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चन्द्रकान्ता सन्तति - 3

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8401
आईएसबीएन :978-1-61301-028-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 3 पुस्तक का ई-संस्करण...

नौवाँ बयान


आधी रात का समय है, चाँदनी खिली हुई है। मौसम में पूरा-पूरा फर्क पड़ गया है। रात की ठण्डी-ठण्डी हवा अब प्यारी मालूम होती है। ऐसे समय में उस सड़क पर जो काशी से जमानिया की तरफ गयी है दो मुसाफ़िर धीरे-धीरे काशी की तरफ जा रहे हैं। ये दोनों मुसाफ़िर साधारण नहीं हैं, बल्कि अमीर, बहादुर और दिलावर मालूम पड़ते हैं। दोनों की पोशाक बेशकीमत और सिपाहियाना ठाठ की है, तथा दोनों ही की चाल से दिलेरी और लापरवाही मालूम होती है। खंजर, कटार, तलवार, तीर-कमान और कमन्द से दोनों ही सजे हुए हैं और इस समय मस्तानी चाल से धीरे-धीरे टहलते हुए जा रहे हैं। इनके पीछे-पीछे दो आदमी दो घोड़ों की बागडोर थामें हुए जा रहे हैं, मगर ये दोनों साईस नहीं हैं, बल्कि सिपाही और सवार मालूम होते हैं।

दोनों मुसाफ़िर जाते-जाते ऐसी जगह पहुँचे जहाँ सड़क से कुछ हटकर पाँच-सात पेड़ों का एक झुण्ड था। दोनों खड़े हो गये और उनमें से एक ने जोर से सीटी बजायी, जिसकी आवाज़ सुनते ही पेड़ों की आड़ में से दस आदमी निकल आये और दूसरी सीटी की आवाज़ के साथ ही वे दोनों आदमियों के पास पहुँच हाथ जोड़कर खड़े हो गये। उन सभी की पोशाक उस समय के डाकुओं की-सी थी। जाँघिया पहिरे हुए, बदन में केवल एक मोटे कपड़े की नीमास्तीन, ढाल-तलवार लगाये और हाथों में एक-एक गड़ाँसा लिये हुए थे, और सभी के बगल में एक-एक छोटा बटुआ भी लटक रहा था। इन दसों के आ जाने पर उन दो बहादुरों में से एक ने उनकी तरफ देखा और पूछा, "उसका कुछ पता लगा?"

एक डाकू : (हाथ जोड़कर) जी हाँ, बल्कि वह काम भी बखूबी कर आये हैं, जो हम लोगों के सुपुर्द किया गया था और जिसका होना कठिन था।

जवान : उसके साथ और कौन-कौन हैं?

डाकू : लीला के अतिरिक्त केवल पाँच लौंडियाँ और थीं।

जवान : उसे तुमने किस इलाके में पाया और क्या किया सो खुलासा कहो।

डाकू : उसने जमानिया की सरहद को छोड़ दिया और काशी रहने का विचार करके, उसी तरफ का रास्ता लिया। जब काशी की सरहद में पहुँची तो गंगापुर नामक एक स्थान के पासवाले जंगल में एक दिन तक उसे अटकना पड़ा, क्योंकि वह लीला को हालचाल लेने और कई भेदों को पता लगाने के लिए पीछे छोड़ आयी थी। हम लोगों को उसी समय अपना काम करने का मौका मिला। मैं कई आदमियों को साथ लेकर काशीराज की तहसील में जो गंगापुर में है, घुस गया और कुछ असबाब चुराकर इस तरह भागा कि पहरेवालों को पता लग गया और कई सवारों ने हम लोगों का पीछा किया। आखिर हम लोग उन सवारों को धोखा देकर घुमाते हुए उसी जंगल में ले गये, जिसमें मायारानी थी। जब हम लोग मायारानी के पास पहुँचे तो चोरी का माल उसी के पास पटककर भाग गये और सवारों ने वहाँ पहुँच और चोरी का माल मायारानी के पास देखकर उन्हीं लोगों को चोर या चोरों का साथी समझा और उन्हें चारों तरफ से घेर लिया।

जवान : बहुत अच्छा हुआ, शाबाश, तुम दोनों ने अपना काम खूबी के साथ पूरा किया। अच्छा इसके बाद क्या हुआ?

डाकू : इसके बाद की हम लोगों को कुछ भी खबर नहीं है, क्योंकि आज्ञानुसार आपके पास हाजिर होने का समय बहुत कम बच गया था, इसलिए उन लोगों का पीछा न किया।

जवान : कोई हर्ज नहीं, हमें इतने ही से मतलब था, अच्छा अब तुम जाओ, जमानिया के पास गंगा के किनारे जो झाड़ी है, उसी में परसों रात को किसी समय हम तुम लोगों से मिलेंगे, कदाचित् कोई काम पड़े। (अपने साथी की तरफ देखकर) कहिए देवीसिंहजी, अब इन दोनों सवारों के लिए क्या आज्ञा होती है, जो हम लोगों के साथ आये हैं?

देवी : अगर ये लोग जासूसी का काम दे सकें तो इन्हें काशी भेजना चाहिए।

जवान : ठीक है, और इसके बाद जहाँ तक जल्द हो सके कमलिनीजी से मिलना चाहिए, ताज्जुब नहीं वे कहती हों कि भूतनाथ बड़ा ही बेफिक्रा है।

पाठक तो समझ ही गये होंगे कि ये दोनों बहादुर देवीसिंह और भूतनाथ हैं। डाकुओं और दोनों सवारों को बिदा करने के बाद दोनों ऐयार लौटे और तेजी के साथ जमानिया की तरफ रवाना हुए। इस जगह से जमानिया केवल चार कोस की दूरी पर था, इसलिए ये दोनों ऐयार सवेरा होने के पहिले ही उस टीले पर जा पहुँचे, जो दारोगावाले बंगले के पीछे की तरफ था और जहाँ से दोनों ऐयारों और कुमारों को साथ लिये हुए कमलिनी मायारानी के तिलिस्मी बाग वाले देवमन्दिर में गयी थी। हम पहिले लिख आये हैं कि इस टीले पर एक कोठरी थी, जिसमें पत्थर के चबूतरे पर पत्थर ही का एक शेर बैठा हुआ था। वह चबूतरा और शेर देखने में पत्थर का मालूम होता था, मगर वास्तव में किसी मसाले का बना हुआ था। दोनों ऐयार उस शेर के पास जाकर खड़े हो गये और बातचीत करने लगे। भूतनाथ और देवीसिंह को इस समय इस बात का गुमान भी न था कि उनके पीछे-पीछे दो औरतें कुछ दूर से आ रही हैं, और इस समय भी कोठरी के बाहर छिपकर खड़ी उन दोनों की बातें सुनने के लिए तैयार हैं। इन दोनों औरतों में से एक तो मायारानी और दूसरी नागर है। पाठकों को शायद ताज्जुब हो कि मायारानी को तो चोरी की इल्लत में काशीराज के सवारों ने गिरफ्तार कर लिया था, फिर वह यहाँ क्योंकर आयी? इसलिए थोड़ा हाल मायारानी का इस जगह लिख देना उचित जान पड़ता है।

जब उन सवारों ने चारों तरफ से मायारानी को घेर लिया, तब एक दफे तो वह बहुत ही परेशान हुई, मगर तुरन्त ही सम्हल बैठी और फुर्ती के साथ उसने अपने तिलिस्मी तमंचे से काम लिया। उसने तमंचे में तिलिस्मी गोली भरकर उसी जगह जमीन पर मारी, जहाँ आप बैठी हुई थी। एक आवाज़ हुई, और गोली में से बहुत-सा धुआँ निकलकर धीरे-धीरे फैलने लगा, मगर सवारों ने इस बात पर कुछ ध्यान न दिया और मायारानी तथा उसकी लौंडियों को गिरफ्तार कर लिया। मायारानी के तमंचा चलाने पर सवारों को क्रोध आ गया था, इसलिए कई सवारों ने मायारानी की जूते और लात से खातिरदारी भी की, यहाँ तक कि वह बेताब होकर जमीन पर गिर पड़ी, उसके साथ-ही-साथ लीला और लौंडियों ने भी खूब मार खायी, मगर इस बीच में तिलिस्मी गोली का धुआँ हल्का होकर चारों तरफ फैल गया और सभों के आँख नाक में घुसकर अपना काम कर गया। मायारानी और लीला को छोड़, बाकी जितने वहाँ थे, सब-के-सब बेहोश हो गये थे, न सवारों को दीन-दुनिया की खबर रही और न मायारानी की लौंडियों को तनोबदन की सुध रही। पाठकों को याद होगा कि बेहोशी का असर न होने के लिए मायारानी ने तिलिस्मी अर्क पी लिया था और वही अर्क लीला को पिलाया था। अभी तक इस अर्क का असर बाकी था, जिसने मायारानी और लीला को बेहोश होने से बचाया।

मार के सदमे से आधी घड़ी तक तो मायारानी में उठने की सामर्थ्य न रही, इसके बाद जान के खौफ से वह किसी तरह उठी और लीला को साथ लेकर वहाँ से भागी। बेचारी लौंडियों को जिन्होंने ऐसे दुःख के समय में भी मायारानी का साथ दिया था, मायारानी ने कुछ भी न पूछा। हाँ, लीला का ध्यान उस तरफ जा पड़ा। उसने अपने ऐयारी के बटुए में से लखलखा निकाला और लौंडियों को सुघाकर होश में लाने के बाद सभों को भाग चलने के लिए कहा।

लौंडियों को साथ लिये हुए लीला और मायारानी वहाँ से भागीं, मगर घबराहट के मारे इस बात को न सोच सकीं कि कहाँ छिपकर अपनी जान बचानी चाहिए, अस्तु, वे सब सीधे दारोगावाले बंगले की तरफ रवाना हुईं। उस समय सवेरा होने में कुछ विलम्ब था, वे खौफ के मारे छिपती-छिपाती दिन-भर बराबर चली गयीं, और रात को भी कहीं ठहरने की नौबत न आयी। आधी रात से कुछ ज्यादे जा चुकी थी, जब वे सब दारोग़ावाले बँगले पर जा पहुँची। इत्तिफाक से नागर भी रास्ते ही में इन लोगों से मिली, जो मायारानी से मिलने के लिए मुश्की घोड़े पर सवार खास बाग की तरफ जा रही थी। इस समय नागर ने मायारानी को न पहिचाना मगर लीला ने नागर को पहिचानकर आवाज़ दी। नागर जब मायारानी के पास आयी तो उसे ऐसी अवस्था में देखकर ताज्जुब करने लगी। मायारानी ने संक्षेप में अपना हाल नागर से कहा, जिसे सुन वह अफसोस करने लगी और बोली, "मुझको भी भूतनाथ पर कुछ-कुछ शक होता है ताज्जुब नहीं कि उसने धोखा दिया हो। खैर, कोई हर्ज नहीं है मैं बहुत जल्द इस बात का पता लगा लूँगी। आप काशीजी चलकर मेरे मकान में रहिए और देखिये कि मैं भूतनाथ को क्योंकर फँसाती हूँ।"

मायारानी और नागर की बातें पूरी न होने पायी थीं कि सामने से दो आदमियों को आने की आहट मालूम हुई। वे दोनों देवीसिंह और भूतनाथ थे। यद्यपि अँधेरे के कारण मायारानी ने उन दोनों को न पहिचाना और पहिचानने की उसे कोई आवश्यकता भी न थी, मगर जब वे दोनों टीले की तरफ मुड़े, तब मायारानी को शक पैदा हुआ और उसने धीरे से नागर के कान में कहा—"दोनों टीले पर जा रहे हैं, इससे मालूम होता है कि कमलिनी के साथी हैं, क्योंकि उस टीले पर बिना जानकार आदमी के कोई इस समय कदापि न जायगा।"

नागर : हाँ, मुझे भी यही शक होता है कि वे दोनों कमलिनी के साथी या बीरेन्द्रसिंह के ऐयार हैं और ताज्जुब नहीं कि आपके तिलिस्मी बाग में जाने की नीयत से उस टीले पर जा रहे हों, क्योंकि बाबाजी की जुबानी मैं कई दफे सुन चुकी हूँ कि तिलिस्मी बाग में जाने के लिए इस टीले पर से भी एक रास्ता है।

माया : हाँ, यह तो मैं भी जानती हूँ कि इस टीले पर से मेरे तिलिस्मी बाग में जाने का रास्ता है, मगर इस राह से क्योंकर जाया जा सकता है, इसकी मुझे खबर नहीं है। ताज्जुब नहीं कि खून से लिखी किताब की बदौलत कमलिनी को इन सब रास्तों का हाल मालूम हो गया हो, क्योंकि वह किताब, नानक और भूतनाथ की बदौलत कमलिनी के हाथ में पहुँची ही होगी।

नागर : बेशक, ऐसा ही है। खैर, चलिए इन दोनों के पीछे-पीछे चले, ताज्जुब नहीं कि बहुत-सी बातों का पता लग जाय।

इसके बाद मायारानी केवल नागर को साथ लिये हुए भूतनाथ और देवीसिंह के पीछे-पीछे छिपकर टीले पर गयी, और जब वे दोनों ऐयार कोठरी के अन्दर घुसे तो बाहर छिपकर भूतनाथ तथा देवीसिंह आपुस में जो बातें करने लगे, उन्हें सुनने लगी जैसा कि हम ऊपर लिख आये हैं।

उस चबूतरे पर बैठे हुए शेर के पास खड़े होकर भूतनाथ और देवीसिंह नीचे लिखी बातें करने लगे।

भूतनाथ : (शेर के सिर पर हाथ रखकर) तिलिस्म के चौथे दर्जे में जो देवमन्दिर है, उसमें जाने का यही रास्ता है।

देवीसिंह : क्या राजा गोपालसिंह से वहाँ मुलाकात होगी?

भूतनाथ : अवश्य, बल्कि कमलिनी, लाडिली और दोनों कुमार भी वहाँ मौजूद होंगे।

देवीसिंह : इस दरवाज़े के खोलने की तरकीब राजा गोपालसिंह ने आपको बता दी?

भूतनाथ : हाँ, राजा गोपालसिंह और कमलिनी ने भी इस दरवाज़े के खोलने की तरकीब बतायी थी, मगर यह रास्ता बड़ा ही खतरनाक है। अच्छा अब मैं दरवाज़ा खोलता हूँ।

इतना कहकर भूतनाथ ने शेर की बायीं आँख में उँगली डाली। आँख अन्दर की तरफ घुस गयी और इसके साथ ही शेर ने मुँह खोल दिया। भूतनाथ ने दूसरा हाथ शेर के मुँह में डाला और कोई पेंच घुमाया, जिससे उस चबूतरे के आगे वाला पत्थर हटकर जमीन के साथ सट गया, जिस पर शेर बैठा हुआ था, और नीचे उतरने के लिए रास्ता मालूम पड़ने लगा। देवीसिंह ने बत्ती जलाने का इरादा किया, मगर भूतनाथ ने मना किया और कहा कि नहीं, तुम चुपचाप मेरे पीछे-पीछे चले आओ, नीचे उतर जाने के बाद बत्ती जलावेंगे। आगे-आगे भूतनाथ और पीछे-पीछे देवीसिंह, दोनों ऐयार नीचे उतरे और वहाँ बटुए में से सामान निकालकर भूतनाथ ने मोमबत्ती जलायी। वह एक कोठरी थी, जिसमें तीन तरफ तो दीवार थी, और एक तरफ की दीवार सुरंग के रास्ते के तौर पर थी, अर्थात् उधर से किसी सुरंग में जाने का रास्ता था। कोठरी के बीचोबीच में लोहे का एक खम्भा था और खम्भे के ऊपर एक गड़ारीदार पहिया था, जिसे भूतनाथ ने घुमाया और देवीसिंह से कहा, "जिस राह से हम आये हैं, उसे यहाँ से बन्द करने की यही तरकीब है और (हाथ का इशारा करके) यही सुरंग तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में गयी है!" इसके बाद भूतनाथ और देवीसिंह सुरंग में घुसकर आगे की तरफ बढ़े।

इस सुरंग की चौड़ाई चार हाथ से ज्यादे न होगी। यहाँ की जमीन स्याह और सुफेद पत्थरों से बनी हुई थी, अर्थात् एक पत्थर सुफेद तो दूसरा पत्थर स्याह, इसके बाद सुफेद और फिर स्याह, इसी तरह के दोनों रंग के पत्थर सिलसिलेवार लगे हुए थे। सुरंग के दोनों तरफ की दीवारें लोहे की थीं और थोड़ी-थोड़ी दूर पर लोहे के बनावटी आदमी दीवार के साथ खड़े थे, जो अपने लम्बे हाथ फैलाये हुए थे। भूतनाथ ने देवीसिंह की तरफ देखकर कहा, "इस राह से जाना और अपनी जान पर खेलना एक बराबर है। देखिए बहुत सम्हलकर मेरे पीछे चले आइए और इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखिए कि स्याह पत्थर पर पैर न पड़ने पावे, नहीं तो जान न बचेगी। कमलिनी ने मुझे अच्छी तरह समझाकर कहा था कि सुरंग की दीवार के साथ जो लोहे के आदमी हाथ फैलाये खड़े हैं वें उस समय काम करते हैं। जब कोई स्याह पत्थर पर पैर रखता है, अर्थात् स्याह पत्थर पर पैर रखते ही वे उसको अपने दोनों हाथों में ऐसा पकड़ लेते हैं कि फिर किसी तरह वह उनके कब्जे से निकल नहीं सकता। मैं समझता हूँ कि इस सुरंग में कई आदमी धोखे में पड़कर मारे गये होंगे, इसलिए उचित है कि मेरे और तुम्हारे दोनों के हाथ में एक-एक मोमबत्ती रहे।"

भूतनाथ की बातें सुनकर देवीसिंह ताज्जुब करने लगे, आखिर लाचार होकर एक मोमबत्ती और जलायी और तब बड़ी होशियारी से सुफेद पत्थरों पर पैर रखते हुए आगे बढ़े। यह सुरंग एकदम सीधी बनी हुई थी और इसकी जमीन हर तरह से साफ़ थी, जिसका सबब शायद यह हो कि यहाँ कहीं से गर्द, गुब्बार आने की जगह नहीं थी। फिर इस सुरंग में ऐसी कारीगरी भी की गयी थी कि किसी-किसी जगह दीवार में से साफ़ छनी हुई हवा आती और दूसरी राह से निकल जाती थी, जिससे सुरंग की हवा हरदम साफ़ बनी रहती थी और उसमें जहर का असर पैदा नहीं होने पाता था।

लगभग दो-सौ कदम जाने के बाद देखा कि दाहिनी तरफ दीवार के साथवाले लोहे के एक आदमी का दोनों हाथ सिमटा हुआ है और उसके बीच में हड्डी का एक ढाँचा फँसा हुआ है। वह ढाँचा मनुष्य के शरीर का था, जिसे देखते ही भूतनाथ ने देवीसिंह से कहा, "देखिए यह धोखा खाने का नमूना है। कोई अन्जान आदमी सुरंग में आकर जान दे बैठा है, अनजान कैसे कहें, क्योंकि यहाँ तक तो आ ही चुका था, शायद धोखा खा गया हो।" दोनों ऐयार ताज्जुब से उस पंजर को देखने लगे, पर इसी समय यकायक देवीसिंह की निगाह पीछे की तरफ (जिधर से ये दोनों आये थे) जा पड़ी और एक रोशनी देख देवीसिंह ने ताज्जुब के साथ भूतनाथ से कहा, "देखिए तो वह रोशनी कैसी है?"

भूतनाथ : (बत्ती के आगे हाथ रखकर और गौर से रोशनी की तरफ देखकर) कोई आ रहा है!

देवीसिंह : दो औरतें मालूम पड़ती हैं।

भूतनाथ : ठीक है, शायद लाडिली और कमलिनीजी हों क्योंकि सिवाय जानकार के और कोई तो इस सुरंग में आ ही नहीं सकता!

देवीसिंह : मुझे तो विश्वास नहीं होता कि ये कमलिनी और लाडिली होंगी।

भूतनाथ : शक तो मुझे भी होता है, खैर, चलकर देख ही क्यों न लें।

भूतनाथ और देवीसिंह फिर पीछे की तरफ लौटे अर्थात् उस रोशनी की तरफ बढ़े जो यकायक दिखायी दी थी। दो ही कदम बढ़े होंगे कि कोई चीज़ उनके सामने जमीन पर आकर गिरी और पटाके की-सी आवाज़ हुई, इसके साथ ही उसमें से बेहोशी पैदा करने वाला जहरीला धुआँ निकला। यह तिलिस्मी गोली थी जो मायारानी ने तिलिस्मी तमंचे में भरकर भूतनाथ और देवीसिंह की तरफ चलायी थी। भूतनाथ और देवीसिंह इस गुमान में पीछे की तरफ हटे थे कि शायद यह रोशनी कमलिनी और लाडिली के साथ हो, मगर वास्तव में ये दोनों मायारानी और नागर थीं, जिन्होंने छिपकर भूतनाथ और देवीसिंह की बातें सुनी थीं। जब दोनों ऐयार शेरवाला दरवाज़ा खोलकर तहखाने में उतर गये थे, तो चर्खा घुमाकर बन्द करने के पहिले ही ये दोनों भी दरवाज़ेके अन्दर घुसकर तीन-चीर सीढ़ी उतर आयी थीं और इन्होंने वे बातें भी सुन ली थीं, जो नीचे उतर जाने के बाद भूतनाथ और देवीसिंह में हुईं।

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