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चन्द्रकान्ता सन्तति - 2

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8400
आईएसबीएन :978-1-61301-027-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 2 पुस्तक का ई-पुस्तक संस्करण...

चौथा बयान

हम ऊपर लिख आये हैं कि देवीसिंह को साथ लेकर शेरसिंह कुँअर इन्द्रजीतसिंह को छुड़ाने के लिए रोहतासगढ़ से रवाना हुए। शेरसिंह इस बात को तो जानते थे कि कुँअर इन्द्रजीतसिंह फलानी जगह हैं परन्तु उन्हें तालाब के गुप्त भेदों की कुछ भी ख़बर न थी। राह में आपस में बातचीत होने लगी।

देवी : लाली का भेद कुछ मालूम न हुआ।

शेर : अफ़सोस, उसके और कुन्दन के बारे में मुझसे बड़ी भारी भूल हुई, ऐसा धोखा खाया कि शर्म के मारे कुछ कह नहीं सकता?

देवी : इसमें शर्म की क्या बात है, ऐसा कोई ऐयार दुनिया में न होगा, जिसने कभी धोखा न खाया हो, हम लोग कभी धोखा देते हैं, कभी स्वयं धोखे में आ जाते हैं, फिर इसका अफ़सोस कहाँ तक किया जाय!

शेर : आपका कहना बहुत ठीक है, ख़ैर, इस बारे में मैंने कुछ मालूम किया है, उसे कहता हूँ! यद्यपि थोड़े दिनों तक मैंने रोहतासगढ़ से अपना सम्बन्ध छोड़ दिया था तथापि मैं कभी-कभी वहाँ जाया करता और गुप्त राहों से महल के अन्दर जाकर, वहाँ की ख़बर भी लिया करता था। जब किशोरी वहाँ फँस गयी तो अपनी भतीजी कमला के कहने से मैं वहाँ दूसरे-तीसरे बराबर जाने लगा। लाली और कुन्दन को मैंने महल में देखा, यह न मालूम हुआ कि यह दोनों कौन हैं। बहुत कुछ पता लगाया मगर कुछ काम न चला, परन्तु कुन्दन के चेहरे पर जब मैं गौर करता तो मुझे शक होता कि वह सरला है।

देवी : सरला कौन?

शेर : वही सरला जिसे तुम्हारी चम्पा ने चेली बनाकर रक्खा था और जो उस समय चम्पा के साथ थी, जब उसने एक खोह के अन्दर माधवी के ऐयार की लाश काटी थी।

देवी : हाँ, वह छोकरी, मुझे अब याद आया, मालूम नहीं कि आजकल वह कहाँ है। ख़ैर, तब क्या हुआ? तुमने समझा कि वह सरला है मगर उस खोह का और लाश काटने का हाल तुम्हें कैसे मालूम हुआ!

शेर : वह हाल स्वयं सरला ने कहा था, वह मेरे आपुस वालों में से है, इत्तिफाक से एक दिन मुझसे मिलने के लिए रोहतासगढ़ आयी थी, तब सब हाल मैंने सुना था, मगर मुझे यह नहीं मालूम कि आजकल कहाँ है।

देवी : अच्छा तब क्या हुआ?

शेर : एक दिन यही भेद खोलने की नीयत से मैं रात के समय रोहतासगढ़ महल के अन्दर गया और छिपकर सरला के सामने जाकर बोला, "मैं पहिचान गया कि तू सरला है, फिर तू अपना भेद मुझसे क्यों छिपाती है?" इसके जवाब में कुन्दन ने पूछा, "तुम कौन हो?"

मैं : शेरसिंह।

सरला : मुझे जब तक निश्चय न हो कि तुम शेरसिंह ही हो मैं अपना भेद कैसे कहूँ?

मै : क्या तू मुझे नहीं पहिचानती?

सरला : क्या जाने कोई ऐयार सूरत बदलके आया हो, अगर तुम पहिचान गये कि मैं सरला हूँ तो कोई ऐसी छिपी हुई बात कहो, जो मैंने तुमसे कही हो।

इसके जवाब में मैं वही खोहवाला अर्थात् लाश काटने वाला किस्सा कह गया और अन्त में मैं बोला कि यह हाल स्वयं तूने मुझसे बयान किया था।

उस किस्से को सुनकर कुन्दन हँसी और बोली, "हाँ, अब मैं समझ गयी। मैं चम्पा के हुक्म से यहाँ का हाल-चाल लेने आयी थी और अब किशोरी को छुड़ाने की फिक्र में हूँ, मगर लाली मेरे काम में बाधा डालती है, कोई ऐसी तरकीब बताइए जिसमें लाली मुझसे दबे और डरे!"

मैं उस समय यह कहकर वहाँ से चला आया कि अच्छा सोचकर इसका जवाब दूँगा।

देवी : तब क्या हुआ?

शेर : मैं वहाँ से रवाना हुआ और पहाड़ी के नीचे उतरते समय एक विचित्र बात मेरे देखने और सुनने में आयी।

देवी : वह क्या।

शेर : जब मैं अँधेरी रात में पहाड़ी के नीचे उतर रहा था तो जंगल में मालूम हुआ कि दो-तीन आदमी जो पगडण्डी के पास ही हैं, आपुस में बातें कर रहे हैं। मैं पैर दबाता हुआ उनके पास गया और छिपकर बातें सुनने लगा, मगर उस समय उनकी बातें समाप्त हो चुकी थीं, केवल एक आख़िरी बात सुनने में आयी।

देवी : फिर क्या हुआ?

शेर : एक ने कहा, "भरसक तो लाली और कुन्दन दोनों उन्हीं में से हैं, नहीं तो लाली तो ज़रूर इन्द्रजीतसिंह की दुश्मन है! मगर इसकी पहिचान तो सहज ही में हो सकती है। केवल 'किसी के खून से लिखी हुयी किताब' और आँचल पर गुलामी की दस्तावेज़' इन दोनों जुमलों से अगर वह डर जाये तो हम समझ जाएँगे कि बीरेन्द्रसिंह की दुश्मन है। ख़ैर, बूझा जाएगा, पहिले महल में जाने का मौका तो मिले। इसके बाद और कुछ सुनने में न आया और वे लोग उठकर न मालूम कहाँ चले गये। दूसरे दिन मैं फिर कुन्दन के पास गया और उससे बोला कि "तू लाली के सामने 'किसी के खून से लिखी हुई किताब' और 'आँचल पर गुलामी की दस्तावेज़' का ज़िक्र करके देख क्या होता है!"

देवी : फिर क्या हुआ?

शेर : तीन-चीर दिन बाद जब मैं कुन्दन के पास गया तो उसके जुबानी मालूम हुआ कि कुन्दन के मुँह से वे बातें सुनकर लाली बहुत डरी और उसने कुन्दन का मुकाबला करना छोड़ दिया। मगर मुझे थोड़े ही दिनों में मालूम हो गया कि कुन्दन सरला न थी, "उसने मुझे धोखा दिया और चालाकी से मेरी जुबानी कई भेद मालूम करके अपना काम निकाल लिया। मुझे इस बात की बड़ी शर्म है कि मैं अपने दुश्मन को अपना दोस्त समझा और धोखा खाया।

देवी : अक्सर ऐसा धोखा हो जाया करता है, ख़ैर, लाली तो अभी हम लोगों की क़ैद ही में है, कहीं जाती नहीं, रही कुन्दन, सो इन्द्रजीतसिंह को लेकर लौटने पर कोई तरकीब ऐसी ज़रूर निकाली जाएगी, जिसमें बाकी लोगों का असल हाल मालूम हो।

इसी तरह की बातें करते हुए दोनों ऐयार चले गये। रात को एक जगह दो-तीन घण्टे आराम किया और फिर चल पड़े। सवेरा होते-होते एक ऐसी जगह पहुँचे जहाँ एक छोटा-सा टीला ऐसा था, जिसपर चढ़ने से दूर-दूर तक की ज़मीन दिखायी देती थी तथा वहाँ से कमलिनी का तालाब वाला मकान भी बहुत दूर न था। दोनों ऐयार उस टीले पर चढ़ गये और मैदान की तरफ़ देखने लगे। यकायक शेरसिंह ने चौंककर कहा, "अहा, हम लोग क्या अच्छे मौके पर आये हैं! देखो वह कुँअर इन्द्रजीतसिंह, जीतसिंह और वह औरत, जिसने इन्हें फँसा रक्खा है, घोड़े पर सवार इसी तरफ़ चले आ रहे हैं!!"

देवी : है, ठीक तो है, उनके साथ और भी कई सवार भी हैं।

शेर : मालूम होता है, उस औरत ने उन्हें अच्छी तरह अपने वश में कर लिया है। बेचारे इन्द्रजीतसिंह क्या जानें कि यह उनकी दुश्मन है। चाहे जो हो, इन लोगों को आगे न बढ़ने देना चाहिए।

देवी : सबके आगे एक औरत घोड़े पर सवार होकर आ रही है। मालूम होता है कि उन लोगों को रास्ता दिखाने वाली यही है।

शेर : बेशक, ऐसा ही है, तभी तो सब कोई उसके पीछे-पीछे चल रहे हैं। पहिले उसी को रोकना चाहिए, मगर घोंड़ों की चाल बहुत तेज है।

देवी : कोई हर्ज़ नहीं, हम दोनों आदमी घोड़े की राह पर अड़कर खड़े हो जायें और अपने को घोड़े से बचाने के लिए मुस्तैद रहें, अच्छी नसल का घोड़ा यकायक आदमी के ऊपर टाप न रक्खेगा, वह लोगों को राह में देखकर ज़रूर अड़ेगा या झिझकेगा, बस उसी समय घोड़े की बाग थाम लेंगे।

दोनों ऐयारों ने बहुत जल्द अपनी राय ठीक कर ली और दोनों आदमी एक साथ घोंड़ों की राह में अड़कर खड़े हो गये। बात-की-बात में वे लोग भी आ पहुँचे। तारा का घोड़ा रास्ते में आदमियों को खड़ा देख कर झिझका और आड़ देखकर बगल की तरफ़ मुड़ना चाहा, उसी समय देवी सिंह ने फुरती से लगाम पकड़ ली। इस समय तारा का घोड़ा लाचार रुक गया और उसके पीछे आने वालों को भी रुकना पड़ा। कुँअरइन्द्रजीतसिंह, जीतसिंह, शेरसिंह को तो नहीं जानते थे मगर देवीसिंह को उन्होंने पहिचान लिया और समझ गये कि ये लोग हमारी ही खोज में घूम रहे हैं, आखिर देवीसिंह के पास गये और बोले

कुमार : यद्यपि आप सब काम मेरी भलाई ही के लिए करते होंगे परंतु इस समय हम लोगों को रोका सो अच्छा न किया।

देवी : क्या मामला है कुछ कहिए तो?

कुमार : (जल्दी में घबड़ाए हुए ढंग से) बेचारी किशोरी एक आफत में फँसी हुयी है, उसी को बचाने जा रहे हैं।

देवी : किस आफ़त में फँसी है।

कुमार : इतना कहने का मौका नहीं है।

देवी : यह औरत आपको अवश्य धोखा देगी, जिसके साथ आप जा रहे हैं।

कुमार : ऐसा नहीं हो सकता, यह बड़ी ही नेक और मेरी हमदर्द है।

इतना सुनते ही कमलिनी आगे बढ़ आयी और देवीसिंह से बोली–

"मैं खूब जानती हूँ कि आप लोगों को मेरी तरफ़ से शक है तथापि मुझे कहना ही पड़ता है कि इस समय आप हम लोगों को न रोकें, नहीं का विश्वास न हो तो, मेरे सवारों में से दो आदमी घोड़े पर उतर पड़ते हैं, उनके बदले में आप दोनों आदमी घोड़ों पर सवार होकर साथ चलें और देख ले कि आपके ख़ैरख्वाह हैं या बदख्वाह।"

देवी : हाँ, बेशक यह अच्छी बात है और मैं इसे मंजूर करता हूँ।

कमलिनी के इशारा करते ही दो सवारों ने घोड़ों की पीठ खाली कर दी। उनके बदले में देवीसिंह और शेरसिंह सवार हो गये और फिर उसी तरह सफ़र शुरू हुआ। इस समय कुछ-कुछ सूरज निकल चुका था और सुनहरी धूप ऊँचे-ऊँचे पेड़ों के ऊपरवाले हिस्सों पर फैल चुकी थी।

आधे घण्टे और सफ़र करने के बाद वे लोग उस जगह पहुँचे जहाँ धनपति ने किशोरी को जलाकर खाक कर डालने के लिए चिता तैयार की थी और जहाँ से दीवान अग्निदत्त लड़-भिड़कर किशोरी को ले गया था। इस समय भी वह चिता कुछ बिग़डी हुयी सूरत में तैयार थी और इधर-उधर बहुत सी लाशे पड़ी हुई थीं, उस जगह पहुँचकर तारा ने घोड़ा रोका और इसके साथ ही सब रुक गये। तारा ने कमलिनी की तरफ़ देखकर कहा–

तारा : बस इसी जगह मैं आप लोगों को लाने वाली थी, क्योंकि इसी जगह धमपति के बहुत से आदमी मौजूद थे और यहीं वह किशोरी को लेकर आने वाली थी। (लाशों की तरफ़ देखकरe) मालूम होता है यहाँ बहुत खून-खराबा हुआ है।

कमलिनी : तूने कैसे जाना कि किशोरी को लेकर धनपति इसी जगह आने वाली थी और धनपति को तूने कहाँ छोड़ा था।

तारा : रात के समय छिपकर धनपति के आदमियों की बात मैंने सुनी थी, जिससे बहुत-कुछ हाल मालूम हुआ था और धनपति को मैंने उसी खोह के मुहाने पर छोड़ा था, जो रोहतासगढ़ तहख़ाने से बाहर निकलने का रास्ता है और जहाँ सलई के दो पेड़ लगे हैं। उस समय बेहोश किशोरी धनपति के कब्ज़े में थी और सेनापति के कई आदमी भी मौजूद थे। उन लोगों की बातें सुनने से मुझे विश्नास हो गया था कि वे लोग किशोरी को लिए हुए इसी जगह आवेगें। (एक लाश की तरफ़ देखके और चौंकके) देखिए। पहिचानिए।

कमलिनी : बेशक यह धनपति का नौकर है। (और लाशों को भी अच्छी तरह देखकर) बेशक, धनपति यहाँ तक आयी थी पर किसी से लड़ाई हो गयी, जो इन लाशों को देखने से जाना जाता है, मगर इनमें बहुत-सी लाशें ऐसी हैं जिन्हें मैं नहीं पहिचानती। न मालूम इस लड़ाई का क्या नतीजा हुआ, धनपति गिरफ़्तार हो गयी या भाग गयी और किशोरी किसके क़ब्ज़े में पड गयी! (कुमार की तरफ़ देखकर) शायद आपके सिपाही या ऐयार लोग यहाँ आये हों?

कुमार : नहीं, (देवीसिंह की तरफ़ देखकर) आप क्या खयाल करते हैं?

देवी : खयाल तो मैं बहुत कुछ करता हूँ, इसका हाल कहाँ तक पूछिएगा, मगर इन लाशों में हमारे तरफ़ की कोई लाश नहीं है जिससे मालूम हों कि वे लोग यहाँ आये होंगे।

सब लोग इधर-उधर घूमने और लाशों को देखने लगे। यकायक देवीसिंह एक ऐसी लाश के पास पहुँचे, जिसमें जान बाकी थी और वह धीरे-धीरे कराह रहा था। उसके बदन में कई जगह जख़्म लगे हुए थे और कपड़े खून से तर थे। देवीसिंह ने कुमार की तरफ़ देखके कहा, "इसमें जान बाकी है, अगर बच जाये और कुछ बातचीत कर सके तो बहुत-कुछ हाल मालूम होगा।"

कई आदमी उस लाश के पास आ मौजूद हुए और उसे होश में लाने की फिक्र करने लगे। उसके जख़्मों पर पट्टी बाँधी गयी और ताकत देने वाली दवा भी पिलायी गयी। घोड़े नंगी पीठ करके दम लेने, हरारत मिटाने और चरने के लिए लम्बी बागडोरी से बाँधकर छोड़ दिये गये।

आधे घण्टे के बाद उस आदमी को होश आया और उसने कुछ बोलने का इरादा किया मगर जैसे ही उसकी निगाह कमलिनी पर पड़ी, वह काँप उठा और उसके चेहरे पर मुर्दानी छा गयी। उसके दिल का हाल कमलिनी समझ गयी और उसके पास जाकर मुलायम आवाज़ में बोली, "बाँकेसिंह डरो मत, मैं वादा करती हूँ कि तुम्हें किसी तरह की तकलीफ न दूँगी, हाँ, होश में आओ और मेरी बात का जवाब दो।"

कमलिनी की बात सुनकर उसके चेहरे की रंगत बदल गयी, डर की निशानी जाती रही, और यह भी जाना गया कि वह कमलिनी की बातों का जवाब देने के लिए तैयार है।

कमलिनी : किशोरी को लेकर धनपति यहाँ आयी थी?

बाँके : (सिर हिलाकर धीरे से) हाँ मगर...

कमलिनी : मगर क्या?

बाँके : उसने किशोरी को जला देना चाहा था, मगर यकायक अग्निदत्त और उसके साथी लोग यहाँ आ पहुँचे और लड़-भिड़कर किशोरी को ले गये, हम लोग उन्हीं के हाथ से जख़्मी...

बांके सिंह इतनी बातें धीरे-धीरे और रुक-रुककर कहीं, क्योंकि जख़्मों से ज़्यादे खून निकल जाने के कारण वह बहुत ही कमज़ोर हो रहा था, यहाँ तक की बात न पूरी कर सका और गश में आ गया। इन लोगों ने उसे होश में लाने के लिए बहुत कुछ उद्योग किये, मगर दो घण्टे तक होश न आया। इस बीच में देवीसिंह ने उसे कई दफे दवा पिलायी।

देवी : इसमें कोई शक नहीं कि ये बच जाएगा।

शेर : (देवी सिंह की तरफ़ देखकर) हमने (कमलिनी की तरफ़ इशारा करके) इनके बारे में भी धोखा खाया, वास्तव में यह कुमार के साथ नेकी कर रही हैं।

देवी : बेशक, यह कुमार की दोस्त है, मगर तुमने कई बातें ऐसी कहीं थीं कि अब भी...

कुमार : नहीं-नहीं, देवीसिंहजी, मैं इन्हें अच्छी तरह आजमा चुका हूँ, सच तो यों है कि इन्हीं की बदौलत आज आप लोगों ने मेरी सूरत देखी।

इसके बाद कुमार ने शुरू से अपना किस्सा देवीसिंह से कह सुनाया और कमलिनी की बड़ी तारीफ़ की।

कमलिनी : आप लोगों ने मेरे बारे में बहुत सी बातें सुनी होंगी और वास्तव में मैंने जो-जो काम किये हैं, वे ऐसे नहीं कि कोई मुझ पर विश्वास कर सके, हाँ जब आप लोग मेरा असल भेद जान पाएँगे तो अवश्य कहेंगे कि तुम्हारे हाथ से कभी कोई बुरा काम नहीं हुआ। अभी कुमार को भी मेरा हाल मालूम नहीं, समय मिलने पर मैं अपना विचित्र हाल आप लोगों से कहूँगी और उस समय आप लोग कहेंगे कि बेशक शेरसिंह और उनकी भतीजी कमला ने मेरे बारे में धोखा खाया।

शेर : (ताज्जुब में आकर) आप मुझे और मेरी भतीजी कमला को क्योंकर जानती हैं?

कमलिनी : आप लोगों को बहुत अच्छी तरह जानती हूँ, हाँ आप लोग मुझे नहीं जानते और जब तक मैं स्वयं अपना हाल न कहूँ, जान भी नहीं सकते।

इसके बाद कुमार ने देवीसिंह से शेरसिंह का हाल पूछा और उन्होंने सब हाल कहा। उसी समय जख़्मी ने आँखें खोलीं और पीने के लिए पानी माँगा, जिसका इलाज ये लोग कर रहे थे।

अबकी दफे बाँकेसिंह अच्छी तरह होश में आया और कमलिनी के पूछने पर उसने इस तरह बयान किया–

"इसमें कोई संदेह नहीं कि अग्निदत्त किशोरी को ले गया क्योंकि मैं उसे बखूबी पहिचानता हूँ, मगर यह नहीं मालूम कि किशोरी की तरह धनपति भी उसके पंजे में फँसी गयी या निकल भागी, क्योंकि लड़ाई खतम होने के पहिले ही मैं जख़्मी होकर गिर पड़ा था। मैं जानता था कि अग्निदत्त बहुत-से बदमाशों और लुटेरों के साथ यहाँ से थोड़ी दूर एक पहाड़ी पर रहता है और इसी सबब से धनपति को मैंने कहा भी था कि इस जगह आपका अटकना मुनासिब नहीं, मगर होनहार को क्या किया जाये! (हाथ जोड़कर) महारानी, न मालूम क्यों आपने हम लोगों को त्याग दिया? आज तक इसका ठीक पता हम लोगों को न लगा।"

बाँकेसिंह की आखिरी बात का जवाब कमलिनी ने कुछ न दिया और उससे उस पहाड़ी का पूरा पता पूछा, जहाँ अग्निदत्त रहता था। बाँकेसिंह ने अच्छी तरह वहाँ का पता दिया। कमलिनी ने अपने सवारों में से एक को बाँकेसिंह के पास छोड़ा और बाक़ी सभों को साथ ले, वहाँ से रवाना हुई। इस समय कुँअर इन्द्रजीतसिंह की क्या अवस्था थी, इसे अच्छी तरह समझना जरा कठिन था। कमलिनी की नेकी, किशोरी की दशा, इश्क की खिंचाखिंची और अग्निदत्त की कार्रवाई के सोच-विचार में ऐसे मग्न हुए कि थोड़ी देर के लिए तनोबदन की सुध भुला दी, केवल इतना जानते रहे कि कमलिनी के पीछे-पीछे किसी काम के लिए कहीं जा रहे हैं। सूरज अस्त होने के बाद लोग पहाड़ी के नीचे पहुँचे, जिसपर अग्निदत्त रहता था और जहाँ खोह के अन्दर किशोरी की अन्तिम अवस्था ऊपर के बयान में लिख आये हैं।

इन लोगों का दिल ऐसा न था कि इस पहाड़ी के नीचे पहुँचकर किसी ज़रूरी काम के लिए भी कुछ देर तक अटकते। घोड़ों को पेड़ों से बाँध तुरन्त चढ़ने लगे और बात-की-बात में पहाडी़ के ऊपर जा पहुँचे। सबसे पहिले जिस चीज़ पर इन लोगों की निगाह पड़ी, वह एक लाश थी जिसे इन लोगों में से कोई नहीं पहिचानता था और इसके बाद भी बहुत-सी लाशें देखने में आयीं जिससे इन लोगों का दिल छोटा हो गया और सोचने लगे कि देखें कि किशोरी से मुलाकात होती है या नहीं।

इस पहाड़ी के ऊपर एक छोटी-सी मढ़ी बनी हुई थी, जिसमें बीस-पच्चीस आदमी रह सकते थे और इसी के बग़ल में एक गुफ़ाथी, जो बहुत लम्बी और अन्धेरी थी। पाठक, यह वही गुफ़ा थी, जिसमें बेचारी किशोरी दुष्ट अग्निदत्त का हाथ से बेबस होकर ज़मीन पर गिर पड़ी थी।

इस पहाड़ी के ऊपर बहुत-सी लाशें पड़ी हुई थीं, किसी का सिर कटा हुआ था, किसी को तलवार ने जनेवा काट गिरा था, कोई कमर से दो टुकड़े था, किसी का हाथ कटकर अलग हो गया था, किसी के पेट को खँजर ने फाड़ डाला था और आँते बाहर निकल पड़ीं थीं, मगर किसी जीते आदमी का नाम-निशान वहाँ न था। ऐसी अवस्था देखकर कुँअर इन्द्रजीतसिंह बहुत घबराये और उन्हें किसी के मिलने से नाउम्मीदी हो गयी। ऐयारों ने बटुए से सामान निकाल कर बत्ती जलायी और खोह के अन्दर घुस कर देखा तो वहाँ भी एक लाश के सिवाय और कुछ न दिखायी पड़ा। निगाह पड़ते ही देवीसिंह ने पहिचान लिया कि यह अग्निदत्त की लाश है। एक खंजर इसके कलेजे में अभी तक चुभा हुआ मौजूद था, केवल उसका कब्जा बाहर था और दिखायी दे रहा था, उसके पास ही एक लपेटा हुआ काग़ज़ पड़ा था। देवीसिंह ने वह काग़ज़ उठा लिया और दोनों ऐयार उस लाश को बाहर लाये।

सभों ने अग्निदत्त की लाश को देखा और ताज्जुब किया।

शेर : इस हरामजादे को इसके कुकर्मों की सजा न मालूम किसने दी!

कमलिनी : हाय, इस कम्बख्त की बदौलत बेचारी किशोरी पर न मालूम क्या-क्या आफ़तें आयीं और अब वह कहाँ किस अवस्था में है।

देवी : (चीठी दिखाकर) इसकी लाश के पास यह चीठी भी मिली है, शायद इससे कुछ पता चले।

कमलिनी : हाँ हाँ, इसे पढ़ो तो सही, देखें क्या लिखा है।

सभों का ध्यान उस चीठी पर गया। कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने वह चीठी देवीसिंह के हाथ से ले ली और पढ़कर सभों को सुनाया, यह लिखा था–

"आख़िर हरामज़ादी किशोरी मेरे हाथ लगी! इसमें कोई शक नहीं कि अब यह अपने किये का फल भोगेगी। इसकी शैतानी ने मुझे जीतेजीही मार डाला था, मगर मैंने भी पीछा न छोड़ा। कम्बख्त अग्निदत्त की क्या हकीकत थी, जो मेरे हाथ से अपनी जान बचा ले जाता। मैं उन लोगों को ललकारता हूँ, जो अपने को बहादुर, दिलेर और राजा मानते हैं! कहाँ हैं बीरेन्द्रसिंह, इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह, जो अपनी बहादुरी का दावा रखते हैं? आवें और मेरा चरण छूकर माफी माँगें। कहाँ हैं उनके ऐयार, जो अपने को विधाता ही समझ बैठे हैं? आवें और मेरे ऐयारों के सामने सिर झुकावें। मुझे विश्वास है कि उन लोगों में से कोई-न-कोई किशोरी को खोजता हुआ यहाँ ज़रूर आवेगा और इसलिए मैं यह चीठी लिखकर यहाँ रक्खे जाता हूँ कि ऊपर लिखे व्यक्ति या उनके साथी या मददगार लोग चाहे जो कोई भी हों अपनी-अपनी जान बचावें क्योंकि उनकी मौत आ चुकी है और अब वे लोग मेरे हाथ से किसी तरह बच नहीं सकते। कोई यह न कहे कि मैं छिपकर अपना काम करता हूँ और किसी को अपनी सूरत नहीं दिखाता। जिसको सूरत देखनी हो मेरे घर चला आवे, मगर होशियार रहे, क्योंकि मेरे सामने आनेवाले की भी वह दशा होगी जो यहाँ वालों की हुई। लो मैं अपना पता भी बताये देता हूँ, जिसको आना हो मेरे पास चला आवे। यहाँ से पाँच कोस पूरब एक नाला है, उसी के किनारे दक्खिन रुख दो कोस तक चले जाने के बाद मेरा घर दिखायी पड़ेगा।

                         –बहादुरों का दादागुरु।"

इस चीठी ने सभों को अपने आपे से बाहर कर दिया। मारे क्रोध के कुँअर इन्द्रजीतसिंह की आँखें कबूतर के खून की तरह सुर्ख हो गयीं। देवीसिंह और शेरसिंह दाँत पीसने लगे।

कुमार : चाहे जो हो, मगर इस हरामज़ादे से मुकाबिला किये बिना मैं किसी तरह आराम नहीं कर सकता!

देवी : बेशक उसको इस ढिठाई की सजा दी जाएगी।

कुमार : अब यहाँ ठहरना व्यर्थ है, चलकर उसको ढूँढ़ना चाहिए।

कमलिनी : बेशक, उसने बड़ी बेअदबी की, उसे ज़रूर सजा देनी चाहिए। मगर आप लोग बुद्धिमान हैं, मुझे विश्वास है कि बिना समझे-बूझे किसी काम में जल्दी न करेंगे।

कुमार : ऐसे समय में विलम्ब करना अपनी बहादुरी में बट्टा लगाना है।

कमलिनी : आप इस समय क्रोध में हैं इसलिए ऐसा कहते हैं, नहीं तो आप स्वयं पहिले किसी ऐयार को भेजना मुनासिब समझते। इतनी बड़ी शेखी के साथ पत्र लिखने वाले को मैं सच्चा नहीं समझ सकती। खुल्लमखुल्ला आप लोगों का मुकाबला करना हँसी-खेल है? क्या यह केवल उन्हीं आदमियों का काम है, जो दग़ाबाज़ नहीं बल्कि सच्चे बहादुर हैं? कभी नहीं, कभी नहीं, बेशक वह कोई बेईमान और हरामज़ादा आदमी है। इसके अतिरिक्त आप ज़रा इस रात के समय और अपने घोड़ों की हालत पर ध्यान दीजिए कि अब वे एक कदम भी चलने लायक नहीं रहे।

यद्यपि कुमार और उनके ऐयार इस समय बड़े क्रोध में थे परन्तु कमलिनी की सच्ची हमदर्दी के साथ मीठी-मीठी बातों ने उन्हें ठण्डा किया और इस लायक बनाया कि वे नेक और बद को सोच सकें। कमलिनी के आदमियों के साथ और ऐयारों के बटुए में बहुत-कुछ खाने का सामान था। पहाड़ी के नीचे एक छोटा सा चश्मा बह रहा था, वहाँ से जल मँगवाया और और सभों ने कुछ खाकर जल पीया, इसके बाद फिर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए।

देवी : जिस मकान का इस चीठी में पता दिया गया है, यदि वहाँ न जाना चाहिए तो यहाँ रहना भी मुनासिब नहीं, क्योंकि वे दग़ाबाज़ लोग इस जगह से भी बेफिक्र न होंगे। मेरी राय तो यही है कि शेरसिंह के साथ कुमार विजयगढ़ जाएँ और मैं उस मकान की खोज़ में जाकर देखूँ कि वहाँ क्या है।

कमलिनी : आपका कहना बहुत ठीक है, मैं भी यही मुनासिब समझती हूँ, इस बीच में मुझे भी एक-दो दुश्मनों का पता लगा लेने का मौका मिलेगा, क्योंकि जहाँ तक मैं समझती हूँ, यह एक ऐसे आदमी का काम है, जिसे सिवाय मेरे आप लोग नहीं जानते और न इस समय उसका नाम आप लोगों के सामने लेना ही मुनासिब समझती हूँ।

कुमार : क्या नाम बताने में कोई हर्ज़ है?

कमलिनी : बेशक, हर्ज़ है, हाँ, यदि मेरा गुमान ठीक निकला तो अवश्य उन लोगों का नाम बताऊँगी और पता भी दूँगी।

कुमार : खघार, मगर जो कुछ राय आप लोगों ने दी है, उसके अनुसार चलने में कई दिन व्यर्थ लग जाएँगे, इसलिए मेरी राय कुछ दूसरी ही है।

देवी : वह क्या?

कुमार : मैं खुद आपके साथ उस मकान की तरफ़ चलता हूँ, जिसका पता इस चीठी में दिया गया है। यदि केवल उस मकान के अन्दर रहने वाले हमारे दुश्मन हैं तो हिम्मत हारने की कोई ज़रूरत नहीं, इसी समय उन्हें जीतकर किशोरी को छुड़ा लाऊँगा, और यदि उन लोगों के पास फौज होगी जिसका पता लगाना कुछ कठिन न होगा, उस समय जो कुछ राय आप लोग देंगे, किया जाएगा।

इसी तरह की बातचीत करने में पहर बीत गयी। आख़िर वही निश्चय ठहरा जो कुमार ने सोचा था अर्थात इसी समय सब कोई उस मकान की तरफ़ जाने के लिए मुस्तैद हुए और पहाड़ी के नीचे उतर आये। पेड़ों के साथ बागडोर में बँधे हुए घोड़े वहीं चर रहे थे जो अपने सवारों को देखकर हिनहिनाने लगे, जिससे जाना कि वे इस समय फिर सफ़र के लिए तैयार हैं और पहर-भर चरने और आराम करने से उनकी थकावट कम हो चुकी है। सब घोड़े पर सवार होकर वहाँ से रवाना हुए।

जो कुछ उस चीठी में लिखा था वह ठीक मालूम होने लगा अर्थात पूरब पाँच कोस चले जाने के बाद एक नाला मिला और उसी के किनारे-किनारे दो कोस दक्खिन जाने के बाद, एक मकान की सुफेदी दिखायी पड़ी। मालूम होता था कि यह मकान अभी नया बना है या आज-ही-कल में इसके ऊपर चूना फेरा गया है। रात दो पहर से ज़्यादे जा चुकी थी, चन्द्रमा अपनी पूर्ण कला से आकाश के बीच में दिखायी दे रहे थे, शीतल किरणें चारों तरफ़ फैली हुई थीं और मालूम होता था कि ज़मीन पर चाँदी का पत्र जड़ा हुआ हो। ये लोग घना जंगल पीछे छोड़ आये थे और इस जगह पेड़ बहुत कम और छोटे-छोटे थे, उस मकान के चारों तरफ़ दो-सौ बिगहे के लगभग साफ मैदान था।

अच्छी तरह जाँच करने और खयाल दौड़ाने से मालूम हो गया कि इस जगह पर फौज नहीं है न लड़ाई का कुछ सामान ही है, अगर कुछ है तो उसी मकान के अन्दर होगा। आख़िर थोड़ी देर तक सोच-विचार कर ये लोग मकान के पास पहुँचे।

यह मकान बहुत बड़ा न था, लगभग पचास गज के लंबा और इसी कदर चौड़ा होगा। इसकी ऊँचाई पैंतीस गज से ज़्यादे न होगी। चारों तरफ़ की दीवारें साफ थीं, न तो किसी तरफ़ को दरवाज़ा था और न कोई खिड़की। ये लोग चारो तरफ़ घूमे मगर अन्दर जाने का रास्ता न मिला, आख़िर सब लोग घोंडो़ पर से उतरकर एक तरफ़ खड़े हो गये, देवीसिंह ने कमन्द फेंका और उसके सहारे से दीवार पर चढ़कर देखना चाहा कि अन्दर क्या है।

ऊपर की दीवार बहुत चौड़ी थी। सभों ने देखा कि देवीसिंह दीवार पर खड़े होकर अन्दर की तरफ़ बड़े गौर से देख रहे हैं। यकायक देवीसिंह खिलखिलाकर हँसे और बिना कुछ कहे उस मकान के अन्दर कूद पड़े।

यह देख सभों को ताज्जुब हुआ, कमलिनी ने तारा के कान में कुछ कहा, जिसके जवाब में उसने सिर हिला दिया। थोड़ी देर तक तो देवीसिंह की राह देखी गयी, आख़िर उसी कमन्द के सहारे शेरसिंह चढ़ गये और उनकी भी वही अवस्था देखने में आयी, अर्थात् कुछ देर तक गौर से देखने के बाद देवीसिंह की तरह हँसकर, शेरसिंह भी उस मकान के अन्दर कूद पड़े।

अब तो कुमार के आश्चर्य की कोई हद न रही, वे ताज्जुब में आकर सोचने लगे कि यह क्या मामला है और इस मकान के अन्दर क्या है, जिसे देख दोनों ऐयारों ने ऐसा किया? "जो हो, अब मैं भी ऊपर चढ़ूँगा और देखूँगा कि क्या है!" कुमार भी उसी कमन्द के सहारे ऊपर चढ़ने को तैयार हुए, मगर कमलिनी ने हाथ पकड़ लिया और कहा, "ऐसा नहीं हो सकता, अभी हमारे कई आदमी मौजूद हैं, पहले इन्हें जा लेने दीजिए।" लाचार कुमार को रुकना पड़ा। कमलिनी ने अपने उन सवारों की तरफ़ देखा जो उसके साथ आये थे और कहा, "तुम लोगों में से एक आदमी ऊपर जाकर देखो कि क्या है?"

हुक्म पाकर उसी कमन्द के सहारे वह आदमी ऊपर गया और उसकी भी वही दशा हुई वह भी कूद पड़ा, तीसरा गया वह भी न लौटा, यहाँ तक कि कमलिनी के कुल आदमी इसी तरह उस मकान के अन्दर जा दाखिल हुए। कमलिनी ने बहुत रोका और मना किया मगर कुमार ने उसकी बात पर ध्यान न दिया, वे भी उसी कमन्द के सहारे ऊपर चढ़ गये और अपने साथियों की तरह गौर से थोड़ी देर तक देखने के बाद हँसते हुए मकान के अन्दर कूद पड़े।

अब सवेरा हो गया, आसमान पर पूरब की तरफ़ सूर्य की लालिमा दिखायी देने लगी, कमलिनी ने हँसकर अपनी ऐयारा तारा की तरफ़ देखा, वह गर्दन हिलाकर हँसी और बोली, "अब देर करने की कोई ज़रूरत नहीं।"

बाकी घोड़े उसी तरह उसी जगह छोड़ दिये गये, दो घोड़ों पर कमलिनी और तारा सवार हुईं और हँसती हुयी एक तरफ़ को चली गयीं।

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