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चन्द्रकान्ता सन्तति - 2

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8400
आईएसबीएन :978-1-61301-027-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 2 पुस्तक का ई-पुस्तक संस्करण...

दूसरा बयान

इस समय शिवदत्त की खुशी का अन्दाज करना मुश्किल है और यह कोई ताज्जुब की बात भी नहीं है, क्योंकि लड़कों और दोस्त-ऐयारों के सहित राजा बीरेन्द्रसिंह को उसने ऐसा बेबस कर दिया कि उन लोगों को जान बचाना कठिन हो गया। शिवदत्त के आदमियों ने उस खँडहर को चारों तरफ़ से घेर लिया और उसे निश्चय हो गया कि अब हम पुनः चुनार की गद्दी पावेंगे और इसके साथ नौगढ़, विजयगढ़, गयाजी और रोहतासगढ़ की हुकूमत भी बिना परीश्रम हाथ लगेगी।

एक घने वटवृक्ष के नीचे अपने दोस्तों और ऐयारों को साथ लिये बैठा शिवदत्त गप्पें उड़ा रहा है। ऊपर एक सफेद चँदवा तना हुआ है। बिछावन और गद्दी उसी प्रकार की है, जैसे मामूली सरदार अथवा डाकुओं के भारी गरोह के अफसर की होनी चाहिए। दो मशालची हाथ में मशाल लिये सामने खड़े हैं और इधर-उधर कई जगह आग सुलग रही है। बाकर अली, खुदाबक्श, यारअली और अजायबसिंह ऐयार शिवदत्त के दोनों तरफ़ बैठे हैं और सभों की निगाह उन शराब की बोतलों और प्यालों पर बराबर पड़ रही है, जो शिवदत्त के सामने की काठ की चौकी पर रक्खे हुए हैं। धीरे-धीरे शराब पीने के साथ-साथ सब कोई शेखी बघार रहे हैं। कोई अपनी बहादुरी की तारीफ़ कर रहा है, तो कोई बीरेन्द्रसिंह वगैरह को सहज ही गिरफ़्तार कर लेने की तरकीब बता रहा है। शिवदत्त ने सिर उठाया और बाकरअली ऐयार की तरफ़ देखकर कुछ कहना चाहा परन्तु उसी समय उसकी निगाह सामने मैदान की तरफ़ जा पड़ी और वह चौंक उठा। ऐयारों ने भी पीछे फिरकर देखा और देर तक उसी तरफ़ देखते रहे।

दो मशालों की रोशनी जो कुछ दूर पर थी, इसी तरफ़ आती दिखायी पड़ी। वे दोनों मशाल मामूली न थे, बल्कि मालूम होता था कि लम्बे नेजे या छोटे-से बाँस के सिरे पर बहुत-सा कपड़ा लपेटकर मशाल का काम लिया गया है और उसे हाथ में लिए बल्कि ऊँचा किये हुए दो सवार घोड़ा दौड़ाते इसी तरफ़ आ रहे हैं। उन्हीं मशालों को देखकर शिवदत्त चौंका था।

बाकरअली ऐयार पेड़ के ऊपर चढ़ गया और थोड़ी देर में नीचे उतर-कर बोला, "मशाल लेकर केवल दो सवार ही नहीं हैं, बल्कि और भी कई सवार उनके साथ मालूम होते हैं।"

थोड़ी देर में शिवदत्त के कई आदमी उन सवारों को अपने साथ लिये वहीं आ पहुँचे, जहाँ शिवदत्त बैठा हुआ था। उन सवारों में से एक ने घोड़े पर से उतरने की शीघ्रता की। शिवदत्त ने पहिचान लिया कि वह उसका लड़का भीमसेन है। भीमसेन दौड़कर शिवदत्त के कदमों पर गिर पड़ा, शिवदत्त ने प्रेम के साथ उठाकर गले लगा लिया, दोनों की आँखों में आँसू भर आये और देर तक मुहब्बत भरी निगाह से एक दूसरे को देखते रह गये। इसके बाद लड़के का हाथ थामे हुए शिवदत्त अपनी गद्दी पर जा बैठा और भीमसेन से बातचीत करने लगा। उन सवारों ने भी कमर खोली जो भीमसेन के साथ आये थे।

भीमसेन : (गद्गगद् स्वर में) इन चरणों के दर्शन की कदापि आशा न थी।

शिवदत्त : ठीक है, केवल मेरी ही भूल ने यह सब किया, परन्तु आज मुझपर ईश्वर की दया हुई है, जिसका सबूत इससे बढ़कर और क्या हो सकता है कि बीरेन्द्रसिंह को मैंने फाँस लिया और मेरा प्यारा लड़का भी मुझसे आ मिला। हाँ, यह कहो तुम्हें छुट्टी क्योंकर मिली?

भीमसेन : (अपने साथियों में से एक की तरफ़ इशारा करके) केवल इनकी बदौलत मेरी जान बची।

भीमसेन ने उस आदमी को जिसकी तरफ़ इशारा किया था, अपने पास बुलाया और बैठने का इशारा किया, वह अदब के साथ सलाम करने के बाद बैठ गया। उसकी उम्र लगभग चालीस वर्ष की होगी, शरीर दुबला और कमजोर था। रंग यद्यपि गोरा और आँखें बड़ी थीं परन्तु चेहरे से उदासी और लाचारी पायी जाती थी और यह भी मालूम होता था कि कमजोर होने पर भी क्रोध ने उसे अपना सेवक बना रक्खा है।

भीमसेन : इसी ने मेरी जान बचायी है। यद्यपि यह दुबला और कमजोर मालूम होता है, परन्तु परले सिरे का दिलावर और बात का धनी है और मैं दृढ़तापूर्वक कह सकता हूँ कि इसके ऐसा चतुर और बुद्धिमान होना आजकल के जमाने में कठिन है। यह ऐयार नहीं है, मगर ऐयारों को कोई चीज़ नहीं समझता! यह रोहतासगढ़ का रहने वाला है, बीरेन्द्रसिंह के कारिन्दों के हाथ से दुःखी होकर भागा और इसने कसम खा ली है कि जब तक बीरेन्द्रसिंह और उनके खान-दान का नाम-निशान न मिटा लूँगा, अन्न न खाऊँगा, केवल कन्दमूल खाकर जान बचाऊँगा। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह जो कुछ चाहे कर सकता है। रोहतासगढ़ के तहख़ाने और (हाथ का इशारा करके) इस खँडहर का भेद भी यह बखूबी जानता है, इसने मुझे जिस चालाकी से निकाला उसका हाल इस समय कहकर समय नष्ट करना उचित नहीं जान पड़ता, क्योंकि आज ही इस थोड़ी-सी बची हुई रात में इसकी मदद से एक बारी काम निकलने की उम्मीद है। अब आप स्वयं इससे बातचीत कर लें।

भीमसेन की बात जो उस आदमी की तारीफ़ भरी हुई थी, सुनकर शिवदत्त खुशी के मारे फूल उठा और उससे स्वयं बातचीत करने लगा।

शिवदत्त : सबके पहिले मैं आपका नाम सुनना चाहता हूँ।

वह : (धीरे-से कान की तरफ़ झुककर) मुझे लोग बाँकेसिंह कहके पुकारते थे, परन्तु अब कुछ दिनों के लिए मैंने अपना नाम बदल दिया है। आप मुझे 'रूहा' कहकर पुकारा कीजिये, जिससे किसी को मेरा असल नाम मालूम न हो।

शिवदत्त : जैसा आपने कहा वैसा ही होगा। इस समय तो हमने बीरेन्द्रसिंह को अच्छी तरह घेर लिया है, उनके साथ सिपाही भी बहुत कम हैं, जिन्हें हम लोग सहज ही गिरफ़्तार कर लेंगे। आपका प्रण भी अब पूरा हुआ ही चाहता है।

रूहा : (मुस्कराकर) इस बन्दोबस्त से आप बीरेन्द्रसिंह का कुछ भी नहीं कर सकते।

शिवदत्त : सो क्यों?

रूहा : क्या आप इस बात को नहीं जानते कि खँडहर की दीवार बड़ी मज़बूत है?

शिवदत्त : बेशक मजबूत है, मगर इससे क्या हो सकता है।

रूहा : क्या इस खँडहर के भीतर घुसकर आप उनका मुकाबला कर सकेंगे?

शिवदत्त : क्यों नहीं?

रूहा : कभी नहीं। इसके अन्दर सौ आदमियों से ज़्यादे के जाने की जगह नहीं है और इतने आदमियों को बीरेन्द्रसिंह के साथी सहज ही में काट गिरावेंगे।

शिवदत्त : हमारे आदमी दीवारों पर चढ़कर हमला करेंगे और सबसे भारी बात यह है कि वे लोग दो ही तीन दिन में भूख-प्यास से तंग होकर लाचार बाहर निकलेंगे, उस समय उनको मार लेना कोई बड़ी बात नहीं।

रूहा : सो कभी नहीं हो सकता क्योंकि यह खँडहर एक छोटा-सा तिलिस्म है, जिसका रोहतासगढ़ के तहख़ानेवाले तिलिस्म से सम्बन्ध है। इसके अन्दर घुसना और दीवारों पर चढ़ना खेल नहीं है। बीरेन्द्रसिंह और उनके लड़कों को इस खँडहर का बहुत कुछ भेद मालूम है और आप कुछ भी नहीं जानते, इसी से समझ लीजिये कि आपमें, उनमें क्या फर्क है, इसके अतिरिक्त इस खँडहर में बहुत-से तहख़ाने और सुरंगें भी हैं, जिनसे वे लोग बहुत फायदा उठा सकते हैं।

शिवदत्त : (कुछ सोचकर) आप बड़े बुद्धिमान हैं और इस खँडहर का हाल अच्छी तरह जानते हैं। अब मैं अपना बिल्कुल काम आप ही की राय पर छोड़ता हूँ, जो आप कहेंगे वही मैं करूँगा, अब आप ही कहिये क्या किया जाय?

रूहा : अच्छा, मैं आपकी मदद करूँगा और राय दूँगा, पहिले आप बतावें कि बीरेन्द्रसिंह के यहाँ आने का सबब आप जानते हैं?

शिवदत्त : नहीं।

रूहा : इसका असल हाल मुझे मालूम हो चुका है। (भीमसेन की तरफ़ देखकर) उस आदमी का कहना बहुत ठीक है।

भीमसेन : बेशक, ऐसा ही है, वह आपका शागिर्द होकर आपसे झूठ कभी नहीं बोलेगा।

शिवदत्त : क्या बात है?

रूहा : हम लोग यहाँ आ रहे थे तो रास्ते में मेरा एक चेला मिला था, जिसकी जुबानी बीरेन्द्रसिंह के यहाँ आने का सबब हम लोगों को मालूम हो गया।

शिवदत्त : क्या मालूम हुआ?

रूहा : इस खँडहर के तहख़ाने में कुँअर इन्द्रजीतसिंह न मालूम क्योंकर जा फँसे हैं, जो किसी तरह निकल नहीं सकते, उन्हीं को छुड़ाने के लिए ये लोग आये हैं। मैं खँडहर के हर एक तहख़ाने और उसके रास्ते को जानता हूँ, अगर चाहूँ तो कुँअर इन्द्रजीतसिंह को सहज ही में निकाल लाऊँ।

शिवदत्त : ओ हो, यदि ऐसा हो तो क्या बात है। परन्तु आपको इस खँडहर में कोई जाने क्यों देगा और बिना खँडहर में गये आप तहख़ाने के अन्दर पहुँच नहीं सकते।

रूहा : नहीं-नहीं, खँडहर में जाने की कोई ज़रूरत नहीं है, मैं बाहर-ही-बाहर अपना काम कर सकता हूँ।

शिवदत्त : तो फिर ऐसे काम में क्यों न जल्दी की जाय?

रूहा : मेरी राय है कि आप या आप के लड़के भीमसेन पाँच-सौ बहादुरों को साथ लेकर मेरे साथ चलें, यहाँ से लगभग दो कोस जाने के बाद एक छोटा-सा टूटा-फूटा मकान मिलेगा, पहिले उसे घेर लेना चाहिए।

शिवदत्त : उसके घेरने से क्या फायदा होगा?

रूहा : इस खँडहर में से एक सुरंग गयी है, जो उसी मकान में निकली है, ताज्जुब नहीं है कि बीरेन्द्रसिंह वगैरह उस राह से भाग जायँ, इसलिए उस पर कब्ज़ा कर लेना चाहिए। सिवाय इसके एक बात और है।

शिवदत्त : वह क्या?

रूहा : उसी मकान में से एक दूसरी सुरंग उस तहख़ाने में गयी है, जिसमें कुँअर इन्द्रजीतसिंह हैं। यद्यपि उस सुरंग की राह से इस तहख़ाने तक पहुँचते-पहुँचते पाँच दरवाज़े लोहे के मिलते हैं, जिनका खोलना अति कठिन है, परन्तु उनके खोलने की तरकीब मुझे मालूम है। वहाँ पहुँचकर मैं और भी कई काम करूँगा।

शिवदत्त : (खुश होकर) तब तो सबके पहिले हमें वहाँ ही पहुँचना चाहिए।

रूहा : बेशक ऐसा ही होना चाहिए, पाँच सौ सिपाही लेकर आप मेरे साथ चलिए या भीमसेन चलें, फिर देखिए मैं क्या करता हूँ।

शिवदत्त : अब भीमसेन को तकलीफ देना तो मैं पसन्द नहीं करता।

रूहा : यह बहुत थक गये हैं और क़ैद की मुसीबत उठाकर कमजोर भी हो गये हैं, यहाँ का इन्तज़ाम इन्हें सुपुर्द कीजिए और आप मेरे साथ चलिए।

इसके कुछ ही देर बाद शिवदत्त पाँच सौ की फौज लेकर रूहा के साथ उत्तर की तरफ़ रवाना हुआ। इस समय पहर-भर रात बाकी थी, चाँद ने भी अपना चेहरा छिपा लिया था, मगर रहमदिल तारे डबडबायी हुई आँखों से दुष्ट शिवदत्त और उसके साथियों की तरफ़ देख-देख अफसोस कर रहे थे।

ये पाँच सौ लड़ाके घोड़ों पर सवार थे, रूहा और शिवदत्त अरबी घोड़ों पर सवार सबके आगे-आगे जा रहे थे। रूहा केवल एक तलवार कमर से लगाये हुए था, मगर शिवदत्त पूरे ठाठ से था। कमर में कटार और तलवार तथा हाथ में नेजा लिये हुए बड़ी खुशी से घुल-घुलकर बातें करता जाता था। सड़क पथरीली और ऊँची-नीची थी इसलिए ये लोग पूरी तेजी के साथ नहीं जा सकते थे, तिस पर भी घण्टे-भर चलने के बाद एक छोटे से टूटे-फूटे मकान की दीवार पर रूहा की नज़र पड़ी और उसने हाथ का इशारा करके शिवदत्त से कहा, "बस अब हम लोग ठिकाने आ पहुँचे, यही मकान है।"

शिवदत्त के साथी सवारों ने उस मकान को चारों तरफ़ से घेर लिया।

रूहा : इस मकान में कुछ खजाना भी है, जिसका हाल मुझे अच्छी तरह मालूम है।

शिवदत्त : (खुश होकर) आजकल मुझे रुपये की ज़रूरत भी है।

रूहा : मैं चाहता हूँ कि पहिले केवल आपको इस मकान में ले चलकर दो-एक जगह निशान और वहाँ का कुछ भेद बता दूँ, फिर जैसा मुनासिब होगा वैसा किया जायगा। आप मेरे साथ अकेले चलने के लिए तैयार हैं, डरते तो नहीं?

शिवदत्त : (घमण्ड के साथ) क्या तुमने मुझे डरपोक समझ लिया है? और फिर ऐसी अवस्था में जबकि हमारे पाँच सौ सवारों से यह मकान घिरा हुआ है?

रूहा :(हँसकर) नहीं-नहीं, मैंने इसलिए टोका कि शायद इस पुराने मकान में आपको भूत-प्रेत का गुमान पैदा हो।

शिवदत्त : छिः, मैं ऐसे खयाल का आदमी नहीं हूँ, बस देर न कीजिए चलिए।

रूहा ने पथरी से आग झाड़कर मोमबत्ती जलायी, जो उसके पास थी और शिवदत्त को साथ लेकर मकान के अन्दर घुसा। इस समय उस मकान की अवस्था बिल्कुल खराब थी, केवल तीन कोठरियाँ बची हुई थीं, जिनकी तरफ़ इशारा करके रूहा ने शिवदत्त से कहा, "यद्यपि यह मकान बिल्कुल टूट-फूट गया है, मगर इन तीनों कोठरियों को अभी तक किसी तरह का सदमा नहीं पहुँचा है, मुझे केवल इन्हीं कोठरियों से मतलब है। इस मकान की मजबूत दीवारें अभी दो-तीन बरसातें सम्हालने की हिम्मत रखती हैं।

शिवदत्त : मैं देखता हूँ कि वे तीनों कोठरियाँ एक के साथ एक सटी हुई हैं और इसका भी कोई सबब ज़रूर होगा।

रूहा : जी हाँ, मगर इन तीन कोठरियों से इस समय तीन काम निकलेंगे।

इसके बाद रूहा एक कोठरी के अन्दर घुसा। इसमें एक तहखाना था और नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ नज़र आती थीं। शिवदत्त ने पूछा, "मालूम होता है, इसी सुरंग की राह आप मुझे ले चलेंगे?" इसके जवाब में रूहा ने कहा, "हाँ, इन्द्रजीतसिंह को गिरफ़्तार करने के लिए इसी सुरंग में चलना होगा, मगर अभी नहीं, मैं पहिले आपको दूसरी कोठरी में ले चलता हूँ, जिसमें खजाना है, मेरी तो यही राय है कि पहिले खजाना निकाल लेना चाहिए, आपकी क्या राय है?"

शिवदत्त : (खुश होकर) हाँ हाँ, पहिले खजाना अपने कब्जे में कर लेना चाहिए, कहिए तो कुछ आदमियों को अन्दर बुलाऊँ?

रूहा : अभी नहीं, पहिले आप स्वयं चलकर उस खजाने को देख तो लीजिए।

शिवदत्त : अच्छा चलिए।

अब ये दोनों कोठरी में पहुँचे। इसमें भी एक वैसा ही तहख़ाना नज़र आया, जिसमें उतरने के लिए सीढ़ियाँ मौजूद थीं। शिवदत्त को साथ लिये हुए रूहा उस तहख़ाने में उतर गया। यह ऐसी जगह थी कि यदि सौ आदमी एक साथ मिलकर चिल्लाएँ तो भी मकान के बाहर आवाज़ न जाय। शिवदत्त को उम्मीद थी कि अब रुपये और अशर्फियों से भरे हुए देग दिखायी देंगे, मगर उसके बदले यहाँ दस सिपाही ढाल-तलवार लिये मुँह पर नकाब डाले दिखायी पड़े और साथ ही इसके एक सुरंग पर भी नज़र पड़ी, जो मालूम होता था कि अभी खोदकर तैयार की गयी है। शिवदत्त एकदम काँप उठा, उसे निश्चय हो गया कि रूहा ने मेरे साथ दगा की और ये लोग मुझे मारकर इसी गड़हे में दबा देंगे। उसने एक लाचारी की निगाह रूहा पर डाली और कुछ कहना चाहा मगर खौफ ने उसका गला ऐसा दबा दिया कि एक शब्द भी मुँह से न निकाल सका।

उन दसों ने शिवदत्त को गिरफ़्तार कर लिया और मुश्कें बाँध लीं। रूहा ने कहा, "बस अब आप चुपचाप इन लोगों के साथ इस सुरंग में चले चलिए नहीं तो इसी जगह आपका सिर काट लिया जायगा।"

इस समय शिवदत्त रूहा और उसके साथियों का हुक्म मानने के सिवाय और कुछ भी न कर सकता था। सुरंग में उतरने के बाद लगभग आध कोस के चलना पड़ा, इसके बाद सब लोग बाहर निकले और शिवदत्त ने अपने को एक सूनसान मैदान में पाया। यहाँ पर कई साईसों की हिफ़ाज़त में बारह घोड़े कसे-कसाये तैयार थे। एक पर शिवदत्त को सवार कराया गया और नीचे से उसके दोनों पैर बाँध दिये गये, बाकी पर रूहा और वे दसों नकाबपोश सवार हुए और शिवदत्त को लेकर एक तरफ़ को चलते हुए।

कुँअर इन्द्रजीतसिंह पर आफ़त आने से बीरेन्द्रसिंह दुखी होकर उनको छुड़ाने का उद्योग कर ही रहे थे, परन्तु बीच में शिवदत्त का आ जाना बड़ा ही दुखदायी हुआ। ऐसे समय में जबकि यह अपनी फौज से बहुत ही दूर पड़े हैं सौ-दो-सौ आदमियों को लेकर शिवदत्त की दो हज़ार फौज से मुकाबला करना बहुत ही कठिन मालूम पड़ता था, साथ ही इसके यह सोचकर कि जब तक शिवदत्त यहाँ है, कुँअर इन्द्रजीतसिंह के छुड़ाने की कार्रवाई किसी तरह नहीं हो सकती, वे और भी उदास हो रहे थे। यदि उन्हें कुँअर इन्द्रजीतसिंह का खयाल न होता तो शिवदत्त का आना उन्हें न गढ़ाता और वे लड़ने से बाज न आते, मगर इस समय राजा बीरेन्द्रसिंह बड़े फिक्र में पड़ गये और सोचने लगे कि क्या करना चाहिए। सबसे ज़्यादे फिक्र तारासिंह को थी, क्योंकि वह कुँअर इन्द्रजीतसिंह का मृत शरीर अपनी आँखों से देख चुका था। राजा बीरेन्द्रसिंह और उनके साथी लोग तो अपनी फिक्र में लगे हुए थे और खँडहर के दरवाज़े पर तथा दीवारों पर से लड़ने का इन्तजाम कर रहे थे, परन्तु तारासिंह उस छोटी-सी बावली के किनारे, जो अभी ज़मीन खोदने से निकली थी, बैठा अपने खयाल में ऐसा डूबा था कि उसे दीन-दुनिया की ख़बर न थी। वह नहीं जानता था कि हमारे संगी-साथी इस समय क्या कर रहे हैं। रात आधी से ज़्यादे जा चुकी थी, मगर वह अपने ध्यान में डूबा हुआ बावली के किनारे बैठा है। राजा बीरेन्द्रसिंह ने भी यह सोचकर कि शायद वह इसी बावली के विषय में कुछ सोच रहा है, तारासिंह को कुछ न टोका और न कोई काम उसके सुपुर्द किया।

हम ऊपर लिख आये हैं कि इस बावली में से कुल मिट्टी निकल जाने पर बावली के बीचोबीच में पीतल की मूरत दिखायी पड़ी। उस मूरत का भाव यह था कि एक हिरन का शेर ने शिकार किया है और हिरन की गर्दन का आधा भाग शेर के मुँह में है। मूरत बहुत ही खूबसूरत बनी हुई थी।

जिस समय का हाल हम लिख रहे हैं अर्थात् आधी रात गुजर जाने के बाद यकायक उस मूरत में एक प्रकार की चमक पैदा हुई और धीरे-धीरे वह चमक यहाँ तक बढ़ी कि तमाम बावली बल्कि तमाम खँडहर में उजियाला हो गया, जिसे देख सब-के-सब घबरा गये। बीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह और कमला तीनों आदमी फुर्ती के साथ उस जगह पहुँचे, जहाँ तारासिंह बैठा हुआ ताज्जुब में आकर उस मूरत को देख रहा था।

घण्टा-भर बीतते-बीतते मालूम हुआ कि वह मूरत हिल रही है। उस समय शेर की दोनों आँखें ऐसी चमक रही थीं कि निगाह नहीं ठहरती थी। मूरत को हिलते देख सभों को बड़ा ताज्जुब हुआ और निश्चय हो गया कि अब तिलिस्म की कोई-न-कोई कार्रवाई हम लोग ज़रूर देखेंगे।

यकायक मूरत बड़े ज़ोर से हिली और तब एक भारी आवाज़ के साथ ज़मीन के अन्दर धँस गयी। खँडहर में चारों तरफ़ अँधेरा हो गया। कायदे की बात है कि आँखों के सामने जब थोड़ी देर तक कोई तेज़रोशनी रहे और वह यकायक गायब हो जाय या बुझा दी जाय तो आँखों में मामूली से ज़्यादे अँधेरा छा जाता है, वही हालत इस समय खँडहरवालों की हुई। थोड़ी देर तक उन लोगों को कुछ भी नहीं सूझता था। आधी घड़ी गुज़र जाने के बाद वह गड़हा दिखायी देने लगा, जिसके अन्दर मूरत धँस गयी थी। अब उस गड़हे के अन्दर भी एक प्रकार की चमक मालूम होने लगी और देखते-देखते हाथ में चमकता हुआ नेजा लिये, वह राक्षसी उस गड़हे में से बाहर निकली, जिसका ज़िक्र ऊपर कई दफे किया जा चुका है।

हमारे बीरेन्द्रसिंह और उनके ऐयार लोग उस औरत को कई दफे देख चुके थे और वह औरत इनके साथ अहसान भी कर चुकी थी, इसलिए उसे यकायक देखकर वे लोग कुछ प्रसन्न हुए और उन्हें विश्वास हो गया कि इस समय यह औरत ज़रूर हमारी कुछ-न-कुछ मदद करेगी और थोड़ा-बहुत यहाँ का हाल भी हम लोगों को ज़रूर मालूम होगा।

उस औरत ने नेजे को हिलाया। हिलने के साथ ही बिजली-सी चमक उसमें पैदा हुई और तमाम खँडहर में उजाला हो गया। वह बीरेन्द्रसिंह के पास आयी और बोली, "आपको पहर-भर की मोहलत दी जाती है। इसके अन्दर इस खँडहर के हर एक तहख़ाने में यदि रास्ता मालूम है, तो आप घूम सकते हैं। शाह-दरवाज़ा जो बन्द हो गया था, उसे आपके खातिर से पहर-भर के लिए मैंने खोल दिया। इससे विशेष समय लगाना अनर्थ करना है।"

इतना कह वह राक्षसी उसी गड़हे में घुस गयी और वह पीतलवाली मूरत, जो ज़मीन के अन्दर धँस गयी थी, फिर अपने स्थान पर आकर बैठ गयी, इस समय उसमें किसी तरह की चमक न थी।

अब बीरेन्द्रसिंह और आनन्दसिंह वगैरह को कुँअर इन्द्रजीतसिंह से मिलने की उम्मीद हुई।

बीरेन्द्र : कुछ मालूम नहीं होता कि यह औरत कौन है और समय-समय पर हम लोगों की सहायता क्यों करती है।

तारा : जब तक वह स्वयं अपना हाल न कहे हम लोग उसे किसी तरह नहीं जान सकते, परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह औरत तिलिस्मी है और कोई भारी सामर्थ्य रखती है।

कमला : परन्तु सूरत इसकी भयानक है।

तेज : यदि यह सूरत बनावटी हो तो भी कोई आश्चर्य नहीं।

बीरेन्द्र : हो सकता है, ख़ैर, अब हमको तहख़ाने के अन्दर चलना और इन्द्रजीत को छुड़ाना चाहिए, पहर-भर का समय हम लोगों के लिए कम नहीं है, मगर शिवदत्त के लिए क्या किया जाय। यदि वह इस खँडहर में घुस आने और लड़ने का उद्योग करेगा तो यह अमूल्य समय पहर-भर यों ही नष्ट हो जायगा।

तेज : इसमें क्या सन्देह है? ऐसे समय में इस कम्बख्त का चढ़ आना बड़ा ही दुःखदायी हुआ।

इतना कहकर तेजसिंह ग़ौर में पड़ गये और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। इसी बीच में खँडहर के फाटक की तरफ़ से सिपाहियों के चिल्लाने की आवाज़ आयी और यह भी मालूम हुआ कि वहाँ लड़ाई हो रही है।

जिस समय शिवदत्त के चढ़ आने की ख़बर मिली थी, उसी समय राजा बीरेन्द्रसिंह के हुक्म से पचास सिपाही खँडहर के फाटक पर मुस्तैद कर दिये गये थे और उन सिपाहियों ने आपस में निश्चय कर लिया था कि जब तक पचास में से एक भी जीता रहेगा फाटक के अन्दर कोई घुसने न पावेगा।

फाटक पर कोलाहल सुनकर तेजसिंह और तारासिंह दौड़े गये और थोड़ी देर में वापस आकर खुशी भरी आवाज़ में तेजसिंह ने बीरेन्द्रसिंह से कहा, "बेशक फाटक पर लड़ाई हो रही है। न मालूम हमारे किस दोस्त ने किस ऐयारी से शिवदत्त को गिरफ़्तार कर लिया, जिससे उसकी फौज हताश हो गयी। थोड़े आदमी फाटक पर आकर लड़ रहे हैं और बहुत-से भागे जा रहे हैं। मैंने एक सिपाही से पूछा तो उसने कहा कि मैं अपने साथियों के साथ फाटक पर पहरा दे रहा था कि यकायक कुछ सवार इसी तरफ़ से मैदान की ओर भागे जाते दिखायी पड़े। वे लोग चिल्ला-चिल्ला कर यह कहते जाते थे कि "तुम लोग भागो और अपनी जान बचाओ। शिवदत्त गिरफ़्तार हो गया, अब तुम उसे किसी तरह नहीं छुड़ा सकते'। इसके बाद बहुत से तो भाग गये और भाग रहे हैं मगर थोड़े आदमी यहाँ आ गये जो लड़ रहे हैं।"

तेजसिंह की बात सुनकर बीरेन्द्रसिंह वीर भाव से यह कहते हुए फाटक की तरफ़ लपके कि 'तब तो पहिले उन्हीं लोगों को भगाना चाहिए, जो भागने से बच रहे हैं, जब तक दुश्मन का कोई आदमी गिरफ़्तार न होगा खुलासा हाल मालूम न होगा'।

खँडहर के फाटक पर से लौटकर तेजसिंह ने जो कुछ हाल राजा बीरेन्द्रसिंह से कहा, वह बहुत ठीक था। जब रूहा अपनी बातों में फँसाकर शिवदत्त को ले गया, उसके दो घण्टे बाद भीमसेन ने अपने साथियों को तैयार होने और घोड़े कसने की आज्ञा दी। शिवदत्त के ऐयारों को ताज्जुब हुआ, उन्होंने भीमसेन से इसका सबब पूछा, जिसके जवाब में भीमसेन ने केवल इतना ही कहा कि 'हम क्या करते हैं सो अभी मालूम हो जायगा।' जब घोड़े तैयार हो गये तो साथियों को कुछ इशारा करके भीमसेन घोड़े पर सवार हो गया और म्यान से तलवार निकाल शिवदत्त के आदमियों को जख़्मी करता और यह कहता हुआ कि 'तुम लोग भागो और अपनी जान बचाओ, तुम्हारा शिवदत्त गिरफ़्तार हो गया, अब तुम उसे किसी तरह नहीं छुड़ा सकते' मैदान की तरफ़ भागा। उस समय शिवदत्त के ऐयारों की आँखें खुलीं और वे समझ गये कि हम लोगों के साथ ऐयारी की गयी तथा यह भीमसेन नहीं है, बल्कि कोई ऐयार है! उस समय शिवदत्त की फौज़ हर तरह से गाफिल और बेफिक्र थी। शिवदत्त के ऐयारों के हुक्म से यद्यपि कई आदमियों ने घोड़ों की नंगी पीठ पर सवार होकर नकली भीमसेन का पीछा किया मगर अब क्या हो सकता था, बल्कि उसका नतीज़ा यह हुआ कि फौजी आदमी अपने साथियों को भागता हुआ समझ खुद भी भागने लगे। ऐयारों ने रोकने के लिए बहुत उद्योग किया परन्तु बिना मालिक के फौज कब तक रुक सकती थी, बड़ी मुश्किल से थोड़े आदमी रुके और खँडहर के फाटक पर आकरहुल्लड़ मचाने लगे, परन्तु उस समय उन लोगों की भी हिम्मत जाती रही, जब बहादुर बीरेन्द्रसिंह, आनन्दसिंह उनके ऐयार तथा शेरदिल साथी और सिपाही हाथों में नंगी तलवार लिये उन लोगों पर आ टूटे। राजा बीरेन्द्रसिंह और कुँअर आनन्दसिंह शेर की तरह जिस पर झपटते थे, सफाई हो जाती थी, जिसे देख शिवदत्त के आदमियों में से बहुतों की तो यह अवस्था हो गयी कि खड़े होकर उन दोनों की बहादुरी देखने के सिवाय कुछ भी न कर सकते थे। आख़िर यहाँ तक नौबत पहुँची कि सभों ने पीठ दिखा दी और मैदान का रास्ता लिया।

इस लड़ाई में जो घण्टे-भर से ज़्यादे तक होती रही राजा बीरेन्द्रसिंह के दस आदमी मारे गये और बीस जख़्मी हुए। शिवदत्त के चालीस मारे गये और साठ जख़्मी हुए, जिनसे दरियाफ्त करने पर राजा बीरेन्द्रसिंह को भीमसेन और शिवदत्त का खुलासा हाल जैसाकि हम ऊपर लिख आये हैं मालूम हो गया, मगर इसका पता न लगा कि शिवदत्त को किसने किस रीति से गिरफ़्तार कर लिया।

बीरेन्द्रसिंह ने अपने कई आदमी लाशों को हटाने और जख्मियों की हिफ़ाज़त के लिए तैनात किये और इसके बाद कुँअर इन्द्रजीतसिंह को छुड़ाने के लिए खँडहर के तहख़ाने में जाने का इरादा किया।

जिस तहख़ाने में कुँअर इन्द्रजीतसिंह थे, उसके रास्ते का हाल कई दफे लिखा जा चुका है, पुनः लिखने की कोई आवश्यकता नहीं, इसलिए केवल इतना ही लिखा जाता है कि वे दरवाज़े, जिनका खुलना शाह-दरवाज़ा बन्द हो जाने के कारण कठिन हो गया था, अब सुगमता से खुल गये, जिससे सभों को खुशी हुई और केवल बीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, कमला और तारासिंह मशाल लेकर, उस तहख़ाने के अन्दर उतर आये।

इस समय तारासिंह की अजब हालत थी। उसका कलेजा काँपता और उछलता था। वह सोचता था कि देखें कुँअर इन्द्रजीतसिंह, भैरोसिंह और कामिनी को किस अवस्था में पाते हैं। ताज्जुब नहीं कि हमारे पाठकों की भी इस समय वही अवस्था हो और वे भी इसी सोच-विचार में हों, मगर वहाँ तहखानों में तो मामला ही दूसरे ढंग का था।

तहख़ाने में उतर जाने के बाद राजा बीरेन्द्रसिंह, आनन्दसिंह, और ऐयारों ने चारों तरफ़ देखना शुरू किया, मगर कोई आदमी दिखायी न पड़ा और न कोई ऐसी चीज़ नज़र पड़ी, जिससे उन लोगों का पता लगता, जिनकी खोज में वे लोग तहख़ाने के अन्दर गये थे। न तो वह सन्दूक था, जिसमें इन्द्रजीतसिंह की लाश थी और न भैरोसिंह, कामिनी या उस सिपाही की सूरत नज़र आयी, जो उस सन्दूक के साथ तहख़ाने में आया था, जिसमें कुँअर इन्द्रजीतसिंह की लाश थी।

बीरेन्द्र : (तारासिंह की तरफ़ देखकर) यहाँ तो कोई भी नहीं है! क्या तुमने उन लोगों को किसी दूसरे तहख़ाने में छोड़ा था।

तारा : जी नहीं, मैंने उन सभों को इसी जगह छोड़ा। (हाथ से इशारा करके) इसी कोठरी में कामिनी ने अपने को बन्द कर रक्खा था!

बीरेन्द्र : कोठरी का दरवाज़ा खुला हुआ है, उसके अन्दर जाकर देखो तो शायद कोई हो।

कमला ने कोठरी का दरवाज़ा खोला और अन्दर झाँककर देखा। इसके बाद कोठरी के अन्दर घुसकर उसने आनन्दसिंह और तारासिंह को पुकारा और उन दोनों ने भी कोठरी के अन्दर पैर रक्खा।

कमला, तारासिंह और आनन्दसिंह को कोठरी के अन्दर घुसे आधी घड़ी से ज़्यादे गुजर गयी, मगर उन तीनों में से कोई भी बाहर न निकला। आख़िर तेजसिंह ने पुकारा, परन्तु जवाब न मिलने पर लाचार हो हाथ में मशाल लेकर खुद कोठरी के अन्दर गये और इधर-उधर ढूँढ़ने लगे।

वह कोठरी बहुत छोटी और संगीन थी। चारों तरफ़ पत्थर की दीवारों पर खूब ध्यान देने से कोई खिड़की या दरवाज़े का निशान नहीं पाया जाता था, हाँ ऊपर की तरफ़ एक छोटा-सा छेद दीवार में था, मगर वह भी इतना छोटा था कि आदमी का सिर किसी तरह उसके अन्दर नहीं जा सकता था और दीवार में कोई ऐसी रुकावट भी न थी, जिस पर चढ़के या पैर रखकर कोई आदमी अपना हाथ उस मोखे (छेद) तक पहुँचा सके। ऐसी कोठरी में से यकायक कमला, तारासिंह और आनन्दसिंह का गायब हो जाना, बड़े ही आश्चर्य की बात थी। तेजसिंह ने इसका सबब बहुत कुछ सोचा, मगर अक्ल ने कुछ मदद न की। बीरेन्द्रसिंह भी कोठरी के अन्दर गये और तलवार के कब्जे से हर एक दीवार को ठोंक-ठोंककर देखने लगे, जिसमें मालूम हो जाय कि किसी जगह से दीवार पोली तो नहीं है, मगर इससे भी कोई काम न चला। थोड़ी देर तक दोनों आदमी हैरान हो चारों तरफ़ देखते रहे। आख़िर किसी आवाज़ ने उन्हें चौकन्ना कर दिया और वे दोनों ध्यान देकर उस छेद की तरफ़ देखने लगे, जो उस कोठरी के अन्दर ऊँची दीवार में था और जिसमें से आवाज़ आ रही थी। वह आवाज़ यह थी—

"बस, जहाँ तक जल्द हो सके तुम दोनों आदमी इस तहख़ाने से बाहर निकल जाओ नहीं तो व्यर्थ तुम दोनों की जान चली जायेगी, अगर बचे रहोगे तो दोनों कुमारों को छुड़ाने का उद्योग करोगे और पता लगा ही लोगे। मैं वही बिजली की तरह चमकनेवाला नेजा हाथ में रखनेवाली औरत हूँ, पर लाचार इस समय किसी तरह तुम्हारी मदद नहीं कर सकती। अब तुम लोग बहुत जल्द रोहतासगढ़ चले जाओ, उसी जगह आकर मैं तुमसे मिलूँगी और सब हाल खुलासा कहूँगी। अब मैं जाती हूँ, क्योंकि इस समय मुझे भी अपनी जान की पड़ी है।"

इस बात को सुनकर दोनों आदमी ताज्जुब में आ गये और कुछ देर तक सोचने के बाद तहख़ाने के बाहर निकल आये।

डबडबायी आँखों के साथ उसाँसें लेते हुए राजा बीरेन्द्रसिंह रोहतासगढ़ की तरफ़ रवाना हुए। कैदियों और अपने कुल आदमियों को साथ लेते गये, मगर तेजसिंह ने न मालूम क्या कह-सुनकर और क्यों छुट्टी ले ली और राजा बीरेन्द्रसिंह के साथ रोहतासगढ़ न गये।

राजा बीरेन्द्रसिंह, रोहतासगढ़ की तरफ़ रवाना हुए, तेजसिंह ने दक्खिन का रास्ता लिया। इस वारदात को कई महीने गुजर गये और इस बीच में कोई बात ऐसी नहीं हुई जो लिखने योग्य हो।

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