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चन्द्रकान्ता सन्तति - 2

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8400
आईएसबीएन :978-1-61301-027-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 2 पुस्तक का ई-पुस्तक संस्करण...

दूसरा बयान

कैदख़ाने का हाल हम ऊपर लिख चुके हैं, पुनः लिखने की कोई आवश्यकता नहीं। उस कैदख़ाने में कई कोठरियाँ थीं, जिनमें से आठ कोठरी में तो हमारे बहादुर लोग क़ैद थे और बाकी कोठरियाँ खाली थीं। कोई आश्चर्य नहीं यदि हमारे पाठक महाशय उन बहादुरों के नाम भूल गये हों, जो इस समय मायारानी की क़ैद में बेबस पड़े हैं अस्तु, एक दफे पुनः याद दिला देते हैं। उस कैदख़ाने में कुँअर इन्द्रजीतसिंह, कुँअर आनन्दसिंह, तारासिंह, भैरोसिंह, देवीसिंह और शेरसिंह के अतिरिक्त एक कुमारी भी थी, जिसके मुख की सुन्दर आभा ने उस कैदख़ाने को उजाला कर रक्खा था। पाठक समझ ही गये होंगे कि हमारा इशारा कामिनी की तरफ़ है। यद्यपि वह ऐसी कोठरी में बन्द थी, जिसके अन्दर मर्दों की निगाह नहीं जा सकती थी, तथापि कुँअर आनन्दसिंह को इस बात पर ढाढ़स थी कि उनकी प्यारी कामिनी उनसे दूर नहीं है, मगर कुँअर इन्द्रजीतसिंह के रंज का कोई ठिकाना न था। वे कुछ भी नहीं जानते थे कि उनकी प्यारी किशोरी कहाँ और किस अवस्था में है।

इस कैदख़ाने में छत के सहारे शीशे की एक कन्दील लटक रही थी, उसी में मायारानी का एक आदमी रोज जाकर रोशनी ठीक कर देता था। ठीक कर देना हम इसलिए कहते हैं कि उस कैदख़ाने में अँधेरा रहने के कारण, दिन-रात बत्ती जला करती थी और ठीक समय पर आदमी जाकर उसे दुरुस्त कर दिया करता था। खाने-पीने का सामान आठ पहर में एक दफे कैदियों को दिया जाता था। कैदख़ाने की भयानक अवस्था लिखने में विशेष समय नष्ट करना हम नहीं चाहते, क्योंकि हमें किस्सा बहुत लिखना है और जगह कम है।

अब हम उस सन्ध्या का हाल लिखते हैं, जिस दिन मायारानी से और चण्डूल से बातचीत हुई थी या जब कमलिनी से लाडिली मिली थी। यों तो तहख़ाने के अन्दर दिन-रात समान था और कैदियों को इस बात का ज्ञान बिल्कुल नहीं हो सकता था कि सूर्य कब उदय और कब अस्त हुआ, तथापि बाहरी हिसाब से हमें समय लिखना ही पड़ता है।

सन्ध्या होने के बाद एक आदमी कैदख़ाने में आया और कैदियों की तरफ़ देखकर बोला, "मायारानी की तरफ़ से इस समय आप लोगों के पास यह कहने के लिए मैं आया हूँ कि कल पहर दिन चढ़ने के पहिले ही आप लोग इस दुनिया से उठा दिये जायँगे। इसके अतिरिक्त अपनी तरफ़ से अफसोस के साथ आपको इत्तिला कर देता हूँ कि राजा बीरेन्द्रसिंह और रानी चन्द्रकान्ता को भी हमारी मायारानी ने गिरफ़्तार कर लिया है। उन्हीं के सामने आप लोग मारे जाँयगे और इसके बाद उन दोनों की भी जान ले ली जायगी।"

इस आदमी के आने के पहिले कैदी लोग सुस्त और उदास बैठे हुए थे, मगर जब इस आदमी ने आकर ऊपर लिखी बातें कहीं तो सभों की अवस्था बदल गयी। क्रोध से सभों का चेहरा लाल हो गया और बदन काँपने लगा, लेकिन उस आदमी की बात का जवाब किसी ने भी कुछ न दिया।

कैदियों को सन्देश देने के बाद मायारानी का आदमी उस कोठरी में गया, जिसमें हथकड़ी और बेड़ी से बेबस बेचारी कामिनी क़ैद थी। थोड़ी ही देर बाद कामिनी को साथ लिये हुए वह आदमी बाहर निकला। उस समय सभों की निगाह उस बेचारी पर पड़ी। देखा कि रंजोगम और दुःख के मारे वह सूखकर काँटा हो गयी है, मालूम होता है, मानों वर्षों से बीमार है। सिर के बाल खुले और फैले हुए हैं, साड़ी मैली और खराब हो गयी है, मगर भोलापन, खूबसूरती और नजाकत ने इस अवस्था में भी उसका साथ नहीं छोड़ा है। उसके दोनों हाथ बँधे थे और वह बेड़ी के सबब से अच्छी तरह कदम नहीं उठा सकती थी।

सभों के देखते-देखते कामिनी को साथ लिये हुए मायारानी का आदमी कैदख़ाने के बाहर चला गया और कैदख़ाने का दरवाज़ा फिर बन्द हो गया।

ताली भरने की आवाज़ भी बहादुर कैदियों के कानों में पड़ी। यों तो वहाँ जितने कैदी थे, सभी क्रोध के मारे काँप रहे थे, मगर हमारे आनन्दसिंह की अवस्था कुछ और ही थी। एक तो अपने माँ-बाप का हाल सुनकर जोश में आ ही चुके थे, दूसरे कामिनी को जो इस बेबसी के साथ कैदख़ाने के बाहर जाते देखा तो और भी उबल पड़े, क्रोध सम्हाल न सके, उठ के खड़े हो गये और जंगले वाली कोठरी में, जिसमें क़ैद थे, टहलने लगे। जिस जंगले वाली कोठरी में कुँअर इन्द्रजीतसिंह थे, वह आनन्दसिंह के ठीक समाने थी और ऐयार लोग भी उन्हें अच्छी तरह देख सकते थे। टहलने के साथ आनन्दसिंह के पैर की जंजीर बोली, जिससे सभों का ध्यान उनकी तरफ़ जा रहा।

इन्द्रजीत : आनन्द!

आनन्द : आज्ञा!

इन्द्रजीत : क्या बेबसी हम लोगों का साथ न छोड़ेगी?

आनन्द : बेशक छोड़ेगी, अब हम लोग इस अवस्था में कदापि नहीं रह सकते। हम लोग पालतू शेर नहीं हैं, जो जंगले के अन्दर बन्द पड़े रहें!

इन्द्रजीत : (खड़े होकर) हाँ, ऐसा ही है, यह लोहे की तार अब हमें रोक नहीं सकती!

इतना कहके इन्द्रजीतसिंह ने ईष्टदेव का ध्यान कर अपनी कलाई उमेठी और ज़ोर करके, हठकड़ी तोड़ डाली। बड़े भाई की देखादेखी आनन्दसिंह ने भी वैसा ही किया। हथकड़ी तोड़ने के बाद दोनों ने अपने पैरों की बेड़ियाँ खोलीं और तब जंगले के बाहर निकलने का उद्योग करने लगे। दोनों हाथों से लोहे का छड़ जो जंगले में लगा हुआ था, पकड़के और लात अड़ाके खींचने लगे। इसमें कोई सन्देह नहीं कि दोनों कुमार बड़े बहादुर और ताकतवर थे। छड़ टेढ़े हो होकर छेदों से बाहर निकलने लगे और बात की बात में दोनों शेर जंगले वाली कोठरी के बाहर निकल के खड़े हो गये। दोनों गले मिले और इसके बाद हरएक जंगले के छड़ों को निकालकर दोनों भाइयों ने अपने अपने ऐयारों को भी छुड़ाया और जोश में आकर बोले, "उद्योग से बढ़के दुनिया में कोई पदार्थ नहीं!"

आनन्द : ईश्वर चाहेगा तो अब थोड़ी देर में हम लोग इस कैदख़ाने के बाहर भी निकल जायेंगे।

इन्द्रजीत : हाँ, अब हम लोगों को इसके लिए उद्योग करना चाहिए।

भैरो : हम लोग ज़ोर करके तहख़ाने का दरवाज़ा उखाड़ डालेंगे और इसी समय कम्बख्त मायारानी के सामने जा खड़े होंगे।

ऐयारों को साथ लिये हुए दोनों भाई सदर दरवाज़े के पास गये, जो बाहर से बन्द था। यह दरवाज़ा चार अँगुल मोटे लोहे का बना हुआ था और इसकी मजबूत चूल भी ज़मीन में बहुत गहरी घुसी हुई थी, इसलिए पूरे दो घण्टे तक मेहनत करने पर भी कोई नतीजा न निकला। क्रोध में आकर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह ने लोहे का छड़ जो जंगले में से निकला था, उठा लिया और बाईं तरफ़ की दीवार जो चूना और ईंटों से बनी हुई थी, तोड़ने लगे। उसी समय ऐयारों ने दोनों भाइयों के हाथ से छड़ ले लिया और दीवार तोड़ना शुरू किया।

पहर-भर की मेहनत से दीवार में इतना बड़ा छेद हो गया कि आदमी उसकी राह बखूबी निकल जाय। भैरोसिंह ने झांककर देखा, उस तरफ़ बिल्कुल अँधेरा था और इस बात का ज्ञान ज़रा भी नहीं हो सकता था कि दीवार के दूसरी तरफ़ क्या है। हम ऊपर लिख आये हैं कि इस कैदख़ाने में छत के सहारे शीशे की एक कन्दील लटकती थी। इस समय ऐयारों ने उसी कन्दील की रोशनी से काम लेना चाहा। तारासिंह ने भैरोसिंह के कन्धे पर चढ़कर कन्दील उतार ली और उसे हाथ में लिये हुए, उस सूराख की राह दूसरी तरफ़ निकल गये। इनके पीछे दोनों कुमार और ऐयार लोग भी गये। अब मालूम हुआ कि यह कोठरी है, जो लगभग तीस हाथ के लम्बी और पन्द्रह हाथ से कम चौड़ी है। कुमार तथा ऐयार लोग अगर बिना रोशनी के इस कोठरी में आते तो ज़रूर दुःख भोगते, क्योंकि यहाँ ज़मीन बराबर न थी, बीचोबीच में एक कूँआ था और उसके चारों तरफ़ ज़मीन में चार दरवाज़े बने हुए थे, जिनके देखने से मालूम होता था कि यहाँ कई तहख़ाने हैं और ये दरवाज़े नहीं, तहखानों के रास्ते हैं। इस समय उन दरवाजों के पल्ले जो लकड़ी के थे, अच्छी तरह देखने से मालूम हुआ कि नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ बनी हुई हैं और उस कूएँ में भी लोहे की एक जंजीर लटक रही थी। इसके अतिरिक्त चारों तरफ़ की दीवारें बराबर थीं, अर्थात् किसी तरफ़ कोई दरवाज़ा न था, जिसे खोलकर ये लोग बाहर जाने की इच्छा करते।

इन्द्रजीत : मालूम होता है कि यहाँ आने या यहाँ से जाने के लिए इन तहखानों के सिवाय कोई राह नहीं है।

आनन्द : मैं भी यही समझता हूँ।

देवी : इन तहखानों में उतरे बिना काम न चलेगा।

तारा : आज्ञा हो तो मैं रोशनी लेकर एक तहख़ाने में उतरूँ और देखूँ कि क्या है।

इन्द्रजीत : ख़ैर, जाओ, कोई हर्ज़ नहीं।

आज्ञा पाकर तारासिंह एक तहख़ाने के मुँह पर गये, मगर जब नीचे उतरने लगे तो कुछ देखकर रुक गये। कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने रुकने का सबब पूछा, जिसके जवाब में तारासिंह ने कहा, "इस तहख़ाने में रोशनी मालूम होती है और धीरे-धीरे वह रोशनी तेज़ होती जा रही है। मालूम होता है कि सुरंग है और कोई आदमी हाथ में बत्ती लिये इसी तरफ़ आ रहा है।"

दोनों कुमार और ऐयार लोग भी वहाँ गये और झाँककर देखने लगे। थोड़ी ही देर में दो कमसिन औरतें नज़र पड़ीं, जो सीढ़ी के पास आकर ऊपर चढ़ने का इरादा कर रही थीं। एक के हाथ में मोमबत्ती थी, जिसे देखते ही कुमार ने पहिचान लिया कि यह कमलिनी है, साथ में लाडिली भी थी, मगर उसे पहिचानते न थे, हाँ, जब कैदी बनकर मायारानी के दरबार में लाये गये थे, तो मायारानी के बगल में बैठे हुए उसे देखा था और समझते थे कि वह भी हम लोगों की दुश्मन है। इस समय कमलिनी के साथ उसे देखकर कुमार को शक मालूम हुआ, क्योंकि इन्द्रजीतसिंह कमलिनी को दोस्त समझते थे और दोस्त के साथ दुश्मन का होना बेशक खुटके की बात है।

कमलिनी जब सीढ़ी के पास पहुँची तो ऊपर रोशनी देखकर रुक गयी, साथ ही कुमार ने पुकारकर कहा, "डरो मत, ऊपर चली आओ, मैं हूँ, इन्द्रजीतसिंह!"

कमलिनी कुमार की आवाज़ पहिचान गयी और लाडिली को साथ लिये ऊपर चली आयी, मगर दोनों कुमारों और उनके ऐयारों को यहाँ देखकर ताज्जुब करने लगी।

कमलिनी : आप लोग यहाँ कैसे आये?

इन्द्रजीत : यही बात मैं तुमसे पूछने वाला था।

कमलिनी : मैं तो आपको छुड़ाने के लिए यहाँ आयी हूँ, मगर मालूम होता है कि मेरे आने के पहिले ही किसी ने पहुँचकर आप लोगों को छुड़ा दिया।

देवी : कोई दूसरा नहीं आया, दोनों कुमारों ने स्वयं अपनी-अपनी हथकड़ी तोड़ डाली, जंगलों का सींखचा खैंचकर बाहर निकल आये और हम लोगों को भी क़ैद से छुड़ाया, इसके बाद दीवार तोड़कर हम लोग अभी थोड़ी देर हुई, इधर आये हैं!

कमलिनी : (हँसकर) बहादुर हैं, यह न ऐसा करेंगे तो दूसरा कौन करेगा।

इन्द्रजीत : हम एक बात तुमसे और पूछना चाहते हैं।

कमलिनी : आपका मतलब मैं समझ गयी। (लाडिली की तरफ़ देखकर) शायद इसके बारे में आप कुछ पूछेंगे!

इन्द्रजीत : हाँ, ठीक है, क्योंकि इन्हें हमने उसके पास बैठा देखा था, जिसके फरेब ने हमारी यह दशा की है और लोगों की बातों से यह भी मालूम हुआ कि उसका नाम मायारानी है।

कमलिनी : बहुत दिनों तक साथ रहने पर भी आपको मेरा भेद कुछ मालूम नहीं हुआ, मगर इस समय मैं इतना कह देना उचित समझती हूँ कि यह मेरी छोटी बहिन है और मायारानी बड़ी बहिन है। हम तीनों बहिनें हैं, लेकिन अनबन होने के कारण मैं उससे अलग हो गयी और आज इसने भी उसका साथ छोड़ दिया। आज से पहिले वह मेरी ही दुश्मन थी, मगर आज से इसकी भी जिसका नाम लाडिली है, जान की प्यासी हो गयी, मगर इतना सुनने पर भी मैं समझती हूँ कि आप मुझे अपना दुश्मन न समझते होंगे।

इन्द्रजीत : नहीं नहीं, कदापि नहीं, मैं तुम्हें अपना हमदर्द समझता हूँ, तुमने मेरे साथ बहुत कुछ नेकी की है।

कमलिनी : आप लोगों को छुड़ाने के लिए तेजसिंह भी यहाँ आये थे, मगर गिरफ़्तार हो गये।

इन्द्रजीत : क्या तेजसिंह भी गिरफ़्तार हो गया? लेकिन उस कैदख़ाने में नहीं लाये गये, जहाँ हम लोग थे!

कमलिनी : वह दूसरी जगह रक्खे गये थे। मैंने उन्हें भी क़ैद से छुड़ाया है, अब थोड़ी ही देर में आप उनसे मिला चाहते हैं।

आनन्दसिंह चुपचाप इन दोनों की बातें सुन रहे थे और छिपी निगाहों से लाडिली के रूप की अलौकिक छटा का आनन्द भी ले रहे थे। लाडिली भी प्रेम की निगाहों से उन्हें देख रही थी। इस बात को कमलिनी ने भी जान लिया, मगर वह तरह दे गयी। जब आनन्दसिंह ने तेजसिंह का हाल सुना, तब चौंके और कमलिनी की तरफ़ देखकर बोले—

आनन्द : सुना है हमारे माता-पिता भी…

कमलिनी : हाँ, उन दोनों को भी कम्बख्त मायारानी ने फँसा लिया है। हाय, मैंने सुना है कि वे दोनों बेचारे बड़े ही संकट में हैं और सहज ही में उन दोनों का छूटना मुश्किल है, तथापि उद्योग में विलम्ब न करना चाहिए। अब आप कोई सवाल न कीजिए और यहाँ से जल्द निकल चलिए।

राजा बीरेन्द्रसिंह और रानी चन्द्रकान्ता का हाल सुनकर सब-के-सब घबड़ा गये और आगे कुछ सवाल करने की हिम्मत न पड़ी। कुमार कमलिनी के साथ चलने के लिए तैयार हो गये और सभों को साथ लिये हुए कमलिनी फिर उसी तहख़ाने में उतर गयी, जहाँ से आयी थी। कुँअर इन्द्रजीतसिंह किशोरी का और आनन्दसिंह कामिनी हाल पूछने के लिए बेचैन थे, मगर मौका न समझकर चुप रह गये।

नीचे जाने पर मालूम हुआ कि वह एक सुरंग का रास्ता था, मगर यह सुरंग साधारण न थी। इसकी चौड़ाई केवल इतनी थी कि दो आदमी बराबर मिलकर जा सकते थे। ऊँचाई की अवस्था यह थी कि हरएक मर्द हाथ ऊँचा करके उसकी छत छू सकता था। दोनों तरफ़ की दीवार स्याह पत्थर की थी, जिस पर तरह-तरह की खूबसूरत भयानक और कहीं-कहीं आश्चर्यजनक तस्वीरें मुसौवरों की कारीगरी का नमूना दिखा रही थीं, अर्थात् रंगो से बनी थीं, पत्थर गढ़कर नहीं बनायी गयी थीं, परन्तु उन तस्वीरों के रंग की भी यह अवस्था थी कि अभी दो-चार दिन की बनी मालूम होती थीं, जिन्हें देख हमारे कुमारों और ऐयारों को बहुत ही ताज्जुब मालूम हो रहा था।

कमलिनी : (इन्द्रजीतसिंह से) आप चाहते होंगे कि इन विचित्र तस्वीरों को अच्छी तरह देखें!

इन्द्रजीत : बेशक ऐसा ही है, इस दौड़ादौड़ में ऐसी उत्तम तस्वीरों के देखने का आनन्द कुछ भी नहीं मिल सकता और यहाँ कि एक-एक तस्वीर ध्यान देकर देखने योग्य है, परन्तु क्या किया जाय, जबसे अपने माता-पिता का हाल तुम्हारी जुबानी सुना है, जी बेचैन हो रहा है, यही इच्छा होती है कि जहाँ तक जल्द हो सके, उनके पास पहुँचे और उन्हें क़ैद से छुड़ावें। तुम स्वयं कह चुकी हो कि वे बड़े संकट में पड़े हैं, परन्तु यह न जाना गया कि उन्हें किस प्रकार का संकट है!

कमलिनी : आपका कहना बहुत ठीक है, इन तस्वीरों को देखने के लिए बहुत समय चाहिए, बल्कि इनका हाल और मतलब जानने के लिए कई दिन चाहिए, और यह समय यहाँ अटकने का नहीं है, मगर साथ ही इसके यह भी याद रखिये कि आप दो-चार या दस घण्टे के अन्दर ठिकाने पहुँचकर अपने माता-पिता को नहीं छुड़ा सकते। मुझे ठीक-ठीक मालूम नहीं कि वह किस कैदख़ाने में क़ैद हैं, पहिले तो इसी बात का पता लगाने के लिए कई दिन नहीं तो कई पहर चाहिए।

इन्द्रजीत : तो क्या तुमने उन्हें अपनी आँखों से नहीं देखा?

कमलिनी : नहीं मगर इतना जानती हूँ कि इस बाग के चौथे दर्जे में किसी ठिकाने में वे क़ैद हैं।

इन्द्रजीत : क्या इस बाग के कई दर्जे हैं, जिसमें मायारानी रहती है और जहाँ हम लोग बेबस करके लाये गये थे?

कमलिनी : हाँ, इस बाग के चार दर्जे हैं। पहिले दर्जे में तो सिपाहियों और नौकरों के ठहरने का ठिकाना है, दूसरे दर्जे में स्वयं मायारानी रहती है, तीसरे और चौथे दर्जे में कोई नहीं रहता, हाँ, यदि कोई ऐसा कैदी हो, जिसे बहुत ही गुप्त रखना मंजूर हो तो वहाँ भेज दिया जाता है। तीसरे और चौथे दर्जे को तिलिस्म कहना चाहिए, बल्कि चौथा दर्जा तो (काँपकर) ओफ, बड़ी-बड़ी भयानक चीज़ों से भरा हुआ है।

इन्द्रजीत : तो उसी चौथे दर्जे में हमारे माता-पिता क़ैद हैं?

कमलिनी : जी हाँ।

आनन्द : शायद तुम्हारी छोटी बहिन कुछ जानती हों, जो तुम्हारे साथ है?

कमलिनी : नहीं नहीं, यह बेचारी चौथे दर्जे का हाल कुछ भी नहीं जानती।

लाडिली : बल्कि तीसरे और चौथे दर्जे का पूरा-पूरा हाल मायारानी को भी नहीं मालूम। कमलिनी बहिन को भी कुछ भी मालूम न था, मगर दो ही चार महीनों में न मालूम क्योंकर वहाँ का विचित्र हाल इन्हें मालूम हो गया। देखिए इसी सुरंग को, जिसमें हम लोग जा रहे हैं, मायारानी भी नहीं जानती थी और मुझे तो इसका कुछ गुमान भी न था।

यहाँ पर कमलिनी के हाथ की वह मोमबत्ती जलकर पूरी हो गयी और कमलिनी ने उसे ज़मीन पर फेंक दिया। अब इस सुरंग में केवल उस कन्दील की रोशनी रह गयी, जो ये लोग कैदख़ाने में से लाये थे और इस समय तारासिंह उसे अपने हाथ में लटकाये सभों के पीछे-पीछे आ रहे थे। कमलिनी के कहे मुताबिक तारासिंह अब कन्दील लिये हुए आगे-आगे चलने लगे। लगभग बीस कदम जाने के बाद एक चौमुहानी मिली, अर्थात् वहाँ से चारों तरफ़ सुरंगें गयी हुई थीं। कमलिनी ने रुककर इन्द्रजीतसिंह की तरफ़ देखा और कहा, "अब यहाँ से अगर हम लोग चाहें तो तिलिस्मी मकान के बाहर निकल जा सकते हैं।"

इन्द्रजीत : यह सामनेवाला रास्ता कहाँ गया है?

कमलिनी : बाग के तीसरे और चौथे दर्जे में जाने के लिए यही रास्ता है और बायीं तरफ़ वाली सुरंग दूसरे दर्जे में गयी है, जिसमें मायारानी रहती है।

आनन्द : और दाहिनी तरफ़ जाने से हम लोग कहाँ पहुँचेंगे?

कमलिनी : इस तिलिस्म मकान या बाग के बाहर हो जाने के लिए वही राह है।

इन्द्रजीत : तो अब तुम हम लोगों को कहाँ ले जाना चाहती हो?

कमलिनी : जहाँ आप कहिए।

आनन्द : अगर मायारानी के बाग में ले चलो तो हम उसे इसी समय गिरफ़्तार कर लें, इसके बाद सब काम सहज ही में हो जायगा।

कमलिनी : यह काम सहज नहीं है और इसके सिवाय जहाँ तक मैं समझती हूँ, मायारानी इस समय अपने कमरे में न होगी या यदि होगी भी तो हर तरह से होशियार होगी। केवल इतना ही नहीं वहाँ जाने से और भी कई प्रकार का धोखा है। एक तो उस बाग की चहारदीवारी के बाहर कूदकर या कमन्द लगाकर निकल जाना असम्भव है, दूसरे उस बाग की हिफ़ाज़त के लिए पाँच सौ सिपाही मुकर्रर हैं, जो हमेशा मुस्तैद और सहज ही में मायारानी के पास पहुँच जाने के लिए तैयार रहते हैं। मायारानी को गिरफ़्तार करके बाग के बाहर ले जाना कठिन है। मेरी समझ में तो आपको एक दफे यहाँ से बाहर निकल जाना चाहिए।

इन्द्रजीत : मगर मैं कुछ और ही चाहता हूँ।

कमलिनी : वह क्या?

इन्द्रजीत : यदि तुमसे हो सके तो हमें किसी ऐसी जगह ले चलो, जो इस बाग की सरहद के अन्दर हो और जहाँ से दो-तीन रोज तक गुप्त रीति से हम लोग रह भी सकें।

कमलिनी : (कुछ सोचकर) हाँ, यह हो सकता है। इस राय को मैं भी पसन्द करती हूँ।

लाडिली : (कमलिनी से) तुमने कौन-सी ऐसी जगह सोची है?

कमलिनी : ऐसी जगह बाग के तीसरे दर्जे में तो हुई है, बल्कि चौथे दर्जे में भी है।

लाडिली : चौथे दर्जे में जाकर दो-तीन दिन तक रहना उचित नहीं, क्योंकि वह बड़ी भयानक जगह है, क्या तुम वहाँ के भेद अच्छी तरह जानती हो?

कमलिनी : हरे कृष्ण गोविन्द! वहाँ का हाल जानना क्या खिलवाड़ है? हाँ एक मकान के अन्दर जाने का रास्ता मालूम है, जहाँ कोई दूसरा नहीं पहुँच सकता।

इन्द्रजीत : तो फिर उसी जगह हम लोगों को क्यों नहीं ले चलती हो?

कमलिनी : (कुछ सोचकर) हाँ, मुझे अब याद आया, इतनी देर से व्यर्थ भटक रही हूँ, अच्छा आप लोग मेरे पीछे-पीछे चले आइए।

सभों को साथ लिये हुए कमलिनी रवाना हुई। थोड़ी दूर जाने के बाद एक बन्द दरवाज़ा मिला। वह दरवाज़ा लोहे का था, मगर यह नहीं मालूम होता था कि वह किस तरह खुलेगा, क्योंकि न तो उसमें कहीं ताली लगाने की जगह थी और न कोई जंजीर या कुण्डी ही दिखायी देती थी। दरवाज़े के दोनों बगल दीवार में तीन-तीन हाथ ऊँचे दो हाथी बने हुए थे। ये हाथी चाँदी के थे और इनके धड़ का अगला हिस्सा कुछ आने की तरफ़ बढ़ा हुआ था। एक हाथी के सूँड़ में दूसरे हाथी की सूँड़ गुँथी थी। इन दोनों हाथियों के अगले एक-एक पैर आगे बढ़े और कुछ ज़मीन की तरफ़ इस प्रकार मुड़े हुए थे, जिसके देखने से मालूम होता था कि दो सफेद हाथी क्रोध में आकर सूँड़ मिला रहे हैं और लड़ने के लिए तैयार हैं।

कमलिनी : एक ग्रन्थ के पढ़ने से मालूम हुआ है कि यह दरवाज़ा कमानी के सहारे से खुलता और बन्द होता है और इसकी कमानी इन दोनों हाथियों के पेट में हैं, जिस पर दोनों सूँड़ों के दबाने से दबाव पहुँचता है, अस्तु, यहाँ ताकत का काम है, इन दोनों सूँड़ों को ज़ोर के साथ यहाँ तक झुकाना और दबाना चाहिए कि दरवाज़े के साथ लग जाँय। मैं देखा चाहती हूँ कि आपके ऐयारों में कितनी ताकत है।

देवी : अगर किसी आदमी के झुकाये यह झुक सकता है तो पहिले मुझे उद्योग करने दीजिए।

कमलिनी : आइए आइए, लीजिए मैं हट जाती हूँ।

देवीसिंह ने दोनों सूँड़ों पर हाथ रख और छाती से अड़ाकर ज़ोर किया, मगर एक बित्ते से ज़्यादे दबा न सके और दरवाज़ा दो हाथ की दूरी पर था, इसलिए दो हाथ दबाकर ले जाने की आवश्यकता थी। आख़िर देवीसिंह यह कहते हुए पीछ हटे, "यह राक्षसी काम है।"

इसके बाद और ऐयारों ने भी ज़ोर किया, मगर देवीसिंह से ज़्यादे काम न कर सके। तब कमलिनी कुमारों की तरफ़ देखकर हँसी और बोली, "सिवाय आप दोनों के यह काम किसी तीसरे से न हो सकेगा!"

आनन्द : (इन्द्रजीतसिंह की तरफ़ देखकर) यदि आज्ञा हो तो मैं भी ज़ोर करूँ?

इन्द्रजीत : क्या हर्ज़ है, तुम यह काम बखूबी कर सकते हो!

आज्ञा पाते ही कुँअर आनन्दसिंह ने दोनों सूँड़ों पर हाथ रखके ज़ोर किया और पहिले ही ज़ोर में दरवाज़े के साथ लगा दिया। यह हाल देखते ही लाडिली ने जोश में आकर कहा, "वाह वाह! क़ैद की मुसीबत उठाकर कमजोर होने पर भी यह हाल है!"

दरवाज़े के साथ सूँड़ों का लगना था कि हाथियों के चिग्घाड़ने की हलकी आवाज़ आयी और दरवाज़ा जो एक ही पल्ले का था, सरसर करता ज़मीन के अन्दर घुस गये। कमलिनी ने आनन्दसिंह से कहा, "अब सूँड़ को पीछे की तरफ़ हटाइए, मगर पहिले सूँड़ के नीचे से या उसके ऊपर से लाँघ कर दूसरी तरफ़ निकल चलिए।"

हाथ में कन्दील लिये हुए पहिले तारासिंह टप गये और दरवाज़े के उस पार जा खड़े हुए, तब इन्द्रजीतसिंह दरवाज़े के उस पार पहुँचे, उसके बाद कुँअर आनन्दसिंह जाया ही चाहते थे कि एक नयी घटना ने सब खेल ही बिगाड़ दिया।

दरवाज़े के उस पार एक आदमी न मालूम कब से छिपा बैठा था। उसने फुर्ती से बढ़कर एक लात उस कन्दील में मारी जो तारासिंह के हाथ में थी। कन्दील हाथ से छूटकर ज़मीन पर तो न गिरी, मगर बुझ गयी और एकदम अन्धकार हो गया। यद्यपि यह काम उसने बड़ी फुर्ती से किया, तथापि इन लोगों की निगाह उस पर पड़ ही गयी, लेकिन उसकी असली सूरत नज़र न पड़ी, क्योंकि वह काला कपड़ा पहिने और अपने चेहरे को नकाब से छिपाये हुए था।

अँधेरा होते ही उसने दूसरा काम किया। भुजाली उसके पास थी, जिसका भरपूर हाथ उसने कुँअर इन्द्रजीतसिंह के सर पर जमाया। अँधेरे के सबब से निशाने में फर्क पड़ गया तो भी कुमार के बायें मोढ़े पर गहरी चोट बैठी। चोट खाते ही कुमार ने पुकारकर कहा, "सब कोई होशियार रहना! दुश्मन के हाथ में हर्बा है और वह मुझे जख़्मी भी कर चुका है!"

यह हाल देख और सुनकर कमलिनी ने झट अपने तिलिस्मी खंजर से काम लिया। हम ऊपर लिख आये हैं कि उसके कमर में दो तिलिस्मी खंजर हैं। उसने एक हाथ में खंजर लेकर उसका कब्ज़ा दबाया और उसमें से बिजली की तरह चमक पैदा हुई, जिससे कमलिनी के सिवाय जो आदमी वहाँ थे कोई भी उस चमक को सह न सका और सभों ने अपनी-अपनी आँखें बन्द कर लीं।

दरवाज़े के उस पार भी उसी तरह की सुरंग थी। कमलिनी ने देखा कि दुश्मन अपना काम करके सामने की तरफ़ भागा जा रहा है, मगर खंजर की चमक ने उसे भी चोंधिया दिया था, जिसका नतीजा यह हुआ कि कमलिनी बहुत ही जल्द उसके पास जा पहुँची और उसके बदन से लगा दिया, जिसके साथ ही वह बेहोश होकर ज़मीन पर गिर पड़ा। खंजर कमर में रखकर कमलिनी लौटी और उसने अपने बटुए में से सामान निकालकर एक मोमबत्ती जलायी, तथा इतने में हमारे ऐयार लोग भी दरवाज़े के दूसरी तरफ़ जा पहुँचे।

कुँअर इन्द्रजीतसिंह के मोढ़े से खून निकल रहा था। यद्यपि कुमार को उसकी कुछ परवाह न थी और उनके चेहरे पर भी किसी प्रकार का रंज न मालूम होता था, तथापि देवीसिंह ने जख्म बाँधने का इरादा किया, मगर कमलिनी ने रोककर अपने बटुए में से किसी प्रकार के एक तेल की शीशी निकाली और अपने नाजुक हाथों से घाव पर तेल लगाया, जिससे तुरन्त ही खून बन्द हो गया। इसके बाद अपने आँचल में से थोड़ा कपड़ा फाड़कर जख्म पर बाँधा। उसके एहसान ने कुँअर इन्द्रजीतसिंह को पहिले ही अपना कर लिया था, अब उसकी मुहब्बत और हमदर्दी ने उन्हें अच्छी तरह अपने काबू में कर लिया।।

इन्द्रजीत : (कमलिनी से) तुम्हारे अहसानों के बोझ से मैं दबा ही जाता हूँ। (मुस्कुराकर और धीरे से) देखना चाहिए सिर उठाने का दिन भी कभी आता है, या नहीं।

कमलिनी : (मुस्कुराकर) बस, रहने दीजिए, बहुत बातें न बनाइए।

आनन्द : मालूम होता है वह शैतान भाग गया?

कमलिनी : नहीं नहीं, मेरे सामने से निकल जाना ज़रा मुश्किल है, आगे चलकर आप उसे ज़मीन पर बेहोश पड़ा हुआ देखेंगे।

इन्द्रजीत : इस समय तो तुमने वह काम किया, जिसे करामात कहना चाहिए!

कमलिनी : मैं बेचारी क्या कर सकती हूँ, इस समय तो (खंजर की तरफ़ इशारा करके) इसने बड़ा काम किया।

इन्द्रजीत : बेशक, यह अनूठी चीज़ है, इसकी चमक ने तो आँखें बन्द कर दीं, कुछ भी देख न सके कि तुमने क्या किया?

कमलिनी : यह तिलिस्सी खंजर है और इसमें बहुत से गुण हैं।

इन्द्रजीत : मैं सुना चाहता हूँ कि इस खंजर में क्या-क्या गुण हैं। बल्कि और कई बातें पूछा चाहता हूँ, मगर यकायक दुश्मन के आ पहुँचने से...

कमलिनी : ख़ैर ईश्वर की मर्जी, मैं खूब जानती हूँ कि सिवाय इस शैतान के और कोई यहाँ तक नहीं आ सकता, तिस पर भी इस दरवाज़े को खोलने की इसे सामर्थ्य न थी, इसी से चुपचाप दबका हुआ था, मगर फिर भी यहाँ तक पहुँच जाना ताज्जुब मालूम होता है।

इन्द्रजीत : क्या तुम उसे पहिचानती हो?

कमलिनी : हाँ, कुछ-कुछ शक तो होता है, मगर निश्चय किये बिना कुछ कह नहीं सकती।

इन्द्रजीत: जो हो, मगर अब हम लोगों को यहाँ से निकल चलने के लिए जल्दी करना चाहिए।

कमलिनी : पहिले इस दरवाज़े को बन्द कर लीजिए, नहीं तो इसी राह से दुश्मन के आ पहुँचने का डर रहेगा।

दरवाज़े के दूसरी तरफ़ भी उसी प्रकार के दो हाथी बने हुए थे। कमलिनी के कहे मुताबिक आनन्दसिंह ने ज़ोर से सूँड़ को दरवाज़े की तरफ़ हटाया, जिससे उस तरफ़ वाले हाथियों की सूँड़ ज्यों-की-त्यों सीधी हो गयी और दरवाज़ा भी बन्द हो गया।

इन्द्रजीत : मालूम होता है कि इस तरफ़ से कोई दरवाज़ा खोलना चाहे तो इन हाथियों की सूँड़ों को जो इस समय दरवाज़े के साथ लगी हुई हैं, अपनी तरफ़ खैंचकर सीधा करना पड़ेगा और ऐसा करने से उस तरफ़ के हाथियों की सूँड़ें दरवाज़े के पास आ लगेंगी।

कमलिनी : आपका सोचना बहुत ठीक है, वास्तव में ऐसा ही है।

इन्द्रजीत: अच्छा अब यहाँ से चल देना चाहिए, चलते-चलते इस खंजर का गुण भी कहो, जिसकी करामात मैं अभी देख चुका हूँ।

कमलिनी : चलते-चलते कहने की कोई ज़रूरत नहीं, मैं इसी जगह अच्छी तरह समझाकर एक खंजर आपके हवाले करती हूँ।

उस खंजर में जो-जो गुण था, उसके विषय में ऊपर कई जगह लिखा जा चुका है। कमलिनी ने कुँअर इन्द्रजीतसिंह को सब समझाया और इसके बाद खंजर के जोड़ के अँगूठी उनके हाथ में पहिनाकर, एक खंजर उनके हवाले किया, जिसे पाकर कुमार बहुत प्रसन्न हुए।

लाडिली : (कमलिनी से) एक खंजर छोटे कुमार को भी दे देना चाहिए।

कमलिनी : (मुस्कुराकर) आपकी सिफारिश की कोई ज़रूरत नहीं, मैं खुद एक खंजर छोटे कुमार को दूँगी।

आनन्द : कब?

कमलिनी : यह दूसरा खंजर उसी तरह का मेरे पास है। इसे मैं आपको अभी दे देती, मगर इसलिए रख छोड़ा है कि आप ही के लिए इस घर में अभी कई तरह का काम करना है, शायद कभी दुश्मनों के...

आनन्द : नहीं नहीं, यह खंजर जो तुम्हारे पास रह गया है, लेकर मैं तुम्हें खतरे में नहीं डाल सकता, कल परसों या दस दिन में जब भी मौका हो, तब मुझे देना।

कमलिनी : ज़रूर दूँगी, अच्छा अब यहाँ से चलना चाहिए।

दोनों कुमारों और ऐयारों को साथ लिये हुए कमलिनी वहाँ से रवाना हुई और उस ठिकाने पहुँची, जहाँ वह शैतान बेहोश पड़ा हुआ था, जिसने कन्दील बुझाकर कुमार को जख़्मी किया था। चेहरे पर से नकाब हटाते ही कमलिनी चौंकी और बोली, "हैं, यह तो कोई दूसरा ही है! मैं समझे हुए थी कि दारोगा है, किसी तरह राजा बीरेन्द्रसिंह की क़ैद से छूटकर आ गया होगा, मगर मैं तो इसे बिल्कुल नहीं पहिचानती। (कुछ रुककर) उसने मेरे साथ दगा तो नहीं की! कौन ठिकाना ऐसे आदमी का विश्वास न करना चाहिए, मगर मैंने तो उसके साथ..."

ऊपर लिखी बातें कह कमलिनी चुप हो गयी और थोड़ी देर तक किसी गम्भीर चिन्ता में डूबी-सी दिखायी पड़ी। आख़िर कुँअर इन्द्रजीतसिंह से रहा न गया, धीरे से कमलिनी की उँगली पकड़कर बोले—

इन्द्रजीत : तुम्हें इस अवस्था में देखकर मुझे जान पड़ता है कि शायद कोई नयी मुसीबत आनेवाली है, जिसके विषय में तुम कुछ सोच रही हो।

कमलिनी : हाँ, ऐसा ही है, मेरे कामों में विघ्न पड़ता दिखायी देता है। अच्छा मर्जी परमेश्वर की! आपके लिए कष्ट उठाना क्या जान तक देने को तैयार हूँ। (कुछ रुककर) अब देर करना उचित नहीं, यहाँ से निकल ही जाना चाहिए।

इन्द्रजीत : क्या मायारानी के इस अनूठे बाग के बाहर निकलने को कहती हो?

कमलिनी : हाँ।

इन्द्रजीत : मैं तो सोचे हुआ था कि माता-पिता को छुड़ाकर, तभी यहाँ से जाऊँगा।

कमलिनी : मैंने भी यही निश्चय किया था, परन्तु क्या किया जाय, सबके पहिले अपने को बचाना उचित है, यदि आप ही आफ़त में फँसे रहेंगे, तो उन्हें कौन छुड़ायेगा!

इन्द्रजीत : यहाँ की अद्भुत बातों से मैं अनजान हूँ, इसलिए जो कुछ करने के लिए कहोगी करना ही पड़ेगा, नहीं तो मेरी राय तो यहाँ से भागने की न थी, क्योंकि जब मेरे हाथ-पैर खुले हैं और सचेत हूँ, तो एक क्या पाँच सौ से भी डर नहीं सकता। जिस पर तुम्हारा दिया हुआ यह अनूठा तिलिस्मी खंजर पाकर एक दफे साक्षात काल का भी मुकाबला करने से बाज न आऊँगा।

कमलिनी : आपका कहना ठीक है, मैं आपकी बहादुरी को अच्छी तरह जानती हूँ, परन्तु इस समय नीति यही कहती है कि यहाँ से निकल जाओ।

इन्द्रजीत : अगर ऐसा ही है तो चलो मैं चलता हूँ। (धीरे से कान में) तुम्हारी बुद्धिमानी पर मुझे डाह होता है।

कमलिनी : (धीरे से) डाह कैसा?

इन्द्रजीत : (दो कदम आगे ले जाकर) डाह इस बात का कि वह बड़ा ही भाग्यशाली होगा, जिसके तुम पाले पड़ोगी।

इसके जवाब में कमलिनी ने कुमार को एक हलकी चुटकी काटी और धीरे से कहा, "मुझे तो तुमसे बढ़कर भाग्यशाली कोई दिखायी नहीं पड़ता, मगर...!"

आह, कमलिनी की इस बात ने तो कुमार को फड़का दिया, लेकिन इस 'मगर' के शब्द ने भी बड़ा अन्धेर किया, जिसका सबब हमारे मनचले पाठक स्वयं समझ जायँगे, क्योंकि वे कमलिनी और कुँअर इन्द्रजीतसिंह की पहली बातें अभी भूले न होंगे, जो तालाब के बीच वाले उस मकान में हुई थीं, जहाँ कमलिनी रहा करती थी।

कमलिनी : (देवीसिंह से) इस आदमी को जो बेहोश पड़ा है, उठाके ले चलना चाहिए।

देवी : हाँ हाँ, इसे मैं उठाकर ले चलूँगा।

इन्द्रजीत : शायद हम लोगों को फिर से लौटना पड़े, क्योंकि बाहर निकलने का रास्ता पीछे छोड़ आये हैं।

कमलिनी : हाँ, सुगम रास्ता तो यही था, मगर अब मैं उधऱ न जाऊँगी, कौन ठिकाना हाथी वाले दरवाज़े के उस तरफ़ दुश्मन लोग आ गये हों, क्योंकि कैदख़ाने की दीवार आप तोड़ ही चुके हैं और उधर वाली सुरंग का मुँह खुला रहने के कारण किसी का आना कठिन नहीं है।

इन्द्रजीत : तब दूसरी राह कौन-सी है? क्या उधर चलोगी जिधर से यह दुश्मन आया है।

कमलिनी : नहीं, उधर भी दुश्मनों का गुमान है, आइए मैं एक और ही राह से ले चलती हूँ।

आगे-आगे कमलिनी और उसके पीछे-पीछे दोनों कुमार और ऐयार लोग रवाना हुए।

यहाँ भी दोनों तरफ़ दीवारों में सुन्दर तस्वीरें बनी हुई थीं। दस-बारह कदम आगे जाने के बाद बगल की दीवार में एक छोटा-सा खुला हुआ दरवाज़ा था जिसे देखकर कमलिनी ने इन्द्रजीतसिंह से कहा, "यह आदमी इसी राह से आया होगा, क्योंकि अभी तक दरवाज़ा खुला हुआ है, मगर मैं दूसरी ही राह से चलूँगी, जो ज़रा कठिन है।"

कुमार : मैं तो कहता हूँ इसी राह से चलो, दरवाज़े पर दस-पाँच दुश्मन मिल ही जायँगे तो क्या होगा।

कमलिनी : ख़ैर, तब चलिए।

सबकोई उस राह से बाहर हुए और कमलिनी ने उस दरवाज़े को जो एक खटके के सहारे खुलता और बन्द होता था, बन्द कर दिया। उस तरफ़ भी थोड़ी दूर सुरंग में ही जाना पड़ा। जब सुरंग का अन्त हुआ तो छोटी-छोटी सीढ़ियाँ ऊपर चढ़ने के लिए मिलीं। कमलिनी ने ऊपर की तरफ़ देखा और कहा, "यहाँ का दरवाज़ा तो बन्द है।" सबके आगे कमलिनी और फिर दोनों कुमार और ऐयार लोग ऊपर चढ़े। ये सीढ़ियाँ घूमती हुई ऊपर गयी थीं, मालूम होता था कि किसी बुर्ज पर चढ़ रहे हैं।

जब सीढ़ियों का अन्त हुआ तो एक चक्कर, पहिए की तरह बना हुआ दिखायी दिया जिसे कमलिनी ने चार-पाँच दफे घुमाया। खटके की आवाज़ के साथ पत्थर की चट्टान अलग हो गयी और सभी लोग उस राह से निकल-कर बाहर मैदान में दिखायी देने लगे। बाहर सन्नाटा देखकर कमलिनी ने कहा, "शुक्र है कि यहाँ हमारा दुश्मन कोई नहीं दिखायी देता।"

जिस राह से कुमार और ऐयार लोग बाहर निकले, वह पत्थर का एक चबूतरा था, जिसके ऊपर महादेव का लिंग स्थापित था। चबूतरे के नीचे की तरफ़ का बगलवाला पत्थर खुलकर ज़मीन के साथ सट गया था, और वही बाहर निकलने का रास्ता बन गया था। लिंग के बगल में ताँबे का बड़ा-सा नन्दी (बैल) बना हुआ था और उसके मोढ़े पर लोहे का एक सर्प गुडेडी मारे बैठा था। कमलिनी ने साँप के सिर को दोनों हाथ से पकड़कर उभाड़ा और साथ ही नन्दी ने मुँह खोल दिया, तब कमलिनी ने उसके मुँह में हाथ डालकर कोई पेंच घुमाया। वह पत्थर की चट्टान जो अलग हो गयी थी, फिर ज्यों-की-त्यों हो गयी और सुरंग का मुँह बन्द हो गया। कमलिनी ने साँफ के फन को फिर दबा दिया, और बैल ने भी अपना मुँह बन्द कर लिया।

इन्द्रजीत : (कमलिनी से) यह दरवाज़ा भी अजब तरह से खुलता और बन्द होता है।

कमलिनी : हाँ, बड़ी कारीगरी से बनाया गया है।

इन्द्रजीत : इसके खोलने और बन्द करने की तरकीब मायारानी को मालूम होगी?

कमलिनी : जी हाँ, बल्कि (लाडिली की तरफ़ इशारा करके) यह भी जानती है, क्योंकि बाग के तीसरे दर्जे में जाने के लिए यह भी एक रास्ता है, जिसे हम तीनों बहिनें जानती हैं, मगर उस हाथीवाले दरवाज़े का हाल, जिसे आपने खोला, सिवाय मेरे और कोई भी नहीं जानता।।

आनन्द : यह जगह बड़ी भयानक मालूम पड़ती है!

कमलिनी : जी हाँ, यह पुराना मसान है और गंगाजी भी यहाँ से थोड़ी ही दूर पर हैं। किसी जमाने में जब का यह मसान है, गंगाजी इसी जगह पास ही में बहती थीं, मगर अब कुछ दूर हट गयी और इस जगह बालू पड़ गया है।

आनन्द : ख़ैर, अब क्या करना और कहाँ चलना चाहिए?

कमलिनी : अब हमको गंगा पार होकर जमानिया में पहुँचना चाहिए। वहाँ मैंने एक मकान किराये पर ले रक्खा है, जो बहुत ही गुप्त स्थान में है, उसी में दो-तीन दिन रहकर कार्रवाई करूँगी।

इन्द्रजीत : गंगा पार किस तरह जाना होगा?

कमलिनी : थोड़ी ही दूर पर गंगा के किनारे एक किश्ती बँधी हुई है, जिस पर मैं आयी थी, मैं समझती हूँ वह किश्ती अभी तक वहाँ ही होगी।

सवेरा होने में कुछ विलम्ब न था। मन्द-मन्द दक्षिणी हवा चल रही थी और आसमान पर केवल दस-पाँच तारे दिखायी पड़ रहे थे, जिनके चेहरे की चमक-दमक चलाचली की उदासी के कारण मन्द पड़ती जा रही थी, जबकि कमलिनी और कुमार इत्यादि सब कोई वहाँ से रवाना हुए और उसी किश्ती पर सवार होकर, जिसका ज़िक्र कमलिनी ने किया था, गंगा पार हो गये।

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