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नाटक-एकाँकी >> चन्द्रहार (नाटक)

चन्द्रहार (नाटक)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :222
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8394
आईएसबीएन :978-1-61301-149

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‘चन्द्रहार’ हिन्दी के अमर कथाकार प्रेमचन्द के सुप्रसिद्ध उपन्यास ‘ग़बन’ का ‘नाट्य–रूपांतर’ है

तीसरा दृश्य

(एक सजे हुए बँगले का बाहरी प्रकोष्ठ। आगे लान है और फिर तारों की बाढ़। द्वार बन्द हैं। रात का समय है। बिजली का धीमा प्रकाश चारों तरफ फैलता है। सहन में एक मूर्ति टहल रही है। ठाठ से कोट– पतलून पहने है। वह शराब में मस्त है, पर बेहोश नहीं। देखने में आँखें चढ़ी हैं पर वह कुछ सोच रहा है और झुँझला रहा है। वह रमानाथ है।)

रमानाथ—(स्वगत) हाँ, वह जालपा थी। बेशक जालपा थी। मेरी आँखें धोखा नहीं खा सकतीं। पर मेरा पता– ठिकाना उसे कहाँ से मालूम हुआ? कहीं बुड्ढे ने उसे खत तो नहीं लिख दिया? (फिर तेजी से टहलता है) क्या करूँ? जालपा से कैसे मिलूँ….कैसे जाऊँ?(देख कर) फाटक पर चौकीदार खड़ा है। जी में आता है गोली मार दूँ। अगर मुझे अच्छी जगह मिल गयी तो एक– एक को समझूँगा। इसे तो डिसमिस करा के छोड़ूँगा। कैसा शैतान की तरह सिर पर सवार रहता है…(एकदम) जालपा भी मेरे साथ रहे तो क्या हरज है। बाहर वालों से मिलने की रोक– टोक है। जालपा के लिए क्या रुकावट हो सकती है। कल इसे तय करूँगा….देवीदीन भी विचित्र जीव है, पहले तो कई बार आया, पर आज उसने भी सन्नाटा खींच लिया। कम– से– कम इतना तो हो सकता था कि आकर पहरे वाले कांस्टेबल से जालपा के आने की खबर मुझे देता (सहसा वह चौंक पड़ता है।) वह…वह कौन है…वह मुझे ताक रहा है। (गौर से) अरे वह तो स्त्री है। वह मेरी ओर बढ़ रही है।(वह काँपता है पीछे हटता है) कोई मुझे मारने वाला तो नहीं है अरे उसने कुछ फेंका….ओह….(चीख निकल जाती है पर देखता है) यह यह…यह तो लिफाफा है (वह एकदम से उठा लेता है। चौंकता है। छाया को देखता है, फिर लिफाफा खोल कर लैम्प– पोस्ट के प्रकाश में पत्र पढ़ता है। कांपता है पर शीघ्र ही उसका मुख प्रसन्नता से भर उठता है। गर्व से सिर उठाता है। आँखें चमक उठती हैं।) जालपा! जालपा आ गयी। उसी का पत्र है। प्रयाग में मुझ पर कोई मुकदमा नहीं है। रुपया उसने भर दिया था। (वह क्षण भर खड़ा रहता है फिर आगे बढ़ता है) मैं अभी दारोगा के पास जाता हूँ; कह दूंगा, मुझे इस मुकदमें से कोई सरोकार नहीं है। लेकिन (ठिठकता है) लेकिन बयान तो हो चुका; अपयश मिल चुका। अब उसके फल से क्यों हाथ धोऊँ? मगर इन्होंने मुझे कैसा चकमा दिया। अभी इन्हें मुझ पर विश्वास नहीं। अभी बयान पलट दूँ तो आटे– दाल का भाव मालूम हो जाय! यही न होगा कि मुझे कोई जगह न मिलेगी, बला से। इतनी बडी बदनामी तो बच जाऊँगा। ( फिर ठिठकता है) मगर नहीं। इन्होंने मुझसे चाल चली है तो मैं भी इनसे वही चाल चलूँगा। कह दूँगा, अगर मुझे आज कोई अच्छी जगह मिल जायगी तो मैं शहादत दूँगा…लूँगा इन्सपेक्टरी; और कल दस बजे मेरे पास नियुक्ति का परवाना आ जाना चाहिए।…लेकिन एक बार जालपा से मिल जाता। शायद वह बगीचे में हो। देखूँ…तार है। तो क्या फाँद जाऊँगा…(वह तेजी से आगे बढ़ता है। तारों के पास आ कर ठिठकता है, पर कपड़े समेट कर उनके बीच से निकल जाता है, फँस जाता है पर वह चिन्ता न करके गरदन आगे बढ़ाता है। कपड़े फट जाते हैं पर वह उन्हें सँभालकर दबे पाँव आगे बढ़ता है। जालपा का नाम पुकारता है।) जालपा… जालपा (कोई उत्तर नहीं। वह इधर– उधर देखता है।)

जालपा चली गयी। तो मैं देवीदीन के घर जाऊँगा! मैं उससे मिलूँगा अभी।

(और वह तेजी से बाहर निकल जाता है। परदा गिरता है।)

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