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उपन्यास >> चंद्रकान्ता

चंद्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

इक्कीसवां बयान

कुमारी के पास आते ही चपला को नीचे से कुंवर वीरेन्द्रसिंह वगैरह सभी ने देखा। ऊपर से चपला पुकार कर कहने लगी, ‘‘जिस खोह में हम लोगों ने शिवदत्त को कैद किया था उसके लगभग सात कोस दक्षिण में एक पुराने खण्डहर में एक बड़ा भारी करामाती बगुला है, वही कुमारी को निगल गया था। वह तिलिस्म किसी तरह टूटे तो हम लोगों की जान बचे, दूसरी कोई तरकीब हम लोगों के छूटने की नहीं हो सकती। मैं बहुत सम्हलकर उस तिलिस्म में गई थी पर तो भी फंस गई। तुम लोग जाना तो बहुत होशियारी के साथ उसको देखना। मैं यह नहीं जानती कि वह खोह चुनार से किस तरफ है, हम लोगों को दुष्ट शिवदत्त ने क़ैद किया था।’’

चपला की बात बखूबी सभी ने सुनी, कुमार को महाराज शिवदत्त पर बड़ा ही गुस्सा आया, सामने मौजूद ही थे, कहीं ढूंढ़ने तो जाना था ही नहीं, तलवार खींच मारने के लिए झपटे। महाराज शिवदत्त की रानी, जो उन्हीं के पास बैठी सब तमाशा देखती और बातें सुनती थीं, कुंवर वीरेन्द्रसिंह को तलवार खींच करके महाराज शिवदत्त की तरफ झपटते देख दौड़कर कुमार के पैरों पर गिर पड़ीं और बोलीं, ‘‘पहले मुझको मार डालिए, क्योंकि मैं विधवा होकर मुर्दों से बुरी हालत में नहीं रह सकती!’’ तेजसिंह ने कुमार का हाथ पकड़ लिया और बहुत कुछ समझा-बुझाकर ठण्डा किया। कुमार ने तेजसिंह से कहा, ‘‘अगर मुनासिब समझो और हर्ज़न हो तो कुमारी के मां-बाप को भी यहां लाकर कुमारी का मुंह दिखला दो, भला उन्हें भी तो ढाढ़स हो।’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘यह कभी नहीं हो सकता, इस तहखाने को आप मामूली न समझिए, जो कुछ कहना चाहिए मुंहजुबानी सब हाल उनको समझा दिया जायेगा, अब यह फिक्र करनी चाहिए जिससे कुमारी की जान छूटे। चलिए सब कोई महाराज जयसिंह को यह हाल कहते हुए उस खंण्डहर तक ले चलें जिसका पता चपला ने दिया है।’’

यह कह तेजसिंह ने चपला को पुकार कर कहा, ‘‘देखो, हम लोग उस खण्डहर की तरफ जाते हैं। क्या जाने कितने दिन उस तिलिस्म को तोड़ने में लगें। तुम राजकुमारी को ढाढ़स देती रहना, किसी तरह की तकलीफ न होने पाये। क्या करें, कोई ऐसी तरकीब नज़र नहीं आती कि कपड़े या खाने-पीने की चीज़ें तुम तक पहुंचाई जायें।’’

चपला ने ऊपर से ज़वाब दिया, ‘‘कोई हर्ज़ नहीं, खाने की कुछ तकलीफ न होगी क्योंकि इस जगह बहुत से मेवों के पेड़ हैं, और पत्थरों में से छोटे-छोटे कई झरने पानी के जारी हैं। आप लोग बहुत होशियारी से काम कीजिएगा। इतना मुझे मालूम हो गया कि बिना कुमार के यह तिलिस्म नहीं टूटने का, मगर तुम लोग भी इनका साथ मत छोड़ना, बड़ी हिफाज़त रखना!’’

महाराज शिवदत्त और उनकी रानी को उसी तहखाने में छोड़ कुंवर वीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह और ज्योतिषीजी चारों आदमी वहां से बाहर निकले। दोहरा ताला लगा दिया। इसके बाद हाल कहने के लिए कुमार ने देवीसिंह को नौगढ़ अपने मां-बाप के पास भेज दिया और यह भी कह दिया कि नौगढ़ होकर कल ही तुम लौट के विजयगढ़ आ जाना, हम लोग वहां चलते हैं। तुम आओगे तब कहीं जायेंगे। यह सुन देवीसिंह नौगढ़ की तरफ रवाना हुए।

सवेरे ही से कुंवर वीरेन्द्रसिंह विजयगढ़ से गायब थे, बिना किसी को कुछ कहे चल पड़े थे इसलिए महाराज जयसिंह बहुत ही उदास हो कई जासूसों को चारों तरफ खोजने के लिए भेज चुके थे। शाम होते-होते ये लोग विजयगढ़ पहुंचे, महाराज से मिले। महाराज ने कहा, ‘‘कुमार, तुम इस तरह बिना कहे-सुने जहां जी में आता है चले जाते हो, हम लोगों को इससे तकलीफ होती है, ऐसा न किया करो।’’

इसका ज़वाब कुमार ने कुछ न दिया मगर तेजसिंह ने कहा, ‘‘महाराज, ज़रूरत ही ऐसी थी कि कुमार को बड़े सवेरे यहां से जाना पड़ा, उस वक़्त आप आराम में थे, इसलिए कुछ कह न सके’’ इसके बाद तेजसिंह ने कुल हाल, लड़ाई से चुनार जाना, महाराज शिवदत्त की रानी को चुराना, खोह में कुमारी का पता लगाना, ज्योतिषिजी की मुलाकात, बर्देफरोशों की कैफियत, उस तहखाने में कुमारी और चपला को देख उनकी जुबानी तिलिस्म का हाल सुनना आदि सब कुछ हाल पूरा-पूरा ब्यौरेवार कह सुनाया, आखिर में यह भी कहा कि अब हम लोग तिलिस्म तोड़ने जाते हैं।

इतना लम्बा-चौड़ा हाल सुनकर महाराज हैरान हो गये। बोले, ‘‘तुम लोगों ने बड़ा ही काम किया, इसमें कोई शक नहीं। हद के बाहर काम किया, अब तिलिस्म तोड़ने की तैयारी है, मगर वह तिलिस्म दूसरे के राज्य में है। चाहे वहां का राजा तुम्हारे यहां क़ैद हो तो भी पूरे सामान के साथ तुम लोगों को जाना चाहिए, मैं भी तुम लोगों के साथ चलूं तो ठीक हो।’’

तेजसिंह ने कहा, ‘‘आपके तकलीफ करने की कोई ज़रूरत नहीं है, थोड़ी फौज़ साथ जायेगी, वही बहुत है।’’ महाराज ने कहा, ‘‘ठीक है, मेरे जाने की कोई ज़रूरत नहीं, मगर इतना होगा कि चलकर उस तिलिस्म को मैं भी देख आऊंगा।’’ तेजसिंह ने कहा, ‘‘जैसी मर्जी।’’ महाराज ने दीवान हरदयालसिंह को हुक्म दिया कि हमारी आधी फौज़ और कुमार की कुल फौज़ रात भर में तैयार हो जाये, कल से चुनार की तरफ कूच होगा।’

बमूजिब हुक्म के सब इन्तजाम दीवान साहब ने कर दिया, दूसरे दिन नौगढ़ से लौटकर देवीसिंह भी आ गये। बड़ी तैयारी के साथ चुनार की तरफ तिलिस्म तोड़ने के लिए कूच हुआ। दीवान हरदयालसिंह विजयगढ़ में छोड़ दिये गये।

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