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चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8401
आईएसबीएन :978-1-61301-028-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...

छठवाँ बयान


दुश्मन जब तालाबवाले तिलिस्मी मकान में कब्जा कर चुके, और लूटपाट से निश्चिन्त हुए, तो शिवदत्त, माधवी और मनोरमा को छुड़ाने की फिक्र करने लगे। तमाम मकान छान डाला मगर उनका पता न लगा, तब थोड़े सिपाही जो अपने को होशियार और बुद्धिमान लगाते थे, एक जगह जमा होकर सोच-विचार करने लगे। वे लोग इस बात का तो गुमान भी नहीं कर सकते थे कि मालिक लोग यहाँ कैद नहीं हैं, या भगवनिया ने हम लोगों को धोखा दिया, क्योंकि भगवनिया द्वारा वे लोग शिवदत्त, माधवी और मनोरमा के हाथ की लिखी हुई चीठी देख चुके थे। अब अगर तरद्दुद था तो यही कि कैदी लोग कहाँ हैं, और भगवनिया हम लोगों से बिना कुछ कहे चुपचाप भाग क्यों गयी। केवल इतना ही नहीं कि किशोरी, कामिनी और तारा यकायक कहाँ गायब हो गयीं, जिनके इस मकान में होने का हम लोगों को पूरा विश्वास था, बल्कि दौड़-धूप करते, जिन्हें अपनी आँखों से देख चुके हैं।

जब तमाम मकान ढूँढ़ डाला, और अपने मालिकों को तथा किशोरी, कामिनी और तारा को न पाया, तो उन लोगों को निश्चय हो गया कि इस मकान में कोई तहखाना अवश्य है, जहाँ हमारे मालिक लोग कैद हैं, और अपनी जान बचाने के लिए किशोरी, लाडिली और तारा भी छिपकर बैठ गयी हैं।

इस लिखावट से हमारे पाठक अवश्य इस सोच में पड़ जायेंगे कि यदि इन दुश्मनों को इस मकान में तहखाना और सुरंग होने का हाल मालूम न था, तो क्या वे लोग किसी दूसरे गिरोह के आदमी थे, जिन्होंने तहखाने के अन्दर से किशोरी और कामिनी को गिरफ्तार कर लिया था, या जिन्होंने सुरंग का दूसरा मुहाना बन्द कर दिया था, जिसके सबब से बेचारी किशोरी, कामिनी और तारा को सुरंग के अन्दर बेबसी के साथ पड़ी रहकर अपना ग्रहदशा का फल भोगना पड़ा।

बेशक, ऐसा ही है। जिस समय भगवानी की कृपा से माधवी, मनोरमा और शिवदत्त ने कैदखाने से छुट्टी पायी, और सुरंग की राह से बाहर निकले तो माधवी के कई आदमी वहाँ मौजूद मिले, वे लोग आज्ञानुसार माधवी के साथ वहाँ से चले गये, उनमें से किसी से भी उन लोगों की मुलाकात नहीं हुई, जिन्होंने तालाब वाले मकान पर हमला किया था। ये ही लोग थे, जिन्होंने तहखाने में से किशोरी और कामिनी को भी निकाल ले जाने का इरादा किया था, परन्तु कृतकार्य न हुए थे और इन्हीं लोगों भागते-भागते सुरंग का दूसरा मुहाना ईंट-पत्थरों से बन्द कर था।

उन दुश्मनों में, जिन्होंने इस मकान को फतह किया था, तीन सिपाही ऐसे थे, जो उनमें सरदार गिने जाते थे, और सब काम उन्हीं की राय पर होता था, वही तीनों खोज-ढूँढ़कर तहखाने का पता लगाने लगे।

बचा हुआ दिन और रात का बहुत बड़ा हिस्सा खोज में बीत में गया, और सुब हुआ ही चाहती थी, जब हाथ में लालटेन लिए हुए तीनों सिपाही उस कोठरी के दरवाज़े पर पहुँचे, जिसमें से कैदखाने वाले तहखाने के अन्दर जाने का रास्ता था। ताला तोड़ा गया और वे तीनों उस कोठरी के अन्दर पहुँचे। तहखाने के अन्दर जाने वाला रास्ता दिखायी पड़ा, जिसका दरवाज़ा जमीन से सटा हुआ और ताला भी लगा हुआ था। उस जगह खड़े होकर तीनों सिपाही आपुस में बातचीत करने लगे।

एक : बेशक, इसी तहखाने महाराज शिवदत्त कैद होंगे, बड़ी मुश्किल से इसका पता लगा।

दूसरा : मगर हम लोग जो यह सोचे हुए थे कि किशोरी, कामिनी और तारा भी उसी तहखाने में छिपकर बैठी होंगी, यह बात अब दिल से जाती रही, क्योंकि वे भी अगर इसी तहखाने में होतीं तो हम लोगों को ताला तोड़ना न पड़ता।

तीसरा : ठीक है, मैं भी यही सोचता हूँ कि वे लोग दूसरे गुप्त स्थान में छिपकर बैठी होंगी, खैर, पहिले अपने मालिक को तो छुड़ाओ फिर उन तीनों को भी ढूँढ़ निकालेंगे, आखिर इस मकान के अन्दर ही तो होंगी।

दूसरा : जी हाँ, देखा जायगा, बस अब इस ताले को भी झटपट तोड़ डालो।

वह ताला भी तोड़ा गया और हाथ में लालटेन लेकर एक आदमी उसके अन्दर उतरा तथा दो उसके पीछे चले। पाँच-चार सीढ़ियों से ज्यादे न उतरे होंगे कि कई आदमियों के टहलने और बातचीत करने की आहट मिली, जिससे ये तीनों बड़े गौर से नीचे की तरफ देखने लगे मगर जो सिपाही सबसे आगे थे, उसके सिवाय और किसी को भी कुछ दिखायी न दिया। उसने तहखाने में तीन आदमियों को देखा जो इन सिपाहियों के आने की आहट पाकर और लालटेन की रोशनी देखकर ठिठके हुए ऊपर की तरफ देख रहे थे। इनमें एक मर्द और दो औरतें थीं। तीनों सिपाहियों को निश्चय हो गया कि यही तीनों माधवी, मनोरमा और शिवदत्त हैं। इन सिपाहियों ने छठी सीढ़ी पर पैर नहीं रक्खा था कि नीचे से आवाज़ आयी, "ठहरो, हम लोग खुद ऊपर आते हैं!"

उन सिपाहियों में से एक आदमी जिसका नाम रामचन्दर था, शिवदत्त का पूरा खैरख्वाह मुलाजिम था और बाकी के दोनों सिपाही मनोरमा के नौकर थे। आवाज़ सुनकर तीनों सिपाही ऊपर चले आये और तहखाने के अन्दरवाले तीनों व्यक्ति भी, जिन्हें सिपाहियों ने अपना मालिक समझ रक्खा था, बाहर होकर क्रमशः उस कमरे में पहुँचे जिसमें कमलिनी रहा करती थी और जिसे एक तौर पर दीवानखाना भी कह सकते हैं। यद्यपि लूट-खसोट का दिन था, मगर फिर भी वहाँ इस समय रोशनी बखूबी हो रही थी, और उस रोशनी में सभों ने बखूबी पहिचान लिया कि वे वास्तव में माधवी, मनोरमा और शिवदत्त हैं।

इस समय दुश्मनों की खुशी का अन्दाजा करना बड़ा कठिन है, क्योंकि जिसे छुड़ाने के लिए उन लोगों ने उद्योग किया था, उसे अपने सामने मौजूद देखते हैं, लाखों रुपये का माल जो लूट में मिला था, अब पूरा-पूरा हलाल समझते हैं, इसके अतिरिक्त इनाम पाने की प्रबल अभिलाषा और भी प्रसन्न किये देती है। चारों तरफ से भीड़ उमड़ पड़ती है और शिवदत्त के पैरों पर गिरने के लिए सभी उतावले हो रहे हैं। शिवदत्त ने सभों की तरफ देखा, और नर्म आवाज़ में कहा, "शाबाश मेरे बहादुर सिपाहियों, आज जो काम तुमने किया, वह मुझे जन्म भर याद रहेगा। निःसन्देह तुमने मेरी जान बचायी। देखो इस कैद की सख्ती ने मेरी क्या अवस्था कर दी है, मेरी आवाज़ कैसी कमजोर हो रही है, मेरा शरीर कैसा दुर्बल और बलहीन हो गया है, मगर खैर कोई चिन्ता नहीं, जान बची है तो ताकत भी हो रहेगी! यह मत समझो की मैं इस समय हर तरह से लाचार हो रहा हूँ, अतएव तुम्हारी आज की कार्रवाई के बदले में कुछ इनाम नहीं दे सकूँगा। नहीं नहीं, ऐसा कदापि न सोचा। तुम लोग स्वयं देखोगे कि कल जितनी दौलत मैं इनाम में तुम लोगों को दूँगा, वह इस लूट के माल से सौ गुना ज्यादे होगी, जो तुमने इस मकान में से पायी होगी। मैं मर्द हूँ और तुम लोग खूब जानते हो कि मर्दों की हिम्मत कभी कम नहीं होती, जिसने हिम्मत तोड़ दी वह मर्द नहीं, औरत है। इसमें तुम इस बात का भी विश्वास रखना कि मैं अपने पुराने दुश्मन बीरेन्द्रसिंह का पीछा कदापि न छोड़ूँगा, सो भी ऐसी अवस्था में कि जब तुम लोगों-ऐसे मर्द दिलावर और निमकहलाल सिपाही मेरे साथी हैं। अच्छा यह सब बातें तो फिर होती रहेंगी, इस समय मैं मकान के बाहर निकलकर अपने वीरों को देखा और उनसे मिला चाहता हूँ, क्योंकि यह मकान इतना बड़ा नहीं है कि सब सिपाही इसमें समा जाँय और मैं इसी जगह बैठा-बैठा सबसे मिल लूँ। चलो तुम लोग तालाब के पार चलो, मैं भी आता हूँ!"

शिवदत्त की बातें सुनकर ये सिपाही लोग बहुत ही प्रसन्न हुए और जल्दी के साथ उस मकान से निकलकर तालाब के बाहर हो गये, जहाँ और सिपाही सब बड़े बेचैनी के साथ इन लोगों की राह देख रहे थे, और यह जानने के लिए उत्सुक हो रहे थे कि मकान के अन्दर क्या हो रहा है।

सिपाहियों के बाहर हो जाने के बाद शिवदत्त भी मकान से निकला और तालाब से बाहर हो गया। माधवी और मनोरमा उस मकान के अन्दर ही रह गयीं।

अब सवेरा हो चुका था। पूरब तरफ आसमान पर भगवान सूर्यदेव का लाल पेशखेमा दिखायी देने लगा। शिवदत्त मैदान में खड़ा हो गया, और खुशी के मारे उसकी जयजयकार करते उसके सिपाहियों ने चारों तरफ से उसे घेर लिया, तथा यह सुनने के लिए उत्सुक होने लगे कि देखें अब हमारी तारीफ में हमारे राजा साहब क्या कहते हैं।

पर इसी समय पूरब तरफ से बाजे की आवाज़ इन लोगों के कानों में पहुँची। सिपाहियों के साथ-साथ शिवदत्त भी चौकन्ना हो गया, और गौर के साथ पूरब तरफ देखता हुआ बोला, "यह तो फौजी बाजे की आवाज़ है। वह देखो इसकी गत साफ़ कहे देती है कि राजा बीरेन्द्रसिंह की फौज आ रही है, बीरेन्द्रसिंह जब चुनार की गद्दी पर बैठे थे तो तेजसिंह ने अपने फौजी बाजेवालों के लिए यह खास गत तैयार की थी। तब से उनकी फौज में प्रायः यह गत बजायी जाती है। मैं इसे अच्छी तरह से जानता हूँ। देखो वह गर्द भी दिखायी देने लगी, अब क्या करना चाहिए? जहाँ तक मैं समझता हूँ, तुम्हारे हमले की खबर रोहतासगढ़ पहुँची है, और वह फौज रोहतासगढ़ से आ रही है, मगर दो-तीन-सौ से ज्यादे आदमी न होंगे।"

इसके बाद पश्चिम की तरफ से बाजे की आवाज़ आयी, और गौर करने पर मालूम हुआ कि पश्चिम तरफ से भी फौज आ रही है।

शिवदत्त के सिपाही बहुत मेहनत कर चुके थे, न भी मेहनत किये हों तो क्या था, राजा बीरेन्द्रसिंह की फौज की खबर पाकर अपने कलेजे को मजबूत रखना ऐसे सिपाहियों का काम न था, जो वर्षों बिना तनखाह के सिर्फ मालिक के नाम पर अपने सिपाहीपन को टेरे जाते हों। उन लोगों ने घबड़ाकर शिवदत्त की तरफ देखा। यद्यपि कैद की सख्ती ने शिवदत्त की सूरतशकल और आवाज़ में भी फर्क डाल दिया था, मगर इस समय राजा बीरेन्द्रसिंह की फौज के आने से उसके चेहरे पर किसी तरह की घबराहट या उदासी नहीं पायी गयी। शिवदत्त ने अपने सिपाहियों की तरफ देखा और हिम्मत दिलाने वालों शब्दों में कहा, "घबराओ मत, हिम्मत न हारो, हौसले के साथ भिड़ जाओ और इन सभों का भी असबाब लूट लो मगर इस बात का खूब ध्यान रक्खो कि भागकर इस मकान के अन्दर न घुस जाना, नहीं तो चारों तरफ से घेरकर सहज ही में मार डाले जाओगे। यदि मैदान में डटे रहोगे तो कठिन समय पड़ जाने पर भागने को भी जगह मिलेगी—" इत्यादि।

क्या करें? लड़ें या न लड़ें? रुकें या भाग जाँय? इत्यादि सोच-विचार और सलाह में ही बहुत-सा अमूल्य समय निकल गया और धावा करते हुए राजा बीरेन्द्रसिंह के फौजी सिपाहियों ने पूरब और पश्चिम तरफ से आकर दुश्मनों को घेर लिया। यद्यपि शिवदत्त के सिपाही भागने के लिए तैयार थे, मगर शिवदत्त के हिम्मत दिलाने वाले शब्दों की बदौलत, जिन्हें वह बार-बार अपने मुँह से निकाल रहा था, थोड़ी देर के लिए अड़ गये और राजा बीरेन्द्रसिंह की फौज से जो गिनती में दो-सौ से ज्यादे न होगी जी तोड़ के लड़ने लगे। उसके अटल रहने और राजा बीरेन्द्रसिंह के फौजी सिपाहियों को जो वास्तव में रोहतासगढ़ से आये थे, गिनती में अपने से बहुत कम पाया था।

यह थोड़ी-सी फौज जो रोहतासगढ़ से आयी थी, चुन्नीलाल ऐयार के आधीन थी। चुन्नीलाल ने जासूसों को भेजकर इस बात का पता पहिले ही लगा लिया था कि तालाबवाले तिलिस्मी मकान पर हमला करने वाले दुश्मन कितने और किस ढंग के हैं, इसके बाद उसने अपनी फौज को फैलाकर दुश्मनों को चारों तरफ से घेर लेने का उद्योग किया था, और जो कुछ सोच रहा था वही हुआ।

चुन्नीलाल की मातहत फौज ने दुश्मनों को घेरकर कर बेतरह मारा। चुन्नीलाल स्वयं तलवार लेकर मैदान में अपनी बहादुरी दिखाता हुआ, अपने सिपाहियों की हिम्मत बढ़ा रहा था, और जिधर धँस जाता था उधर ही दस-पाँच को खीरे-ककड़ी की तरह काट गिराता था। यह हाल देख दुश्मन बँगले झाँकने लगे, मगर लड़ाई इस ढंग से हो रही थी यहाँ से बचकर निकल भागना भी मुश्किल था। दो घण्टे की लड़ाई में आधे से भी ज्यादे दुश्मन मारे गये और बाकी भागकर अपनी जान बचा ले गये। बीरेन्द्रसिंह के केवल बीस बहादुर काम आये। इस घमासान लड़ाई के अन्त में इस बात का भी कुछ पता न लगा कि शिवदत्त बहादुरी के साथ लड़कर मारा गया या मौका मिलने पर निकल भागा।

जब दुश्मनों में से सिवाय उन सभो के जो मौत की गोद में सो चुके थे, या जमीन पर सिसक रहे थे, और कोई भी न रहा, सब भाग गये, तब केवल दस-बारह आदमियों को साथ लेकर चुन्नीलाल तिलिस्मी मकान की तरफ बढ़ा, मगर मकान में पहुँचने के पहिले ही सिपाही सूरत एक आदमी जो उसी मकान की तरफ से निकलकर इनकी तरफ आ रहा था, उसे मिला। उसके हाथ में लिफाफे के अन्दर बन्द एक चीठी थी, जो उसने चुन्नीलाल के हाथ में दे दी, और चुपचाप खड़ा हो गया। चुन्नीलाल ने भी उसी जगह अटककर लिफाफा खोला और बड़े ध्यान से चीठी पढ़ने लगा। समाप्त होने तक कई दफे चुन्नीला के चहरे पर हँसी दिखायी दी, और अन्त में वह बड़े गौर से उस आदमी की सूरत देखने लगा, जिसने चीठी दी थी, तथा इसके बाद इशारे से सिर हिलाया मानो उस आदमी को वहाँ से बेफिक्री के सात चले जाने के लिए कहा, और वह आदमी भी बिना सलाम किये झूमता हुआ वहाँ से चला गया।

चुन्नीलाल कई आदमियों को साथ लेकर तिलिस्मी मकान के अन्दर गया। उसने वहाँ अच्छी तरह घूम-घूमकर देखा, मगर किसी को न पाया, तब बाहर निकला, और अपने मातहत सिपाहियों को लेकर रोहतासगढ़ की तरफ लौट गया।

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