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उपन्यास >> चंद्रकान्ता

चंद्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

पहला भाग

 

पहला बयान

शाम का वक्त है, कुछ-कुछ सूरज दिखाई दे रहा है, सुनसान मैदान में एक पहाड़ी के नीचे दो शख्स वीरेन्द्रसिंह और तेजसिंह एक पत्थर की चट्टान पर बैठकर आपस में बातें कर रहे हैं।

वीरेन्द्रसिंह की उम्र इक्कीस या बाईस वर्ष की होगी। यह नौगढ़ के राजा सुरेन्द्रसिंह का इकलौता लड़का है। तेजसिंह राजा सुरेन्द्रसिंह के दीवान जीतसिंह का प्यारा लड़का और कुंवर वीरेन्द्रसिंह का दिली दोस्त, बड़ा चालाक और फुर्तीला, कमर में सिर्फ खंजर बांधे, बगल में बटुआ लटकाये, हाथ में एक कमन्द लिए बड़ी तेजी के साथ चारों तरफ देखता और इनसे बातें करता जाता है। इन दोनों के सामने कसाकसाया चुस्त-दुरुस्त एक घोड़ा पेड़ से बंधा हुआ है।

कुअंर वीरेन्द्रसिंह कह रहे हैं, ‘‘भाई तेजसिंह, देखो मुहब्बत भी क्या बुरी बला है जिसने इस हद तक पहुँचा दिया। कई दफे तुम विजयगढ़ से राजकुमारी चन्द्रकान्ता की चिट्ठी मेरे पास लाये और मेरी चिट्ठी उन तक पहुँचायी, जिससे साफ मालूम होता है कि जितनी मुहब्बत मैं चन्द्रकान्ता से रखता हूँ उतनी ही चन्द्रकान्ता मुझसे रखती है, हालांकि हमारे राज्य और उसके राज्य के बीच सिर्फ पाँच कोस का फासला है इस पर भी हम लोगों के किये कुछ भी नहीं बन पड़ता। देखो इस खत में भी चन्द्रकान्ता ने यही लिखा है कि जिस तरह बने, जल्द मिल जाओ।’’

तेजसिंह ने जवाब दिया, ‘‘मैं हर तरह से आपको वहाँ ले जा सकता हूँ, मगर एक तो आजकल चन्द्रकान्ता के पिता महाराज जयसिंह ने महल के चारों तरफ सख्त पहरा बैठा रक्खा है, दूसरे उनके मन्त्री का लड़का क्रूरसिंह उस पर आशिक हो रहा है, ऊपर से उसने अपने दोनों ऐयारों* को जिनका नाम नाज़िम अली और अहमद खाँ है इस बात की ताकीद करा दी है कि बराबर वे लोग महल की निगहबानी किया करें क्योंकि आपकी मुहब्बत का हाल क्रूरसिंह और उसके ऐयारों को बखूबी मालूम हो गया है। चाहे चन्द्रकान्ता क्रूरसिंह से बहुत ही नफरत करती है और राजा भी अपनी लड़की अपने मन्त्री के लड़के को नहीं दे सकता फिर भी उसे उम्मीद बंधी हुई है और आपकी लगावट बहुत बुरी मालूम होती है। अपने बाप के जरिये उसने महाराज जयसिंह के कानों तक आपकी लगावट का हाल पहुँचा दिया है और इसी सबब से पहरे की सख्त ताकीद हो गयी है। आप को ले चलना अभी मुझे पसन्द नहीं जब तक की मैं वहाँ जाकर फसादियों को गिरफ्तार न कर लूँ।’’ (*ऐयार उसको कहते हैं जो हर एक फन जानता हो, शक्ल बदलना और दौड़ना उसका मुख्य काम है।)

‘‘ इस वक्त मैं फिर विजयगढ़ जाकर चन्द्रकान्ता और चपला से मुलाकात करता हूँ क्योंकि चपला ऐयारा और चन्द्रकान्ता की प्यारी सखी है और चन्द्रकान्ता को जान से ज्यादा मानती है। सिवाय इस चपला के मेरा साथ देने वाला वहाँ कोई नहीं है। जब मैं अपने दुश्मनों की चालाकी और कार्रवाई देखकर लौटूं तब आपके चलने के बारे में राय दूँ। कहीं ऐसा न हो कि बिना समझे-बूझे काम करके हम लोग वहाँ ही गिरफ्तार हो जायें।’’

वीरेन्द्र० : जो मुनासिब समझो करो, मुझको तो सिर्फ अपनी ताकत पर भरोसा है लेकिन तुमको अपनी ताकत और ऐयारी दोनों का।

तेजसिंह : मुझे यह भी पता लगा है कि हाल में ही क्रूरसिंह के दोनों ऐयार नाज़िम और अहमद यहाँ आकर पुनः हमारे महाराजा के दर्शन कर गये हैं। न मालूम किस चालाकी से आये थे। अफसोस, उस वक्त मैं यहाँ न था।

वीरेन्द्र : मुश्किल तो यह है कि तुम क्रूरसिंह के दोनों ऐयारों को फंसाना चाहते हो और वे लोग तुम्हारी गिरफ्तारी की फिक्र में हैं, परमेश्वर कुशल करे। खैर, अब तुम जाओ और जिस तरह बने, चन्द्रकान्ता से मेरी मुलाकात का बन्दोबस्त करो।

तेजसिंह फौरन उठ खड़े हुए और वीरेन्द्रसिंह को वहीं छोड़ पैदल विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए। वीरेन्द्रसिंह भी घोड़े को दरख्त से खोलकर उस पर सवार हुए और अपने किले की तरफ चले गये।

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