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चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8401
आईएसबीएन :978-1-61301-028-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...

दूसरा बयान


सुबह का सुहावना समय है। पहिले घण्टे की धूप ने ऊँचे-ऊँचे पेड़ों की टहनियाँ, मकान के कंगूरों और पहाड़ों की चोटियों पर सुनहरी चादर बिछा दी है। मुसाफ़िर लोग दो-तीन कोस की मंजिल मार चुके हैं। तारासिंह और श्यामसुन्दरसिंह अपने साथ भगवनिया और भूतनाथ को लिए हुए तालाबवाले तिलिस्मी मकान की तरफ जा रहे हैं। उनके दोनों साथी, अर्थात् भगवनिया और भूतनाथ अपने-अपने गम में सिर नीचा किये चुपचाप पीछे-पीछे जा रहे हैं। भूतनाथ के चेहरे पर उदासी और भगवनिया के चेहरे पर मुर्दानी छायी हुई है। कदाचित् भूतनाथ के चेहरे पर भी मुर्दानी छायी हुई होती या वह इन लोगों में न दिखायी देता, यदि उसे इस बात की खबर होती कि तारा की किस्मत वाली गठरी तेजसिंह के हाथ लग गयी है, और तारा तथा बलभद्रसिंह का भेद खुल गया है। वह तो यही सोचे हुआ था कि तारा अपने बाप को नहीं पहिचानेगी, बलभद्रसिंह अपने को छिपावेगा, और देवीसिंह मेरे भेदों को गुप्त रखने का उद्योग करेगा। बस इतनी ही बात थी, जिससे वह एकदम हताश नहीं हुआ था, और इन लोगों के साथ कमलिनी से मिलने के लिए चुपचाप सिर झुकाये हुए कुछ सोचता-विचारता जा रहा था। वह अपनी धुन में ऐसा डूबा हुआ था कि उसे अपने चारों तरफ की कुछ भी खबर न थी, और उसकी वह धुन उस समय टूटी जब तारासिंह ने कहा, "वह देखो तालाबवाला तिलिस्मी मकान दिखायी देने लगा। कई आदमी भी नजर पड़ते हैं। मालूम पड़ता है कि उसमें कमलिनी का डेरा आ गया। अगर मेरी निगाह धोखा नहीं देती तो मैं कह सकता हूँ कि वह चबूतरे के दक्षिणी कोने पर खड़े होकर, जो इसी तरफ देख रहा हैं, हमारे चाचा तेजसिंह हैं!"

तेजसिंह के नाम ने भूतनाथ को चौंका दिया और उसके दिल में एक नया शक पैदा हुआ। इसके साथ ही उसके चेहरे की रंगत ने पुनः पल्टा खाया, अर्थात् जर्दी के बाद सुफेदी ने अपना कुदरती रंग दिखाया, और भूतनाथ काँपता हुआ पैर धीरे-धीरे आगे की तरफ बढ़ाने लगा। जब ये लोग मकान के पास पहुँच गये तो भूतनाथ ने देखा कि भैरोसिंह और देवीसिंह भी अन्दर से निकल आये हैं और नफरत की निगाह से उसे देख रहे हैं। जब ये लोग तालाब के किनारे पहुँचे तो भगवनिया ने देखा कि तालाब की मिट्टी न मालूम कहाँ गायब हो गयी है, तालाब स्वच्छ है, और उसमें मोती की तरह साफ़ जल भरा हुआ दिखायी देता है। वह बड़े आश्चर्य से तालाब के अन्दर और उसके बीच वाले मकान को देखने लगी।

भैरोसिंह उन लोगों को ठहरने का इशारा करके मकान के अन्दर गया और थोड़ी देर बाद बाहर निकला, इसके बाद डोंगी खोलकर किनारे पर ले गया और चारों आदमियों को सवार कराके मकान के अन्दर ले आया।

श्यामसुन्दरसिंह और भगवानी को विश्वास था कि यह मकान हर तरह के सामान से खाली होगा, यहाँ तक कि चारपाई, बिछावन और पानी पीने के लिए लोटा-गिलास तक न होगा, मगर नहीं, इस समय यहाँ जो कुछ सामान उन्होंने देखा वह बनिस्बत पहिले के बेशकीमत और ज्यादे था। इसका कारण यह था कि दुश्मन लोग इस मकान में से वही चीज़ें ले गये थे, जिन्हें वे लोग देख और पा सकते थे मगर इस मकान के तहखानों और गुप्त कोठरियों का हाल उन्हें मालूम न था, जिनमें एक-से-एक बढ़के उम्दा चीज़ें तथा बेशकीमती असबाब मकान सजाने के लिए भरा हुआ था, और जिन्हें इस समय कमलिनी ने निकालकर मकान को पहिले से ज्यादे खूबसूरती के साथ सजा डाला था, और भागे हुए आदमियों में से दो सिपाही और दो नौकर भी आ गये थे, जो भाग जाने के बाद भी छिपे-छिपे इस मकान की खोज-खबर लिया करते थे।

तारासिंह, श्यामसुन्दरसिंह, भगवनिया और भूतनाथ उस कमरे में पहुँचाये गये, जिसमें किशोरी, कामिनी, लक्ष्मीदेवी, कमलिनी, लाडिली और बलभद्रसिंह वगैरह बैठे हुए थे, और किशोरी, कामिनी और लक्ष्मीदेवी सुन्दर मसहरियों पर लेटी हुई थीं।

बलभद्रसिंह को असली सूरत में देखते ही भूतनाथ चौंका और घबड़ाकर दो कदम पीछे हटा, मगर भैरोसिंह ने जो उसके पीछे था, रोक लिया। बलभद्रसिंह को असली सूरत में देखकर भूतनाथ को विश्वास हो गया कि उसका सारा भेद खुल गया और इस बारे में उस समय तो कुछ भी शक न रहा, जब उस कागज के मुट्ठे और पीतल की सन्दूकड़ी को भी कमलिनी के सामने देखा, जो भूतनाथ की विचित्र जीवनी का पता दे रही थी। जिस समय भूतनाथ की निगाह उनके चेहरे पर गौर के साथ पड़ी, जिनसे रंज और नफरत साफ़ जाहिर होती थी, उस समय उसके दिल में एक हौल-सा पैदा हो गया, और उसकी सूरत देखने वालों को ऐसा मालूम हुआ कि वह थोड़ी ही देर में पागल हो जायगा, क्योंकि उसके हवास में फर्क पड़ गया था, और वह बड़ी ही बेचैनी के साथ चारों तरफ देखने लगा था।

बलभद्र : भूतनाथ, मैं अफसोस करता हूँ कि तुम्हारे भेदों को कुछ दिन तक और छिपा रखने का मौका मुझे न मिला!!

देवी : जिस गठरी में तारा की किस्मत बन्द थी, और जिसे तुम अपने सामने देख रहे हो, वह वास्तव में तेजसिंह के कब्जे में आ गयी थी।

बलभद्र : जिस नकाबपोश ने तुम्हारे सामने मुझे पराजित किया था, वह तेजसिंह थे, और इस समय तुम्हारे बगल में खड़े हैं। हैं हैं! देखो सम्हलो! पागल मत बनो।

भूतनाथ : (लड़खड़ाई हुई आवाज़से) ओह! उस औरत को धोखा हुआ! उसने नकाबपोश को वास्तव में नहीं पहिचाना!

भूतनाथ पागलों की तरह हाथ-मुँह फैला और आँखें फाड़-फाड़कर चारों तरफ देखने लगा, और फिर चक्कर जमीन पर गिरने के साथ ही बेहोश हो गया।

तेज : बुरे कर्मों का यही नतीजा निकलता है।

देवी : इससे कोई पूछे कि ऐसे-ऐसे खोटे कर्म करके दुनिया में तूने क्या मजा पाया? मैं समझता हूँ कि यह अपनी जान दे देगा, या यहाँ से भाग जाना पसन्द करेगा।

बलभद्र : हाँ, यदि इसकी एक बहुत ही प्यारी चीज़ मेरे कब्जे में न होती तो बेशख यह अपनी जान दे देता या भाग ही जाता, मगर अब यह ऐसा नहीं कर सकता।

कमलिनी : वह कौन-सी चीज़ है?

बलभद्र : जल्दी न करो, उसका हाल भी मालूम हो जायगा।

तेज : खैर, आप यह तो बताइए कि इसके साथ क्या सलूक करना चाहिए?

बलभद्र : कुछ नहीं इसे इसी तरह उठाकर तालाब के बाहर रख आओ और छोड़ दो, जहाँ भी जी चाहे चला जाय।

कमलिनी : (तेजसिंह से) क्या आपको मालूम है कि इसका लड़का नानक आजकल कहाँ है?

तेज : मुझे नहीं मालूम।

किशोरी : इसका केवल एक ही लड़का है?

तेज : क्या तुम्हें अभी तक किसी ने नहीं कहा कि भूतनाथ की पहली स्त्री से एक लड़की भी है, जिसका नाम कमला है और जो तुम्हारी प्यारी सखी है? हाय, मैं अफसोस करता हूँ कि इस दुष्ट का हाल सुनकर उस बेचारी को बड़ा ही दुःख होगा। मैं सच कहता हूँ कि कमला ऐसी लायक लड़की बहुत कम देखने में आवेगी।

इतना सुनते ही भैरोसिंह के चेहरे पर खुशी की निशानी दिखायी देने लगी, जिसे उसने बड़ी होशियारी से तुरन्त दबा दिया और किशोरी सिर नीचा करके न मालूम क्या सोचने लगी।

तेज : (बलभद्रसिंह से) अच्छा तो यह निश्चय हो गया कि इसे तालाब के बाहर छोड़ आया जाय?

बलभद्र : हाँ, मेरी राय में तो ऐसा ही होना चाहिए।

कमलिनी : क्या इसे कुछ भी सजा न दी जायगी? इसका तो इसी समय सिर उतार लेना चाहिए?

बलभद्र : (ताज्जुब से कमलिनी की तरफ देखके) तुम ऐसा कहती हो? मुझे आश्चर्य होता है। शायद गम ने तुम्हारी अक्ल में फर्क डाल दिया है। इसे मार डालने से क्या हमारा बदला पूरा हो जायगा?

कमलिनी ने शर्माकर सिर नीचे कर लिया, और तेजसिंह का इशारा पाकर भैरोसिंह और देवीसिंह ने भूतनाथ को तालाब के बाहर पहुँचा दिया। तारासिंह और श्यामसुन्दरसिंह आश्चर्य से सभी का मुँह देख रहे थे कि यह क्या मामला है, क्योंकि इधर जो कुछ गुजरा था, उसका हाल उन्हें कुछ भी मालूम न था।

ऊपर लिखे कामों से छुट्टी पाकर तेजसिंह ने तारासिंह को एक किनारे ले जाकर वह हाल सुनाया, जो इधर गुजर चुका था, और फिर अपने ठिकाने आ बैठे। इसके बाद कमलिनी ने बलभद्रसिंह से कहा—"मेरा जी इस बात को जानने के लिए बेचैन हो रहा है कि इतने दिनों तक आप कहाँ रहे, किस स्थान में रहे और क्या करते रहे! आप पर क्या-क्या मुसीबतें आयीं और हम लोगों का हाल जानकर भी आपने इतने दिनों तक हम लोगों से मुलाकात क्यों नहीं की? क्या आप नहीं जानते थे कि हमारी लड़कियाँ कहाँ और किस मुसीबत में पड़ी हुई हैं?"

बलभद्र : इन सब बातों का जवाब मिल जायगा, ज़रा सब्र करो और घबड़ाओ मत। पहिले उन चीठियों को सुन जाओ, फिर इसके बाद जो कुछ तुम्हें पूछना हो पूछना, और मुझे भी जो कुछ तुम्हारे विषय में मालूम नहीं है, पूछूँगा। (तेजसिंह से) यदि इस समय कोई आवश्यक काम न हो तो आप उन चीठियों को पढ़िए या पढ़ने के लिए किसी को दीजिए।

तेजसिंह : नहीं नहीं, (कागज के मुट्ठे की तरफ देखके) इन चीठियों को मैं स्वयं पढ़ूँगा और इस समय हम लोग सब कामों से निश्चिन्त भी हैं, हाँ, तारासिंह को यदि कुछ...

तारा : नहीं, मुझे कोई काम नहीं है, केवल भगवनिया के विषय में पूछना है कि इसके साथ क्या सलूक किया जाय?

तेज : इसका जवाब कमलिनी के सिवाय और कोई नहीं दे सकता। यह कह उन्होंने कमलिनी की तरफ देखा।

कमलिनी : (भैरोसिंह से) आपको यहाँ का सब हाल मालूम हो चुका है, इसलिए आप ही तहखाने तक जाने की तकलीफ उठाइए।

"बहुत अच्छा" कहकर भैरोसिंह उठ खड़ा हुआ और भगवानी की कलाई पकड़े हुए बाहर चला गया। कमलिनी ने श्यामसुन्दरसिंह से कहा, "अब तुम्हें भी यहाँ न ठहरना चाहिए, बस तुरन्त चले जाओ और हमारे आदमियों को जो दुश्मन के सताने से इधर-उधर भाग गये हैं, जहाँ तक हो सके ढूँढ़ों, तथा हमारे यहाँ आ जाने की खुशखबरी सुनाओ। बस चले ही जाओ, यहाँ अटकने की कोई जरूरत नहीं।"

श्यामसुन्दरसिंह चाहता था कि वह यहाँ रहे और उन घटनाओं का हाल पूरा-पूरा जाने तो बलभद्रसिंह और भूतनाथ से सम्बन्ध रखती हैं, क्योंकि बलभद्रसिंह को देखके भूतनाथ की जो हालत हुई थी, उसे वह अपनी आँखों से देख चुका था, और उसका सबब जानने के लिए बहुत ही बेचैन भी थी—मगर कमलिनी की आज्ञा सुनकर उसका अथाह उत्साह टूट गया, और वहाँ से चले जाने के लिए मजबूर हुआ। वह अपने दिल में समझे हुए था कि उसने भगवानी को पकड़ के बड़ा काम किया है, इसके बदले में कमलिनी उससे खुश होगी, और उसकी तारीफ करके उसका दर्जा बढ़ावेगी मगर वह बातें तो दूर रही कमलिनी ने उसे वहाँ से चले जाने के लिए कहा। इस बात का श्यामसुन्दरसिंह को बहुत रंज हुआ, मगर क्या कर सकता था। लाचार मुँह बनाकर पीछे की तरफ मुड़ा, इसके साथ ही देवीसिंह भी कमलिनी का इशारा पाकर उठे और श्यामसुन्दरसिंह को तालाब के बाहर पहुँचाने को चले।

जब श्यामसुन्दरसिंह को पहुँचाने के लिए देवीसिंह तालाब के बाहर गये तो उन्होंने देखा कि भूतनाथ, जिसे बेहोशी की अवस्था में तालाब के बाहर पहुँचा दिया गया था, अब होश में आकर तालाब के ऊपर वाली सीढ़ी पर चुपचाप बैठा हुआ है।

देवीसिंह को इस पार आते हुए देखकर वह उठा, और पास आकर देवीसिंह की कलाई पकड़कर बोला, "जो कुछ मैं चाहता हूँ उसे सुन लो, तब यहाँ से जाना।"

देवीसिंह ने कहा, "बहुत अच्छा, कहो मैं सुनने के लिए तैयार हूँ। (श्यामसुन्दरसिंह से) तुम क्यों खड़े हो गये? जाओ जो काम तुम्हारे सुपुर्द हुआ है, उसे करो।" देवीसिंह की बात सुनकर श्यामसुन्दरसिंह को और भी रंज हुआ, और वह मुँह बनाकर चला गया।

देवी : (भूतनाथ से) अब जो कुछ तुम्हें कहना हो, कहो।

भूतनाथ : पहिले आप यह बताइए कि मुझे इस बेइज्जती के साथ बँगले के बाहर क्यों निकाल दिया?

देवी : क्या तुम स्वयं इस बात को नहीं सोच सके?

भूतनाथ : मैं क्योंकर समझ सकता था? हाँ, इतना मैंने अवश्य देखा कि सभों की जो निगाह मुझ पर पड़ रही थी, वह रंज और घृणा से खाली न थी, मगर कुछ सबब मालूम न हुआ।

देवी : क्या तुमने बलभद्रसिंह को नहीं देखा? क्या उस गठरी पर तुम्हारी निगाह नहीं गयी, जो तेजसिंह के सामने रक्खी हुई थी? और क्या तुम नहीं जानते कि उस कागज के मुट्ठे में क्या लिखा हुआ है?

भूतनाथ : तब नहीं तो अब मैं इतना समझ गया कि उस आदमी ने जो अपने को बलभद्रसिंह बताता है, मेरी चुगली खायी होगी, और मेरे झूठे दोष दिखलाकर मुझपर बदनामी का धब्बा लगाया होगा—मगर मैं आपको होशियार कर देता हूँ कि वह वास्तव में बलभद्रसिंह नहीं है, बल्कि पूरा जालिया और धूर्त है, निःसन्देह वह आप लोगों को धोखा देगा। यदि मेरी बातों का विश्वास न हो तो मैं इस बात के लिए तैयार हूँ कि आप लोगों मे से कोई एक आदमी मेरे साथ चले, मैं असली बलभद्रसिंह जो वास्तव में ल्क्ष्मीदेवी का बाप है और अभी तक कैदखाने में पड़ा हुआ है, दिखला दूँगा। मैं सच कहता हूँ कि उस कागज के मुट्ठे में जो कुछ लिखा हुआ है, यदि उसमें किसी तरह भी मेरी बुराई है तो बिल्कुल झूठ है।

देवी : मैं केवल तुम्हारे इतना कहने पर क्योंकर विश्वास कर सकता हूँ! मैं तुम्हारे अक्षर अच्छी तरह पहिचानता हूँ, जो उस कागज के मुट्ठे की लिखावट से बखूबी मिलते हैं। खैर, इसे भी जाने दो, मैं यह पूछता हूँ कि बलभद्रसिंह को देखकर तुम इतना डरे क्यों? यहाँ तक कि डर ने तुम्हें बेहोश कर दिया।

भूतनाथ : यह तो तुम जानते ही हो कि मैं उससे डरता हूँ, मगर इस सबब से नहीं डरता कि वह कमलिनी का बाप बलभद्रसिंह है, बल्कि उससे डरने का कोई दूसरा ही सबब है, जिसके विषय में कह चुका हूँ कि आप मुझसे न पूछेंगे, और यदि किसी तरह मालूम हो जाय तो बिना मुझसे पूछे किसी प्रकार प्रकट न करेंगे।

देवी : अच्छा इस बात का जवाब तो दो कि अगर तुम्हें यह मालूम था कि कमलिनी का बाप किसी जगह कैद है, और तारा वास्तव में लक्ष्मीदेवी है, जैसा कि तुम इस समय कह रहे हो तो आज तक तुमने कमलिनी को इस बात की खबर क्यों न दी? या यह बात क्यों न कही कि ‘मायारानी वास्तव में तुम्हारी बहिन नहीं है’।

भूतनाथ : इसका सबब यही था कि असली बलभद्रसिंह ने जो अभी तक कैद हैं, और जिनके छुड़ाने की मैं फिक्र कर रहा हूँ, मुझसे कसम ले ली है कि जब तक वे कैद से न छूटें, मैं उनके और लक्ष्मीदेवी के विषय में किसी से कुछ न कहूँ, और वास्तव में अगर मुझ पर इतनी विपत्ती न आ पड़ती तो मैं किसी से कहता भी नहीं। मुझे इस बात का बड़ा ही दुःख है कि मैं तो अपनी जान हथेली पर रखके आप लोगों का काम करूँ और आप लोग बिना समझे-बूझे और असल बात को बिना जाँचे दूध की मक्खी की तरह मुझे निकाल फेंके। क्या मुरौवत नेकी और धर्म इसी को कहते हैं? क्या यही जवाँमर्दों का काम है? आखिर मुझपर इलजाम तो लग ही चुका था, मगर मेरी और उस दुष्ट की, जो कमलिनी का बाप बनके मकान के अन्दर बैठा हुआ है, दो-दो बातें तो हो लेने देते!

भूतनाथ की बात सुनकर देवीसिंह के बड़ा ही आश्चर्य हुआ और वह कुछ देर तक सिर नीचा किये हुए सोचते रहे, इसके बाद कुछ याद करके बोले, "अच्छा मेरी एक बात का और जवाब दो।"

भूतनाथ : पूछिए।

देवी : यदि तुम्हें उस कागज के मुट्ठे से कुछ डर न था और वास्तव में जो कुछ उस मुट्ठे में तुम्हारे खिलाफ लिखा हुआ है, वह झूठ है जैसाकि तुम अभी कह चुके हो, तो तुम उस गठरी को देखकर उस समय क्यों डरे थे, जब बलभद्रसिंह ने रात के समय उस जंगल में तुम्हें वह गठरी दिखायी थी और पूछा था कि यदि कहो तो भगवानी के सामने इसे खोलूँ? मैं सुन चुका हूँ कि उस समय इस गठरी को देखकर तुम काँप गये थे और नहीं चाहते थे कि भगवानी के सामने वह गठरी खोली जाय!

भूतनाथ : ठीक है, मगर मैं उस कागज के मुट्ठे को याद करने नहीं डरा था, बल्कि मुझे इस बात का गुमान भी न थी कि इस गठरी में कोई कागज का मुट्ठा भी है, सच तो यों है कि मैं उस पीतल की सन्दूकड़ी को याद करके डरा था, जो उस समय तेजसिंह सामने पड़ी हुई थी। मैं यही समझे हुआ था कि उस गठरी के अन्दर केवल एक पीतल की सन्दूकड़ी है, और वास्तव में उसकी याद ही से मैं काँप जाता हूँ। उसकी सूरत देखने से जो हालत मेरी होती है, सो मैं ही जानता हूँ, मगर साथ ही इसके यह भी कहे देता हूँ कि उस पीतल की सन्दूकड़ी के अन्दर जो चीज़ है, उससे कमलिनी, तारा और लाडिली आसली बलबद्रसिंह का कोई सम्बन्ध नहीं है। इसका विश्वास आपको उस समय हो जायगा, जब वह सन्दूकड़ी खोली जायगी।

भूतनाथ की बातों ने देवीसिंह को चक्कर में डाल दिया। वह कुछ भी नहीं समझ सकते थे कि वास्तव में क्या बात है। देवीसिंह ने जो बातें भूतनाथ से पूछीं, उनका जवाब भूतनाथ ने बड़ी खूबी के साथ दिया, न तो कहीं अटका और न किसी तरह का शक रहने दिया और ये ही बातें थीं, जिन्होंने देवीसिंह को तरद्दुद परेशानी और आश्चर्य में डाल दिया था। बहुत गौर करने के बाद देवीसिंह ने पुनः भूतनाथ से पूछा।

देवी : अच्छा अब तुम क्या चाहते हो सो कहो?

भूतनाथ : मैं केवल इतना ही चाहता हूँ कि आप मुझे इस मकान में ले चलिए, और तेजसिंह तथा तीनों बहिनों से कहिए कि मेरे मुकदमे की पूरी जाँच करें, आप लोगों के आगे निर्दोष होने के विषय में जो कुछ मैं सबूत दूँ, उसे अच्छी तरह सुनें, समझें और देखें तथा इसके बाद जो दगाबाज ठहरे उसे सजा दें, बस।

देवी : अच्छा, मैं जाकर तेजसिंह और कमलिनी से ये बातें कहता हूँ, फिर जैसा वे कहेंगे किया जायगा।

भूतनाथ : तो आप एक काम और कीजिए।

देवी : वह क्या।

इसके जवाब में भूतनाथ ने अपने ऐयारी के बटुए में से एक तस्वीर निकालकर देवीसिंह के हाथ में दी, और कहा, "आप यह तस्वीर लक्ष्मीदेवी (तारा) को दिखायें, और पूछें कि तुम्हारा बाप यह है, या वह दगाबाज, जो सामने बैठा हुआ अपने को बलभद्रसिंह बताता है?"

देवीसिंह ने बड़े गौर से उस तस्वीर को देखा। यह तस्वीर पूरी तो नहीं थी मगर फिर भी बलभद्रसिंह की सूरत से बहुत कुछ मिलती थी। भूतनाथ की बातों ने और उसके सवाल-जवाब के ढंग ने देवीसिंह के दिल पर मामूली-सा असर पैदा नहीं किया था, बल्कि सच तो यह है कि उसने थोड़ी देर के लिए देवीसिंह की राय बदल दी थी। देवीसिंह ने सोचा कि ताज्जुब नहीं कि भूतनाथ बहुत कुछ सच कहता हो और बलभद्रसिंह वास्तव में असली बलभद्रसिंह न हो, क्योंकि जहाँ तक मैंने देखा है, बलभद्रसिंह के मिलने से जितना जोश कमलिनी, लाडिली और तारा के दिल में पैदा हुआ, बलभद्रसिंह के दिल में, अपनी तीनों लड़कियों को देखकर पैदा नहीं हुआ, यह एक ऐसी बात है जो मेरे दिल में शक पैदा कर सकती है, मगर उस कागज के मुट्ठे में जितनी चीठियाँ भूतनाथ के हाथ की कही जाती हैं वे अवश्य भूतनाथ के हाथ की लिखी हुई हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं, क्योंकि जब मैंने भूतनाथ से कहा था कि तुम्हारे अक्षर इन चीठियों के अक्षरों से मिलते हैं, तो इस बात का कोई जवाब उसने नहीं दिया, अस्तु, उन दुष्ट कर्मों का करनेवाला तो अवश्य भूतनाथ है, मगर क्या यह बलभद्रसिंह भी वास्तव में असली बलभद्रसिंह नहीं है? अजब तमाशा है, कुछ समझ में नहीं आता कि क्या निश्चय किया जाय।

इन सब बातों को सोचते हुए देवीसिंह वहाँ से रवाना हुए और डोंगी पर सवार हो मकान के अन्दर गये जहाँ तेजसिंह उस कागज के मुट्ठे को हाथ में लिए, देवीसिंह के वापस आने की राह देख रहे थे।

तेज : देवीसिंह, तुमने इतनी देर क्यों लगायी? मैं कबसे राह देख रहा हूँ कि तुम आ जाओ तो इस मुट्ठे को खोलूँ।

देवी : हाँ हाँ, आप पढ़िए, मैं भी आ गया।

तेज : मगर यह तो कहो कि तुम्हें इतनी देर क्यों लगी?

देवी : भूतनाथ ने मुझे रोक लिया था और कहा कि पहिले मेरी बातें सुन लो तो यहाँ से जाओ।

बलभद्र : क्या भूतनाथ तालाब के बाहर अभी तक बैठा है?

देवी : हाँ, अभी तक बैठा है और बैठा रहेगा।

बलभद्र : सो क्यों, क्या कहता है?

देवी : वह कहता है कि मुझे कमलिनी ने बिना समझे व्यर्थ निकाल दिया, उन्हें चाहिए था कि नकली बलभद्रसिंह के सामने मेरा इन्साफ़ करतीं।

बलभद्र : नकली बलभद्रसिंह कैसा?

देवी : वह आपको नकली बलभद्रसिंह बताता है और कहता है कि असली बलभद्रसिंह अभी तक एक जगह कैद हैं, अगर किसी को शक हो तो मुझसे सवाल-जवाब कर ले।

बलभद्र : नकली और असली होने में सबूत की जरूरत है या सवाल-जवाब की?

देवी : ठीक है मगर उसने आपको बुलाया है और कहा कि बलभद्रसिंह मेरी एक बात आकर सुन जाँय फिर जो कुछ उनके जी में आवे करें।

बलभद्र : मारो कमबख्त को, मैं अब उसकी बातें सुनने के लिए क्यों जाने लगा?

देवी : क्या हर्ज है अगर आप उसकी दो बातें सुन लें, कदाचित् कोई नया रहस्य ही मालूम हो जाय!

बलभद्र : नहीं, मैं उसके पास न जाँऊगा।

तेज: तो भूतनाथ को इसी जगह क्यों न बुला लिया जाय?

कमलिनी : हाँ, मैं भी यही उचित समझती हूँ।

देवी : नहीं नहीं, इससे तो यह उत्तम होगा कि बलभद्र सिंह खुद उससे मिलने के लिए तालाब पर जाँय।

इतना कहकर देवीसिंह ने तेजसिंह की तरफ देखा और कोई गुप्त इशारा किया।

बलभद्र : उसका इस मकान में आना मुझे भी पसन्द नहीं! अच्छा मैं स्वयं जाता हूँ, देखूँ वह नालायक क्या कहता है।

तेज : अच्छी बात है, आप भैरोसिंह को अपने साथ लेते जाइए।

बलभद्र : सो क्यों?

देवी : कौन ठीक, कमबख्त चोट कर बैठे आखिर गम और डर ने उसे पागल तो बना ही दिया है।

इतना कहकर देवीसिंह ने फिर तेजसिंह की तरफ देखा और इशारा किया, जिसे सिवाय तेजसिंह के और कोई नहीं समझ सकता था।

बलभद्र : अजी, उस कमबख्त गीदड़ की इतनी हिम्मत कहाँ जो मेरा मुकाबला करे!

तेज : ठीक है, मगर भैरोसिंह को साथ लेकर जाने में हर्ज भी क्या है? (भैरोसिंह से) जाओजी भैरो तुम इनके साथ जाओ!

लाचार भैरोसिंह को साथ लेकर बलभद्रसिंह बाहर चला गया। इसके बाद कमलिनी ने देवीसिंह से कहा, "मुझे मालूम होता है आपने मेरे पिता को जबर्दस्ती भूतनाथ को भेजा है।"

देवी : हाँ, इसलिए कि ये थोड़ी देर के लिए अलग हो जाँय तो मैं एक अनूठी बात आप लोगों से कहूँ।

कमलिनी : (चौंककर) क्या भूतनाथ ने कोई नयी बात बतायी है?

देवी : हाँ, भूतनाथ ने यह बात बहुत जोर देकर कही कि असली बलभद्रसिंह अभी तक कैद हैं, और यदि किसी को शक हो तो मेरे साथ चले, मैं दिखला सकता हूँ। उसने बलभद्रसिंह की तस्वीर भी मुझे दी है, और कहा है कि यह तस्वीर तीनों बहिनों को दिखाओ, पहिचानें कि असली बलभद्रसिंह यह है, या वह।

लक्ष्मीदेवी ने हाथ बढ़ाया और देवीसिंह ने वह तस्वीर उसके हाथ पर रख दी।

तारा : (तस्वीर देखकर) आह! यह तो मेरे बाप की असली तस्वीर है! इस चेहरे में तो कोई ऐसा फर्क ही नहीं है जिससे पहिचानने में कठिनाई हो। (कमलिनी की तरफ तस्वीर बढ़ाकर) लो बहिन तुम भी देख लो, मैं समझती हूँ, यह सूरत तुम्हें भी न भूली होगी।

कमलिनी : (तस्वीर देखकर) वाह! क्या इस सूरत को मैं जिन्दगी में कभी भूल सकती हूँ। (देवीसिंह से) क्या भूतनाथ ने इसी सूरत को दिखाने का वादा किया है?

देवी : हाँ, इसी को।

कमलिनी : तो क्या आपने पूछा नहीं कि अगर तुम यह हाल पहिले ही जानते थे, तो अब तक हम लोगों से क्यों न कहा?

देवी: केवल यही नहीं, बल्कि मैंने कई बातें उससे पूछीं।

तेज : तुममें और भूतनाथ में जो-जो बातें हुईं, सब कह जाओ।

यह तस्वीर एक-एक करके सभों ने देखी और तब देवीसिंह उन बातों को दोहरा गये जो उनके और भूतनाथ के बीच हुईं थीं। उनके सुनने से सभों को ताज्जुब हुआ और सभी कोई सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए।

कमलिनी : (तारा से) बहिन बेशक तुम इस विषय में हम लोगों से बहुत ज्यादे गौर कर सकती हो, फिर भी इतना मैं कह सकती हूँ कि मेरे पिता में जो भूतनाथ से मिलने गये हैं और इस तस्वीर में बहुत ज्यादे फर्क नहीं है।

तारा : क्या कहूँ अक्ल कुछ काम नहीं करती! मैं उन्हें भी अच्छी तरह पहिचानती हूँ और इस तस्वीर को भी अच्छी तरह पहिचानती हूँ। इस तस्वीर को तो हम तीनों में से जो देखेगा, वही कहेगा कि हमारे पिता की है, मगर इनको केवल मैं ही पहिचानती हूँ। जिस जमाने में मैं और ये एक कैदखाने में थे, उसी जमाने में इनकी सूरत शक्ल में बहुत फर्क पड़ गया था। (चौंककर) आह, मुझे एक पुरानी बात याद आयी है, जो इस भेद को तुरन्त साफ़ कर देगी!

कमलिनी : वह क्या?

तारा : तुम्हें याद होगा कि जब हम लोग छोटे-छोटे थे और लाडिली बहुत ही छोटी थी तो उसे एक दफे बुखार आया था, और वह बुखार बहुत ही कड़ा था, यहाँ तक कि सरसाम हो गया था और उसी पागलपन में उसने पिताजी के मोढ़े पर दाँट काट लिया था।

कमलिनी : ठीक है, अब मुझे भी वह बात याद पड़ी। इतने जोर से दाँत काटा था कि सेरों खून निकल गया था। जब तक वे हम लोगों के साथ रहे, तब तक मैं बराबर उस निशान को देखती थी, मुझे विश्वास है कि सौ वर्ष बीत जाने पर भी वह दाग मिट नहीं सकता।

तारा : बेशक ऐसा ही था और हमने, तुमने मिलकर यह सलाह गाँठी थी कि दाँत काटने के बदले में लाडिली को खूब मारेंगे। आखिर लड़कपन का जमाना ही तो था।

कमलिनी : हाँ, और यह बात हमारी माँ को मालूम हो गयी थी और उसने हम दोनों को समझाया था।

तारा की यह बात कुछ ऐसी थी कि इससे लड़कपन के जमाने की याद दिला दी और कमलिनी तथा लाडिली को तो इस बात में कुछ भी शक न रहा कि तारा बेशक लक्ष्मीदेवी है, मगर बलभद्रसिंह के विषय में जरूर कुछ शक हो गया और उनके विषय में दोनों ने यह निश्चय कर लिया कि बलभद्रसिंह भूतनाथ से मिलकर लौंटे तो किसी बहाने से उनका मोढ़ा देखा जाय, साथ ही यह भी निश्चय कर लिया कि इसके बाद ही कोई आदमी भूतनाथ के साथ जाय और उस कैदी को भी देखे, बल्कि जिस तरह बने उसे छुड़ाकर ले आवे।

इतने ही में तालाब के बाहर से कुछ शोरगुल की आवाज़ आयी। तेजसिंह ने पता लगाने के लिए तारासिंह को बाहर भेजा और तारासिंह ने लौटकर खबर दी कि भूतनाथ और बलभद्रसिंह ने लड़ाई बल्कि यों कहना चाहिए कि जबर्दस्त कुश्ती हो रही है।

यह सुनते ही कमलिनी, लाडिली, देवीसिंह और तेजसिंह बाहर चले गये और देखा कि वास्तव में वे दोनों लड़ रहे हैं और भैरोसिंह अलग खड़ा तमाशा देख रहा है। भूतनाथ सिंह और बलभद्रसिंह की लड़ाई तेजसिंह पहिले देख चुके थे, और उन्हें मालूम हो चुका था कि बलभद्रसिंह भूतनाथ से बहुत जबर्दस्त हैं, मगर इस समय जिस खूबी और बहादुरी के साथ भूतनाथ लड़ रहा था, उसे देखकर तेजसिंह को ताज्जुब मालूम हुआ, और उन्होंने तारासिंह की तरफ देखके कहा, "इस समय तो भूतनाथ बड़ी बहादुरी से लड़ रहा है। मैं समझता हूँ कि पहिले दफे जब हमने भूतनाथ की लड़ाई देखी थी, तो उस समय डर और घबराहट ने भूतनाथ की हिम्मत तोड़ दी थी, मगर इस समय क्रोध ने उसकी ताकत दूनी कर दी है, लेकिन भैरो चुपचाप खड़ा तमाशा क्यों देख रहा है!"

देवी : जो हो, पर इस समय उचित है कि पार चलके इन लोगों को अलग कर देना चाहिए, मगर अफसोस, डोंगी एक ही है जो इस समय उस पार गयी हुई है।

कमलिनी : सब्र कीजिए, मैं दूसरी डोंगी ले आती हूँ, यहाँ डोंगियों की कमी नहीं है।

इतना कहकर कमलिनी चली गयी और थोड़ी देर में मोटे और रोगनी कपड़े की एक तोशक उठा लायी, जिसमें हवा भरने के लिए एक कोने में सोने का एक पेंचदार मुँह बना हुआ था और उसी के साथ एक छोटी भाथी भी थी। तेजसिंह ने उसी भाथी से बात-की-बात में हवा भरके उसे तैयार किया और उस पर तेजसिंह और देवीसिंह बैठकर पार जा पहुँचे।

तेजसिंह और देवीसिंह को यह देखकर बड़ा ही ताज्जुब हुआ कि दोनों आदमियों का खंजर और ऐयारी का बटुआ भैरोसिंह के हाथ में है और वे दोनों बिना हर्बे के लड़ रहे हैं। तेजसिंह ने बलभद्रसिंह को और देवीसिंह ने भूतनाथ को पकड़कर अलग किया।

बलभद्र : इस नालायक कमीने को इतना पाप करने पर भी शर्म नहीं आती, चुल्लू-भर पानी में डूब नहीं मरता और मुकाबला करने के लिए तैयार होता है!

भूतनाथ : मैं कसम खाकर कहता हूँ कि यह असली बलभद्रसिंह नहीं है। वह बेचारा अभी तक कैद में है, और इसी की बदौलत कैद में है। जिसका जी चाहे मेरे साथ चले, मैं दिखाने के लिए तैयार हूँ।

बलभद्र : साथ ही इसके यह भी क्यों नहीं कह देता कि वे चीठियाँ भी तेरे हाथ की लिखी हुई नहीं हैं!

भूतनाथ : हाँ हाँ, तेरे हाथ की लिखी वे चीठियाँ भी मेरे पास मौजूद हैं, जिनकी बदौलत बेचारा बलभद्रसिंह अभी तक मुसीबत झेल रहा है।

यह कहकर भूतनाथ ने अपना ऐयारी का बटुआ लेने के लिए भैरोसिंह की तरफ हाथ बढ़ाया।

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