उपन्यास >> चंद्रकान्ता चंद्रकान्तादेवकीनन्दन खत्री
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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण
उन्नीसवां बयान
जब से कुमारी चन्द्रकान्ता विजयगढ़ से गायब हुईं और महाराज शिवदत्त से लड़ाई लगी तब से महाराज जयसिंह और महल की औरतें तो उदास थी हीं, उनके सिवाय कुल विजयगढ़ की रियाया भी उदास थी, शहर में गम छाया हुआ था।
जब तेजसिंह और ज्योतिषीजी को कुमारी की खोज में भेज कुंवर वीरेन्द्रसिंह लौटकर देवीसिंह के साथ विजयगढ़ आये तब सभी को यह आशा हुई कि राजकुमारी चन्द्रकान्ता भी आती होंगी, लेकिन जब कुमारी की जुबानी महाराज जयसिंह ने पूरा-पूरा हाल सुना तो तबीयत और परेशान हुई। महाराज शिवदत्त के गिरफ्तार होने का हाल सुनकर तो खुशी हुई मगर जब नाले में कुमारी का फिर गायब हो जाना सुना तो पूरी नाउम्मीद हो गई। दीवान हरदयालसिंह वगैरह ने बहुत समझाया और कहा कि कुमारी अगर पाताल में भी होंगी तो तेजसिंह खोज निकालेंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं, फिर महाराज के जी को भरोसा न हुआ। महल में महारानी की हालत तो और भी बुरी थी, खाना-पीना, बोलना बिल्कुल छूट गया था, सिवाय रोने और कुमारी को याद करने के दूसरा कोई काम न था।
कई दिन तक कुमार विजयगढ़ में रहे, बीच में एक बार नौगढ़ जाकर अपने माता-पिता से भी मिल आये मगर तबीयत उनकी बिल्कुल नहीं लगती थी, जिधर जाते थे उदासी ही दिखाई देती थी।
एक दिन रात को कुमार अपने कमरे में सोये हुए थे, दरवाज़ा बन्द था, रात आधी से ज़्यादा जा चुकी थी, चन्द्रकान्ता की जुदाई में पड़े-पड़े कुछ सोच रहे थे, नींद बिलकुल नहीं आ रही थी, दरवाज़े के बाहर किसी के बोलने की आहट मालूम पड़ी बल्कि किसी के मुंह से ‘कुमारी’ ऐसा सुनने में आया। झट पलंग पर उठ दरवाज़े के पास आये और किवाड़ के साथ कान लगा सुनने लगे, इतनी बातें सुनने में आईं–
‘‘मैं सच कहता हूं, तुम मानों चाहे न मानो। पहले मुझे ज़रूर यकीन था कि कुमारी पर कुंवर वीरेन्द्रसिंह का सच्चा प्यार है, मगर अब मालूम हो गया कि यह सिवाय विजयगढ़ का राज्य चाहने के कुमारी से मुहब्बत नहीं रखते, अगर सच्ची मुहब्बत होती तो ज़रूर खोज...’’
इतनी बात सुनी थी कि दरबानों को कुछ चोर की आहट मालूम पड़ी, बातें करना छोड़ पुकार उठे, ‘‘कौन है?’’ मगर कुछ न मालूम हुआ। बड़ी देर तक कुमार दरवाज़े के पास बैठे रहे परन्तु फिर सुनने में न आया, हां इतना मालूम हुआ कि दरबानों में बातचीत हो रही थी।
कुमार और भी घबरा उठे, सोचने लगे कि जब दरबानों और सिपाहियों को यह विश्वास है कि कुमार चन्द्रकान्ता के प्रेमी नहीं हैं तो ज़रूर महाराज का भी यही खयाल होगा, बल्कि महल में महारानी भी यही सोचती होंगी। अब विजयगढ़ में मेरा रहना ठीक नहीं, नौगढ़ जाने को भी जी नहीं चाहता क्योंकि वहां जाने से और भी लोगों के जी में बैठ जायेगा कि कुमारी की मुहब्बत नकली और झूठी थी। तब कहां जायें, क्या करें,? इन्हीं सब बातों को सोचते सवेरा हो गया।
और कुमार ने स्नान-पूजा और भोजन से जल्दी छुट्टी कर ली। पहर दिन चढ़ा होगा, अपनी सवारी का घोड़ा मगवाया और सवार हो किले के बाहर निकले। कई आदमी साथ हुए मगर कुमार के मना करने से रुक गये, लेकिन देवीसिंह ने साथ न छोड़ा, कुमार ने हज़ार मना किया पर एक न मानी, साथ चले ही गये। कुमार ने इस नीयत से घोड़ा तेज किया जिससे देवीसिंह पीछे छूट जायें और इनका भी साथ न रहे, मगर देवीसिंह ऐयारी में कुछ कम न थे, दौड़ने की आदत भी ज़्यादा थी, अस्तु घोड़े का संग न छोड़ा, इसके सिवाय पहाड़ी, जंगल की ऊबड़-खाबड़ ज़मीन होने के सबब से कुमार का घोड़ा भी उतना तेज नहीं जा सकता था जितना कि वे चाहते थे।
देवीसिंह बहुत थक गये, कुमार को भी उन पर दया आ गई। जी में सोचने लगे कि यह मुझसे बड़ी मुहब्बत रखता है। जब तक इसमें जान है मेरा संग न छोड़ेगा, ऐसे आदमी को जान-बूझकर दुःख देना मुनासिब नहीं, कोई गैर तो है नहीं कि साथ रखने में किसी तरह की कड़ुवाहट हो। आखिर कुमार ने घोड़ा रोका और देवीसिंह की तरफ देखकर हंसे।
हांफते-हांफते देवीसिंह ने कहा, ‘‘भला कुछ यह भी तो मालूम हो कि आपका इरादा क्या है, कहीं सनक तो नहीं गये?’’ कुमार घोड़े से उतर पड़े और बोले, ‘‘अच्छा इस घोड़े को चरने के लिए छोड़ो फिर हमसे सुनों कि हमारा क्या इरादा है।’’ देवीसिंह ने जीनपोश कुमार के लिए बिछाकर घोड़े को खोल चरने वास्ते छोड़ दिया और उनके पास बैठकर पूछा, ‘‘अब बताइए, आप क्या सोचकर विजयगढ़ से बाहर निकले’’ इसके ज़वाब में कुमार ने रात का सारा किस्सा कह सुनाया और कहा कि ‘कुमारी का पता न लगेगा तो मैं विजयगढ़ या नौगढ़ न जाऊंगा।’
देवीसिंह ने कहा, ‘‘यह सोचना बिल्कुल भूल है। हम लोगों से ज़्यादा आप क्या पता लगायेंगे? तेजसिंह और ज्योतिषीजी खोजने गये ही हैं, मुझे भी हुक्म हो तो जाऊं! आपके किये कुछ न होगा। अगर आपको बिना कुमारी का पता लगाये विजयगढ़ जाना पसन्द नहीं तो नौगढ़ चलिए, वहां रहिए, जब पता लग जायेगा, विजयगढ़ चले जाइएगा। अब आप अपने घर के पास भी आ पहुंचे हैं।’’ कुमार ने कुछ सोच के कहा, ‘‘यहां से मेरा घर बनिस्बत विजयगढ़ से दूर होगा कि नजदीक? मैं तो बहुत आगे बढ़ आया हूं।’’
देवीसिंह ने कहा, ‘‘नहीं, आप भूलते हैं, न मालूम किस धुन में आप घोड़ा फेंके चले आये, पूरब-पश्चिम का ध्यान तो रहा ही नहीं, मगर मैं खूब जानता हूं कि नौगढ़ केवल दो कोस है, और वह देखिए, वह बड़ा-सा पीपल का पेड़ जो दिखाई देता है वह उस खोह के पास ही है जहां महाराज शिवदत्त कैद हैं। (तेजसिंह को आते देखकर) हैं...तेजसिंह कहां से चले आ रहे हैं, देखिए कुछ-न-कुछ पता ज़रूर लगा होगा!’’
तेजसिंह दूर से आते दिखाई पड़े मगर कुमार से रहा न गया, खुद उनकी तरफ चले। तेजसिंह ने भी इन दोनों को देखा और कुमार को अपनी तरफ आता देखकर उनके पास पहुंचे। बेसब्री के साथ पहले कुमार ने यही पूछा, ‘‘क्या कुछ पता चला?’’
तेजसिंह : हाँ।
कुमार : कहां?
तेजसिंह : चलिए दिखाये देता हूं।
इतना सुनते ही कुमार तेजसिंह से लिपट गये और बड़ी खुशी के साथ बोले, ‘‘चलो देखें।’’
तेजसिंह : घोड़े पर सवार हो लीजिए, आप घबराते क्यों हैं, मैं तो आप ही को बुलाने जा रहा था मगर आप यहां आकर क्यों बैठे हैं?
कुमार : इसका हाल देवीसिंह से पूछ लेना, पहले वहां तो चलो।
देवीसिंह ने घोड़ा तैयार किया, कुमार सवार हुए। आगे-आगे तेजसिंह और देवीसिंह, पीछे-पीछे कुमार रवाना हुए और थोड़ी ही देर में उस खोह के पास आ पहुंचे। तेजसिंह ने कहा, ‘‘लीजिए अब आपके सामने ही ताला खोलता हूं, मगर होशियार रहियेगा, कहीं ऐयार लोग आपको धोखा देकर इसका पता भी न लगा लें।’’ ताला खोला गया और तीनों आदमी अन्दर गये। जल्दी-जल्दी चलकर उस चश्मे के पास पहुंचे जहां ज्योतिषीजी बैठे हुए थे, उंगली के इशारे से बताकर तेजसिंह ने कहा, ‘‘देखिए वह ऊपर चन्द्रकान्ता खड़ी है।’’
कुमारी चन्द्रकान्ता ऊंची पहाड़ी पर थीं, दूर से कुमार को आते देख मिलने के लिए बहुत घबराईं। यही कैफियत कुमार की भी थी, रास्ते का खयाल तो किया नहीं, ऊपर चढ़ने को तैयार हो गये, मगर क्या हो सकता था। तेजसिंह ने कहा, ‘‘आप घबराते क्यों हैं, ऊपर जाने के लिए रास्ता होता तो आपको यहां लाने की ज़रूरत ही क्या थी, कुमारी ही को न ले जाते?’’
दोनों की टकटकी बंध गई। कुंवर वीरेन्द्रसिंह कुमारी को देखने लगे और वह इनको, दोनों ही की आंखों में आंसू की नदी बह चली! कुछ करते नहीं बनता। हाय क्या टेढ़ा मामला है! जिसके वास्ते घर-बार छोड़ा, जिसके मिलने की उम्मीद में पहले ही जान से हाथ धो बैठे, जिसके लिए हज़ारों सिर काटे, जो महीनों गायब रहकर आज दिखाई पड़ी उससे मिलना तो दूर रहा अच्छी तरह बातचीत भी नहीं कर सकते, ऐसे समय में उन दोनों की क्या दशा थी, वे ही जानते होंगे।
तेजसिंह ने ज्योतिषीजी की तरफ देखकर पूछा, ‘‘क्यों, आपने कोई तरकीब सोची?’’ ज्योतिषीजी ने ज़वाब दिया, ‘‘अभी तक कोई तरकीब नहीं सूझी मगर मैं इतना ज़रूर कहूंगा कि बिना कोई भारी कार्रवाई किये कुमारी को ऊपर से उतारना मुश्किल है। जिस तरह से वे आई हैं उसी तरह बाहर होंगी, दूसरी तरकीब कभी पूरी नहीं हो सकती। मैंने रमल से भी राय ले ली थी, वह भी यही कहता है, सो अब जिस तरह हो सके कुमारी से यह पूछें, और मालूम करें कि वह किस राह से यहां तक आईं? तब हम लोग ऊपर चलकर कोई काम करें। यह मामला तिलिस्म का है, खेल नहीं है।’’
तेजसिंह ने इस बात को पसन्द किया, कुमारी से पुकार कर कहा, ‘‘आप घबरायें नहीं, जिस तरह से पहले आपने पत्ते पर लिखकर फेंका था उसी तरह अब फिर संक्षेप में लिखकर फेंकिये कि आप किस राह से वहां पहुंची हैं।’’
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