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उपन्यास >> चंद्रकान्ता

चंद्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

ग्यारहवां बयान


विजयगढ़ के पास भयानक जंगल में नाले के किनारे एक पत्थर की चट्टान पर दो आदमी बैठे आपस में धीरे-धीरे बातचीत कर रहे हैं। चांदनी खूब छिटकी हुई हैं जिसमें इन लोगों की सूरत और पोशाक साफ दिखाई पड़ती है। दोनों आदमियों में से जो पत्थर पर बैठे हुए हैं एक की उम्र लगभग चालीस वर्ष की होगी। काला रंग, लम्बा-कद, काली दाढ़ी, सिर्फ जांघिया और चुस्त कुर्ता पहने हुए तीर-कमान और ढाल-तलवार आगे रखे, एक घुटना ज़मीन के साथ लगाए बैठा है। बड़ी-बड़ी काली और कड़ी मूंछें ऊपर को चढ़ी हुई हैं, भूरी और खूंखार आंखें चमक रही हैं, चेहरे से बदमाशी और लुटेरापन झलक रहा है, इसका नाम ज़ालिमखां है।

दूसरा शक्स जो उसी के सामने वीरासन में बैठा है उसका नाम आफतखां हैं। मझोला कद, लम्बी-दाढ़ी चुस्त पायजामा और कुर्ता पहने, गंड़ासा सामने और एक छोटी-सी गठरी बाईं तरफ रखे ज़ालिमखां की बात खूब गौर से सुनता और जवाब देता है।

ज़ालिमखां : तुम्हारे मिल जाने से बड़ा सहारा हो गया।

आफतखां : इसी तरह मुझको तुम्हारे मिलने से! देखो, यह गंड़ासा, (हाथ में लेकर) इसी से हज़ारों आदमियों की जानें जायेंगी। मैं सिवाय इसके कोई दूसरा हथियार नहीं रखता। यह ज़हर से बुझाया हुआ है, जिसे ज़रा भी इसका जख्म लग जाये फिर उसके बचने की कोई उम्मीद नहीं।

ज़ालिमखां : बहुत परेशान होने पर तुमसे मुलाकात हुई!

आफतखां : मुझे तुमसे ज़रूर मिलना था, इसलिए इश्तिहार चिपका दिये क्योंकि तुम लोगों का ठिकाना तो नहीं जहां खोजता। लेकिन मुझे यकीन था कि तुम ऐयारी ज़रूर जानते होगे, इसलिए ऐयारी बोली में अपना ठिकाना लिख दिया कि जिससे दूसरे की समझ न आवे कि कहां बुलाया है।

ज़ालिमखां : ऐसे ही कुछ थोड़ी-सी ऐयारी सीखी थी, मगर तुम इस फन में उस्ताद मालूम होते हो, तभी तो बद्रीनाथ को झट गिरफ्तार कर लिया।

आफतखां : उस्ताद तो मैं कुछ भी नहीं, मगर हां बद्रीनाथ जैसे छोकरे के लिए बहुत हूं।

ज़ालिमखां : जो चाहो कहो, मगर मैंने तुम्हें अपना उस्ताद मान लिया, ज़रा बद्रीनाथ की सूरत तो दिखा दो।

आफतखां : हां, हां, देखो, धड़ तो उसका गाड़ दिया सिर गठरी में बंधा है, लेकिन हाथ मत लगाना क्योंकि इसको मसाले में तर किया है जिससे कल तक सड़ न जाये।

इतना कह आफतखां ने अपने बगल वाली गठरी खोली जिसमें बद्रीनाथ का सिर बंधा हुआ था। कपड़ा खून से तर हो रहा था। जितने आदमी उसके साथियों में से उस जगह थे बद्रीनाथ की खोपड़ी देख खुशी के मारे उछलने लगे।

ज़ालिमखां : यह शक्स बड़ा शैतान था।

आफतखां : लेकिन मुझसे बच के कहां जाता।

ज़ालिमखां : मगर उस्ताद, तुम एक बात बड़ी बेढ़ब कहते हो कि कल बारह बजे रात को महल में चलना होगा।

आफतखां : बेढब क्या है? देखो कैसा तमाशा होता है!

ज़ालिमखां : मगर उस्ताद तुम्हारे इश्तिहार दे देने से उस वक़्त वहां बहुत से आदमी इकट्ठे होंगे, कहीं ऐसा न हो कि हम गिरफ्तार हो जायें।

आफतखां : ऐसा कौन है जो हम लोगों को गिरफ्तार करे?

ज़ालिमखां : तो इसमें क्या फायदा कि अपनी जान जोखिम में डाली जाये, वक़्त टाल के क्यों नहीं चलते?

आफतखां : तुम लोग गधे हो, कुछ खबर भी है कि हमने ऐसा क्यों किया?

ज़ालिमखां : अब यह तो तुम जानो।

आफतखां : सुनो, मैं बताता हूं। मेरी योजना यह है कि जहां तक हो सके जल्दी से उन लोगों को मार-पीट कर सब मामला खत्म कर दूं। उस वक़्त वहां जितने आदमी मौजूद होंगे, सभी को बस तुम मुर्दा ही समझ लो, बिना हाथ-पैर हिलाये सभी का काम तमाम करूं तो सही।

ज़ालिमखां : भला उस्ताद, यह कैसे हो सकता है?

आफतखां : (बटुए में से एक गोला निकालकर और दिखाकर) देखो इस किस्म के बहुत से गोले मैंने बना रखे हैं जो एक-एक तुम लोगों के हाथ में दे दूंगा। बस वहां पहुंचते ही तुम लोग इन गोलों को उन लोगों के हुजूम (भीड़) में फेंक देना जो हम लोगों को गिरफ्तार करने के लिए मौजूद होंगे। गिरते ही ये गोले भारी आवाज़ देकर फूट जायेंगे और इनमें से बहुत सा धुआं निकलेगा जिसमें वे लोग छिप जायेंगे, आंखों में धुआं लगते ही अंधे हो जायेंगे और नाक के अन्दर जहां धुआं गया नहीं कि उन लोगों की जान गई, ऐसा ही जहरीला यह धुआं होगा।

आफतखां की बात सुनकर सबके-सब खुशी से उछल पडे। ज़ालिमखां ने कहा, ‘‘भला उस्ताद एक गोला यहां पटक के तो दिखाओ, हम लोग भी देख लें तो दिल मजबूत हो जायेगा।’’

‘‘हां देखो।’’ यह कह के आफतखां ने वह गोला ज़मीन पर पटक दिया, एक भारी आवाज़ के साथ गोला फट गया और बहुत-सा जहरीला धुआं फैला जिसको देखते ही आफतखां, ज़ालिमखां और उनके साथ लोग जल्दी से हट गये, तिस पर भी उन लोगों की आंखें सूज गई और सिर घूमने लगा। यह देखते ही आफतखां ने भी अपने बटुए में से मरहम की एक डिबिया निकाली और सभी की आंखों में वह मरहम लगाया तथा हाथ में मलकर सुंघाया जिससे उन लोगों की तबीयत कुछ ठिकाने हुई और वे आफतखां की तारीफ करने लगे।

ज़ालिमखां : वाह उस्ताद, यह तो तुमने बहुत ही बढ़िया चीज़ बनाई है।

आफतखां : क्यों, अब तो महल में चलने का हौसला हुआ?

ज़ालिमखां : शुक्र है उस पाक परवरदिगार का जिसने तुम्हें मिला दिया! जो काम हम साल भर में करते सो तुम एक रोज़ में कर सकते हो। वाह उस्ताद! वाह! अब तो हम लोग उछलते कूदते महल में चलेंगे और सभी को दोजख में पहुंचायेंगे, लाओ एक-एक गोला सभी को दे दो।

आफतखां : अभी क्यों, जब चलने लगेंगे, दे देंगे, कल का दिन जो काटना है।

ज़ालिमखां : अच्छा, लेकिन उस्ताद तुमने इतने दिन पीछे का इश्तिहार क्यों दे दिया?

आज ही का दिन अगर मुकर्रर होता तो मजा आ जाता।

आफतखां : हमने समझा था कि बद्रीनाथ ज़रा चालाक है, शायद जल्द हाथ न लगे इसलिए ऐसा किया, मगर यह तो निरा बोदा निकला।

ज़ालिमखां : अब क्या करना चाहिए?

आफतखां : इस वक़्त तो कुछ नहीं है, मगर कल बारह बजे रात को महल में चलने के लिए तैयार रहना चाहिए!

ज़ालिमखां : इसके कहने की ज़रूरत नहीं, अब तो हम और तुम साथ ही हैं, जब जो कहोगे, करेंगे।

आफतखां : अच्छा तो आज यहां से टलकर किसी दूसरी जगह आराम करना मुनासिब है। कल देखो, खुदा क्या करता है। मैं तो कसम खा चुका हूं कि महल में जाकर सभी का काम तमाम किये एक दाना मुंह नें नहीं डालूंगा।

ज़ालिमखां : उस्ताद ऐसा नहीं करना, तुम कमज़ोर हो जाओगे।

आफतखां : बस चुप रहो, बिना खाये हमारा कुछ नहीं बिगड़ सकता।

इसके बाद सब वहां से उठकर एक तरफ को रवाना हो गये।

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