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उपन्यास >> चंद्रकान्ता

चंद्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

तेरहवां बयान


खोह वाले तिलिस्मी के अन्दर बाग में कुंवर वीरेन्द्रसिंह और योगी से बातचीत होने लगी जिसे वनकन्या और उनके ऐयार बखूबी सुन रहे थे।

कुमार : पहले यह कहिये, चन्द्रकान्ता जीती है या मर गई?

योगी : राम राम चन्द्रकान्ता को कोई मार सकता है? वह बहुत अच्छी तरह से इस दुनिया में मौजूद है।

कुमार : क्या उसकी मुझसे फिर मुलाकात होगी?

योगी : ज़रूर होगी।

कुमार : कब?

योगी : (वनकन्या की तरफ इशारा करके) जब यह चाहेगी।

इतना सुन कुमार वनकन्या की तरफ देखने लगे। इस वक़्त उसकी अजीब हालत थी। बदन में घड़ी-घड़ी कंपकपी हो रही थी, घबराई सी नज़र पड़ती थी। उसकी ऐसी गति को देखकर एक दफे योगी ने अपनी कड़ी और तिरछी निगाह उस पर डाली, जिसे देखते ही वह सम्हल गई। कुंवर वीरेन्द्रसिंह ने भी इसे अच्छी तरह से देखा और फिर कहा।

कुमार : अगर आपकी कृपा होगी तो चन्द्रकान्ता से अवश्य मिल सकूंगा।

योगी : नहीं, यह काम बिलकुल (वनकन्या को दिखाकर) इसी के हाथ में हैं मगर यह मेरे हुक्म में हैं, अस्तु आप घबराते क्यों हैं, और जो जो बातें आपको पूछना हो पूछ लीजिए, फिर चन्द्रकान्ता से मिलने की युक्ति भी बता दी जायेगी।

कुमार : अच्छा यह बताइये कि वनकन्या कौन है?

योगी : एक राजा की लड़की।

कुमार : मुझ पर इसने बहुत उपकार किये, इसका क्या सबब है?

योगी : इसका यही सबब है कि कुमारी चन्द्रकान्ता में और इसमें बहुत प्रेम है।

कुमार : अगर ऐसा है तो मुझसे शादी क्यों करना चाहती है?

योगी : तुम्हारे साथ शादी करने की कोई ज़रूरत नहीं, और न यह तुमको चाहती ही है। केवल चन्द्रकान्ता की जिद से लाचार है, क्योंकि उसको यही मंजूर है।

योगी की आखिरी बात सुनकर कुमार मन में बहुत खुश हुए और फिर योगी से बोले–

कुमार : जब चन्द्रकान्ता से इनकी इतनी मुहब्बत है तो यह उसे मेरे सामने क्यों नहीं लातीं?

योगी : अभी उसका समय नहीं है।

कुमार : क्यों?

योगी : जब राजा सुरेन्द्रसिंह और जयसिंह को आप यहां लायेंगे, तब यह कुमारी चन्द्रकान्ता को लाकर उनके हवाले कर देगी।

कुमार : तो मैं अभी यहां से जाता हूं, जहां तक होगा उन दोनों को लेकर बहुत जल्द आऊंगा।

योगी : मगर पहले हमारी एक बात का जवाब दे लो।

कुमार : वह क्या?

योगी : (वनकन्या की तरफ इशारा करके) इस लड़की ने तुम्हारी बहुत कुछ मदद की है और तुमने तथा तुम्हारे ऐयारों ने इसे देखा भी है। इसका हाल और कौन-कौन जानता है और तुम्हारे ऐयारों के सिवाय इसे और किस-किस ने देखा है?

कुमार : मेरे और फतहसिंह के सिवाय इसे आज तक किसी ने नहीं देखा। हां, आज ऐयार लोग इनको ज़रूर देख रहे हैं।

वनकन्या : एक दफे ये (तेज़सिंह की तरफ बताकर) मुझसे मिल गये हैं, मगर शायद वह हाल इन्होंने आपसे न कहा हो, क्योंकि मैंने कसम दे दी थी।

यह सुनकर कुमार ने तेज़सिंह की तरफ देखा। उन्होंने कहा, ‘‘जी हां, यह उस वक़्त की बात है जब आपने मुझसे कहा था कि आजकल तुम लोगों की ऐयारी में उल्ली लग गई है। तब मैंने कोशिश करके इनसे मुलाकात की और कहा कि अपना पूरा हाल मुझसे जब तक न कहेंगी, मैं न मांनूगा और आपका पीछा न छोड़ूगा’। तब इन्होंने कहा कि ‘‘एक दिन वह आवेगा कि चन्द्रकान्ता और मैं कुमार की कहलायेंगी, मगर इस वक़्त तुम मेरा पीछा मत करो नहीं तो तुम्हीं लोगों के काम का हर्ज़ होगा।’’ तब मैंने कहा कि–‘अगर आप इस बात की कसम खायें कि चन्द्रकान्ता कुमार को मिलेंगी तो इस वक़्त मैं यहां से चला जाऊंगा।’ इन्होंने कहा कि ‘तुम भी इस बात की कसम खाओ कि आज का हाल तब तक किसी से न कहोगे जब तक मेरा और कुमार का सामना न हो जाये’। आखिर इस बात की हम दोनों ने कसम खाई। यही सबब है कि पूछने पर भी मैंने यह सब हाल किसी से नहीं कहा, आज इनका और आपका पूरी तरह से सामना हो गया इसलिए कहा है।’’

योगी : (कुमार से) अच्छा तो इस लड़की को सिवाय तुम्हारे तथा ऐयार लोगों के और किसी ने नहीं देखा, मगर इसका हाल तो तुम्हारे लश्कर वाले जानते होंगे कि आजकल कोई नई औरत आई है जो कुमार की मदद कर रही है।

कुमार : नहीं, यह हाल भी किसी को मालूम नहीं, क्योंकि सिवाय ऐसारों के मैं और किसी से इनका हाल कहता ही न था और ऐयार लोग सिवाय अपनी मंडली के दूसरे को किसी बात का पता क्यों देने लगे। हां, इनके नकाबपोश सवारों को हमारे लश्कर वालों ने कई दफे देखा है और इनका खत लेकर भी जब-जब कोई हमारे पास गया तब हमारे लश्कर वालों ने देखकर शायद कुछ समझा हो।

योगी : इसका कोई हर्ज़ नहीं। अच्छा यह बताओ कि तुम्हारी जुबानी राजा सुरेन्द्रसिंह और जयसिंह ने भी कुछ इसका हाल सुना है?

कुमार : उन्होंने तो नहीं सुना, हां तेज़सिंह के पिता जीतसिंहजी से मैंने सब हाल ज़रूर कह दिया था, शायद उन्होंने मेरे पिता से कहा हो।

योगी : नहीं, जीतसिंह यह सब हाल तुम्हारें पिता से कभी न कहेंगे। मगर अब तुम इस बात का खूब खयाल रखो कि वनकन्या ने जो-जो काम तुम्हारे साथ किये हैं उनका हाल किसी को न मालूम हो।

कुमार : मैं कभी न कहूंगा, मगर आप यह तो बतायें कि इनका हाल किसी से न कहने में क्या फायदा सोचा है? अगर मैं किसी से कहूंगा तो इसमें इनकी तारीफ ही होगी।

योगी : तुम लोगों के बीच में चाहे इसकी तारीफ हो, मगर यह सब हाल इसके मां-बाप सुनेंगे तो उन्हें कितना रंज होगा? क्योंकि एक बड़े घर की लड़की का पराये मर्द से मिलना और पत्र-व्यवहार करना तथा विवाह का संदेश देना इत्यादि कितने दोष की बात है।

कुमार : हां, यह तो ठीक है। अच्छा, इनके मां-बाप कौन हैं और कहां रहते हैं?

योगी : इसका हाल भी तुमको तब मालूम होगा जब राजा सुरेन्द्रसिंह और महाराज जयसिंह यहां आयेंगे और कुमारी चन्द्रकान्ता उनके हवाले कर दी जायेगी।

कुमार : तो आप मुझे हुक्म दीजिये कि मैं इसी वक़्त उन लोगों को लाने के लिए यहां से चला जाऊं।

योगी : यहां से जाने का भला यह कौन-सा वक़्त है। क्या शहर का मामला है? रात भर ठहर जाओ, सुबह को जाना रात भी अब थोड़ी ही रह गई है, कुछ आराम कर लो।

कुमार : जैसी आपकी मर्जी।

गर्मी बहुत थी इस वजह से इसी मैदान में कुमार ने सोना पसन्द किया। इन सभी के सोने का इन्तज़ाम योगीजी के हुक्म से उसी वक़्त कर दिया गया। इसके बाद योगीजी अपने कमरे की तरफ रवाना हुए और वनकन्या भी एक तरफ को चली गई।

थोड़ी-सी रात बाकी थी, वह भी उन लोगों में बातचीत करते बीत गई। अभी सूरज नहीं निकला था कि योगीजी अकेले फिर कुमार के पास आ मौजूद हुए और बोले, ‘‘मैं रात को एक बात कहना भूल गया था जो इस वक़्त समझाये देता हूं। जब राजा जयसिंह इस खोह में आने के लिए तैयार हो जायें बल्कि तुम्हारे पिता और जयसिंह दोनों मिलकर इस खोह के दरवाज़े तक आ जायें तब पहले तुम उन लोगों को बाहर ही छोड़कर अपने ऐयारों के साथ यहां आकर हमसे मिल जाना, इसके बाद उन लोगों को यहां लाना, और इस वक़्त स्नान पूजा से छुट्टी पाकर तब यहां से जाओ। कुमार ने ऐसा ही किया, मगर योगी की आखिरी बात से इनकी ओर से भी ताज्जुब हुआ कि हमें पहले क्यों बुलाया?’’

कुछ खाने का सामान हो गया। कुमार और ऐयारों को खिला-पिलाकर योगी ने विदा कर दिया।

दोहरा के लिखने की कोई ज़रूरत नहीं, खोह में घूमते-घूमते कुंवर वीरेन्द्रसिंह और उनके ऐयार जिस तरह इस बाग तक आये थे उसी तरह इस बाग से दूसरे और तीसरे में होते सब लोग खोह के बाहर हुए और एक घने पेड़ के नीचे सभी को बैठा देवीसिंह कुमार के लिए घोड़ा लाने नौगढ़ चले गये।

थोड़ा दिन बाकी था जब देवीसिंह घोड़ा लेकर कुमार के पास पहुंचे, जिस पर सवार होकर कुंवर वीरेन्द्रसिंह अपने ऐयारों के साथ नौगढ़ की तरफ रवाना हुए।

नौगढ़ पहुंचकर अपने पिता से मुलाकात की और महल में जाकर अपनी माता से मिले। अपना कुल हाल किसी से नहीं कहा, हां पन्नालाल वगैरह की जुबानी इतना हाल इनको मिला कि कोई ज़ालिमखां इन लोगों का दुश्मन पैदा हुआ है जिसने विजयगढ़ में कई खून किये हैं और वहां की रियाया उनके नाम से कांप रही है, पंडित बद्रीनाथ उसको गिरफ्तार करने गये हैं, उनके जाने के बाद यह भी खबर मिली है कि एक आफतखां नामी दूसरा शख्स पैदा हुआ है जिसने इस बात का इश्तिहार दे दिया है कि फलां रोज़ बद्रीनाथ का सिर लेकर महल में पहुंचूंगा देखूं, मुझे कौन गिरफ्तार करता है?

इन सब खबरों को सुनकर कुंवर वीरेन्द्रसिंह, तेज़सिंह और ज्योतिषीजी बहुत घबराये और सोचने लगे कि जिस तरह हो, विजयगढ़ पहुंचना चाहिए क्योंकि अगर ऐसे वक़्त में वहां पहुंचकर महाराज जयसिंह की मदद न करेंगे, और उन शैतानों के हाथ से वहां की रियाया को न बचायेंगे तो कुमारी चन्द्रकान्ता को हमेशा के लिए ताना मारने की जगह मिल जायेगी और हम उनके सामने मुंह दिखाने लायक भी न रहेंगे।

इसके बाद यह भी मालूम हुआ है कि जीतसिंह पन्द्रह दिनों की छुट्टी लेकर कहीं गये हैं। इस खबर ने तेज़सिंह को परेशान कर दिया। वह इस सोच में पड़ गये कि उनके पिता कहां गये, क्योंकि उनकी बिरादरी में कहीं कुछ काम न था जहां जाते, तब इस बहाने से छुट्ठी लेकर क्यों गये?

तेज़सिंह ने अपने घर में जाकर अपनी मां से पूछा कि ‘‘हमारे पिता कहां गये हैं?’’ जिसके जवाब में बेचारी ने कहा, ‘‘बेटा, क्या ऐयारों के घर की औरतें इस लायक होती है कि उनके मालिक अपना ठीक-ठीक हाल उनसे कहा करें?’’

इतना ही सुनकर तेज़सिंह चुप हो रहे। दूसरे दिन राजा सुरेन्द्रसिंह के पूछने पर तेज़सिंह ने इतना कहा कि हम लोग कुमारी चन्द्रकान्ता को खोजने के लिए खोह में गये थे, वहां एक योगी से मुलाकात हुई जिसने कहा कि अगर राजा सुरेन्द्रसिंह और महाराज जयसिंह को लेकर यहां आओ तो मैं चन्द्रकान्ता को बुलाकर उसके बाप के हवाले कर दूं। इसी सबब से हम लोग आपको और महाराज जयसिंह को लेने आये हैं।’’

राजा सुरेन्द्रसिंह ने खुश होकर कहा, ‘‘हम तो अभी चलने को तैयार हैं मगर महाराज जयसिंह तो ऐसी आफत में फंस गये हैं कि कुछ कह नहीं सकते। पंडित बद्रीनाथ यहां से गये हैं, देखें क्या होता है? तुमने तो वहां का हाल सुना ही होगा!’’

तेज़सिंह : मैं सब हाल सुन चुका हूं, हम लोगों को वहां पहुंचकर मदद करना मुनासिब है।

सुरेन्द्रसिंह : मैं खुद यह कहने को था। कुमार की क्या राय है, वे आयेंगे या नहीं?

तेज़सिंह : आप खुद जानते हैं कि कुमार काल से भी डरने वाले नहीं, वह ज़ालिमखां क्या चीज़ है।

राजा० : ठीक है, मगर किसी वीर पुरुष का मुकाबला करना हम लोगों का धर्म है और चोर तथा डाकुओं या ऐयारों का मुकाबला करना तुम लोगों का काम है, क्या जाने वह छिपकर कहीं कुमार पर ही घात कर बैठे।

तेज़सिंह : वीरों और बहादुरों से लड़ना कुमार का काम है सही, मगर दुष्ट, चोर-डाकू या और किसी की भी क्या मज़ाल है कि हम लोगों के रहते कुमार का बाल-बांका कर जाये।

राजा० : हम तो नाम के आगे जान कोई चीज़ नहीं समझते, मगर दुष्ट घातियों से बचे रहना भी धर्म है। सिवाय इसके कुमार के वहां गये बिना कोई हर्ज़ भी नहीं है, अस्तु तुम लोग जाओ और महाराज जयसिंह की मदद करो। जब ज़ालिमखां गिरफ्तार हो जाये तो महाराज को सब हाल कह-सुनकर यहां लेते आना फिर हम भी साथ होकर खोह में चलेंगे।

राजा सुरेन्द्रसिंह की इच्छा कुमार को इस वक़्त विजयगढ़ जाने देने की नहीं समझकर और राजा से बहुत जिद करना भी बुरा खयाल करके तेज़सिंह चुप हो रहे, अकेले ही विजयगढ़ जाने के लिए महाराज से हुक्म लिया और उनके खास हाथ की लिखी हुई चिट्ठी का खलीता लेकर विजयगढ़ की तरफ रवाना हुए।

कुछ दूर जाकर दोपहर की धूप घने जंगल के पेड़ों के झुरमुट में काटी और ठण्डे हो रवाना हुए। विजयगढ़ पहुंचकर महल में आधी रात को ठीक उस वक़्त पहुंचे जब बहुत से जवांमर्दों की भीड़ बटुरी हुई थी और हर एक आदमी चौकना होकर हर तरफ देख रहा था। एकाएक पूरब की छत से धमाधम छः आदमी कूद कर बीचोंबीच भीड़ में आ खड़े हुए, उनके आगे-आगे बद्रीनाथ का सिर हाथ में लिए आफतखां था।

तेज़सिंह को अभी तक किसी ने नहीं देखा था, इस वक़्त इन्होंने ललकार कर कहा, ‘‘पकड़ो इन नालायकों को, अब देखते हो?’’ इतना कहकर आप भी कमन्द फैला कर उन लोगों की तरफ फेंका, तब तक बहुत से आदमी टूट पड़े। उन लोगों के हाथ में जो गेंद मौजूद थे ज़मीन पर पटकने लगे, मगर कुछ नहीं, वहां से तो मामला ठण्डा था, गेंद क्या था धोखे की टट्टी थी। कुछ करते-धरते न बन पड़ा और सब के सब गिरफ्तार हो गये।

अब तेज़सिंह को सभी ने देखा, आफतखां ने भी इनकी तरफ देखा और कहा, ‘‘तेज़, मेमचे बद्री।’’ इतना सुनते ही तेज़सिंह ने आफतखां का हाथ पकड़ कर उसको सभी से अलग कर लिया और हाथ-पैर खोल गले से लगा लिया। सब गुल मचाने लगे, ‘‘हां, हां, यह क्या करते हो, यही तो बड़ा भारी दुष्ट है, इसी ने तो ब्रदीनाथ को मारा है। देखो इसी के हाथ में बेचारे बद्रीनाथ का सिर है, तुम्हें क्या हो गया कि इसके साथ नेकी करते हो?’’ पर तेज़सिंह ने घुड़ककर कहा–‘‘चुप रहो, कुछ खबर भी है कि यह कौन है? बद्रीनाथ को मारना क्या खेल हो गया है?’’

तेज़सिंह की इज्जत को सभी जानते थे। किसी की मजाल न थी कि उनकी बात काटता। आफतखां को उनके हवाले करना ही पड़ा मगर बाकी पांचों आदमियों को मजबूती से बांधा।

आफतखां का हाथ भी तेज़सिंह ने छोड़ दिया और साथ-साथ लिए हुए महाराज जयसिंह की तरफ चले। चारों तरफ धूम मची थी। ज़ालिमखां और उसके साथियों के गिरफ्तार हो जाने पर भी लोग कांप रहे थे, महाराज तो दूर से तमाशा देख रहे थे। तेज़सिंह को आफतखां के साथ अपनी तरफ आते देख घबरा गये। म्यान से तलवार खींच ली। तेज़सिंह ने पुकार कर कहा, ‘‘घबराइये नहीं हम दोनों आपके दुश्मन नहीं है, ये जो हमारे साथ हैं और जिन्हें आप कुछ समझे हुए हैं वास्तव में पंडित बद्रीनाथ है।’’ यह कह आफतखां की दाढ़ी हाथ से पकड़ कर झटक दी जिससे बद्रीनाथ कुछ पहचाने गये।

अब महाराज जयसिंह का जी ठिकाने हुआ। पूछा–‘‘बद्रीनाथ उनके साथ क्यों थे?’’

बद्रीनाथ : महाराज अगर मैं उनका साथी न बनता तो उन लोगों को यहां तक लाकर गिरफ्तार कौन कराता?

महाराज : तुम्हारे हाथ में यह सिर किसका लटक रहा है?

बद्रीनाथ : मोम, का बिलकुल बनावटी!

अब तो धूम मच गयी कि ज़ालिमखां को बद्रीनाथ ऐयार ने गिरफ्तार कराया। इनके चारों तरफ भीड़ लग गई, एक पर एक टूटा पड़ता था। बड़े ही मुश्किल से बद्रीनाथ उस झुण्ड से अलग किये गए। ज़ालिमखां वगैरह को भी मालूम हो गया कि आफतखां कृपानिधान बद्रीनाथ थे जिन्होंने हम लोगों को बेढब धोखा देकर फंसाया, मगर इस वक़्त क्या कर सकते थे। हाथ-पैर सभी के बंधे थे, कुछ ज़ोर नहीं चल सकता था, लाचार होकर बद्रीनाथ को गालियां देने लगे। सच है, जब आदमी की जान पर आ बनती है तब जो जी में आता है बकता है।

बद्रीनाथ ने उनकी गालियों का कुछ खयाल न किया बल्कि उन लोगों की तरफ देख कर हंस दिये। उनके साथ बहुत-से आदमी भी नहीं बल्कि महाराज तक हंस पड़े।

महाराज के हुक्म से सब आदमी महल के बाहर कर दिये गये, सिर्फ थोड़े से मामूली उमरा लोग रह गये और महल के अन्दर ही कोठरी में हाथ-पैर जकड़कर ज़ालिमखां और उसके साथी बन्द कर दिये गये। पानी मंगवा कर बद्रीनाथ के हाथ-पैर धुलवाये गये, इसके बाद दीवान खाने में बैठ कर बद्रीनाथ से सब खुलासा हाल ज़ालिमखां के गिरफ्तार करने का पूछने लगे जिसके सुनने के लिए तेज़सिंह भी व्याकुल हो रहे थे।

बद्रीनाथ ने कहा, ‘‘महाराज, इस दुष्ट ज़ालिमखां से मिलने की पहली तरकीब मैंने यह की कि अपना नाम आफतखां रख कर इश्तिहार दिया और अपने मिलने का ठिकाना ऐसी बोली से लिखा कि सिवाय उसके या ऐयारों के किसी की समझ में न आये। यह तो मैं जानता ही था कि यहां इस वक़्त कोई ऐयार नहीं है जो मेरी इस लिखावट को समझेगा।

महाराज : हां ठीक है, तुमने अपने मिलने का ठिकाना ‘टेटी-चोटी’ लिखा था, इसका क्या अर्थ है?

बद्रीनाथ : ऐयारी बोली में ‘टेटी-चोटी’ भयानक नाले को कहते हैं।

इसके बाद बद्रीनाथ ने ज़ालिमखां से मिलने का और गेंद का तमाशा दिखला के धोखे का गेंद उन लोगों के हवाले कर भुलावा दे महल में ले आने का पूरा हाल कहा, जिसको सुन कर महाराज बहुत ही खुश हुए और इनाम में बहुत-सी जागीर बद्रीनाथ को देनी चाही, मगर उन्होंने उसको लेने से बिलकुल इनकार किया और कहा बिना मालिक की आज्ञा के मैं आपसे कुछ नहीं ले सकता, उनकी तरफ से मैं जिस काम पर मुकर्रर किया गया था, जहां तक हो सका उसे पूरा कर दिया।

इसी तरह से बहुत से उज्र बद्रीनाथ ने किये जिनको सुन महाराज और भी खुश हुए और वादा कर लिया कि किसी और मौके पर बद्रीनाथ को बहुत कुछ देंगे जब ये लेने से इनकार न कर सकेंगे।

बात-की-बात में सवेरा हो गया, तेज़सिंह और बद्रीनाथ महाराज से विदा हो दीवान हरदयालसिंह के घर-आये।

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