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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8402
आईएसबीएन :978-1-61301-029-7

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...

तीसरा बयान


हम ऊपर लिख आये हैं कि शेरअलीखाँ शातिरदारी और इज्जत के साथ रोहतासगढ़ में रक्खा गया, क्योंकि उसने अपने कसूरों में माफी माँगी थी और तेजसिंह ने उसे माफी दे भी दे थी। अब हम उस रात का हाल लिखते हैं, जिस रात बीरेन्द्रसिंह तेजसिंह और इन्द्रदेव बगैरह तहखाने के अन्दर गये थे और यकायक आ पड़नेवाली मुसीबत में गिरफ्तार हो गये थे। इन लोगों का किसी काम के लिए तहखाने के अन्दर जाना शेरअलीखाँ को मालूम था, मगर उसे इन बातों से कोई मतलब न था, उसे तो सिर्फ इसकी फिक्र थी कि भूतनाथ का मुकदमा खतम हो ले तो वह अपनी राजधानी पटने की तरफ पधारे और इसीलिए वह राजा बीरेन्द्रसिंह की तरफ से रोका भी गया था।

जिस कमरे में शेरअलीखाँ का डेरा था, वह बहुत लम्बा-चौड़ा और कीमती अबाब से सजा हुआ था। उसके दोनों तरफ दो कोठरियाँ थीं और बाहर दालान तथा दलान के बाद एक चौखूँटा सहन था। उन दोनों कोठरियों में से जो कमरे के दोनों तरफ थीं, एक में तो सोने के लिए बेशकीमती मसहरी बिछी हुई थी, और दूसरी कोठरी में पहिरने के कपड़े तथा सजावट का समान रहता था। इस कोठरी में एक दरवाजा और भी था, जो उस मकान में पिछले हिस्से में जाने का काम देता था, मगर इस समय वह बन्द था, और उसकी ताली दारोगा के पास थी। जिस कोठरी में सोने की मसहरी थी, उसमें सिर्फ एक ही दरवाजा था, और दरवाजेवाली दीवार को छोड़ के उसकी बाकी तीनों तरफ की दीवार आबनूस की लड़की की बनी हुई थी, जिस पर बहुत चमकदार पालिश किया हुआ था। वही अवस्था उस कमरे की भी थी, जिसमें शेरअलीखाँ रहता था।

रात डेढ़ पहर से कुछ ज्यादे जा चुकी थी। शेरअलीखाँ अपने कमरे में मोटी गद्दी पर लेटा हुआ कोई किताब पढ़ रहा था और सिरहाने की तरफ संगममर की छोटी-सी चौकी के ऊपर एक शमादान जल रहा था, इसके अतिरिक्त कमरे में और कोई रोशनी न थी। यकायक सोनेवाली कोठरी के अन्दर से एक ऐसी आवाज आयी, जैसे किसी ने मसहरी के साथ ठोकर खायी हो। शेरअलीखाँ चौंक पड़ा और कुछ देर तक उसी कोठरी की तरफ जिसके आगे पर्दा गिरा हुआ था, देखता रहा। जब पर्दे को भी हिलते देखा तो किताब जमीन पर रखकर बैठ गया और उसी समय कल्याणसिंह को पर्दा हटाकर बाहर निकलते देखा। शेरअलीखाँ घबड़ाकर उठ खड़ा हुआ और बड़े गौर से उसे देखकर बोला, ‘‘हैं, क्या तुम कुँअर कल्याणसिंह हो!’’

कल्याण : (सलाम करके) जी हाँ।

शेरअली : तुम इस कमरे में कब आये और कब इस कोठरी में गये मुझे कुछ भी नहीं मालूम!!

कल्याण : मैं बाहर से इस कमरे में नहीं आया, बल्कि इसी कोठरी में से आ रहा हूँ।

शेरअली : सो कैसे? इस कोठरी में तो कोई दूसरा रास्ता नहीं है!

कल्याण : जी हाँ, एक रास्ता है, जिसे शायद आप नहीं जानते, मगर पहिले मैं दरवाजा बन्द कर लूँ। इतना कहकर कल्याणसिंह दरवाजे की तरफ बढ़ गया और इस कमरे के तीनों दरवाजे बन्द करके शेरअलीखाँ के पास लौट आया।

शेरअली : दरवाजे क्यों बन्द कर दिये? क्या डरते हो?

कल्याण : जी हाँ, यदि कोई देख लेगा तो मुश्किल होगी।

शेरअली : तो इसमें मालूम होता है कि तुम राजा बीरेन्द्रसिंह की मर्जी से नहीं छूटे, बल्कि किसी की मदद और चोरी से निकल भागे हो, क्योंकि चुनारगढ़ में तुम्हारे कैद होने का हाल मैं अच्छी तरह जानता हूँ।

कल्याण : जी हाँ, ऐसी ही बात है।

शेरअली : (बैठकर) अच्छा आओ मेरे पास बैठ जाओ और कहो कि तुम कैसे छूटे और यहाँ क्योंकर आ पहुँचे?

कल्याण : (बैठकर) खुलासा हाल कहने का तो इस समय मौका नहीं है, परन्तु इतना कहना जरूरी है कि अपनी मदद के लिए मुझे राजा शिवदत्त ने छुड़ाया है और अब मैं सहायता लेने के लिए आपके पास आया हूँ। यदि आप मदद देंगे तो मैं आज ही राजा बीरेन्द्रसिंह से अपने बाप का बदला ले लूँगा।

शेरअली : (हँसकर) यह तुम्हारी नादानी है। तुम अभी लड़के हो, ऐसे मामलों पर गौर नहीं कर सकते। राजा बीरेन्द्रसिंह के साथ दुश्मनी करने अपने पैर में आप कुल्हाड़ी मारना है, उनसे लड़कर कोई जीत नहीं सकता और न उनके ऐयारों के सामने किसी की चालाकी ही लग सकती है।

कल्याण : आपका कहना ठीक है, मगर इस समय हम लोगों ने राजा बीरेन्द्रसिंह और उनके ऐयारों को हर तरह से मजबूर कर रक्खा है।

शेरअली : सो कैसे?

कल्याण : क्या आप नहीं जानते कि बीरेन्द्रसिंह और उनके ऐयार किशोरी, कामिनी इत्यादि को लेकर तहखाने के अन्दर गये हैं?

शेरअली : हाँ, सो तो जानते हैं मगर इससे क्या?

कल्याण : जिस समय बीरेन्द्रसिंह वगैरह तहखाने में गये हैं, उसके पहिले ही हम लोग अपनी छोटी सेना सहित तहखाने में पहुँच चुके थे, और गुप्त राह से यकायक इस किले में पहुँचकर अपना दखल जमाना चाहते थे, मगर ईश्वर ने उन लोगों को तहखाने ही में पहुँचा दिया, जिससे हम लोगों को बड़ा सुभीता हुआ। शिवदत्तसिंह ने तो सेना सहित दुश्मनों को घेर लिया है, और मैं एक सुरंग की राह से, जिसका दूसरा मुहाना (सोनेवाली कोठरी की तरफ इशारा करके) इस कोठरी में निकला है, आपके पास मदद के लिए आया हूँ, आशा है कि उधर शिवदत्तसिंह ने दुश्मनों को काबू में कर लिया होगा या मार डाला होगा और इधर मैं आपकी मदद से किले में अपना अधिकार जमा लूँगा।

शेरअली : (कुछ सोचकर) मैं खूब जानता हूँ कि इस तहखाने का और यहाँ के पेचीले तथा कई रास्तों का हाल, तुमसे ज्यादा जाननेवाला अब और कोई नहीं है, इसलिए तुम लोगों का तहखाने में राजा बीरेन्द्रसिंह वगैरह को मार डालना तो यद्यपि मुश्किल है। हाँ, घेर लिया हो तो ताज्जुब की बात नहीं है, मगर साथ ही इसके इस बात का भी खयाल करना चाहिए कि यद्यपि राजा बीरेन्द्रसिंह वगैरह इस तहखाने का हाल बखूबी नहीं जानते, परन्तु आज इन्द्रदेव उनके साथ है, जिसे हम-तुम अच्छी तरह जानते है। क्या तुम्हें उस दिन की बात याद नहीं है, जिस दिन तुम्हारे पिता ने हमारे सामने तुमसे कहा था कि यहाँ के तहखाने का हाल हमसे ज्यादा जाननेवाला इस दुनिया में यदि कोई है तो केवल इन्द्रदेव!

कल्याण : (ताज्जुब से) हाँ, मुझे याद है, मगर क्या इन्द्रदेव राजा बीरेन्द्रसिंह के साथ तहखाने में गये हैं, और क्या बीरेन्द्रसिंह ने उन्हें अपना दोस्त बना लिया?

शेरअली : हाँ, अस्तु यह आशा नहीं हो सकती कि बीरेन्द्रसिंह वगैरह तुम लोगों के काबू में आ जायेंगे, दूसरी बात यह कि तुम अकेले या दो-एक मददगारों को लेकर इस किले में कर ही क्या सकते हो?

कल्याण : मैं आपके पास अकेला नहीं आया हूँ, बल्कि सौ सिपाही भी साथ लाया हूँ, जिन्हें आप आज्ञा देने के साथ ही इसी कोठरी में से निकलते देख सकते हैं। क्या ऐसी हालत में जबकि मालिकों या अफसरों में से यहाँ कोई भी न हो और यहाँ रहनेवाली केवल पाँच-सात सौ की फौज बेफिक्र पड़ी हो, हम और आप सौ बहादुरों का साथ लेकर कुछ भी नहीं कर सकते? इन्द्रदेव का इस समय बीरेन्द्रसिंह वगैरह के साथ तहखाने में होना, बेशक हमारे काम में विघ्न डाल सकता है, मगर मुझे इसकी भी विशेष चिन्ता नहीं है क्योंकि यदि दुश्मन लोग काबू में न आवेंगे तो हर तरफ से रास्ता बन्द हो जाने के कारण तहखाने के बाहर भी न निकल सकेंगे और भूखे-प्यासे उसी में रहकर मर जायेंगे, और इधर जब आप किले में अपना दखल जमा लेंगे...

शेरअली : (बात काटकर) ये सब बातें फिजूल हैं, मैं जानता हूँ कि तुम अपने को बहादुर और होनहार समझते हो, मगर राजा बीरेन्द्रसिंह के प्रबल प्रताप के चमकते हुए सितारे की रोशनी को अपने हाथ की ओट लगाकर नहीं रोक सकते और न उनकी सचाई-सफाई और नेकियों को भूलकर इस किले का रहनेवाला कोई तुम्हारा साथ ही दे सकता है। बुद्धिमानी को तो जाने दो, यहाँ का एक बच्चा भी राजा बीरेन्द्रसिंह का निकल जाना पसन्द न करेगा। अहा, क्या ऐसा जबान का सच्चा रहमदिल और नेक राजा कोई दूसरा होगा? यह राजा बीरेन्द्रसिंह ही का काम था कि उसने मेरे कसूरों को माफ ही नहीं किया बल्कि इज्जत और आबरू के साथ मुझे अपना मेहमान बनाया। मेरी रग-रग में उनके एहसान का खून भरा है, मेरा बाल-बाल उन्हें दुआ देता है, मेरे दिल में उनकी हिम्मत, मर्दानगी, इन्साफ और रहम दिल का दरिया जोश मार रहा है। ऐसे बहादुर शेरदिल राजा के साथ शेरअली कभी दगावाजी या बेईमानी नहीं कर सकता, बल्कि ऐसे की ताबेदारी अपनी इज्जत, हुर्मत और नामवरी का बयास समझता है। तुम मेरे दोस्त के लड़के हो, मगर मैं यह जरूर कहूँगा कि तुम्हारे बाप ने बीरेन्द्रसिंह के साथ दगाबाजी की! खैर, जो कुछ हुआ सो हुआ, अब तुम तो ऐसा न करो! मैं तुम्हें पुरानी मोहब्बत और दोस्ती का वास्ता दिलाता हूँ कि ऐसा मत करो। राजा बीरेन्द्रसिंह दुश्मनी करने योग्य राजा नहीं, बल्कि दर्शन करने योग्य हो! मै वादा करता हूँ कि तुम्हारा भी कसूर माफ करा दूँगा और अगर तुमको रोहतासगढ़ की लालच है तो इसे भी तुम राजा बीरेन्द्रसिंह की ताबेदारी करके ले सकते हो। वह बड़ा उदार दाता है, यह राज्य दे देना उसके समाने कोई बात नहीं है।

कल्याण : अफसोस! मुझे इन शब्दों को कदापि सुनने की आशा न थी, जो इस समय आपके मुँह से निकल रहे हैं। मुझे इस बात का ध्यान भी न था कि आज आपको हिम्मत और मर्दानगी से इस तरह खाली देखूँगा। मैं किसी के कहने पर विश्वास न कर सकता था कि आपकी रग में बुजदिली का खून पाऊँगा। मुझे स्वप्न में भी इस बात का विश्वास न हो सकता था कि आज आपको उसी राजा बीरेन्द्रसिंह की खुशामद करते पाऊँगा, जिसके लड़के ने आपकी लड़की को हर तरह बेइज्जत किया।

शेरअली : ओफ, तुम्हारी जली-कटी बातें मेरे दिल को हिलाकर मुझे बेईमान दगाबाज या विश्वासघाती की पदवी नहीं दिला सकतीं। उस गौहर की याद मेरे दिल की सच्ची तथा इन्साफपसन्द आँखों को फोड़कर नेकों की दुनिया में मुझको अन्धा नहीं बना सकती, जो बुजुर्गों की इज्जत को मिट्टी में मिला, मेरी बदनामी का झण्डा बन जहरीली हवा में उड़ती हुई आसमान की तरफ बढ़ती ही जाती थी, और जिसका गिरफ्तार होकर सजा पाना बल्कि इस दुनिया से उठ जाना मुझे पसन्द है। किसी नालायक के लिए लायक के साथ बुराई करना, किसी अधर्मी के लिए धर्मी का खून करना, किसी बेईमान के ईमान का सत्यानाश करना और किसी अविश्वासी के लिए विश्वासघात करना शेरअलीखाँ का काम नहीं है! मैं समझता था कि तुम्हारे दिल का प्याला सच्ची बहादुरी की शराब से भरा हुआ होगा और तुम दुनिया में नामवरी पैदा कर सकोगे, इसलिए मैं तुम्हारी सिफारिश करनेवाला था, मगर अब निश्चत हो गया कि तुम्हारी किस्मत का जहाज शिवदत्त के तूफान में पड़कर एक भारी पहाड़ से टक्कर खाया चाहता है, अस्तु, तुम यहाँ से चले जाओ और मुझसे किसी तरह की उम्मीद मत रक्खो, अगर मैं तुम्हारे बाप का दोस्त न होता और तुम मेरे दोस्त के लड़के न होते तो...

कल्याण : अफसोस, मैं इस समय आपकी यह लम्बी-चौड़ी वक्ता नहीं सुन सकता, क्योंकि समय कम है और काम बहुत करना है, बस आप इतना ही बताइए कि मैं आपसे किसी तरह की आशा रक्खूँ या नहीं?

शेरअली : नहीं, बल्कि इस बात की भी आशा मत रक्खो कि तुम्हें राजा बीरेन्द्रसिंह के साथ दुश्मनी करते देखकर मैं चुपचाप बैठा रहूँगा।

कल्याण : (क्रोध में आकर) क्या आप मेरी मदद अगर न करेंगे तो चुपचाप भी न बैठे रहेंगे?

शेरअली : हरगिज नहीं!

कल्याण : तो आप मेरे साथ दुश्मनी करेंगे?

शेरअली : अगर ऐसा करें तो हर्ज ही क्या है? जिसकी लोग इज्जत करते हों या जिसे दुनिया मोहब्बत की निगाह से देखती हो उसके साथ दुश्मनी करना बेशक बुरा है, मगर ऐसे के साथ बेमुरौवती करने में कुछ भी हर्ज नहीं है, जिसके हृदय की आँख फूट गयी हो, जिसे दुनिया में किसी तरह की इज्जत हासिल करने का शौक न हो, और जिसे लोग हमदर्दी की निगाह से न देखते हों।

कल्याण : (दाँत पीसकर) तो फिर सबसे पहिले मुझे आप ही का बन्दोबस्त करना पड़ा!!

इसके पहिले कि कल्याणसिंह की बात का शेरअलीखाँ कुछ जवाब दे बाहर से एक आवाज आयी–‘‘हाँ, यदि तेरे किये कुछ हो सके!’’

इस आवाज ने दोनों को चौंका दिया, मगर कल्याणसिंह ने ज्यादे देर तक राह देखना मुनासिब न जाना और उस कोठरी की तरफ बढ़कर जोर से ताली बजायी। शेरअलीखाँ समझ गया कि कल्याणसिंह अपने साथियों को बुला रहा है, क्योंकि वह थोड़ी ही देर पहिले कह चुका था कि मेरे साथ सौ सिपाही भी आये है, जो हुक्म देने के साथ ही इस कोठरी में से मेरी ही तरह निकल सकते हैं।

कल्याणसिंह ताली बजाता हुआ कोठरी की तरफ बढ़ा और उसका मतलब समझकर शेरअलीखाँ ने भी शीघ्रता से कमरे का दरवाजा अपने मददगारों को बुलाने की नियति से खोल दिया तथा उसी समय एक नकाबपोश हाथ में खंजर लिये कमरे के अन्दर पैर रखते देखा। शेरअलीखाँ ने पूछा ‘‘तुम कौन हो!’’ नकाबपोश ने जवाब दिया, ‘‘तुम्हारा मददगार!’’  

इससे ज्यादे बातचीत करने का मौका न मिला, क्योंकि कोठरी के अन्दर से कई आदमी हाथ में नंगी तलवार लिये हुए निकलते दिखायी दिये, जिन्हें कल्याणसिंह ने अपनी मदद के लिये बुलाया था।

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