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उपन्यास >> चंद्रकान्ता

चंद्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

छठवां बयान

तेजसिंह चन्द्रकान्ता और चपला का पता लगाने के लिए कुंवर वीरेन्द्रसिंह से विदा हो फौज़ की छावनी से बाहर आये और सोचने लगे कि अब किधर जायें, कहां ढूंढ़ें? दुश्मन की फौज़ में देखने की तो कोई ज़रूरत नहीं क्योंकि वहां चन्द्रकान्ता को कभी नहीं रखा होगा, इससे चुनार ही चलना ठीक है। यह सोचकर चुनार की ही तरफ रवाना हुए और दूसरे दिन सवेरे वहां पहुंचे। सूरत बदलकर इधर-उधर घूमने लगे। जगह-जगह पर अटकते और अपना मतलब निकालने की फिक्र करते थे मगर कुछ फायदा न हुआ, कुमारी की खबर कुछ भी मालूम न हुई। रात को तेजसिंह सूरत बदल किले के अन्दर घुस गये और इधर-उधर ढूंढ़ने लगे। घूमते-घूमते मौका पाकर एक काले कपड़े से अपने बदन को ढांक कमन्द फेंक महल पर चढ़ गये। इस समय आधी रात जा चुकी होगी। छत पर तेजसिंह ने झांककर देखा तो सन्नाटा मालूम पड़ा, मगर रोशनी खूब हो रही थी। तेजसिंह नीचे उतरे और एक दालान में खड़े होकर देखने लगे। सामने एक बड़ा कमरा था जो कि बहुत खूबसूरती के साथ बेशकीमती असबाबों और तस्वीरों के साथ सजा हुआ था। रोशनी ज़्यादा थी। सिर्फ दो शमादान जल रहे थे, बीच में ऊंची मसनद पर एक औरत सो रही थी। चारों तरफ उसके कई औरतें भी फर्श पर पड़ी हुई थीं। तेजसिंह आगे बढ़े और एक-एक करके रोशनी बुझाने लगे, यहां तक कि उस कमरे में सिर्फ एक रोशनी रह गई और सब बुझ गई। अब तेजसिंह उस कमरे की तरफ बढ़े, दरवाज़े पर खड़े होकर देखा तो पास से वह सूरत बखूबी दिखाई देने लगी जिसको दूर से देखा था। तमाम बदन शबनमी से ढंका हुआ मगर खूबसूरत चेहरा खुला था, करवट के सबब से कुछ हिस्सा मुंह का नीचे के मखमली तकिए पर होने से छिपा हुआ था। रंग गोरा, गालों पर सुर्खी जिस पर एक लट खुलकर आ पड़ी थी जो बहुत ही भली मालूम होती थी। आंख के पास शायद किसी जख्म का घाव था मगर यह भी भला मालूम होता था। तेजसिहं को यकीन हो गया कि बेशक महाराज शिवदत्त की रानी यही हैं। कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने अपने बटुए में से कलम-दवात और एक टुकड़ा काग़ज़ का निकाला और जल्दी से उस पर यह लिखा–‘‘न मालूम क्यों इस वक़्त मेरा जी चन्द्रकान्ता से मिलने को चाहता है। जो हो, मैं तो उससे मिलने जाती हूं। रास्ता और ठिकाने का पता मुझे लग चुका है।’’

बाद इसके पलंग के पास जा बेहोशी का बूरा रानी की नाक के पास ले गये जो सांस लेती दफे उसके दिमाग पर चढ़ गया और वह एकदम से बेहोश हो गईं। तेजसिंह ने नाक पर हाथ रखकर देखा, बेहोशी की सांस चल रही थी, झट रानी को कपड़े में बांधा और पुर्जा जो लिखा था वह तकिये के नीचे रखकर वहां से उसी कमन्द के जरिए बाहर हुए और गंगा के किनारे वाली खिड़की, जो भीतर से बन्द थी, खोल तेजी के साथ पहाड़ी की तरफ निकल गये। बहुत दूर जा एक दर्रे में रानी को और ज़्यादा बेहोश करके रख दिया और फिर लौटकर किले के दरवाज़े पर आ एक तरफ छिपकर बैठ गये।

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