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उपन्यास >> चंद्रकान्ता

चंद्रकान्ता

देवकीनन्दन खत्री

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2021
पृष्ठ :272
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8395
आईएसबीएन :978-1-61301-007-5

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चंद्रकान्ता पुस्तक का ई-संस्करण

तेईसवां बयान


जिस राह से कुंवर वीरेन्द्रसिंह वगैरह आया-जाया करते थे और महाराज जयसिंह आये थे वह राह इस लायक नहीं थी कि कोई हाथी, घोड़ा या पालकी पर सवार होकर आये, और ऊपर वाली दूसरी राह में खोह के दरवाज़े तक जाने में कुछ चक्कर पड़ता था, इसलिए जीतसिंह ने कुमारी के वास्ते पालकी मंगायी। मगर दोनों महाराज और कुंवर वीरेन्द्रसिंह किस पर सवार होंगे, अब वे यह सोचने लगे।

वहां खोह में दो घोड़े भी थे जो कुमारी की सवारी के वास्ते लाये गये थे। जीतसिंह ने उन्हें महाराज जयसिंह और राजा सुरेन्द्रसिंह की सवारी के लिए तजवीज करके कुमार के वास्ते एक हवादार मंगवाया, लेकिन कुमार ने उस पर सवार होने से इनकार करके पैदल चलना कबूल किया।

उसी बाग के दक्खिन की तरफ बड़ा फाटक था जिसके दोनों बगल लोहे की दो खूबसूरत पुतलियां थीं। बाईं तरफ वाली पुतली के पास जीतसिंह पहुंचे और उसकी दाहिनी आंख में उंगली डाली, साथ उसका पेट दो पल्लों की तरह खुल गया और बीच में चांदी का एक मुट्ठा नज़र पड़ा जिसे जीतसिंह ने घुमाना शुरू किया।

जैसे-जैसे मुट्ठा घुमाते थे तैसे-तैसे वह फाटक ज़मीन में घुसता जाता था। यहां तक कि तमाम ज़मीन के अन्दर चला गया और बाहर खुशनुमा सब्ज भरा हुआ मैदान नज़र पड़ा।

फाटक खुलने के बाद जीतसिंह इन लोगों के पास आकर बोले, ‘‘इस राह से हम लोग बाहर चलेंगे।’’

दिन आधी घड़ी से ज़्यादा न बीता होगा जब महाराज जयसिंह और सुरेन्द्रसिंह घोड़े पर सवार हो कुमारी चन्द्रकान्ता की पालकी आगे कर फाटक* के बाहर हुए। (*फाटक के बाहर भी उसी ढंग की दो पुतलियां थी। उसी तरह बाईं तरफ वाली पुतली का पेट खोल मुट्ठा उलटा घुमाकर फाटक बन्द किया गया।)

दोनों महाराजाओं के बीच दोनों हाथों से दोनों घोड़ों की रकाब पकड़े हुए जीतसिंह बातें करते और इनके पीछे कुंवर वीरेन्द्रसिंह अपने ऐयारों को चारों तरफ लिए कन्हैया बने खोह के फाटक की तरफ रवाना हुए।

पहर भर चलने के बाद ये लोग उसी लश्कर में पहुंचे जो खोह के दरवाज़े पर उतरा हुआ था। रात भर उसी जगह रहकर सुबह को कूच किया। यहां से खूबसूरत और कीमती कपड़े पहने कहारों ने कुमारी की पालकी उठाई और महाराज जयसिंह के साथ विजयगढ़ रवाना हुए, मगर वे लौंडियां भी जो आज तक कुमारी के साथ थीं और यहां तक उनकी पालकी उठाकर लाई थीं, मुहब्बत की वजह और महाराज सुरेन्द्रसिंह के हुक्म से कुमारी के साथ गईं।

सुरेन्द्रसिंह कुमार को साथ लिये हुए नौगढ़ पहुंचे वीरेन्द्रसिंह पहले महल में जाकर अपनी मां से मिले और कुलदेवी की पूजा कर बाहर आये।

अब तो बड़ी खुशी से दिन गुज़रने लगे, आठवें रोज़ महाराज जयसिंह का भेजा हुआ तिलक पहुंचा और धूमधाम से वीरेन्द्रसिंह को चढ़ाया गया।

पाठक, अब तो कुंवर वीरेन्द्रसिंह और चन्द्रकान्ता का वृतान्त समाप्त ही हुआ समझिए, बाकी रह गई सिर्फ कुमार की शादी, सो इस वक़्त सब किस्से को मुख्तसर में लिखकर सिर्फ बारात के लिए कई काग़ज़ के रंगना मुझे मंजूर नहीं। मैं यह नहीं लिखना चाहता कि नौगढ़ से विजयगढ़ तक रास्ते की सफाई की गई, इत्यादि। आप खुद खयाल कर सकते हैं कि ऐसे आशिक माशूक की बारात किस धूमधाम की होगी, तिस पर दोनों ही राजा और दोनों ही की मात्र एक-एक औलाद। तिलिस्म फतह करने और माल-खज़ाना पाने की खुशी ने और भी दिमाग बढ़ा रक्खा था! मैं सिर्फ इतना ही लिखना पसन्द करता हूं कि अच्छी सायत में कुवंर वीरेन्द्रसिंह की बारात बड़े धूमधाम से विजयगढ़ की तरफ रवाना हुई।

बारात को मुख्तसर ही में लिखकर बला टाली मगर एक आखिरी दिल्लगी लिखे बिना जी नहीं मानता, क्योंकि वह पढ़ने के काबिल है।

विजयगढ़ में जनवासे की तैयारी सबसे बढ़ी-चढ़ी थी। बारात पहुंचने के पहले ही से समा बंधा हुआ था, अच्छी-अच्छी खूबसूरत और गाने के इल्म को पूरे तौर पर जानने वाली रंडियों से महफिल भरी हुई थी, मगर बिना वक़्त बारात पहुंची, अजब झमेला मचा।

बारात के आगे-आगे शिवदत्त बड़ी तैयारी से घोड़े पर सवार सरपंच बांधे कमर में दोहरी तलवार लगाये, हाथ में झंडा लिए जनवासे के दरवाज़े पर पहुंचे, इसके बाद धीरे-धीरे जलूस पहुंचा। दूल्हा बने हुए कुमार घोड़े से उतर कर जनवासे के अन्दर गये।

कुमार वीरेन्द्रसिंह को घोड़े से उतरकर जनवासे के अन्दर जाना ही था कि बाहर हो हल्ला मच गया। सब कोई देखने लगे कि दो महाराज शिवदत्त आपस में लड़ रहे हैं। दोनों की तलवारें तेज़ी के साथ चल रही हैं और दोनों ही के मुंह से यही आवाज़ निकल रही है कि ‘हमारी मदद को कोई न आये, सब दूर से तमाशा देखें। एक महाराज शिवदत्त तो वही थे जो अभी-अभी सरपंच बांधे हाथ में झण्डा लिए घोड़े पर सवार आये थे। और दूसरे महाराज शिवदत्त मामूली पोशाक पहने हुए थे मगर बहादुरी के साथ लड़ रहे थे।

थोड़ी ही देर में हमारे महाराज शिवदत्त को (जो झण्डा उठाये घोड़े पर सवार आये) इतना मौका मिला की कमर में से कमन्द निकाल अपने मुकाबले वाले दुश्मन महाराज शिवदत्त को बांध लिया और घसीटते हुए जनवासे के अन्दर चले। पीछे पीछे बहुत से आदमीयों की भीड़ इन दोनों को ताज्जुब भरी निगाहों से देखती हुई अन्दर पहुँची।

हमारे महाराज शिवदत्त ने दूसरे साधारण पोशाक पहने हुए महाराज शिवदत्त को एक खम्भे के साथ खूब कस कर बांध दिया और एक मशालची के हाथ से जो उसी जगह मशाल दिखा रहा था मशाल लेकर हाथ में थमा आप कुंवर वीरेन्द्रसिंह के पास जा बैठे। उसी जगह सोने की जड़ाऊं बर्तन गुलाबजल से भरा हुआ रक्खा था, उसी से रूमाल तक करके हमारे महाराज शिवदत्त ने अपना मुंह पोंछ डाला। पोशाक वही, सरपंच वही, मगर सूरत तेज़सिंह बहादुर की!!

अब तो मारे हंसी के पेट में बल पड़ने लगे। पाठक, आप तो दिल्लगी को खूब समझ गयें होंगे लेकिन अगर कुछ भ्रम हो गया हो तो लिखे देता हूं।

हमारे तेज़सिंह अपने कौल के मुताबिक महाराज शिवदत्त की सूरत बना सरपंच (फतह का सरपंच जो देवीसिंह लाये थे) बांध झण्डा ले कुमार की बारात के आगे-आगे थे, उधर असली महाराज शिवदत्त भी जो महाराज सुरेन्द्रसिंह से जान बचा तपस्या का बहाना कर जंगल में चले गये थे, कुंवर वीरेन्द्रसिंह की बारात की कैफियत देखने आये। फकीरी करने का तो बहाना ही था असल में तो तबीयत से बदमाशी और खोट गई नहीं थी।

महाराज शिवदत्त बारात की कैफियत देखने आये मगर आगे-आगे झण्डा हाथ में लिए अपनी सूरत देख समझ गये कि किसी ऐयार की बदमाशी है। क्षत्रियपन का खून जोश में आ गया, गुस्से को न सम्हाल सके, तलवार निकाल कर लड़ ही तो गये। आखिर नतीज़ा यह हुआ कि उनको महफिल में मशालची बनना पड़ा और कुंवर वीरेन्द्रसिंह की शादी खुशी-खुशी कुमारी चन्द्रकान्ता के साथ हो गई।

।।समाप्त।।

आगे हाल जानने के लिये 

चन्द्रकान्ता  सन्तति भाग - 1 

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