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उपन्यास >> चंद्रकान्ता

चंद्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

सत्रहवां बयान

फतहसिंह सेनापति की बहादुरी ने किले वालों के छक्के छुड़ा दिये। यही मालूम होता था कि अगर इसी तरह रात भर लड़ाई होती रही तो सवेरें तक किला हाथ से जाता रहेगा और फाटक टूट जायेगा। मुश्किल में पड़े बद्रीनाथ वगैरह ऐयार इधर-उधर घबराये घूम रहे थे, इतने में एक चोबदार ने आकर शोर-गुल मचाना शुरू किया जिससे बद्रीनाथ और भी घबरा गये। चोबदार बिलकुल जख्मी हो रहा था और उसके चेहरे पर इतने जख्म लगे हुए थे कि खून निकलने से उसको पहचानना मुश्किल हो रहा था।

बद्रीनाथ : (घबराकर) यह क्या, तुमको किसने जख्मी किया?

चोबदार : आप लोग इधर के खयाल में ऐसा भूले हैं कि और बातों की कोई सुध ही नहीं। पिछवाड़े की तरफ से कुंवर वीरेन्द्रसिंह के कई आदमी घुस आये हैं और किले में चारों तरफ घूम-घूमकर न मालूम क्या कर रहे हैं। मैंने एक का मुकाबला भी किया मगर वह बहुत ही चालाक और फुर्तीला था, मुझे इतना जख्मी किया कि दो घंटे तक बदहवास ज़मीन पर पड़ा रहा, मुश्किल से यहां तक खबर देने आया हूं। आती दफे रास्ते में उसे फिर दीवारों पर काग़ज़ चिपकाते देखा मगर खौफ के मारे कुछ न बोला।

पन्ना : यह बुरी खबर सुनने में आई।

बद्रीनाथ : वे लोग कितने आदमी हैं, तुमने देखा है?

चोबदार : कई आदमी मालूम होते हैं, मगर मुझे एक ही से वास्ता पड़ा था

बद्रीनाथ : तुम उसे पहचान सकते हो?

चोबदार : हां, ज़रूर पहचान लूंगा क्योंकि मैंने रोशनी में सूरत बखूबी देखी है।

बद्रीनाथ : मैं उन लोगों को ढूंढने चल रहा हूं, तुम साथ चल सकते हो?

चोबदार : क्यों न चलूंगा? मुझे उसने अधमुआ कर डाला था, अब बिना गिरफ्तार कराये कब चैन पड़ता है।

बद्रीनाथ : अच्छा चलो!

बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण और चुन्नीलाल चारों आदमी अन्दर की तरफ चले साथ-साथ जख्मी चोबदार भी रवाना हुआ। जनाने महल के पास पहुंच कर देखा कि एक आदमी ज़मीन पर बदहवास पड़ा है, एक मशाल थोड़ी दूर पर पड़ी हुई है जो कुछ जल रही है, पास ही तेल की कुप्पी भी नज़र पड़ी, मालूम हो गया कि कोई मशालची है। चोबदार ने चौंककर कहा, देखो-देखो, एक और आदमी उसने मारा! ‘‘यह कह मशाल और कुप्पी झट से उठा ली और उस कुप्पी से मशाल में तेल छोड़ उसके चेहरे के पास ले गया। बद्रीनाथ ने देखकर पहचाना कि यह अपना मशालची है। नाक पर हाथ रख के देखा, समझ गये कि इसे बेहोशी की दवा दी गई है। चोबदार ने कहा, ‘‘आप इसे छोड़िए, चलकर पहले उस बदमाश को ढूंढिए मैं यही मशाल लिये आपके साथ चलता हूँ, कहीं ऐसा न हो कि वे लोग महाराज जयसिंह को छुड़ाकर ले जायें।’’

बद्रीनाथ ने कहा, ‘‘पहले उसी जगह चलना चाहिए जहां महाराज जयसिंह क़ैद है।’’ सभी की यही राय हुई और सब सीधे उसी जगह पहुंचे। देखा तो महाराज जयसिंह कोठरी में हठकड़ी बेड़ी पहने लेटे हैं। चोबदार ने खूब गौर से उसी कोठरी और दरवाज़े को देख कर कहा, ‘‘नहीं वे लोग यहां तक नहीं पहुंचे, चलिए दूसरी तरफ ढूंढे। चारों सब तरफ ढूंढने लगे। घूमते-घूमते दीवारों और दरवाजों पर सटे हुए कई पुर्जे दिखाई पड़े जिसे पढ़ते ही उन ऐयारों के होश जाते रहे, खड़े हो सोच ही रहे थे कि चोबदार चिल्ला उठा और एक कोठरी की तरफ इशारा करके बोला, ‘‘देखो, देखो अभी एक आदमी उस कोठरी में घुसा है, ज़रूर वही है जिसने मुझे जख्मी किया था। यह कह उस कोठरी की तरफ दौड़ा, मगर दरवाज़े पर रुक गया, तब तक ऐयार लोग भी पहुंच गये।

बद्रीनाथ : (चोबदार से) चलो अन्दर चलो।

चोबदार : पहले तुम लोग हाथों में खजंर ले लो, क्योंकि वह ज़रूर वार करेगा।

बद्रीनाथ : हम लोग होशियार हैं तुम अन्दर चलो क्योंकि तुम्हारे हाथ में मशाल है।

चोबदार : नहीं बाबा, मैं अन्दर नहीं जाऊंगा, एक दफे किसी तरह जान बची अब कौन-सी कम्बख्ती सवार है कि जान-बूझकर भाड़ में जाऊं।

बद्रीनाथ : वाह रे डरपोक! इसी जीवट पर महाराज की नौकरी करता है? ला मेरे हाथ में मशाल दे, मत जा अन्दर।

चोबदार : लो, मशाल लो, मैं डरपोक सही, इतने जख्म खाये अभी डरपोक ही रह गया, अपने को लगती तो मालूम होता, इतनी मदद कर दी, यही बहुत है!

इतना कह चोबदार मशाल और और कुप्पी बद्रीनाथ के हाथ में देकर अलग हो गया। चारों ऐयार कोठरी के अन्दर घुसे। थोड़ी दूर गये होंगे कि बाहर से चोबदार ने किवाड़ बन्द करके जंजीर चढ़ा दी, तब अपनी कमर से पथरी निकाल आग झाड़कर बत्ती जलाई और चौखट के नीचे जो एक छोटी-सी बारूद की चुपड़ी हुई पतीली निकली हुई थी, उसमें आग लगा दी। वह रस्सी जलकर सरसराती हुई अन्दर घुस गई।

पाठक समझ गये होंगे कि यह चोबदार साहब कौन थे? ये ऐयारों के सरताज जीतसिंह थे। चोबदार बन ऐयारों को खौफ दिलाकर अपने साथ ले आये और घुसते-फिरते वह जगह देख ली जहां महाराज जयसिंह क़ैद थे, फिर धोखा देकर इन ऐयारों को उस कोठरी में बन्द कर दिया जिसे पहले ही अपने ढंग का बना रखा था।

इस कोठरी के अन्दर पहले ही बेहोशी का बारूद* पाव भर के अन्दाज कोने में रख दिया था। (*बेहोशी के बारुद से आग लगने या मकान उड़ जाने का खौफ नहीं होता, उसमें धुआं बहुत होता है और जिसके दिमाग में वह धुआं चढ़ जाता है सूंघने वाला फौरन बेहोश हो जाता है।)

पतीली से आग लगा और दरवाज़े को उसी तरह बन्द छोड़ उस जगह गये जहां महाराज जयसिंह क़ैद थे। वहां बिलकुल सन्नाटा था, दरवाज़ा खोलकर कहा, ‘‘जल्दी यहां से चलिये।’’

जिधर से जीतसिंह कमन्द लगाकर किले में आये थे, उसी राह से महाराज जयसिंह को नीचे उतारा और तब कहा, ‘‘आप नीचे ठहरिये मैंने ऐयारों को भी बेहोश किया है एक-एक करके कमन्द में बांधकर उन लोगों को लटकाता जाता हूं, आप खोलते जाइये। अन्त में मैं भी उतर कर आपके साथ लश्कर में चलूंगा। महाराज जयसिंह ने खुश होकर इसे मंजूर किया।

जीतसिंह ने लौटकर उस कोठरी की जंजीर खोली जिसमें बद्रीनाथ वगैरह चारों ऐयारों को फंसाया था। अपने नाक में लखलखे से तर की हुई रुई डाली और कोठरी के अन्दर घुसे, तमाम धुएँ से भरा हुआ पाया, बत्ती जला बद्रीनाथ बगैरह बेहोश ऐयारों को घसीट कर बाहर लाये और किले की पिछली दीवार की तरफ ले जाकर एक-एक करके सभी को नीचे उतार आप भी उतर आये। चारों ऐयारों को एक तरफ छिपा महाराज जयसिंह को लश्कर में पहुंचाया फिर कई कहारों को साथ ले उस जगह जा ऐयारों को उठवा लाये, हथकड़ी-बेड़ी डाल कर खेमे में क़ैद कर पहरा मुकर्रर कर दिया।

महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह आपस में गले मिले, जीतसिंह की बहुत कुछ तारीफ करके दोनों राजाओं ने कई इलाके उनको दिये, जिनकी सनद भी उसी वक़्त मुहर करके उनके हवाले की गई।

रात बीत गई, पूरब की तरफ से धीरे-धीरे लालिमा झलकने लगी और लड़ाई बंद कर दी गई।

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