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चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8401
आईएसबीएन :978-1-61301-028-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...

चौथा बयान


रात पहर-भर से ज्यादे जा चुकी है। आज की रात मामूली से ज्यादे अँधेरी मालूम होती है, क्योंकि आबोताब से चमककर पाँचों सवारों में गिनती करानेवाले तारों की थोड़ी रोशनी को दिन-भर तेजी के साथ चले हुए हवा के झपेटों की सहायता से, ऊपर की तरफ उठे हुए गर्द गुबार ने अपना गँदला शामियाना खैंचकर, जमीन तक आने से रोक रक्खा है। दिन-भर के काम काज से थके और आँधी के झोंको तथा गर्द गुब्बार से दुःखी आदमी, इस समय सड़कों पर घूमना पसन्द न करके, अपने-अपने झोपड़ों, मकानों और महलों में आराम कर रहे हैं, इसलिए काशीपुरी के बाहरी प्रान्त की सड़कों पर कुछ विचित्र-सा सन्नाटा छाया हुआ है। केवल एक आदमी शहर की हद पर बहनेवाली बरना नदी पार करके त्रिलोचन महादेव की तरफ तेजी के साथ बढ़ा चला जाता है और उसे टोकने या देखने वाला कोई भी नहीं है। यह आदमी आधी रात के पहले ही मनोरमा के मकान के पास जा पहुँचा, वह सीधे फाटक की तरफ चला गया। देखा कि फाटक बन्द है, मगर उसकी छोटी खिड़की अभी तक खुली हुई है, और उस राह से झाँककर देखने से मालूम होता है कि भीतर की तरफ दो आदमी टहल-टहलकर पहरा दे रहे हैं।

वह आदमी बेधड़क छोटी खिड़की की राह से भीतर घुस गया, और दोनों पहरा देने वालों से बिना साहब सलामत किये या बिना कुछ कहे, अपने जेब टटोलने लगा। एक पहरे वाले ने ताज्जुब में आकर उससे पूछा, "तुम कौन हो और क्या चाहते हो? इसके जवाब में आगन्तुक ने एक चीठी उसके हाथ पर रखकर कहा, "यह चीठी बहुत जल्द उसके हाथ में दे दो जो इस मकाने में सबका सरदार मौजूद हो।"

सिपाही : पहिले तुम अपना नाम बताओ, और यह कहो कि तुम किसके भेजे हुए आये हो, और इस चीठी का क्या मतलब है?

आगन्तुक : तुम अपनी बातों का जवाब मुझसे नहीं पा सकते, और न इस चीठी के पहुँचाने में विलम्ब कर सकते हो, ताज्जुब नहीं कि तुम सफाई के साथ यह कहो कि मकान मालिक इस समय आराम के साथ खर्राटे ले रहा है, और हम उसे जगा नहीं सकते, मगर याद रक्खो कि यह समय बड़ा ही नाजुक बीत रहा है, और एक पल भी व्यर्थ जाने देने लायक नहीं है, अगर तुम मुझसे कुछ पूछताछ करोगे तो मैं बिना कुछ जवाब दिये यहाँ से चला जाऊँगा, और इसका नतीजा बहुत बुरा होगा, क्योंकि सवेरा होने से पहिले पहिले इस मकान में रहने वाले जितने हैं, सब-के-सब यमलोक को सिधार जायँगे, और सब कसूर तुम्हारा ही समझा जायगा। खैर, मुझे इन बातों से क्या मतलब, लो मैं जाता हूँ।

सिपाही : सुनो सुनो, लौटे क्यों जाते हो, मैं यह चीठी अभी अपने मालिक के पास पहुँचाये देता हूँ, मगर यह बताओ कि कौन-सी ऐसी आफत आने वाली है, और उसका क्या सबब है?

आगन्तुक : मैं पहिले ही कह चुका हूँ कि तुम्हारी बातों का कुछ जवाब नहीं दिया जायगा, तुमने पुनः पूछने में जितना समय नष्ट किया, समझ रक्खो की उतने समय में दो आदमियों का बेड़ा पार हो गया। बस मैं फिर कहता हूँ कि अभी चले जाओ, मैं जो कुछ कहता हूँ, तुम लोगों के भले ही के लिए कहता हूँ।

इस आये हुए आदमी की धमकी लिये हुए, जल्दबाजी से उस पहरे वाले को, बल्कि और सिपाहियों को भी जो उस समय वहाँ मौजूद थे, और उसकी बातें सुन रहे थे, बदहवास कर दिया—फिर उससे कुछ पूछने की हिम्मत किसी की न पड़ी। वह सिपाही, जिसके हाथ में चीठी दी गयी थी, कुछ सोचता-विचारता बाग के अन्दर वाले मकान की तरफ रवाना हुआ, और नजरों से गायब होकर आधे घण्टे तक न आया। तब तक वह आदमी जो चीठी देने आया था, फाटक ही में एक किनारे चुपचाप खड़ा रहा। सिपाहियों ने कुछ पूछना चाहा, मगर उसने किसी बात का जवाब न दिया, और सिर नीचा किये इस ढंग से जमीन की तरफ देखता रहा, जैसे बड़े गौर और फिक्र में कुछ विचार कर रहा हो।

आधे घण्टे बाद, जब वह सिपाही लौटकर आया तो उसने आगन्तुक से कहा, "चलिए आपको नागरजी बुला रही हैं।"

आगन्तुक : (ताज्जुब से) नागरजी! क्या इस समय इस मकान में वही मालिक के तौर पर हैं? मैं मायारानी से मिलने की आशा रखता था!

सिपाही : इस समय नागरजी के सिवाय यहाँ मालिक लोग नहीं हैं। क्या तुम्हारी चीठी इस लायक न थी कि नागरजी के हाथ में दी जाती? क्योंकि मैंने देखा कि चीठी पढ़ने के साथ ही फिक्र तरद्दुद ने उनकी सूरत बदल दी।

आगन्तुक : नहीं, कोई विशेष हानि नहीं है, खैर, चलो मैं चलता हूँ।

वह आगन्तुक सिपाही के पीछे-पीछे उस मकान की तरफ रवाना हुआ, जो इस बाग के बीचोबीच में था, और क्यारियों के बीच बनी हुई बारीक सड़कों पर घूमता हुआ मकान के पिछली तरफ जा पहुँचा। इस जगह मकान के दोनों तरफ दो कोठरियाँ थीं, दाहिने तरफवाली कोठरी तो बन्द थी, मगर बायीं तरफ वाली कोठरी का दरवाज़ा खुला हुआ था, और भीतर चिराग जल रहा था। दोनों आदमी उस कोठरी के भीतर गये। वहाँ ऊपर की छत पर जाने के लिए सीढ़ियाँ बनी थीं, उसी राह से दोनों ऊपर की छत पर चले गये, और एक कमरे में पहुँचे, जहाँ सिवाय सफेद फर्श के और कोई सामान जमीन पर न था। सामने की दीवार में दो जोड़ी दीवारगीरों की थीं, जिनमें मोटी-मोटी मोमबत्तीयाँ जल रही थीं, और उनकी रोशनी से इस कमरे में अच्छी तरह उजाला हो रहा था। इस कमरे में बायीं तरफ एक कोठरी थी, जिसके दरवाज़े पर लाल साटन का परदा पड़ा हुआ था। वह आदमी उसी पर्दे की तरफ मुँह करके खड़ा हो गया, क्योंकि इस कमरे में सिवाय इन दो आदमियों के और कोई भी न था।

इन दोनों आदमियों को बहुत थोड़ी देर तक वहाँ खड़े रहना पड़ा, और इस बीच में उस आदमी को जो चीठी लाया था, मालूम हो गया कि पर्दे के अन्दर से किसी ने उसे अच्छी तरह देखा है। थोड़ी देर में पर्दे के अन्दर से दो लौंडियाँ चुस्त और साफ़ पोशाक पहिने हाथ में नंगी तलवार लिये बाहर निकलीं, और इसके बाद उसी तरह की मगर बेशकीमती पोशाक पहिरे नागर भी पर्दे के बाहर आयी। उसकी कमर में वही तिलिस्मी खंजर था, और उँगली में उसके जोड़ की अँगूठी मौजूद थी। नागर ने उस आये हुए आदमी की तरफ देखके कहा, "तुम किसके भेजे हुए आये हो और तुम्हारा क्या नाम है? मुझे खयाल आता है कि मैंने तुम्हें कहीं देखा है, मदर याद नहीं पड़ता कि कब और कहाँ!"

इस आदमी की उम्र लगभग चालीस या पैंतालीस वर्ष के होगी। इसका कद लम्बा और शरीर दुबला, मगर गँठीला, रंग गोरा, चेहरा खूबसूरत और रोबीला था। बड़ी-बड़ी मूँछें दोनों किनारो से ऐंठी और घूमी हुई थीं। आँखें बड़ी और इस समय कुछ लाल थीं। पोशाक यद्यपि बेशकीमती न थी, मगर साफ़  और अच्छे ढंग की थी। चुस्त पायजामा घुटने के चार अंगुल नीचे तक का चकपन, और उस पर एक ढीला चोगा पहिरे और सिर भारी मुँड़ाँसा बाँधे हुआ था। सरसरी निगाह से देखने पर वह कोई छोटा या बदरोब आदमी नहीं कहा जा सकता था।

नागर की बात सुनकर वह आदमी कुछ मुस्कुराया और बोला, "केवल इतना ही नहीं, आप अभी बहुत-कुछ मुझसे पूछेंगी, मगर मैं किसी के सामने आपकी बातों का जवाब नहीं दिया चाहता, क्योंकि मैं एक नाजुक काम के लिए आया हूँ। यदि किसी तरह खौफ न हो तो (सिपाही और लौंडियों की तरफ इशारा करके) इनको हट जाने के लिए कहिए, और फिर जो कुछ चाहे पूछिए, मैं साफ़ जवाब दूँगा।"

उस आदमी की बात सुवकर नागर ने अपने तिलिस्मी खंजर की तरफ देखा, जो कमर में लटक रहा था, मानो उसे उस खंजर पर बहुत भरोसा है, और इसके बाद सिपाही तथा लौंडियों को वहाँ से हट जाने का इशारा करके बोली, "नहीं नहीं, मुझे तुमसे खौफ खाने का कोई सबब मालूम नहीं होता।"

आदमी : (सिपाही और लौंडियों के हट जाने के बाद) हाँ, अब जो कुछ आपको पूछना हो पूछिए, मैं जवाब दूँगा।

नागर : मैं फिर पूछती हूँ कि तुम किसके भेजे हुए आये हो, और तुम्हारा नाम क्या है? मैंने तुम्हें कहीं-न-कहीं अवश्य देखा है।

आदमी : मेरा नाम श्यामलाल है और तुमने मुझे उस समय देखा होगा, जब तुम्हारा नाम मोतीजान था, और तुमन बाजार में कोठे के ऊपर बैठकर अपने कटाक्षों से सैकड़ों को घायल किया करती थीं। रण्डियों के लिए यह मामूली बात है कि जब विशेष दौलत हो जाती है, तब उन दोस्तों को भूल जाती हैं, जिनसे किसी जमाने में थोड़ी रकम पायी हो, चाहे वह उस समय कितनी ही गाढ़ा मुलाकाती क्यों न रह चुका हो! यह मैं ताने के ढंग पर नहीं कहता, बल्कि इस उम्मीद पर कहता हूँ कि पुरानी मुलाकात की याद कर मुझे साफ़  करोगी, क्योंकि इस समय तुम एक ऊँचे दर्जे पर हो।

नागर : (नाक-भौं सिकोड़कर जिससे मालूम होता था कि श्यामलाल की बातों से वह कुछ चिढ़ गयी है) हाँ, खैर, मैंने तुम्हें पहिचाना, अच्छा बताओ कि तुम क्या चाहते हो?

श्यामलाल : (मुस्कुराकर) बस यही चाहता हूँ कि मुझे बिदा करो और चुपचाप यहाँ से चले जाने दो।

नागर : नहीं नहीं, मेरा मतलब यह नहीं है, मैं उस चीठी का भेद जानना चाहती हूँ, जो मेरे सिपाही के हाथ तुमने भेजी है, और जिसमें केवल इतना ही लिखा है कि ‘लक्ष्मीदेवी के प्रकट हो जाने से अनर्थ हो गया, अब मायारानी और उसके पक्षपातियों को एकदम भागकर अपना जान बचाना उचित है’। (चीठी दिखाकर) देखो यही है न!

श्यामलाल : हाँ, यही है, मगर इसमें यह भी लिखा है कि ‘नहीं तो बारह घण्टे के बाद फिर कुछ करते-धरते न बन पड़ेगा।

नागर : हाँ, ठीक है, यह भी लिखा है मगर यह बताओ कि लक्ष्मीदेवी कौन है और उसके प्रकट हो जाने से हमारा क्या नुकसान है?

श्यामलाल : (ताज्जुब से नागर का मुँह देखकर) क्या तुम लक्ष्मीदेवी वाला भेद नहीं जानती हो? क्या यह भेद मायारानी ने तुमसे छिपा रक्खा है? खैर, अगर यह बात है, तो मैं भी इस भेद को खोलना उचित नहीं समझता। अच्छा यह तो बताओ कि मायारानी कहाँ हैं, मैं उससे कुछ कहा चाहता हूँ!

नागर : क्या मायारानी तुम्हारे सामने हो सकती हैं? क्या तुम नहीं जानते कि उनका दर्जा कितना बड़ा है, और उन्हें कोई गैर मर्द नहीं देख सकता!

श्यामलाल : मैं सबकुछ जानता हूँ, और यह भी जानता हूँ कि वह मुझसे पर्दा न करेगी।

नागर : शायद ऐसा ही हो, लेकिन इस समय वह किसी काम से गयी हैं, यहाँ नहीं हैं।

श्यामलाल : अगर ऐसा ही है तो मैं भी जाता हूँ और तुमसे कहे जाता हूँ कि जहाँ तक जल्द हो सके भागकर अपनी जान बचाओ।

यह कहकर श्यामलाल पीछे की तरफ लौटा, मगर नागर ने उसे रोककर कहा, "सुनो तुम अभी कह चुके हो कि हमारे पुराने दोस्त हो, तो क्या तुम मुझ पर कृपा करके और पुरानी दोस्ती को याद करके लक्ष्मीदेवी वाला भेद मुझे नहीं बता सकते हो? क्या तुम साफ़-साफ़ नहीं कह सकते कि हम लोगों पर क्या आफत आने वाली है?"

श्यामलाल : (बेशक मैं तुम्हारी दोस्ती का इकरार कर चुका हूँ, और अब भी यह कहता हूँ कि अभी तक तुम्हारी मुहब्बत ने मेरा साथ नहीं छोड़ा है, मगर (कुछ सोचके) अच्छा लो, मैं एक चीठी देता हूँ, इसके पढ़ने से तुम्हें सब हाल मालूम हो जायगा, मगर (कोठरी के दरवाज़े पर पड़े हुए पर्दे की तरफ देखके) मुझे शक है कि इस परदे के अन्दर से कोई लौंडी छिपकर देखती न हो!

नागर : नहीं नहीं, ऐसा कभी नहीं हो सकता, लो मैं तुम्हारा शक दूर किये देती हूँ।

यह कहकर नागर ने बढ़कर वह पर्दा किनारे कर दिया और कोठरी का दरवाज़ा बन्द कर लिया। श्यामलाल ने नागर की तरफ चीठी बढ़ाकर कहा, "देखो, मैं निश्चय करके आया था कि यह चीठी सिवाय मायारानी के और किसी के हाथ में न दूँगा, क्योंकि उसे मैं दिल से चाहता हूँ, और उसी की खातिर इतना कष्ट उठाकर आया भी हूँ, सच तो यह है कि वह भी मुझे जी-जान से मानती और प्यार करती है।"

नागर : अफसोस और ताज्जुब की बात यह है कि तुम मायारानी की शान में ऐसी बात कह रहे हो! निःसन्देह तुम झूठे और दगाबाज हो, मायारानी को क्या पड़ी है कि वह तुमसे मुहब्बत करे! क्या वह भी मेरी तरह से गन्धर्व-कुल से रौनक देने वाली है!

श्यामलाल : (हँसकर और चीठीवाला हाथ अपनी तरफ खींचकर) ह: ह: ह:, जब तुम असल बातों को जानती ही नहीं हो तो मेरी बातें क्योंकर समझ सकती हो? तुम मायारानी की सखी कहलाने का दावा रखती हो, मगर मैं देखता हूँ कि मायारानी ने तुम्हें एक लौंडी के बराबर भी नहीं समझती, यही सबब है कि उसने अपना असली हाल तुमसे कुछ भी नहीं कहा। अफसोस, तुम्हें इतनी खबर भी नहीं है कि मायारानी मेरी सगी साली है।

नागर : (चौंककर) मायारानी तुम्हारी साली है! और लक्ष्मीदेवी?

श्यामलाल : लक्ष्मीदेवी वह है, जिसकी जगह मायारानी मेरी और दारोगा की मदद से...मगर नहीं, ओफ मैं भूलता हूँ, जब मायारानी ने खुद अपना हाल तुमसे छिपाया तो मैं क्यों कहूँ, अच्छा मायारानी आवे तो कह देना कि श्यामलाल आया था, और कह गया कि मैंने लक्ष्मीदेवी और गोपालसिंह का बन्दोबस्त कर लिया है, अब तू बेफिक्र होके बैठ और जहाँ तक जल्द हो सके मुझसे मिल। लेकिन अफसोस तो यह है कि इस मकान में रहने वाले आज गिरफ्तार कर लिये जायेंगे, और मायारानी का यहाँ आने का मौका ही न मिलेगा। तब मैं यह सब बातें तुमसे क्यों कह रहा हूँ! अच्छा, खैर जाने दो, जहाँ तक जल्द हो सके भागकर तुम अपनी जान बचाओ और जो कुछ दौलत यहाँ से निकालकर ले जा सको, लेती जाओ, लो अब मैं जाता हूँ।

नागर : सुनो सुनो, वह चीठी जो तुम मुझे दिखाया चाहते थे, सो तो दिखा दो, और इसके बाद मेरी एक बात का जवाब दे के तब जाओ।

श्यामलाल : (कुछ सोचकर और नागर की तरफ चीठी बढ़ाकर) खैर, लो तुम ही पढ़ लो, देखो तो सही अपनी साली की खातिर से कैसे खुशबूदार अतरों से बसी हुई चीठी तैयार करके मैं लाया था, अच्छा कोई हर्ज नहीं, किसी जमाने में तुम भी मुझे खुश कर चुकी हो। इसके पढ़ने से आनेवाली आफत का पूरा-पूरा हाल मिल जायगा। मैं यह चीठी इसलिए लिख लाया था कि शायद किसी सबब से मैं स्वंय मायारानी से न मिल सकूँगा तो यह चीठी भेजकर उसे आनेवाली आफत से होशियार कर दूँगा, और फिर वह स्वयं मुझसे मिल लेगी, मगर अफसोस उससे तो मुलाकात ही न हुई। खैर, इस चीठी को पढ़ो, मगर बैठ जाओ और मुझे भी बैठने के कहो, क्योंकि मैं खड़ा-खड़ा थक गया हूँ।

नागर ने अपने हाथ में चीठी लेकर श्यामलाल को बैठने के लिए कहा, और तब खुद भी उसी जगह बैठकर लिफाफा खोला। लिफाफे और चीठी का कागज खुशबूदार चीज़ों से ऐसा बसा हुआ था कि लिफाफा हाथ में लेने और खोलने का साथ ही नागर का जी खुश हो गया। ऐसी मीठी और भली खुशबू उसके दिमाग में शायद आज तक न पहुँची होगी। चीठी पढ़ने के पहिले ही उसने कई दफे उसे सूँघा और आँखें बन्द करके ‘वाह वाह’ कहने लगी। मगर उस खुशबू का काम केवल इतना ही न था कि दिल और दिमाग को खुश करे, बल्कि उसमें मजेदार और आनन्द देने वाली बेहोशी पैदा करने का भी गुण था, इसलिए चीठी पढ़ने के पहले ही नागर के दिमाग की ताकत जिसका चैतन्यता और विचार शक्ति से सम्बन्ध है, बिल्कुल जाती रही और वह बेहोश होकर दीवार के साथ उठंग गयी। उसकी हालत देखकर श्यामलाल आगे बढ़ा, और पास जाकर बिना कुछ सोचे-विचारे उसकी अँगुली से वह अँगूठी निकाल ली, जो तिलिस्मी खंजर के जोड़ की और मामूली तौर की बिल्कुल सादी थी। अँगूठी लेकर श्यामलाल ने मुँह में रख ली और उसी रंग की दूसरी अँगूठी अपनी जेब से निकाल-कर नागर की उँगली में पहिरा दी। इसके बाद अपनी कमर से एक खंजर निकाला, जो चपकन और अबा के अन्दर छिपा हूआ था। यह खंजर नागर की कमर में खोंसा और उसकी कमर से तिलिस्मी खंजर लेकर अपनी कमर में चपकन के अन्दर छिपा लिया। श्यामलाल, ये दोनों चीज़ें निःसन्देह इसी काम के लिए तैयार करके ले आया था क्योंकि वह खंजर और अँगूठी ठीक तिलिस्मी खंजर और अँगूठी के रंग-ढंग के ही थे, बहुत गौर करने पर भी किसी तरह का शक नहीं हो सकता था।

खंजर और अँगूठी बदल लेने के बाद श्यामलाल ने खुशबूदार चीठी भी नागर के हाथ से ले ली, और उसके बदले में उसी तरह की दूसरी चीठी उसके हाथ में रख दी। इस चीठी में से भी उसी तरह की खुशबू आ रही थी, फर्क सिर्फ इतना था कि उसकी खुशबू बेहोशी पैदा करने वाली थी, और इसकी खुशबू बेहोशी दूर करने की ताकत रखती थी अर्थात् लखलखे का कम देती थी।

इस काम से छुट्टी पाकर श्यामलाल पीछे हटा और अपने ठिकाने पर बैठकर नागर के चैतन्य होने की राह देखने लगा। थोड़ी ही देर में नागर चैतन्य हो गयी और आँखें खोलकर श्यामलाल की तरफ देख और उस चीठी को पुनः सूँघकर बोली, ‘बेशक खुशबू बहुत ही अच्छी और प्रिय मालूम होती है, मगर मुझे क्या हो गया था! क्या मैं बेहोश हो गयी थी?"

श्यामलाल : (हँसकर) वाह क्या खूब! केवल एक दफे आँख बन्द करके खोल देने का ही अर्थ अगर बेहोशी है, तो बस हो चुका, क्योंकि मेरी समझ में तुमने चार पल से ज्यादे देर तक आँख बन्द नहीं की, सो भी इस खुशबू से पैदा हुई मस्ती के सबब था।

नागर : (मुस्कुराकर) अगर तुम मायारानी के बहनोई न होते तो मैं कुछ कह बैठती, क्योंकि ऐसे समय में जब कि जान बचाने की फिक्र पड़ रही है, जैसा कि तुम स्वयं कह रहे हो तो इस तरह की दिल्लगी अच्छी नहीं मालूम पड़ती। अच्छा अब मैं इस चीठी को पढ़कर देखती हूँ कि तुमने क्या लिखा है। (चीठी को पढ़कर) वाह वाह, इसका मतलब तो मेरी समझ में कुछ भी नहीं आता, मालूम होता है कि बहुत-सी पहेलियाँ लिखकर रक्खी हुई हैं!

श्यामलाल : बस बस, अब मुझे और भी निश्चय हो गया कि मायारानी तुम लोगों से केवल मुँहदेखी मुहब्बत रखती है, क्योंकि अगर वह तुम लोगों की कदर करती तो अपना भेद जरूर कहती, और अपना भेद कहती तो इस चीठी का मतलब भी तुम जरूर समझ जातीं—मगर उसने अदना-से-अदना भेद भी छिपा रक्खा, जिसके बताने में कोई हानि न थी।

नागर : ठीक है, मुझे भी यही विश्वास होता है। मगर जब मुझ पर दया करके यह कह रहे हो कि जल्दी यहाँ से भागकर अपनी जान बचाओ तो कृपा कर इसका सबब भी बता दो, क्योंकि मुझे कुछ भी नहीं सूझता कि मैं भागकर कहाँ जाऊँ और इस जायदाद के बचाने का क्या उद्योग करूँ?

श्यामलाल : इसका जवाब मैं कुछ भी नहीं दे सकता, क्योंकि मैं अगर कोई तरकीब बताऊँगा, या अपने साथ चलने के लिए कहूँगा, तो तुम्हें मुझपर अविश्वास होगा, क्योंकि तुम बहुत दिनों के बाद मुझे देख रही हो, सो भी ऐसे समय में जब तुम्हारा दिल राजकीय विषयों की उलझन में हद से ज्यादे उलझा हुआ है, परन्तु इतना कह देने में मेरी कोई भी हानि नहीं है कि राजा गोपालसिंह के लिखे बमूजिब काशिराज इस मकान को अपने कब्जे में कर लेने के बाद यहाँ के रहने वालों को कैद कर लेंगे। गोपालसिंह ने सुना था कि मायारानी इस मकान में टिकी हुई हैं, इसलिए यह कार्रवाई और भी जोर के साथ की गयी, मगर इतनी खैरियत है कि अभी तक वह आदमी इस शहर में नहीं पहुँचा, जिसे राजा गोपालसिंह ने चीठी देकर काशिराज के पास भेजा है। हाँ, आशा है कि सवेरा होते-होते वह शहर में आ पहुँचेगा। (कुछ सोचकर) क्या करें, आज तुम्हें देखकर तुम्हारी मुहब्बत फिर से नयी हो गयी। खैर, अगर तुम चाहोगी तो मैं तुम्हारी कुछ मदद इस समय भी कर सकूँगा।

नागर : अगर इस समय तुम मेरी सहायता करोगे तो मैं जन्म-भर तुम्हारा अहसान न भूलूँगी। मैं कसम खाकर कहती हूँ कि मैं तुम्हारी हो जाऊँगी और जो कुछ तुम कहोगे करूँगी।

श्यामलाल : अच्छा तो अब मैं बयान करता हूँ कि इस समय तुम्हारी क्या मदद कर सकता हूँ, सुनो और अच्छी तरह ध्यान देकर सुनो। मैं उस आदमी को अच्छी तरह पहिचानता हूँ, जो गोपालसिंह की चीठी लेकर काशिराज के पास आ रहा है, मुझसे उसकी बहुत-दिनों की जान-पहिचान है। मैं उम्मीद करता हूँ कि सवेरा होते ही वह आदमी बरना के किनारे आ पहुँचेगा। यदि वह किसी तरह गिरफ्तार कर लिया जाय तो बेशक कई दिनों तक तुम्हें सोचने-विचारने का मौका मिलेगा, क्योंकि राजा गोपालसिंह कई दिनों तक बैठे राह दखेंगे कि हमारा आदमी पत्र का जवाब लेकर, अब आता होगा।

नागर : बात तो बहुत अच्छी है। क्या तुम उसे गिरफ्तार नहीं कर सकते?

श्यामलाल : (हँसकर) वाह वाह वाह, कहते शर्म तो आती नहीं! हाँ, इतना कर सकता हूँ कि तुम थोड़े से सिपाही अपने साथ लेकर इस समय मेरे साथ चलो, और शहर के बाहर होकर रास्ता रोकके बैठो, जब वह आदमी आवेगा तो मैं इशारे से बता दूँगा कि यही है, फिर जो तुम्हारे जी में आवे करना, मगर मैं उसका सामना न करूँगा, क्योंकि अभी कह चुका हूँ कि मेरी उसकी जान-पहिचान बहुत पुरानी है।

नागर : जब तुम मुझ पर कृपा करके इतना काम कर सकते हो तो मेरे जाने की क्या जरूरत है? मैं थोड़े से सिपाही तुम्हारे साथ कर देती हूँ, समय पड़ने पर तुम...

श्यामलाल : बस बस बस, अब मत बोलो, मैं समझ गया कि तुम्हारी नीयत साफ़ नहीं है। मैं खुदगर्जों का साथ देना उचित नहीं समझता, केवल तुम्हारे ही बारे में नहीं, बल्कि मायारानी के बारे में भी जो मेरी साली होती है यही खयाल है कि वह परले सिरे की खुदगर्ज है, दूसरों के फँसा आपना काम निकालना, और आप अलग रहना खूब जानती है, मगर मैं क्या करूँ अपनी स्त्री से लाचार हूँ, जो मुझसे भी ज्यादे मायारानी से मुहब्बत रखती है, और मैं उसे जान से ज्यादा चाहता हूँ।

श्यामलाल की बातचीत कुछ अजब ढंग की थी, जिसमें हर जगह से सच्चाई की बू पायी जाती थी। बात करने के समय वह अपने चेहरे के उतार चढ़ाव को ऐसा दुरुस्त करता था कि होशियार-से-होशियार आदमी को भी उस पर किसी तरह का शक नहीं हो सकता था। नागर को उसकी बातों पर पूरा विश्वास हो गया, वह इस उम्मीद पर कि राजा गोपाल सिंह के भेजे हुए आदमी को अवश्य गिरफ्तार कर लेगी, अपने साथ केवल थोड़े सिपाहियों को लेकर जाने के लिए तैयार हो गयी। इसके उसने अपनी कमर से लटकते हुए तिलिस्मी खंजर पर पुनः गम्भीर निगाह डाली, मानो अपने सिपाहियों से ज्यादे उस खंजर पर भरोसा रखती है, मगर उसे इस बात का गुमान भी न था कि वह खंजर बड़ी खूबी के साथ बदल दिया गया है।

नागर ने अपनी समझ में श्यामलाल को बहुत कुछ कह-सुनकर मदद के लिए राजी किया और आप उसके साथ जाने के लिए तैयार हो गयी, उसने श्यामलाल से आधी घड़ी की छुट्टी ली और उस कोठरी के अन्दर चली गयी, जिसके दरवाज़े पर पर्दा पड़ा हुआ था। आधी घड़ी के बाद वह बाहर आयी और श्यामलाल से बोली, "अब मैं हर तरह से तैयार हो गयी, आप चलिए।" इस समय भी नागर उसी पोशाक में थी, जिसमें घड़ी-भर पहिले देखी गयी थी, फर्क इतना था कि एक चादर उसके हाथ में थी जिसे फाटक के बाहर होते ही अपने को सिर से पैर तक ढाँक लेने की नीयत से वह अपने साथ लायी थी।

श्यामलाल को साथ लिये हुऐ नागर नीचे उतरी और चक्कर खाती हुई सदर फाटक के पास पहुँची। यहाँ उसने स्याह चादर में अपने को छिपा लिया, और फाटक के बाहर रवाना हुई। श्यामलाल ने इस समय मामूली पहरा देने वाले सिपाहीयों के अतिरिक्त आठ सिपाही हर्बों से दुरुस्त वहाँ मौजूद पाये, जो फाटक के बाहर होते ही नागर और श्यामलाल के पीछे-पीछे रवाना हुए, नागर को इसके लिए कुछ कहने की जरूरत न पड़ी, जिससे श्यामलाल समझ गया कि आधी घड़ी की छुट्टी में नागर ने यह इन्तजाम किया है।

ये दसों आदमी गंगा के किनारे उतरे और वहाँ से तेजी के साथ काशी के छोर पर बहने वाली बरना नदी की तरफ रवाना होकर, आधे घण्टे से कुछ ज्यादा देर में वहाँ जा पहुँचे। इस समय आधी रात से ज्यादे जा चुकी और चन्द्रदेव उदय हो रहे थे। बरना नदी पार करने के लिए नदी से बीज गज ऊँचा एक मजबूत पुल बना हुआ था। इस पुल के दोनों बगल मुसाफ़िरों के आराम के लिए बारह दालान बने हुए थे, और इसी जगह से पुल के नीचे उतरने के लिए छोटी-छोटी सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। ये दसों आदमी जब उस पुल पर पहुँचे तो नागर ने श्यामलाल से पूछा, "कहिए इसी पार ठहरने का इरादा है, या उस पार चलकर?" जिसके जवाब में श्यामलाल ने कहा, "बिना उस पार गये ठीक न होगा।"

अब ये लोग पुल के उस पार रवाना हुए, मगर आधी दूर से ज्यादे न गये होंगे कि सामने से आते हुए दो घोड़ों की आहट मिलने लगी, जिसे सुनते ही श्यामलाल ने कहा, "लीजिए हम लोगों को ज्यादे ठहरना न पड़ा। निःसन्देह ये वे ही सवार हैं, जिन्हें हम लोग गिरफ्तार किया चाहते हैं। बस अब जल्दी करना चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि वे लोग तेजी के साथ निकल जायँ, क्योंकि वे घोड़ों पर सवार हैं, और हम पैदल।"

नागर ने अपनी कमर से खंजर निकाल लिया, जिसे वह तिलिस्मी समझे हुए थी, और इसके बाद अपने आदमियों की तरफ देखकर बोली, "देखो ये सवार जाने न पावें, इन्हीं को गिरफ्तार करने के लिए हम लोग आये हैं!"

बात-की-बात में वे दोनों सवार पास आ गये। नागर के सिपाही म्यान से तलवार निकालकर खड़े हो गये और ललकारकर बोले, "खबरदार, आगे मत बढ़ना!" मगर इतने में ही मालूम हुआ कि पीछे की तरफ से भी कई आदमी दौड़े आ रहे हैं। उस समय नागर घबड़ा गयी और उसे निश्चय हो गया कि अब यहाँ से बचकर निकल जाना मुश्किल है, क्योंकि हम लोग दोनों तरफ से घिर गये हैं, हाँ, तिलिस्मी खंजर की बदौलत अलबत्ते बच सकते हैं। नागर ने तिलिस्मी खंजर का (जो वास्तव में असली न था) कब्जा दबाया मगर किसी तरह की चमक पैदा न हुई। उसने फिरकर श्यामलाल की तरफ देखा, मगर उसे कहीं न पाया। अब उसके ताज्जुब की हद्द न रही और घबराहट के मारे वह ऐसा बौखला गयी कि थोड़ी देरतक तनोबदन की भी सुध जाती रही। इस बीच में वे आदमी जो पीछे से आ रहे थे, आ पहुँचे, और नागर के सिपाहियों पर टूट पड़े। वे लोग भी गिनती में उतने ही थे, जितने नागर के सिपाही, मगर नागर के सिपाही इतने दिलावर और मजबूत न थे कि उन आठों के मुकाबले ठहर सकते। नागर डर के मारे चिल्लाकर एक किनारे हट गयी और भागना चाहती थी, मगर मौका न मिला। वे दोनों सवार नागर की आवाज़ सुनकर पहिचान गये कि वह औरत है। एक ने घोड़े से उतरकर उसे गोद में उठा लिया और उसके हाथ से खंजर छीनकर, उसे दूसरे सवार के आगे बैठा दिया। इसके बाद खुद भी अपने घोड़े पर सवार होकर उसने ऊँची आवाज़ में न मालूम किससे पूछा—"यहाँ केवल एक नागर ही औरत है या और भी कोई औरत है?" इसके जवाब में किसी ने दूर से पुकारकर कहा, "अगर कोई औरत हाथ आ गयी तो लो भागो और समझो की यही नागर है।" इस जवाब को नागर ने भी सुना और पहिचान गयी कि यह श्यामलाल की आवाज़ है। अपने सवाल का जवाब पाते ही वे सवार उत्तर की तरफ रवाना हो गये।

इस समय चन्द्रदेव पूरी तरह से निकलकर अपने सुफेद चाँदनी चारों तरफ फैला रहे थे। नागर के सिपाहियों को जब मालूम हुआ कि नागर गिरफ्तार कर ली गयी तो उनकी ताकत और भी जाती रही। दो सिपाही तो जख्मी होकर जमीन पर गिर पड़े और बाकी छः अपनी जान लेकर भागे! उस समय श्यामलाल भी आकर उन आठों बहादुरों के पास खड़ा हो गया और उन लोगों की तरफ देख के बोला, "शाबाश, तुम लोगों ने अपना काम बड़ी खूबी के साथ पूरा किया, मैं बहुत खुश हूँ, अब बताओ मेरे लिए घोड़ा कहाँ है?"

श्यामलाल को देखते ही उन लोगों ने हाथ जोड़कर सिर झुकाया और एक यह कहकर उत्तर की तरफ बढ़ा कि ‘ठहरिए, मैं घोड़ा लेकर अभी आता हूँ। थोड़ी देर तक सन्नाटा रहा और जब वह आदमी घोड़ा लेकर आ गया तो श्यामलाल घोड़े पर सवार हो गया तथा उन आठों से बोला, "अच्छा अब तुम लोग रामपुर जाओ, मैं अपना काम करके तुमसे मिलूँगा।"

श्यामलाल भी उत्तर की तरफ रवाना हुआ और पुल के पार होकर, उसने अपने घोड़े को तेज किया। जब लगभग एक कोस के चला गया तो देखा कि वे दोनों सवार जो नागर को उठा लाये थे, सड़क पर खड़े हैं। उन लोगों को देखकर श्यामलाल ने कहा, "शाबाश मेरे दोस्तों, तुम लोगों की जितनी तारीफ की जाय थोड़ी है, अच्छा अब यहाँ ठहरने का मौका नहीं है, चले चलो।"

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