चाहे कोई लाख रुपया देता। बाहर के आदमियों को क्या मालूम कि कौन अपराधी है, कौन बेकसूर है। दो– चार अपराधियों के साथ दो– चार बेकसूर भी जरूर ही होंगे।

दारोगा—हर्गिज नहीं। जितने आदमी पकड़े गये हैं, सब पक्के डाकू हैं।

देवीदीन—यह तो आप कहते हैं न, हमें क्या मालूम?

दारोगा—हम लोग बेगुनाहों को फँसायेंगे ही क्यों यह तो सोचो।

देवीदीन—यह सब भुगते बैठा हूँ, दारोगा जी। इससे तो यही अच्छा है कि आप इनका चालान कर दें। साल– दो– साल जेहल ही तो होगी। एक अधरम के डंडे से बचने के लिए बेगुनाहों का खून तो सिर पर न चढ़ेगा।

रमानाथ—मैंने खूब सोच लिया है दादा। सब कागज देख लिये हैं। इसमें कोई बेगुनाह नहीं है।

देवीदीन—(उदास होकर) होगा भाई। जान भी तो प्यारी होती है। (एकदम गरदन झुका कर मुड़ता है। पर फिर कुछ सोच कर कहता है। तुम्हें कुछ रुपये देता जाऊँ?

रमानाथ—(खिसिया कर) क्या जरूरत है?

दारोगा—आज से इन्हें यहीं रहना पड़ेगा।

देवीदीन—(कर्कश स्वर) जानता हूँ हुजूर। इनकी दावत होगी, बँगला रहने को मिलेगा, नौकर मिलेंगे, मोटर मिलेगी पर कोई बाहर का आदमी इनसे मिलने न पावेगा, न यह अकेले कहीं जा सकेंगे। यह सब देख चुका हूँ।

(तेजी से जाता है।)

दारोगा—अरे सुनो तो चौधरी!

(वह नहीं सुनता। बुढ़िया भी तेजी से पीछे चलती है।)

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