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चन्द्रकान्ता सन्तति - 2

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :240
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8400
आईएसबीएन :978-1-61301-027-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 2 पुस्तक का ई-पुस्तक संस्करण...

नौवाँ बयान

गिल्लन को साथ लिये हुए, बीबी ग़ौहर रोहतासगढ़ किले के अन्दर जा पहुँची। किले के अन्दर जाने में किसी तरह का जाल फैलाना न पड़ा और न किसी तरह की कठिनाई हुई। वह बेधड़क किले के उस फाटक पर चली आयी, जो शिवालय के पीछे की तरफ़ था और छोटी खिड़की के पास खड़ी होकर खिड़की (छोटा दरवाज़ा) खोलने के लिए दर्बान को पुकारा, जब दर्बान ने पूछा, "तू कौन है?" तो उसने जवाब दिया कि 'मैं शेरअलीखाँ की लड़की ग़ौहर हूँ।'

उन दिनों शेरअलीखाँ पटने का नामी सूबेदार था। वह शख्स बड़ा ही दिलेर जवाँमर्द और बुद्धिमान था, साथ ही इसके दग़ाबाज़ भी कुछ-कुछ था, मगर इसे वह राजनीति का एक अंग मानता था। उसके इलाके भर में जो कुछ उसका रोआब था इसे कहाँ तक कहा जाय, दूर-दूर तक के आदमी उसका नाम सुनकर काँप जाते थे। उसके पास फौज तो केवल पाँच ही हज़ार थी, मगर वह उससे पचीस हज़ार फौज का काम लेता था क्योंकि उसने अपने ढंग के आदमी चुन-चुनकर अपनी फौज में भरती किये थे। ग़ौहर उसी शेरअलीखाँ कीं लड़की थी और वह ग़ौहर की मौसेरी बहिन थी, जो चुनारगढ़ के पास वाले जंगल में माधवी के हाथ से मारी गयी थी।

शेरअलीखाँ अपनी ज़ोरू को बहुत चाहता था और उसी तरह अपनी लड़की ग़ौहर को भी हद्द से ज़्यादे प्यार करता था। ग़ौहर को दस वर्ष की छोड़कर उसकी माँ मर गयी थी। मां के गम में ग़ौहर दीवानी-सी हो गयी। लाचार दिल बहलाने के लिए शेरअलीखाँ ने ग़ौहर को आज़ाद कर दिया और वह थोड़े से आदमियों को साथ लेकर दूर-दूर तक सैर करती फिरती थी। पाँच वर्ष तक वह इसी अवस्था में रही, इसी बीच में आज़ादी मिलने के कारण उसकी चाल-चलन में भी फर्क पड़ गया था। इस समय ग़ौहर की उम्र पन्द्रह वर्ष की है। शेरअलीखाँ दिग्विजयसिंह का दिली दोस्त था और दिग्विजयसिंह भी उसका बहुत भरोसा रखता था।

ग़ौहर का नाम सुनते ही दर्बान चौंका और उसने उस अफ़सर को इत्तिला दी, जो कई सिपाहियों को साथ लेकर फाटक की हिफ़ाज़त पर मुस्तैद था। अफ़सर तुरन्त फाटक पर आया और उसने पुकारकर पूछा, "आप कौन हैं?"

गौहर : मैं शेरअलीखाँ की लड़की ग़ौहर हूँ।

अफ़सर : इस समय आपको संकेत बताना चाहिए।

गौहर : हाँ बताती हूँ, –'जोगिया'।

'जोगिया' सुनते ही अफ़सर ने दरवाज़ा खोलने का हुक्म दिया और गिल्लन को साथ लिये हुए ग़ौहर किले के अन्दर पहुँच गयी। मगर ग़ौहर बिल्कुल नहीं जानती थी कि थोड़ी ही दूर पर एक लम्बे क़द का आदमी दीवार के साथ चिपका खड़ा है और उसकी बातें जो दर्बान के साथ हो रही थीं सुन रहा है।

जब ग़ौहर किले के अन्दर चली गयी उसके आधे घण्टे बाद एक लम्बे कद का आदमी जिसे अब भूतनाथ कहना उचित है, उसी फाटक पर पहुँचा और दरवाज़ा खोलने के लिए उसने दर्बान को पुकारा।

दर्बान : तुम कौन हो?

भूतनाथ : मैं शेरअलीखाँ का जासूस हूँ।

दर्बान : संकेत बताओ।

भूतनाथ : 'जोगिया'।

दरवाज़ा तुरत खोल दिया गया और भूतनाथ भी किले के अन्दर जा पहुँचा। ग़ौहर वही परिचय देती हुई राजमहल तक चली गयी, जब उसके आने की ख़बर राजा दिग्विजयसिंह को दी गयी, उस समय रात बहुत कम बाकी थी और दिग्विजयसिंह मसहरी पर बैठा हुआ राजकीय विषयों में तरह-तरह की बातें सोच रहा था। ग़ौहर के आने की ख़बर सुनते ही दिग्विजयसिंह ताज्जुब में आकर उठ खड़ा हुआ, उसे अन्दर आने की आज्ञा दी, बल्कि खुद भी दरवाज़े तक इस्तकबाल के लिए आया और बड़ी खातिरदारी से उसे अपने कमरे में ले गया। आज पाँच वर्ष बाद दिग्विजयसिंह ने ग़ौहर को देखा, इस समय, इसकी खूबसूरती और उठती हुई जवानी गजब करती थी। उसे देखते ही दिग्विजयसिंह की तबीयत डोल गयी मगर शेरअलीखाँ के डर से रंग न बदल सका।

दिग्विजय : इस समय आपका आना क्योंकर हुआ और यह दूसरी औरत आपके साथ कौन है?

गौहर : यह मेरी ऐयारा है। कई दिन हुए केवल आपसे मिलने के लिए सौ सिपाहियों को साथ लेकर मैं यहाँ आ रही थी, इत्तिफाक से बीरेन्द्रसिंह के जालिम आदमियों ने मुझे गिरफ़्तार कर लिया। मेरे साथियों में से कई मारे गये और कई क़ैद हो गये। मैं भी चार दिन तक क़ैद रही, आख़िर इस चालाक ऐयारा ने, जो क़ैद होने से बच गयी थी, मुझे छुड़ाया। इस समय सिवाय इसके कि मैं इस किले में आ घुसूँ और कोई तदबीर जान बचाने की न सूझी। सुना है कि बीरेन्द्रसिंह वगैरह आजकल आपके यहाँ क़ैद हैं।

दिग्विजय : हाँ, वे लोग आजकल यहाँ क़ैद हैं। मैंने यह ख़बर आपके पिता को भी लिखी है।

गौहर : हाँ, मुझे मालूम है। वे भी आपकी मदद को आनेवाले हैं, उनका इरादा है कि बीरेन्द्रसिंह के लश्कर पर जो इस पहाड़ी के नीचे है, छापा मारें।

दिग्विजय : हॉ, मुझे तो एक उन्हीं का भरोसा है।

यद्यपि शेरअलीखाँ के डर से दिग्विजयसिंह ग़ौहर के साथ अदब का बर्ताव करता रहा मगर कम्बख्त ग़ौहर को यह मंजूर न था। उसने यहाँ तक हाव-भाव और चुलबुलापन दिखाया कि दिग्विजयसिंह की नीयत बदल गयी और वह एकान्त खोजने लगा।

ग़ौहर तीन दिन से ज़्यादे अपने को बचा न सकी। इस बीच में उसने अपना मुँह काला करके दिग्विजयसिंह को काबू में कर लिया और दिग्विजयसिंह से इस बात की प्रतिज्ञा करा ली कि बीरेन्द्रसिंह वगैरह जितने आदमी यहाँ क़ैद हैं, सभों का सिर काटकर किले के कँगूरों पर लटका दिया जायेगा और इसका बन्दोबस्त भी होने लगा। मगर इसी बीच में भैरोसिंह, रामनारायण और चुन्नीलाल ने जो किले के अन्दर पहुँच गये थे, वह धूम मचायी कि लोगों की नाक में दम कर दिया और मजा तो यह कि किसी को कुछ पता न लगता था कि यह कार्रवाई कौन कर रहा है।

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