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उपन्यास >> चंद्रकान्ता

चंद्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

छब्बीसवां बयान

इन फूलों को पाकर तेजसिंह जितने खुश हुए शायद अपनी उम्र में आजतक कभी न हुए होंगे। एक तो पहले ही ऐयारी में बढ़े-चढ़े थे, आज इन फूलों ने इन्हें और बढ़ा दिया। अब कौन है जो इनका मुकाबला करे? हां, एक चीज़ की कसर रह गई, लोपाञ्जन या कोई गुटका इस तिलिस्म में से इनको ऐसा न मिला जिससे ये लोगों की नज़रों से छिप जाते, और अच्छा हुआ जो न मिला नहीं तो इनकी ऐयारी की तारीफ न होती क्योंकि जिस आदमी के पास कोई ऐसी चीज़ हो जिससे वह गायब हो जाये तो फिर ऐयारी सीखने की उसे ज़रूरत ही क्या रही? गायब होकर जो चाहा कर डाला!

आज की रात इन चारों को जागते ही बीती। तिलिस्म की तारीफ, फूलों के गुण, तिलिस्मी किताब के पढ़ने, सवेरे फिर तिलिस्म में जाने आदि की बातचीत में रात बीत गई। सवेरा हुआ, जल्दी-जल्दी स्नान-पूजा से चारों ने छुट्टी पा ली और कुछ भोजन करके तिलिस्म में जाने को तैयार हुए।

कुमार ने तेजसिंह से कहा, ‘‘हमारे पलंग पर से तिलिस्मी किताब उठा के तुम लेते चलो, वहां फिर एक दफे पढ़ के तब कोई काम करेंगे।’’ तेजसिंह किताब लेने गये मगर किताब नज़र न आई, चारपाई के नीचे, हर तरफ देखा, कहीं पता नहीं, आखिर कुमार से पूछा, ‘‘किताब कहां है? पलंग पर तो नहीं है!’’

सुनते ही कुमार के होश उड़ गये, जी सन्न हो गया, दौड़े हुए पलंग के पास आये, खूब ढूंढ़ा, मगर कहीं किताब हो तब मिले। कुमार हाय करके पलंग के ऊपर गिर पड़े, बिल्कुल हौसला टूट गया, कुमारी चन्द्रकान्ता के मिलने से नाउम्मीद हो गये, अब तिलिस्मी किताब कहां जिसमें तिलिस्म तोड़ने की तरकीब लिखी है।

तेजसिंह, देवीसिंह और जगन्नाथ ज्योतिषी भी घबरा उठे। दो घड़ी तक किसी के मुंह से आवाज़ तक न निकली, इसके बाद तलाश होने लगी। लश्कर भर में खूब शोर मचा कि कुमार के डेरे से तिलिस्मी किताब गायब हो गई, पहरे वालों पर सख्ती होने लगी, चारों तरफ चोर की तलाश में लोग निकले।

तेजसिंह ने कुमार से कहा, ‘‘आप जी मत छोटा कीजिए, मैं वादा करता हूं कि चोर को ज़रूर पकड़ूंगा, आपके सुस्त हो जाने से सभी का जी टूट जायेगा, कोई काम न करते बन पड़ेगा।’’ बहुत समझाने पर कुमार पलंग से उठे, उसी वक़्त एक चोबदार ने आकर अजीब खबर सुनाई। हाथ जोड़कर अर्ज़ किया कि, ‘‘तिलिस्म के फाटक पर पहरे के लिए जो लोग मुस्तैद किये गये हैं उनमें से एक पहरे वाला हाज़िर हुआ है और कहता है कि तिलिस्म के अन्दर कई आदमियों की आहट मिली है, किसी को अन्दर जाने का हुक्म तो है ही नहीं जो ठीक मालूम करे, अब जैसा हुक्म हो, किया जाये।

इस खबर को सुनते ही तेजसिंह पता लगाने के लिए तिलिस्म में जाने को तैयार हुए। देवीसिंह से कहा, ‘‘तुम भी मेरे साथ चलो, देख आवें क्या मामला है?’’ ज्योतिषीजी बोले, ‘‘हम भी चलेंगे।’’ कुमार भी उठ खड़े हुए। आखिर ये चारों तिलिस्म में चले। बाहर फतहसिंह सेनापति मिले, कुमार ने उनको भी साथ ले लिया। दरवाज़े के अन्दर जाते ही इन लोगों के कान में भी चिल्लाने की आवाज़ आई, आगे बढ़ने से मालूम हुआ कि उसमें कई आदमी हैं। आवाज़ की धुन पर ये लोग बराबर बढ़ते चले गये। उस दालान में पहुंचे जिसमें चबूतरे के ऊपर हाथ में किताब लिये पत्थर का आदमी सोया था।

देखा कि पत्थर वाला आदमी उठ के बैठा हुआ बद्रीनाथ ऐयार को दोनों हाथों से दबाये है और वह चिल्ला रहे हैं। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल छुड़ाने का उपाय कर रहे हैं मगर कोई काम नहीं निकलता। तिलिस्मी किताब के खो जाने का इन लोगों को बड़ा भारी गम था मगर इस वक़्त पण्डित बद्रीनाथ ऐयार की यह दशा देख सभी को हंसी आ गई, एकदम खिलखिला के हंस पड़े। उन ऐयारों ने पीछे फिरकर देखा तो कुंवर वीरेन्द्रसिंह मय तीनों ऐयारों के खड़े हैं, साथ में फतहसिंह सेनापति भी हैं।

तेजसिंह ने ललकार कर कहा, ‘‘वाह! खूब, जैसे जिसकी करनी होती है उसको वैसा ही फल मिलता है, इसमें कोई शक नहीं। बेचारे कुंवर वीरेन्द्रसिंह को बेकसूर तुम लोगों ने सताया, इसी की सजा तुम लोगों को मिली! परमेश्वर भी बड़ा इंसाफ करने वाला है। क्यों पन्नालाल, तुम लोग जान-बूझकर क्यों फंसते हो? तुम लोगों को तो किसी ने पकड़ा नहीं है, फिर बद्रीनाथ के पीछे क्यों जान देते हो? इनको इसी तरह छोड़ दो और तुम लोग जाओ हवा खाओ।’’

पन्नालाल ने कहा, ‘‘ भला इनको ऐसी हालत में छोड़ हम लोग कहीं जा सकते हैं? अब तो आपके जो दिल में आवे सो कीजिए, हम लोग हाज़िर हैं।’’ तेजसिंह ने पंडित बद्रीनाथ के पास जाकर कहा, ‘‘पंडितजी परनाम! क्यों, मिजाज़ कैसा है? क्या आप तिलिस्म को तोड़ने आये थे? अपने राजा को तो पहले छुड़ा लिये होते? खैर, तुमने यह सोचा होगा कि हम ही तिलिस्म तोड़कर कुल ख़जाना ले लें और खुद चुनार के राजा बन जायें!’’

देवीसिंह ने भी आगे बढ़ के कहा, ‘‘बद्रीनाथ, भाई तिलिस्म तोड़ना तो उसमें से कुछ मुझे भी देना, अकेले मत उड़ा जाना!’’ ज्योतिषीजी ने कहा, ‘‘बद्रीनाथ जी, अब तो तुम्हारे ग्रह बिगड़े हैं, खैरियत तभी है वह तिलिस्मी किताब हमारे हवाले करो जिसे आप लोगों ने रात को चुराया!’’

बद्रीनाथ सबकी सुनते मगर सिवाय ज़मीन देखने के ज़वाब किसी को नहीं देते थे। पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल पंडित बद्रीनाथ को छोड़ अलग हो गये और कुमार से बोले, ‘‘ईश्वर के वास्ते किसी तरह बद्रीनाथ की जान बचाइए!’’

कुमार ने कहा, ‘‘भला हम क्या कर सकते हैं, कुछ हाल तिलिस्म का मालूम नहीं, जो किताब तिलिस्म से मुझको मिली थी, जिसे पढ़कर तिलिस्म तोड़ते, वह तुम लोगों ने गायब कर ली। अगर मेरे पास होती तो उसमें देखकर कोई तरकीब इनके छुड़ाने की करता! हां अगर तुम लोग वह किताब मुझे दे दो तो ज़रूर बद्रीनाथ इस आफत से छूट सकतें हैं।’’

यह सुनकर पन्नालाल ने तिरछी निगाहों से बद्रीनाथ की तरफ देखा, उन्होंने भी कुछ इशारा किया। पन्नालाल ने कुमार से कहा, ‘‘हम लोगों ने किताब नहीं चुराई है, नहीं तो ऐसी बेबसी की हालत में ज़रूर दे देते। या तो किसी तरह से पंडित बद्रीनाथ को छुड़ाइए या हम लोगों के वास्ते यह हुक्म दीजिए कि बाहर जाकर इनके लिए कुछ खाने का सामान लाकर खिलावें, बल्कि जब तक आपको किताब न मिले, आप तिलिस्म न तोड़ लें और बद्रीनाथ इसी तरह बेबस रहें तब तक हम लोगों में से किसी को खिलाने-पिलाने के लिए यहां आने-जाने का हुक्म हो।’’

देवीसिंह ने कहा, ‘‘पन्नालाल, भला यह तो कहो कि अगर कई रोज़ तक बद्रीनाथ इसी तरह क़ैद रह गये तो खाने-पीने का बन्दोबस्त तो तुम लोग कर लोगे, जाकर ले आओगे, लेकिन अगर इनको दिशा मालूम पड़ेगी तो क्या उपाय करोगे? उसको कहां ले जाकर फेंकोगे? या इसी तरह इसके नीचे ढेर लगा रहेगा?’’

इसका ज़वाब पन्नालाल ने कुछ न दिया। तेजसिंह ने कहा, ‘‘सुनो जी, ऐयारों को ऐयार लोग खूब पहचानते हैं। अगर तुम्हारे आने-जाने के लिए कुमार हुक्म नहीं देते तो हम हुक्म देते हैं कि आया करो और जिस तरह बने, बद्रीनाथ की हिफाज करो। तुम लोगों ने हमारा बड़ा हर्ज़किया, तिलिस्मी किताब चुरा ली और अब मुकरते हो। इस वक़्त हमारे अख्तियार में सब कोई हैं। जिसके साथ जो चाहे करूं, सीधी तरह से न दो तो डंडों के ज़ोर से किताब ले लूं, मगर नहीं, छोड़ देता हूं और खूब होशियार कर देता हूं, किताब सम्हाल के रखना, मैं बिना लिए न छोड़ूंगा और तुम लोगों को गिरफ्तार भी न करूंगा।’’

तेजसिंह की बात सुनकर पंडित बद्रीनाथ लाल हो गये और बोले, ‘‘इस वक़्त हमको बेबस देख के शेखी करते हो? हिम्मत तो तब जानें कि हमारे छूटने पर कह-बदके कोई ऐयारी करो और जीत जाओ! क्या तुम ही एक दुनिया में ऐयार हो? हम भी ज़ोर देकर कहते हैं कि हम ही ने तुम्हारी तिलिस्मी किताब चुराई है, मगर हम लोगों में से किसी को क़ैद किये या सताये बिना तुम नहीं पा सकते। यह शेखी तुम्हारी न चलेगी कि ऐयारों को गिरफ्तार भी न करो बल्कि आने-जाने के लिए छुट्टी दे दो और किताब भी ले लो। ऐसा कर लो तो उसी दिन से हम लोग तुम्हारे हो जायें और महाराज शिवदत्त को छोड़कर कुमार की ताबेदारी करें। मैं बता देता हूं कि किताब भी न दूंगा और यहां से छूट के भी निकल जाऊंगा।’’

तेजसिंह ने कहा, ‘‘मैं भी कसम खाकर कहता हूं कि बिना तुम लोगों को क़ैद किये अगर किताब न ले लूं तो फिर ऐयारी का नाम न लूं और सिर मुड़ा के दूसरे देश में निकल जाऊं। मुझको भी तुम लोगों से एक दफे में फैसला कर लेना है।’’

इस बात पर तेजसिंह और बद्रीनाथ दोनों ने कसमें खाईं। बेचारे कुंवर वीरेन्द्रसिंह सभी का मुंह देखते थे, कुछ कहते नहीं बन पड़ता था। तेजसिंह ने देवीसिंह और ज्योतिषीजी को अलग ले जाकर कान में कुछ कहा और वे दोनों उसी वक़्त तिलिस्म के बाहर हो गये। फिर तेजसिंह बद्रीनाथ के पास आकर बोले, ‘‘हम लोग जाते हैं।

पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल को जहां जी चाहे भेजो और अपनी छुड़ाने की जो तरकीब सूझे, करो। पहरे वालों को कह दिया जाता है, वे तुम्हारे साथियों को आते-जाते न रोकेंगे।’’

कुमार को लिए हुए तेजसिंह अपने डेरे में पहुंचे, देखा तो ज्योतिषिजी बैठे हैं। तेजसिंह ने पूछा, ‘‘क्यों ज्योतिषिजी, देवीसिंह गये?’’

ज्योतिषी : हां, वह तो गये।

तेजसिंह : आपने अभी कुछ देखा कि नहीं?

ज्योतिषी : हां, पता लगा, पर आफत-पर-आफत नज़र आती है।

तेजसिंह : वह क्या?

ज्योतिषी : रमल से मालूम होता है कि उन लोगों के हाथ से भी किताब निकल गई और अभी तक कहीं रखी नहीं गयी, देखें देवीसिंह क्या करके आते हैं, हम भी जाते तो अच्छा होता।

तेजसिंह : तो फिर आप राह क्या देखते हैं, जाइए, हम भी अपनी धुन में लगते हैं।

यह सुन ज्योतिषीजी तुरन्त वहां से चले गये। कुमार ने कहा, ‘‘भला कुछ हमें भी तो मालूम हो कि तुम लोगों ने क्या सोचा, क्या कर रहे हो और क्या समझ के तुमने उन लोगों को छोड़ दिया? मैं तो ज़रूर यही कहूंगा कि इस वक़्त तुम ही ने शेखी में काम बिगाड़ दिया, नहीं तो वे लोग हमारे हाथ फंस चुके थे।’’

तेजसिंह ने कहा, ‘‘मेरा मतलब आप अभी तक नहीं समझे, किताब तो मैं उनसे ले ही लूंगा मगर जहां तक बने उन सभी को एक दफे में अपना चेला भी करूं नहीं तो यह रोज़-रोज की ऐयारी से कहां तक होशियारी चलेगी? सिवा जिद और बदाबदी के ऐयार कभी ताबेदारी कबूल नहीं करते, चाहे जान चली जाये, मालिक का संग कभी न छोड़ेंगे।’’ कुमार ने कहा, ‘‘इससे तो हमको और तरद्दुद हुआ? ईश्वर न करे, कहीं तुम हार गये और बद्रीनाथ छूट के निकल गये तो क्या तुम हमारा भी संग छोड़ दोगे?’’

तेजसिंह : ‘‘बेशक छोड़ दूंगा, फिर अपना मुंह न दिखाऊंगा।’’

वीरेन्द्रसिंह : ‘‘तो तुम आप भी गये और मुझे भी मारा, अच्छी दोस्ती अदा की। हाय, अब क्या करूं? भला यह तो बताओ कि देवीसिंह और ज्योतिषीजी कहां गये?’’

तेजसिंह : ‘‘अभी न बताऊंगा। पर आप डरिए मत, ईश्वर चाहेगा तो सब काम ठीक होगा और मेरा आपका साथ भी न छूटेगा। आप बैठिए, मैं दो घण्टे के लिए कहीं जाता हूं।’’

कुमार : ‘‘अच्छा जाओ।’’

तेजसिंह वहां से चले गये, फतहसिंह को भी कुमार ने विदा किया, अब देखना चाहिए ये लोग क्या करते हैं और कौन जीतता है?

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