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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8402
आईएसबीएन :978-1-61301-029-7

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...

दसवाँ बयान


कुँअर इन्द्रजीतसिंह, आनन्दसिंह और राजा गोपालसिंह बात कर ही रहे थे कि वही औरत चमेली की टट्टियों में फिर दिखायी दी और इन्द्रजीतसिंह ने चौंककर कहा, देखिए वह फिर निकली!’’

राजा गोपालसिंह ने बड़े क्रोध से उसे देखा और यह कहते हुए उस तरफ रवाना हुए कि आप दोनों भाई इसी जगह बैठे रहिए, मैं इसकी खबर लेने जाता हूँ।

जब तक राजा गोपालसिंह चमेली की टट्टी के पास पहुँचे, तब तक वह औरत पुनः अन्तर्ध्यान हो गयी। गोपालसिंह थोड़ी देर तक उन्हीं पेड़ों में घूमते-फिरते रहे, इसके बाद इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह के पास लौट आये।

इन्द्रजीत : कहिए क्या हुआ?

गोपाल : हमारे पहुँचने के पहिले ही वह गायब हो गयी, गायब क्या हो गयी, बस उसी दर्जे में चली गयी जिसमें देवमन्दिर है। मेरा इरादा तो हुआ कि उसका पीछा करूँ, मगर यह सोचकर लौट आया कि उसका पीछा करके उसे गिरफ्तार करना घण्टे-दो-घण्टे का काम नहीं है, बल्कि दो-चार पहर या दो एक दिन का काम है, क्योंकि देवमन्दिर वाले दर्जे का बहुत बड़ा विस्तार है, तथा छिप रहने योग्य स्थानों की भी वहाँ कमी नहीं है, और मुझे इस समय इतनी फुर्सत नहीं। इसका खुलासा हाल तो इस समय आप लोगों से न कहूँगा, हाँ, इतना जरूर कहूँगा कि जिस समय मैं अपनी तिलिस्मी किताब लेने गया था, उसी समय एक और भी दुःखदायी खबर सुनने में आयी, जिसके सबब से कुछ दिन के लिए जमानिया तथा आप दोनों भाइयों का साथछोड़ना आवश्यक हो गया है और दो घण्टे के लिए भी यहाँ रहना मैं पसन्द नहीं करता, फिर भी कोई चिन्ता की बात नहीं है, आप लोग शौक से इस तिलिस्म के जिस हिस्से को तोड़ सकें-तोड़ें, मगर इस औरत का, जो अभी दिखायी दी थी, बहुत ध्यान रक्खें, मेरा दिल यही कहता है कि मेरी तिलिस्मी किताब इसी औरत ने चुरायी है, क्योंकि यदि ऐसा न होता तो वह यहाँ तक कदापि नहीं पहुँच सकती थी।

इन्द्रजीत : यदि ऐसा हो तो कह सकते हैं कि वह हम लोगों के साथ भी दगा किया चाहती है।

गोपाल : निःसन्देह ऐसा है, परन्तु यदि आप लोग उसकी तरफ से बेफिक्र न रहेंगे तो वह आप लोगों का कुछ भी बिगाड़ न सकेगी, साथ ही इसके यदि आप उद्योग में लगे रहेंगे तो वह किताब भी जो उसने चुरायी है, हाथ लग जायेगी।

इन्द्रजीत : जो कुछ आपने आज्ञा दी है, मैं उस पर विशेष ध्यान रक्खूँगा, मगर मालूम होता है कि आपने कोई बहुत दुःखदाई खबर सुनी है, क्योंकि यदि ऐसा न होता तो इस अवस्था में अपनी तिलिस्मी किताब खो जाने की तरफ ध्यान न देकर, आप यहाँ से जाने का इरादा न करते!

आनन्द : और जब आप कही चुके हैं कि उसका खुलासा हाल न कहेंगे तो हम लोग भी पूछ नहीं सकते!

गोपाल : निःसन्देह ऐसा ही है, मगर कोई चिन्ता नहीं, आप लोग बुद्धिमान हैं और जैसा उचित समझें, करें। हाँ, एक बात मुझे और भी कहनी है!

इन्द्रजीत : वह क्या?

गोपाल : (एक लपेटा हुआ कागज लालटेन के सामने रखकर) जब मैं उस औरत के पीछे चमेली की टट्टियों में गया तो वह औरत तो गायब हो गयी, मगर उसी जगह यह लपेटा हुआ कागज ठीक दरवाजे के ऊपर ही पड़ा हुआ मुझे मिला, पढ़ो तो सहीं इसमें क्या लिखा है।

इन्द्रजीतसिंह ने उस कागज को खोलकर पढ़ा, यह लिखा हुआ था–‘‘यहाँ कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि न तो आप लोग मुझे जानते हैं और न मैं आप लोगो को जानती हूँ, इसके अतिरिक्त जब तक मुझे इस बात का निश्चय न हो जाय कि आप लोग मेरे साथ किसी तरह की बुराई न करेंगे, तब तक मैं आप लोगों को अपना परिचय भी नहीं दे सकती हूँ कि मैं बहुत दिनों से कैदियों की तरह इस तिलिस्म में पड़ी हूँ। यदि आप दयावान और सज्जन हैं तो इस कैद से अवश्य छुड़ावेंगे।

-कोई दुःखिनी।’’

गोपाल (आश्चर्य से) यह तो एक दूसरी ही बात निकली!

इन्द्रजीत : ठीक है, मगर इसके लिखने पर हम लोग विश्वास ही क्योंकर कर सकते हैं?

गोपाल : आप सच कहते हैं, हम लोगों को इसके मिलने पर यकायक विश्वास न करना चाहिए। खैर, मैं जाता हूँ। आप जो उचित समझेंगे करेंगे। आइए, इस समय हम लोगों एक साथ बैठके भोजन तो कर लें, फिर क्या जाने कब और क्योंकर मुलाकात हो।

इतना कहकर गोपालसिंह ने वह चंगेर जो अपने-साथ लाये थे और जिसमें खाने की अच्छी-अच्छी चीजें थीं, आगे रक्खीं और तीनों भाई एक साथ भोजन और बीच-बीच में बातचीत भी करने लगे। जब खाने से छुट्टी मिली तो तीनों भाइयों ने नहर में से जल पीया और मुँह धोकर निश्चिन्त हुए, इसके बाद कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह को बहुत कुछ समझाबुझा और वहाँ से देवमन्दिर में जाने का रास्ता बताकर, राजा गोपालसिंह वहाँ से रवाना हो गये।

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