उपन्यास >> चंद्रकान्ता चंद्रकान्तादेवकीनन्दन खत्री
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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण
पन्द्रहवां बयान
चुनार के पास दो पहाड़ियों के बीच के एक नाले के किनारे शाम के वक़्त पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल, नाज़िम और अहमद बैठे आपस में बातें कर रहे हैं।
नाज़िम : क्या कहें, हमारा मालिक तो बहिश्त में चला गया, तकलीफ उठाने को हम रह गये।
अहमद : अभी तक इसका पता नहीं लगा कि उन्हें किसने मारा?
बद्रीनाथ : उन्हें उनके पापों ने मारा और तुम दोनों की भी बहुत जल्द वही दशा होगी। कहने के लिए तुम लोग ऐयार कहलाते हो मगर बेईमान और हरामखोर पूरे दर्जे के हो, इसमें कोई शक नहीं।
नाज़िम : क्या हम लोग बेईमान हैं?
बद्री : जरूर इसमें भी कुछ कहना है? जब तुम अपने मालिक महाराज जयसिंह के न हुए तो किसके होओगे आप भी गारत हुए, क्रूरसिंह की भी जान ली और हमारे राजा को भी चौपट बल्कि क़ैद कराया। यही जी में आता है कि खाली जूतियाँ मार-मारकर तुम दोनो की जान ले लूं।
अहमद : जुबान सम्हाल कर बात करो नहीं तो कान पकड़ के उखाड़ लूंगा। अहमद का इतना कहना था कि मारे गुस्से के बद्रीनाथ कांप उठे, उसी जगह से पत्थर का टुकड़ा उठाकर इस ज़ोर से अहमद के सिर में मारा कि वह तुरन्त ज़मीन सूंघ कर दोजख (नर्क) की तरफ रवाना हो गया। उसकी यह कैफियत देख नाज़िम भागा मगर बद्रीनाथ तो पहले ही से उन दोनों की जान का प्यासा हो रहा था, कब जाने देता! बड़ा-सा पत्थर छागे* में रखकर मारा जिसकी चोट से वह भी ज़मीन पर गिर पड़ा और पन्नालाल वगैरह ने पहुंच कर मारे लातों के भुर्ता करके उसे भी अहमद के साथ क्रूर की ताबेदारी को रवाना कर दिया। इन दोनों के मरने के बाद फिर चारों ऐयार उसी जगह आ बैठे और आपस में बातें करने लगे। (*छागा–एक किस्म का छींका (ढेलवांस) होता है। छींके में चारों तरफ डोरी रहती है मगर छागे में दो ही तरफ। एक तरफ की डोरी कलाई में पहन लेते हैं और दूसरी डोर को चुटकी में थाम कर बीच से घुमा कर निशाना मारते हैं।)
पन्ना : अब हमारे दरबार की झंझट दूर हुई।
बद्री : महाराज को ज़रा भी रंज न होगा!
पन्ना : अब किसी तरह गद्दी बचाने की फिक्र करनी चाहिए। महाराज जयसिंह ने बेतरह आ घेरा है और बिना महाराज के फौज़ मैदान में निकल कर लड़ नहीं सकती।
चुन्नी : आखिर किले में भी रहकर कब तक लड़ेंगे। हम लोगों के पास सिर्फ दो महीने के लायक गल्ला किले के अन्दर है, इसके बाद क्या करेंगे?
राम : यह भी मौका न मिला कि कुछ गल्ला बटोर के रख लेते।
बद्री : एक बात है, किसी तरह महाराज जयसिंह को उनके लश्कर से उठाना चाहिए, अगर वह हम लोगों की क़ैद में आ जायें तो मैदान में निकल कर उनकी फौज़ को भागना मुश्किल न होगा।
पन्ना : ज़रूर ऐसा करना चाहिए। जिसका नमक खाया है उसके लिए जान देना हम लोगों का धर्म है।
राम : हमारे राजा ने भी तो बेईमानी पर कमर बांधी है। बेचारे कुंवर वीरेन्द्रसिंह का क्या दोष है?
चुन्नी : चाहे जो हो, मगर हम लोगों को मालिक का साथ देना ज़रूरी है।
बद्री : नाज़िम और अहमद, ये ही दोनों हमारे राजा पर क्रूर ग्रह थे, सो निकल गये। अबकी दफे ज़रूर दोनों राजाओं में सुलह करवाऊंगा तब वीरेन्द्रसिंह की ताबेदारी नसीब होगी। वाह, क्या जवांमर्द और होनहार कुमार है!
पन्ना : अब रात भी बहुत गई, चलो कोई ऐयार करके महाराज जयसिंह को गिरफ्तार करें और गुप्त राह से किले में ले जाकर क़ैद करें।
बद्री : हमने एक ऐयारी सोची है, वही ठीक होगी।
पन्ना : वह क्या?
बद्री : हम लोग चल के पहले उनके रसोइये को फांसें। मैं उसकी शक्ल बनाकर रसोई बनाऊं और तुम लोग रसोई के खिदमतगारों को फांस कर उनकी शक्ल बनाकर हमारे साथ काम करो। मैं खाने की चीजों में बेहोशी की दवा मिलाकर महाराज और बाद में उन लोगों को भी खिलाऊंगा जो उनके पहरे पर होंगे, बस फिर हो गया काम!
पन्ना : अच्छी बात है, तुम रसोइया बनो क्योंकि ब्राह्मण हो, तुम्हारे हाथ का महाराज जयसिंह खायेंगे तो उनका धर्म भी न जायेगा, इसका भी खयाल ज़रूर होना चाहिए, मगर एक बात का ध्यान रहे कि चीज़ों में तेज़ बेहोशी की दवा न पड़ने पाये।
बद्री : नहीं, नहीं, क्या मैं ऐसा बेककूफ हूं, क्या मुझे मालूम नहीं कि राजा लोग पहले दूसरे को खिला कर देख लेते हैं। ऐसी नरम दवा डालूंगा कि खाने के दो घंटे बाद तक बिलकुल मालूम न पड़े कि हमने बेहोशी की दवा मिली हुई चीज़ें खाई हैं।
राम : बस यह राय पक्की हो गई, अब यहां से उठो।
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