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चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8401
आईएसबीएन :978-1-61301-028-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...

चौथा बयान


पाठक महाशय, अब आप यह जानना चाहते होंगे कि हरामजादी भगवनिया के मेल से जो दुश्मन लोग इस मकान पर चढ़ आये, वे लोग शिवदत्त, माधवी और मनोरमा को छुड़ाने की नीयत से आये थे या तीनों के छूटकर निकल जाने का हाल उन्हें मालूम हो चुका था और वे लोग इस समय केवल किशोरी, कामिनी तथा तारा को गिरफ्तार करने आये थे?

नहीं, इस समय दुश्मन यह नहीं जानते थे कि इस मकान में कोई सुरंग है और भगवानी की मदद से उसी सुरंग की राह राजा शिवदत्त वगैरह बाहर हो गए। भगवानी ने जब उन लोगों को खबर पहुँचाई थी तो यही कहा था कि तुम्हारा मालिक इस मकान में कैद है, तुम जिस तरह बने उसे छुड़ा लो और इसके बाद जो कुछ उन लोगों ने किया वह बहुत बुद्धिमानी से किया। तालाब सुखाने के लिए सुरंग खोदने में उन्हें बहुत दिन मेहनत करनी पड़ी, इस बीच में भगवानी भी उन लोगों से मिलती रही, मगर उसने यह नहीं कहा कि शिवदत्त को छुड़ाने के लिए मैं भी उद्योग कर रही हूँ, यदि मौका मिला तो उसे सुरंग की राह से निकाल दूँगी, क्योंकि भगवानी को यह आशा न थी कि मैं स्वयं उद्योग करके कैदियों को बाहर कर सकूँगी, उसे कैदियों को छुड़ाने का मौका उस दोपहर के लगभग मिला था जिस दिन संध्या के समय बलवाइयों ने आकर तालाब को घेर लिया था और उनके बनाई हुई सुरंग की राह से तालाब का जल निकला जा रहा था।

रुपये की लालच ने कम्बख्त भगवानी को ऐसा अन्धा बना दिया था कि उसे भलाई का रास्ता कुछ भी न सूझा वह इस बात को न सोच सकी कि अगर तारा कैदियों को न देखेगी तो बेशक मुझ पर शक करेगी, क्योंकि कैदखाने और सुरंग की ताली सिवाय मेरे और किसी के हाथ में तारा नहीं देती थी। उसने बेधड़क कैदियों को बाहर कर दिया मगर इसके दो ही घण्टे बाद उसके दिल में हौल पैदा हो गया और वह सोचने लगी कि यदि तारा मुझसे पूछेगी कि कैदखाने की ताली तो सिवाय तेरे मैं और किसी के हाथ में नहीं देती, फिर कैदी क्योंकर निकल गए तो मैं क्या जवाब दूँगी? इस विषय में उसने बहुत कुछ सोच-विचार किया मगर सिवाय भाग जाने के और कोई बात न सूझी। उसने भाग जाने के लिए भी उद्योग किया मगर न हो सका क्योंकि तालाब के बाहर से किसी को इस मकान में लाने या इस मकान से किसी को बाहर करने के लिए रास्ता खोलना या बन्द करना केवल तारा के आधीन था। जब इस बात को दो पहर बीत गए और दुश्मनों ने तालाब को घेर लिया तब उसे यह सूझा कि दुश्मनों को इस बात की खबर न देनी चाहिए कि शिवदत्त को मैंने छुड़ा दिया। ऐसा करने से दुश्मन उद्योग करके इस मकान में जरूर आवेंगे और उस समय मुझे यहाँ से निकल भागने का अच्छा मौका मिलेगा। इस बीच में भगवानी को इस बात का भी मौका मिल गया कि उसने तारा, किशोरी और कामिनी को सुरंग में बन्द कर दिया और उसके दिल में अपने भाग जाने की पूरी-पूरी आशा हुई। यही कारण हुआ कि दुश्मनों को शिवदत्त के निकल जाने का हाल मालूम न हुआ और उन्होंने उद्योग करके मकान को अपने दखल में कर लिया जिससे भगवानी को भागने का अच्छा मौका मिला।

अब यह प्रश्न हो सकता है कि क्या तारा इतनी बेवकूफ थी कि कैदखाने में कैदियों को न देखकर और सुरंग का दरवाज़ा खुला हुआ पाकर भी उसे किसी पर कुछ शक न हुआ, सो भी ऐसी अवस्था में, जबकि कैदखाने की ताली सिवाय भगवानी के और किसी के हाथ में देती ही न थी? इस सवाल का जवाब भी इसी जगह दे देना उचित जान पड़ता है।

तारा ने जब कैदियों को कैदखाने में न देखा तो सबके पहिले उसके दिल में यही शक पैदा हुआ कि यह काम हमारे ही किसी आदमी का है। थोड़े-ही सोच-विचार में उसने भगवानी को दोषी ठहरा लिया क्योंकि सिवाय उसके वह कैदखाने की ताली किसी दूसरे के हाथ में देती न थी। यह सब कुछ था परन्तु भगवानी की जांच करने और उसे सजा देने के विषय में जल्दी करना तारा ने उचित न जाना और इस हो-हल्ले के समय इसका मौका भी न था, तथापि तारा ने इस शक को श्यामसुन्दरसिंह नामी अपने एक विश्वासी खैरख्वाह बहादुर से इसी दौड़-धूप के समय ही जाहिर कर दिया और यह भी कह दिया कि मुझे इस मकान के बचाव की तरकीब के सिवाय और कोई काम करने की फुरसत नहीं है मगर तुम इस विषय में जो कुछ उचित जान पड़े, अवश्य करो।

श्यामसुन्दरसिंह बहुत ही होशियार, चालाक, बुद्धिमान और बहादुर आदमी था। यह कमलिनी के कुल सिपाहियों का सरदार था और इसकी अच्छी चाल-चलन तथा बहादुरी की कदर कमलिनी दिल से किया करती थी, तथा यह भी कमलिनी की भलाई के लिए जान तक दे देने को हरदम तैयार रहता था। यद्यपि काम-काज के सबब से श्यामसुन्दरसिंह यहाँ बराबर नहीं रहता था, परन्तु जिस समय दुश्मनों ने इस मकान को घेरा था उस समय वह मौजूद था। जब उसने तारा की जुबानी कैदियों के निकल जाने का हाल सुना तो उसने अपनी राय वही कायम की जो तारा ने की थी।

श्यामसुन्दरसिंह भगवानी की तरफ से होशियार हो गया और उसके कार्यों को विशेष ध्यान से देखने लगा मगर इस बात का तो उसको गुमान भी न हुआ कि भगवानी ने किशोरी, कामिनी तथा तारा को भी सुरंग में बन्द कर दिया।

श्यामसुन्दरसिंह इस बात को तो समझ ही गया था कि अब यह मकान दुश्मनों के हमले से किसी तरह नहीं बच सकती, तथापि उसे कुछ-कुछ आशा इस बात की थी कि जिस समय तिलिस्मी नेजा हाथ में लेकर तारा इस झुण्ड में पहुँचेगी तो ताज्जुब नहीं कि दुश्मनों का जी टूट जाए, परन्तु बहुत समय निकल जाने पर भी जब तारा वहाँ तक न पहुँची तो श्यामसुन्दरसिंह को आश्चर्य हुआ और वह तरह-तरह की बातें सोचने लगा।

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