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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8402
आईएसबीएन :978-1-61301-029-7

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...

बारहवाँ बयान


काशीपुरी से निकलकर भूतनाथ ने सीधे चुनारगढ़ का रास्ता लिया। पहर दिन चढ़े तक भूतनाथ और बलभद्रसिंह घोड़े पर सवार बराबर चले गये और इस बीच उन दोनों में किसी तरह की बात-चीत नहीं हुई। जब वे दोनों जंगल के किनारे पहुँचे तो बलभद्रसिंह ने भूतनाथ से कहा, ‘‘मैं थक गया हूँ, घोड़े पर मजबूती के साथ नहीं बैठ सकता। वर्षों की कैद ने मुझे बिल्कुल बेकाम कर दिया। अब मुझमें दस कदम भी चलने की हिम्मत न रही, अगर कुछ देर ठहरकर आराम कर लेते तो अच्छा होता।’’

भूतनाथ : बहुत अच्छा, थोड़ी दूर और चलिए, इसी जंगल में किसी अच्छे ठिकाने, जहाँ पानी भी मिल सकता हो ठहरकर आराम कर लेंगे।

बलभद्र : अच्छा तो अब घोड़े को तेज मत चलाओ।

भूतनाथ : (घोड़े की तेजी कम करके) बहुत खूब।

बलभद्र : क्यों भूतनाथ, क्या वास्तव में तुमने मुझे कैद से छुड़ाया है, या मुझे धोखा हो रहा है?

भूतनाथ: (मुस्कुराकर) क्या आपको इस मैदान की हवा मालूम नहीं होती? या आप अपने को घोड़े पर सवार स्वतन्त्र नहीं देखते? फिर ऐसा सवाल क्यों करते हैं।

बलभद्र : यह सब कुछ ठीक है, मगर अभी तक मुझे विश्वास नहीं होता कि भूतनाथ के हाथों से मुझे मदद पहुँचेगी, यदि तुम मेरी मदद किया ही चाहते तो क्या आज तक मैं कैदखाने ही में सड़ा करता! क्या तुम नहीं जानते थे कि मैं कहाँ और किस अवस्था में हूँ?

भूतनाथ : बेशक मैं नहीं जानता था कि आप कहाँ और कैसी अवस्था में हैं। उन पुरानी बातों को जाने दीजिए, मगर इधर जबसे मैंने आपकी लड़की श्यामा (कमलिनी) की ताबेदारी की है, तबसे बल्कि इससे भी बरस-डेढ-बरस पहिले ही से मुझे आपकी खबर न थी। मुझे अच्छी तरह विश्वास दिलाया गया था कि अब आप इस दुनिया में नहीं रहे।  

यदि आज के दो महीने पहिले भी मुझे मालूम हो गया होता कि आप जीते हैं और कहीं कैद हैं तो मैं आपको कैद से छुड़ाकर कृतार्थ हो गया होता।

बलबद्र : (आश्चर्य से) क्या श्यामा जीती है?

भूतनाथ : हाँ, जीती है।

बलभद्र : तो लाडिली भी जीती होगी?

भूतनाथ : हाँ वह भी जीती है।

बलभद्र : ठीक है, क्योंकि वे दोनों मेरे साथ उस समय जमानिया में न आयी थी, जब लक्ष्मीदेवी की शादी होनेवाली थी। पहिले मुझे लक्ष्मीदेवी के भी जीते रहने की आशा न थी, मगर कैद होने के थोड़े ही दिन बाद मैंने सुना कि लक्ष्मीदेवी जीती है, और जमानिया की रानी तथा मायारानी कहलाती हैं।

भूतनाथ : लक्ष्मीदेवी के बारे में जो कुछ आपने सुना सब झूठ है, जमाने में बहुत बड़ा उलट-फेर हो गया, जिसकी आपको कुछ भी खबर नहीं। वास्तव में मायारानी कोई दूसरी औरत थी और लक्ष्मीदेवी ने भी बड़े-बड़े दुःख भोगे, परन्तु ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए, जिसने दुःख के अथाह समुद्र में डूबते हुए लक्ष्मीदेवी के बेड़े को पार कर दिया। मुझे यह बात पहिले मालूम न थी कि मायारानी वास्तव में लक्ष्मीदेवी नहीं है।

बलभद्र : क्या वास्तव में ऐसी ही बात है? क्या सचमुच मैं अपनी तीनों बेटियों को देखूँगा? क्या, तुम मुझ पर किसी तरह का जुल्म न करोगे और मुझे छोड़ दोगे?

भूतनाथ : अब मैं किस तरह अपनी बातों पर आपको विश्वास दिलाऊँ। क्या आपके पास कोई ऐसा सबूत है, जिससे मालूम हो कि मैंने आपके साथ बुराई की?

बलभद्र : सबूत तो मेरे पास कोई भी नहीं, मगर मायारानी के दारोगा और जैपाल की जुबानी मैंने तुम्हारे विषय में बड़ी-बड़ी बातें सुनी थीं, और कुछ दूसरे जरिये से भी मालूम हुआ है।

भूतनाथ : तो बस या तो आप दुश्मनों की बातों को मानिए या मेरी इस खैरखाही को देखिए कि कितनी मुश्किल से आपका पता लगाया, और किस तरह जान पर खेल कर छुड़ा ले चला हूँ।

बलभद्र : (लम्बी साँस लेकर) खैर, जो हो, आज यदि तुम्हारी बदौलत मैं किसी तरह की तकलीफ न पाकर, अपनी तीनों लड़कियों से मिलूँगा तो तुम्हारा कसूर यदि कुछ हो तो मैं माफ करता हूँ।

भूतनाथ : इसके लिए मैं आपको धन्यवाद देता हूँ। लीजिए यह जगह बहुत अच्छी है, घने पेड़ों की छाया है और पगडण्डी से बहुत हटकर भी है!

बलभद्र : ठीक तो है, अच्छा तुम उतरो और मुझे भी उतारो।

दोनों ने घोड़ा रोका, भूतनाथ घोड़े से नीचे उतर पड़ा और उसकी बागडोर एक डाल से अड़ाने बाद धीरे से बलभद्रसिंह को भी नीचे उतारा। जीन पोश बिछाकर उन्हें आराम करने के लिए कहा, और तब दोनों घोड़ों की पीठ खाली करके लम्बी बागडोर के सहारे एक पेड़ से बाँध दिया, जिसमें वे भी लोट-पोटकर थकान मिटा लें और घास चरें।

यहाँ पर भूतनाथ ने बलभद्रसिंह की बड़ी खातिर की। ऐयारी के बटुए में से अस्तुरा निकालकर अपने हाथ से उनकी हजामत बनायी, दाढ़ी मूड़ी, कैंची लगाकर सर के बाल दुरुस्त किये, इसके बाद स्नान कराया और बदलने के लिए यज्ञोपवीत दिया। आज बहुत दिनों बाद बलभद्रसिंह ने चश्में के किनारे बैठकर सन्ध्यावन्दन किया और देर तक सूर्य भगवान की स्तुति करते रहे जब सब तरह से दोनों आदमी निश्चिन्त हुए तो भूतनाथ ने खुर्जी में से कुछ मेवा निकालकर खाने के लिए बलभद्रसिंह को दिया और आप भी खाया। अब बलभद्रसिंह को निश्चय हो गया कि भूतनाथ मेरे साथ दुश्मनी नहीं करता और उसने नेकी की राह से मुझे भारी कैदखाने से छुड़ाया है।

बलभद्र : गदाधरसिंह, शायद तुमने ही थोड़े दिनों से अपना नाम भूतनाथ रक्खा है?

भूतनाथ : जी हाँ, आजकल मैं इसी नाम से मशहूर हूँ।

बलभद्र : अस्तु, मैं बड़ी खुशी से तुम्हें धन्यवाद देता हूँ, क्योंकि अब मुझे निश्चय हो गया कि तुम मेरे दुश्मन नहीं हो।

भूतनाथ : (धन्यवाद के बदले में सलाम करके) मगर मेरे दुश्मनों ने मेरी तरफ से आपके कान बहुत भरे हैं और वे बातें ऐसी हैं कि यदि आप राजा बीरेन्द्रसिंह के सामने उन्हें कहेंगे तो मैं उनकी आँखों से उतर जाऊँगा।

बलभद्र : नहीं नहीं, मैं प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि तुम्हारे विषय में कोई ऐसी बात किसी के सामने न कहूँगा, जिससे तुम्हारा नुकसान हो।

भूतनाथ : (पुनः सलाम करके) और मैं आशा करता हूँ कि समय पड़ने पर मेरी सहायता भी करेंगे?

बलभद्र : मैं सहायता करने योग्य तो नहीं हूँ, मगर हाँ, यदि कुछ कर सकूँगा तो अवश्य करूँगा।

भूतनाथ : इत्तिफाक से राजा बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों ने जैपालसिंह को गिरफ्तार कर लिया है, जो आपकी सूरत बनकर लक्ष्मीदेवी को धोखा देने गया था। जब उसे अपने बचाव का कोई ढंग न सूझा तो उसने आपको मार डालने का दोष मुझपर लगाया। मैं स्वप्न में भी नहीं सोच सकता था कि आप जीते हैं, परन्तु ईश्वर का धन्यवाद देना चाहिए कि यकायक आपके जीते रहने का शक मुझे हुआ और धीरे-धीरे वह पक्का होता गया तथा मैं आपकी खोज करने लगा। अब आशा है कि आप स्वयं मेरी तरफ से जैपालसिंह का मुँह तोड़ेंगे।

बलभद्र : (क्रोध से) जैपाल ने मेरे मरने का दोष तुम पर लगा के आप बचा चाहता है?

भूतनाथ : जी हाँ।

बलभद्र, : उसकी ऐसी-की-तैसी! उसने तो मुझे ऐसी-ऐसी तकलीफें दी हैं कि मेरा ही जी जानता है। अच्छा यह बताओ इधर क्या-क्या मामले हुए और राजा बीरेन्द्रसिंह को जमानिया तक पहुँचने की नौबत क्यों आयी?

भूतनाथ ने जबसे कमलिनी की ताबेदारी कबूल की थी, कुछ हाल कुँअर इन्द्रजीतसिंह, आनन्दसिंह, मायारानी, दारोगा, कमलिनी, दिग्विजयसिंह, और राजा गोपालसिंह वगैरह का बयान किया, मगर अपने और जैपालसिंह के मामले में कुछ घटा-बढ़ाकर कहा। बलभद्रसिंह ने बड़े गौर और ताज्जुब से सब बातें सुनीं और भूतनाथ की खैरखाही तथा मर्दानगी की बड़ी तारीफ की। थोड़ी देर तक और बातचीत होती रही। इसके बाद दोनों आदमी घोड़े पर सवार हो चुनारगढ़ की तरफ रवाना हुए और पहर भर के बाद उस तलिस्मी के पास पहुँचे, जो चुनारगढ़ से थोड़ी दूर पर था, और जिसे राजा बीरेन्द्रसिंह ने फतह किया (तोड़ा) था।

काशी से चुनारगढ़ बहुत दूर न होने पर भी दोनों को वहाँ पहुँचने में देर हो गयी। एक तो इसलिए कि दुश्मनों के डर से सदर राह छोड़ भूतनाथ चक्कर लेता हुआ गया था, दूसरे रास्ते में ये दोनों बहुत देर तक अटके रहे, तीसरे कमजोरी के सबब से बलभद्रसिंह घोड़े को तेज चला भी नहीं सकते थे।

पाठक, इस तिलिस्मी खँडहर की अवस्था आज दिन वैसी नहीं है, जैसी आपने पहले देखी, जब राजा बीरेन्द्रसिंह ने तिलिस्म को तोड़ा था। आज इसके चारों तरफ राजा सुरेन्द्रसिंह की आज्ञानुसार बहुत बड़ी इमारत बन गयी है, और अभी तक बन रही है। इस इमारत को जीतसिंह ने अपने ढंग का बनवाया था। इसमें बड़े-बड़े तहखाने सुरंग और गुप्त कोठरियाँ जिनके दरवाजों का पता लगाना कठिन ही नहीं, असम्भव था, बनकर तैयार हुई हैं, और अच्छे-अच्छे कमरे सहन, बालाखाने इत्यादि जीतसिंह की बुद्धिमानी का नमूना दिखा रहे हैं। बीच में एक बहुत बड़ा रमना छूटा हुआ है, जिसके बीचोबीच में तो वह खँडहर है और उसके चारों तरफ बाग लग रहा है। खँडहर की टूटी हुई इमारत का काम बिल्कुल खतम हो चुका है, केवल बाहरी हिस्से में कुछ काम लगा हुआ है, सो भी इस दस-पन्द्रह दिन से ज्यादे का काम नहीं है। जिस समय बलभद्रसिंह को लिये भूतनाथ वहाँ पहुँचा, उस समय जीतसिंह भी वहाँ मौजूद थे और पन्नालाल रामनारायण और बद्रीनाथ को साथ लिये हुए फाटक के बाहर टहल रहे थे। पन्नालाल, रामनारायण और पण्डित बद्रीनाथ तो भूतनाथ को बखूबी पहिचानते थे। हाँ जीतसिंह ने शायद उन्हें नहीं देखा था, मगर तेजसिंह ने भूतनाथ की तस्वीर अपने हाथ से तैयार करके जीतसिंह और सुरेन्द्रसिह के पास भेजी थी, और उसकी विचित्र घटना का समाचार भी लिखा था।

भूतनाथ को दूर से आते हुए देखकर पन्नालाल ने जीतसिंह से कहा, देखिए भूतनाथ चला आ रहा है।’’

जीतसिंह : (गौर से भूतनाथ को देखकर) मगर यह दूसरा आदमी उसके साथ कौन है?

पन्नालाल : मैं इस दूसरे को तो नहीं पहचानता।

जीतसिंह : (बद्रीनाथ से) तुम पहिचानते हो?

इतने में भूतनाथ और बलभद्रसिंह भी वहाँ पहुँच गये। भूतनाथ ने घोड़े से उतरकर जीतसिंह को सलाम किया, क्योंकि वह जीतसिंह को बखूबी पहचानता था, इसके बाद धीरे से बलभद्रसिंह को भी घोड़े से नीचे उतारा और जीतसिंह की तरफ इशारा करके कहा। ‘‘ये तेजसिंह के पिता जीतसिंह हैं’’ और दूसरे ऐयारों का भी नाम बताया बलभद्रसिंह का भी परिचय सभों को देकर भूतनाथ ने जीतसिंह से कहा, ‘‘यही बलभद्रसिंह है, जिनका पता लगाने का बोझ मुझपर डाला गया था। ईश्वर ने मेरी इज्जत रख ली और मेरे हाथों इन्हें कैद से छुड़ाया! आप तो सब हाल सुन ही चुके होंगे?’’

जीतसिंह : हाँ मुझे सब हाल मालूम है तुम्हारे मुकदमे ने तो हम लोगों का दिल अपनी तरफ ऐसा खींच लिया है कि दिन-रात उसी का ध्यान रहता है, मगर तुम यकायक इस तरह कैसे आ निकले और इन्हें कहाँ पाया?

भूतनाथ : मैं इन्हें काशीपुर से छुड़ाकर लिये आ रहा हूँ, दुश्मनों के खौफ से दक्खिन दबता हुआ चक्कर देकर आना पड़ा, इसी से अब यहाँ पहुँचने की नौबत आयी, नहीं तो अब तक का चुनार पहुँच गया होता। राजा बीरेन्द्रसिंह की सवारी चुनार की तरफ रवाना हो गयी थी, इसलिए मैं भी इन्हें लेकर सीधे चुनार ही आया।

जीतसिंह : बहुत अच्छा किया कि यहाँ चले आये, कल राजा बीरेन्द्रसिंह भी यहाँ पहुँच जायँगे और उनका डेरा भी इसी मकान में पड़ेगा। किशोरी, कमिलनी और कमला वाला हृदय-विदारक समाचार तो तुमने सुना ही होगा?

भूतनाथ : (चौंककर) क्या क्या? मुझे कुछ भी नहीं मालूम!

जीतसिंह : (कुछ सोचकर) अच्छा आप लोग जरा आराम कर लीजिए तो सब हाल कहेंगे क्योंकि बलभद्रसिंह कैद की मुसीबत उठाने के कारण बहुत सुस्त और कमजोर हो रहे हैं। (पन्नालाल की तरफ देखकर) पूरब वाले नम्बर दो के कमरे में इन लोगों को डेरा दिलवाओ और हर तरह के आराम का बन्दोबस्त करो, इनकी खातिरदारी और हिफाजत तुम्हारे ऊपर है।

पन्नालाल : जो आज्ञा!

हमारे ऐयारों को इस बात की उत्कण्ठा बहुत ही बड़ी-चढ़ी थी कि किसी तरह भूतनाथ के मुकदमें का फैसला हो और उसकी विचित्र घटना का हाल जानने में आये क्योंकि इस उपन्यास भर में जैसा भूतनाथ का अद्भुत रहस्य है वैसा और किसी पात्र का नहीं है। यही कारण था कि उनको इस बात की बहुत बड़ी खुशी हुई कि भूतनाथ असल बलभद्रसिंह को छुड़ाकर ले आया, और कल राजा बीरेन्द्रसिंह के यहाँ आ पहुँचने पर इसका विचित्र हाल भी मालूम हो जायगा।

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