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उपन्यास >> चंद्रकान्ता

चंद्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

सोलहवां बयान

एक दिन तेजसिंह बालादवी के लिए विजयगढ़ के बाहर निकले। पहर दिन बाकी था जब घूमते-फिरते बहुत दूर निकल गये। देखा कि एक पेड़ के नीचे कुंवर वीरेन्द्रसिंह बैठे हैं। उनकी सवारी का घोड़ा पेड़ से बंधा हुआ है, सामने एक बारहसिंघा मरा पड़ा है, उसके एक तरफ आग सुलग रही है, और पास जाने पर देखा कि कुमार के सामने पत्तों पर कुछ टुकड़े गोश्त के भी पड़े हैं।

तेजसिंह को देखकर कुमार ने ज़ोर से कहा, ‘‘आओ भाई तेजसिंह, तुम तो विजयगढ़ ऐसा गये कि फिर खबर भी न ली, क्या हमको एक दम ही भूल गये?’’

तेजसिंह: (हँसकर) विजयगढ़ में मैं आप ही का काम कर रहा हूँ कि अपने बाप का?

वीरेन्द्रसिंहः अपने बाप का।

यह कहकर हंस पड़े। तेजसिंह ने इस बात का कुछ भी जवाब न दिया और हंसते हुए पास जा बैठे। कुमार ने पूछा, ‘‘कहो चन्द्रकान्ता से मुलाकात हुई थी?’’

तेजसिंह ने जवाब दिया, ‘‘इधर जब से मैं गया हूँ इसी बीच में एक ऐयार को पकड़ा था। महाराज ने उसको क़ैद करने का हुक्म दिया मगर क़ैदखाने तक पहुँचने न पाया था कि रास्ते ही में मेरी सूरत बना उसके साथी ऐयारों ने उसे छुड़ा लिया, फिर अभी तक कोई गिरफ्तार न हुआ।’’

कुमारः वे लोग भी बड़े शैतान हैं!

तेजसिंह: और तो जो हैं, बद्रीनाथ भी चुनार से इन लोगों के साथ आया है, वह बड़ा भारी चालाक है। मुझको अगर खौफ़ रहता है तो उसी का! खैर, देखा जायेगा, क्या हर्ज है। यह तो बताइए, आप यहाँ क्या कर रहे हैं? कोई आदमी भी साथ नहीं है।

कुमारः आज मैं कई आदमियों को ले सवेरे ही शिकार खेलने के लिए निकला, दोपहर तक तो हैरान रहा, कुछ हाथ न लगा, आखिर को यह बारहसिंघा सामने से निकला और मैंने उसके पीछे घोड़ा फेंका। इसने मुझको बहुत हैरान किया, संग के सब साथी छूट गये, अब इस समय तीर खाकर गिरा है। मुझको भूख बड़ी ज़ोर की लगी थी इससे जी में आया कि कुछ गोश्त भून के खाऊं! इसी फिक्र में बैठा था कि सामने से तुम दिखाई पड़े, अब लो तुम ही इसको भूनो। मेरे पास कुछ मसाला था उसको मैंने धो-धाकर इन टुकड़ों में लगा दिया है, अब तैयार करो, तुम भी खाओ मैं भी खाऊं, मगर जल्दी करो, आज दिन भर से कुछ नहीं खाया।

तेजसिंह ने बहुत जल्द गोश्त तैयार किया और एक सोते के किनारे जहाँ साफ पानी निकल रहा था बैठकर दोनों खाने लगे। वीरेन्द्रसिंह मसाला पोंछ-पोछकर खाते थे, तेजसिंह ने पूछा, ‘‘आप मसाला क्यों पोंछ रहे हैं?’’ कुमार ने जवाब दिया, ‘‘फीका अच्छा मालूम होता है।’’ दो-तीन टुकड़े खाकर वीरेन्द्रसिंह ने सोते में से चुल्लू-भर के खूब पानी पिया और कहा, ‘‘बस भाई, मेरी तबीयत भर गई, दिन भर भूखे रहने पर कुछ खाया नहीं जाता।’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘आप खाइए चाहे न खाइये मैं तो छोड़ता नहीं, बड़े मजे का बन पड़ा है। आखिर जहाँ तक बन पड़ा खूब खाया और तब हाथ-मुँह धोकर बोले, ’’चलिए, अब आपको नौगढ़ पहुंचा कर फिर फिरेंगे।’’ वीरेन्द्रसिंह ‘‘चलो’’ कहकर घोड़े पर सवार हुए और तेजसिंह पैदल साथ चले।

थोड़ी दूर जाकर तेजसिंह बोले, ‘‘न मालूम क्यों मेरा सिर घूमता है।’’ कुमार ने कहा, ‘‘तुम मांस ज़्यादा खा गये हो, उसने गर्मी की है।’’ थोड़ी दूर गये थे कि तेजसिंह चक्कर खाकर ज़मीन पर गिर पड़े। वीरेन्द्रसिंह ने झट घोड़े पर से कूदकर उनके हाथ-पैर खूब कसके गठरी में बांध पीठ पर लाद लिया और घोड़े की बाग थाम विजयगढ़ का रास्ता लिया। थोड़ी दूर जाकर ज़ोर से जफील (सीटी) बजाई जिसकी आवाज जंगल में दूर-दूर तक गूंज गई। थोड़ी देर में क्रूरसिंह, पन्नालाल, रामनारायण और ज्योतिषीजी आ पहुँचे। पन्नालाल ने खुश होकर कहा, ‘‘वाह जी बद्रीनाथ, तुमने तो बड़ा भारी काम किया। बड़े जबर्दस्त को फांसा! अब क्या है, ले लिया!!’’ क्रूरसिंह मारे खुशी के उछल पड़ा। बद्रनीथ ने, जो अभी तक कुंवर वीरेन्द्रसिंह बना हुआ था गठरी पीठ से उतार कर ज़मीन पर रख दी और रामनारायण से कहा, ‘‘तुम इस घोड़े को नौगढ़ पहुंचा दो, जिस अस्तबल से चुरा लाये थे उसी के पास छोड़ आओ, आप ही लोग बांध लेंगे।’’ यह सुनकर रामनारायण घोड़े पर सवार हो नौगढ़ चला गया। बद्रीनाथ ने तेजसिंह की गठरी अपनी पीठ पर लादी और ऐयारों को कुछ समझा-बुझाकर चुनार का रास्ता लिया।

तेजसिंह को मामूल था कि रोज महाराज जयसिंह के दरबार में जाते और सलाम करके कुर्सी पर बैठ जाते। दो-एक दिन महाराज ने तेजसिंह की कुर्सी खाली देखी, हरदयालसिंह से पूछा कि ‘आजकल तेजसिंह नज़र नहीं आते, क्या तुमसे मुलाकात हुई थी? दीवान साहब ने अर्ज़ किया, ‘‘नहीं, मुझसे भी मुलाकात नहीं हुई, आज दरियाफ्त करके अर्ज़ करूंगा।’’ दरबार बर्खास्त होने के बाद दीवान साहब तेजसिंह के डेरे पर गये, मुलाकात न होने पर नौकरों से दरियाफ्त किया। सभी ने कहा, ‘‘कई दिन से वे यहाँ नहीं है, हम लोगों ने बहुत खोज की मगर पता न लगा।’’

दीवान हरदयालसिंह यह सुनकर हैरान रह गये। अपने मकान पर जाकर सोचने लगे कि अब क्या किया जाये? अगर तेजसिंह का पता न लगेगा तो बड़ी बदनामी होगी, जहाँ से हो, खोज लगाना चाहिए। आखिर बहुत से आदमियों को इधर-उधर पता लगाने के लिए रवाना किया और अपनी तरफ से एक चिट्ठी नौगढ़ के दीवान जीतसिंह के पास भेजकर ले जाने वाले को ताकीद कर दी कि कल दरबार से पहले इसका जवाब लेकर आना। वह आदमी खत लिये शाम को नौगढ़ को पहुंचा और दीवान जीतसिंह के मकान पर जाकर अपने आने की इत्तिला करवाई। दीवान साहब ने अपने सामने बुलाकर हाल पूछा, उसने सलाम करके खत दिया। दीवान साहब ने गौर से खत को पढ़ा, दिल में यकीन हो गया कि तेजसिंह जरूर ऐयारों के हाथ पकड़ा गया। यह जवाब लिखकर कि वह यहाँ नहीं है’ आदमी को विदा कर दिया और अपने कई जासूसों को बुलाकर पता लगाने के लिए इधर-उधर रवाना किया। दूसरे दिन दरबार में दीवान जीतसिंह ने राजा सुरेन्द्रसिंह से अर्ज किया, ‘‘महाराज, कल विजयगढ़ से दीवान हरदयालसिंह का पत्र लेकर एक आदमी आया था, यह दरियाफ्त किया था, कि तेजसिंह नौगढ़ में है कि नहीं, क्योंकि कई दिनों से वह विजयगढ़ में नहीं है! मैंने जवाब में लिख दिया है कि ‘यहाँ नहीं हैं’।

राजा को यह सुनकर ताज्जुब हुआ और दीवान से पूछा, ‘‘तेजसिंह वहाँ भी नहीं हैं और यहाँ भी नहीं तो कहाँ चला गया? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि ऐयारों के हाथ पड़ गया हो, क्योंकि महाराज शिवदत्त के कई ऐयार विजयगढ़ में पहुँचे हुए हैं और उनसे मुलाकात करने के लिए अकेला तेजसिंह गया था!’’ दीवान साहब ने कहा, ‘‘ जहाँ तक मैं समझता हूँ, वह ऐयारों के हाथ में गिरफ्तार हो गया होगा, खैर, जो कुछ होगा दो-चार दिन में मालूम हो जायेगा।’’

कुंवर वीरेन्द्रसिंह भी दरबार में राजा के दाहिने तरफ कुर्सी पर बैठे यह बात सुन रहे थे। उन्होंने अर्ज़ किया, ‘‘अगर हुक्म हो तो मैं तेजसिंह का पता लगाने जाऊं?’’ दीवान जीतसिंह ने यह सुनकर कुमार की तरफ देखा और हंसकर जवाब दिया, ‘‘आपकी हिम्मत और जवांमर्दी में कोई शक नहीं, मगर इस बात को सोचना चाहिए कि तेजसिंह के वास्ते, जिसका काम ऐयारी ही है और ऐयारों के हाथ फंस गया है, आप हैरान हो जाएं इसकी क्या जरूरत है? यह तो आप जानते ही हैं कि अगर किसी ऐयार को कोई ऐयार पकड़ता है तो सिवाय क़ैद रखने के जान से नहीं मारता, अगर तेजसिंह उन लोगों के हाथ में पड़ गया है तो क़ैद होगा, किसी तरह छूट ही जायेगा क्योंकि वह अपने फन में बड़ा होशियार है, सिवाय इसके जो ऐयारी का काम करेगा चाहे वह कितना ही चालाक क्यों न हो, कभी-न-कभी फंस ही जायेगा, फिर इसके लिए सोचना क्या? दस-पाँच दिन सब्र कीजिए, देखिए क्या होता है? इस बीच में, अगर वह न आया तो आपको जो कुछ करना हो कीजिएगा।’’

वीरेन्द्रसिंह ने जवाब दिया, ‘‘हाँ, आपका कहना ठीक है मगर पता लगाना जरूरी है, यह सोचकर कि वह चालाक है, खुद छूट जायेगा-खोज न करना मुनासिब नहीं।’’

जीतसिंह ने कहा, ‘‘सच है, आपको मुहब्बत के सबब से उसका ज़्यादा खयाल है, खैर, देखा जायगा।’’ यह सुन राजा सुरेन्द्रसिंह ने कहा, ‘‘और कुछ नहीं तो किसी को पता लगाने के लिए भेज दो।’’ इसके जवाब में दीवान साहब ने कहा, ‘‘कई जासूसों का पता लगाने के लिए भेज चुका हूँ।’’ राजा और कुंवर वीरेन्द्रसिंह चुप रहे मगर खयाल इस बात का किसी के दिल से न गया।

विजयगढ़ में दूसरे दिन दरबार में जयसिंह ने फिर हरदयालसिंह से पूछा, ‘‘कहीं तेजसिंह का पता लगा?’’ दीवान साहब ने कहा, ‘‘यहां तो तेजसिंह का पता नहीं लगता, शायद नौगढ़ में हों। मैंने वहाँ भी आदमी भेजा है, अब आता ही होगा, जो कुछ है मालूम हो जायेगा।’’ ये बातें हो रही थीं कि खत का जवाब लिये वह आदमी आ पहुंचा जो नौगढ़ गया था। हरदयालसिंह ने जवाब पढ़ा और बड़े अफसोस के साथ महाराज से अर्ज़ किया कि ‘‘नौगढ़ में भी तेजसिंह नहीं हैं, यह उनके बाप जीतसिंह के हाथ का खत मेरे खत के जवाब में आया है’। महाराज ने कहा, ‘‘उसका पता लगाने के लिए कुछ फिक्र की गयी है या नहीं?’’ हरदयालसिंह ने कहा, ‘‘हाँ, कई जासूस मैंने इधर-उधर भेजे हैं।’’

महाराज को तेजसिंह का बहुत अफसोस रहा, दरबार बर्खास्त करके महल में चले गये। बात-की-बात में महाराज ने तेजसिंह का जिक्र महारानी से किया और कहा, ‘‘किस्मत का फेर इसे ही कहते हैं। क्रूरसिंह ने तो हलचल मचा ही रक्खी थी, मदद के वास्ते एक तेजसिंह आया था सो कई दिन से उसका भी पता नहीं लगता, अब मुझे उसके लिए सुरेन्द्रसिंह से शर्मिन्दगी उठानी पड़ेगी। तेजसिंह का चाल-चलन, बात-चीत, इल्म और चालाकी पर जब खयाल करता हूँ, तबीयत उमड़ आती है। बड़ा लायक लड़का है। उसके चेहरे पर उदासी तो कभी देखी ही नहीं।’’ महारानी ने भी तेजसिंह के हाल पर बहुत अफसोस किया। इत्तिफाक से चपला उस वक्त वहीं खड़ी थी, यह हाल सुन वहाँ से चली और चन्द्रकान्ता के पास पहुंची। तेजसिंह का हाल जब कहना चाहती थी, जी उमड़ आता है, कुछ कह न सकती थी। चन्द्रकान्ता ने उसकी दशा देख पूछा, ‘‘क्यों? क्या है? इस वक्त तेरी अजब हालत हो रही है, कुछ मुंह से तो कह!’’ इस बात का जवाब देने के लिए चपला ने मुंह खोला ही था कि गला भर आया, आंखों से आंसू टपक पड़े, कुछ जवाब न दे सकी। चन्द्रकान्ता को और भी ताज्जुब हुआ, पूछा, ‘‘तू रोती क्यों है, कुछ बोल भी तो।’’

आखिर चपला ने अपने को सम्हाला और बहुत मुश्किल से कहा, ‘‘महाराज की जुबानी सुना है कि तेजसिंह को महाराज शिवदत्त के ऐयारों ने गिरफ्तार कर लिया। अब वीरेन्द्रसिंह का आना भी मुश्किल होगा क्योंकि उनका वही एक बड़ा सहारा था।’’ इतना कहा था कि पूरे तौर पर आंसू भर आये और खूब खुलकर रोने लगी। इसकी हालत से चन्द्रकान्ता समझ गई कि चपला भी तेजसिंह को चाहती है, मगर सोचने लगी कि चलो अच्छा ही है इसमें भी हमारा ही भला है, मगर तेजसिंह के हाल और चपला की हालत पर बहुत अफसोस हुआ, फिर चपला से कहा, ‘‘उनको छुड़ाने की यही फिक्र हो रही है? क्या तेरे रोने से वे छूट जायेंगे? तुझसे कुछ नहीं हो सकता तो मैं ही कुछ करूं?’’ चम्पा भी वहाँ बैठी यह अफसोस भरी बातें सुन रही थी, बोली, ‘‘अगर हुक्म हो तो मैं तेजसिंह की खोज में जाऊं?’’ चपला ने कहा, ‘‘अभी तू इस लायक नहीं हुई है?’’ चम्पा बोली, ‘‘क्यों, अब मेरे में क्या कसर है? क्या मैं ऐयारी नहीं कर सकती?’’ चपला ने कहा, ‘‘हाँ, ऐयारी तो कर सकती है मगर उन लोगों का मुकाबला नहीं कर सकती जिन लोगों ने तेजसिंह जैसे चालाक ऐयार को पकड़ लिया है। हाँ, मुझको राजकुमारी हुक्म दें तो मैं खोज में जाऊं?’’ चन्द्रकान्ता ने कहा, ‘‘इसमें भी हुक्म की ज़रूरत है? तेरी मेहनत से अगर वे छूटेंगे तो जन्म भर उनको कहने लायक रहेगी। अब तू जाने में देर मत कर, जा।’’ चपला ने चम्पा से कहा, ‘‘देख, मैं जाती हूँ, पर ऐयार लोग बहुत से आये हुए हैं, ऐसा न हो कि मेरे जाने के बाद कुछ नया बखेड़ा मचे। खैर, और तो जो होगा देखा जायेगा, तू राजकुमारी से होशियार रहियो। अगर तुझसे कुछ भूल हुई या राजकुमारी पर किसी तरह की आफत आई तो मैं जन्म-भर तेरा मुंह न देखूंगी!’’ चम्पा ने कहा, ‘‘इस बात से आप खातिर जमा रखें, मैं बराबर होशियार रहा करूंगी।’’

चपला अपने ऐयारी के सामान से लैस हो और कुछ दक्षिणी ढंग के जेवर तथा कपड़े ले तेजसिंह की खोज में निकली।

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