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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक)

चन्द्रहार (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8394
आईएसबीएन :978-1-61301-149

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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है

दूसरा दृश्य

(वही कमरा। जालपा तेजी से कमरे से बाहर आती है। जैसे बदन में बिजली की लहरें दौड़ रही हैं। बाहर से देवीदीन आता है। वह भी उतावला है।)

देवीदीन—बहू! भैया आ गये! अभी मोटर गयी है।

जालपा—(सँभल कर) हाँ मालूम हो गया।

देवीदीन—तुमने देखा?

जालपा—(सिर झुका कर) देखा क्यों नहीं? खिड़की पर जरा खड़ी थी।

देवीदीन—उन्होंने भी तुम्हें देखा होगा?

जालपा—खिड़की की ओर ताकते तो थे। देवीदीन—बहुत चकराये होंगे कि यह कौन है?

जालपा—तुमसे कुछ कहा?

देवीदीन—और क्या कहते, खाली राम– राम की! मैंने कुशल पूछी। हाथ से दिलासा देते चले गये।

जालपा—कुछ मालूम हुआ, मुकदमा कब पेश होगा?

देवीदीन—कल ही तो।

जालपा—कल ही? इतनी जल्द? तब तो जो कुछ करना है, आज ही करना होगा। किसी तरह मेरा खत उन्हें मिल जाता, तो काम बन जाता।

(देवीदीन कुछ जवाब नहीं देता)

जालपा—(उसे देख कर सप्रश्न) क्या तुम्हें संदेह है कि वह अपना बयान बदलने पर राजी न होंगे?

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