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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8402
आईएसबीएन :978-1-61301-029-7

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...

ग्यारहवाँ बयान


राजा गोपालसिंह के चले जाने के बाद दोनों कुमारों ने बातचीत करते-करते ही रात बिता दी और सुबह को दोनों भाई जरूरी कामों से छुट्टी पाकर फिर बाजेवाले कमरे की तरफ रवाना हुए। जिस राह से इस बाग में आये थे, वह दरवाजा अभी तक खुला हुआ था; उसी राह से होते हुए दोनों तिलिस्मीबाजे के पास पहुँचे। इस समय आनन्दसिंह अपने तिलिस्मी खंजर से रोशनी कर रहे थे।

दोनों भाइयों की राय हुई कि इस बाजे में जो भी कुछ बातें भरी हुई हैं, उन्हें एक दफे अच्छी तरह सुनकर याद कर लेना चाहिए, फिर जैसा होगा देखा जायगा, आखिर ऐसा ही किया। बाजे की ताली उनके हाथ लग ही चुकी थी और ताली लगाने की तरकीब उस तख्ती पर लिखी हुई थी, जो ताली के साथ मिली थी। अस्तु इन्द्रजीतसिंह ने बाजे की ताली लगायी और दोनों भाई उसकी आवाज गौर से सुनने लगे। जब बाजे का बोलना बन्द हुआ तो इन्द्रजीतसिंह ने आनन्दसिंह से कहा, ‘‘मैं बाजे की ताली लगाता हूँ और तिलिस्मी खंजर से रोशनी भी करता हूँ और तुम इस बाजे में से जो कुछ आवाज निकले संक्षेप रीति से लिखते चले जाओ।’’ आनन्दसिंह ने इसे कबूल किया और उसी किताब में जिसमें पहिले इन्द्रजीतसिंह इस बाजे की कुछ आवाज लिख चुके थे, लिखने लगे। पहिले वह आवाज लिख गये, जो अभी बाजे में से निकली थी। इसके बाद इन्द्रजीतसिंह ने इस बाजे का एक खटका दबाया और फिर ताली देकर आवाज सुनने तथा आनन्दसिंह लिखने लगे।

इस बाजे में जितनी आवाजें भरी हुई थीं, उनका सुनना और लिखना दो चार घण्टे का काम न था, बल्कि कई दिन का काम था, क्योंकि बाजा बहुत धीरे-धीरे चलकर आवाज देता था, और जो बात कुमार के समझ में न आती थी, उसे दोहराकर सुनना पड़ता था, अस्तु, आज चार घण्टे तक दोनों कुमार उस बाजे की आवाज सुनने और लिखने में लगे रहे, इसके बाद फिर उसी बाग में चले आये, जिसका जिक्र ऊपर आ चुका है। बाकी का दिन और रात, उसी बाग में बिताया और दूसरे और दिन सवेरे जरूरी कामों से छुट्टी पाकर फिर तहखाने में घुसे तथा बाजेवाले कमरे में आकर फिर बाजे की आवाज सुनने और लिखने के काम में लगे। इसी तरह दोनों कुमारों को बाजे की आवाज सुनने और लिखने के काम में कई दिन लगे और इसी बीच में दोनों कुमारों ने तीन दफे उस औरत को देखा, जिसका हाल पहिले लिखा जा चुका है, और जिसकी लिखी एक चीठी राजा गोपालसिंह के हाथ लगी थी। उस औरत के विषय में जो बातें लिखने योग्य हुईं, उन्हें हम यहाँ पर लिखते हैं।

राजा गोपालसिंह के जाने के बाद पहिली दफे जब वह औरत दिखायी दी, उस समय दोनों भाई नहर के किनारे बैठे बातचीत कर रहे थे। समय सन्ध्या का था और बाग की हरएक चीज साफ-साफ दिखायी दे रही थी। यकायक वह औरत उसी चमेली की झाड़ी में से निकलती दिखायी दी। वह दोनों कुमारों की तरफ तो नहीं आयी, मगर उन्हें दिखाकर एक कपड़े का टुकड़ा जमीन पर रखने बाद पुनः चमेली की झाड़ी में घुसकर गायब हो गयी।

इन्द्रजीतसिंह की आज्ञा पाकर आनन्दसिंह वहाँ गये और उस टुकड़े को उठा लाये, उस पर किसी तरह के रंग से यह लिखा हुआ था–

‘‘सत्पुरुषों के आगमन से दीन-दुखिया प्रसन्न होते हैं, और सोचते हैं कि अब हमारा भी कुछ-न-कुछ भला होगा! मुझ दुखिया को भी इस तिलिस्म में सत्पुरुषों की बाट जोहते और ईश्वर से प्रार्थना करते हुए दिन बीत गये, परन्तु अब आप लोगों के आने से भलाई की आशा जान पड़ने लगी है। मेरी बुराई नहीं हो सकती, तथापि इस कारण से कि बिना समझे दोस्त-दुश्मन का निश्चय कर लेना, नीति के विरुद्ध है, मैं आपकी सेवा में उपस्थिति न हुई। अब आशा है कि आप अनुग्रहपूर्वक अपना परिचय देकर मेरा भ्रम दूर करेंगे।  

   –इन्दिरा।’’

इस पत्र के पढ़ने से दोनों कुमारों को बड़ा ताज्जुब हुआ और इन्द्रजीतसिंह की आज्ञानुसार आनन्दसिंह ने उसके पत्र का यह उत्तर लिखा–

‘‘हम लोगों की तरफ से किसी तरह का खुटका न रक्खो। हम लोग राजा बीरेन्द्रसिंह के लड़के हैं, और इस तिलिस्मी को तोड़ने को लिये यहाँ आये हैं। तुम बेखटके अपना हाल हमसे कहो, हम लोग निःसन्देह तुम्हारा दुःख दूर कहेंगे।’’

यह चीठी चमेली की झाड़ी में उसी हिफाजत के साथ रख दी गयी, जहाँ से उस औरत की चीठी मिली थी। दो दिन तक वह औरत दिखायी न दी, मगर तीसरे दिन जब दोनों कुमार बाजेवाले तहखाने में से लौटे और उस चमेली की टट्टी के पास गये तो ढूँढने पर आनन्दसिंह को अपनी लिखी हुई चीठी का जवाब मिला। यह जवाब भी एक छोटे से कपड़े के टुकड़े पर लिखा हुआ था, जिसे आनन्दसिंह ने पढ़ा, मतलब यह था–

‘‘यह जानकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई कि आप राजा बीरेन्द्रसिंह के लड़के हैं, जिन्हें मैं बहुत अच्छी तरह जानती हूँ, इसलिए आपकी सेवा में बेखटके उपस्थित हो सकती हूँ, मगर राजा गोपालसिंह से डरती हूँ, जो आपके पास आया करते हैं।        

–इन्दिरा।’’

पुनः कुँअर इन्द्रजीतसिंह की तरफ से यह जवाब लिखा गया–

‘‘हम प्रतिज्ञा करते हैं की कि राजा गोपालसिंह भी तुम्हें किसी तरह का कष्ट न देंगे।’’

यह चीठी भी उसी मामूली ठिकाने पर रख दी गयी और फिर दो रोज तक इन्दिरा का कुछ हाल मालूम न हुआ। तीसरे दिन सन्ध्या होने के पहिले जब कुछ-कुछ दिन बाकी था और दोनों कुमार उसी बाग में नहर के किनारे बैठे बातचीत कर रहे थे यकायक उसी चमेली की झाड़ी में से हाथ में लालटेन लिये निकलती हुई इन्दिरा दिखायी पड़ी। वह सीधे उस तरफ रवाना हुई, जहाँ दोनों कुमार नहर के किनारे बैठे हुए थे, जब उनके पास पहुँची लालटेन जमीन पर रखकर प्रणाम किया और हाथ जोड़कर सामने खड़ी हो गयी। इसकी सूरत-शक्ल के बारे में जो कुछ लिखना था, ऊपर लिख चुके हैं, यहाँ पर पुनः लिखने की आवश्यकता नहीं है। हाँ, इतना जरूर कहेंगे कि इस समय इसकी पोशाक में फर्क था। इन्द्रजीतसिंह ने बड़े गौर से इसे देखा और कहा, ‘‘बैठ जाओ और निडर होकर अपना हाल कहो।’’

इन्दिरा : (बैठकर) इसीलिए तो मैं सेवा में उपस्थित हुई हूँ कि अपना आश्चर्यजनक हाल आपसे कहूँ। आप प्रतापी राजा बीरेन्द्रसिंह के लड़के हैं, और हमलोगों को दुःख के समुद्र से निकाल कर बाहर करें।

इन्द्रजीत : (आश्चर्य से) हम लोगों! क्या तुम अकेली नहीं हो! क्या तुम्हारे साथ कोई और भी इस तिलिस्म में दुःख भोग रहा है?

इन्दिरा : जी हाँ, मेरी माँ भी इस तिलिस्म के अन्दर बुरी अवस्था में पड़ी है। मैं चलने-फिरने योग्य भी हूँ, परन्तु वह बेचारी तो हर तरह से लाचार है। आप मेरा किस्सा सुनेंगे तो आश्चर्य करेंगे और निःसन्देह आपको हम लोगों पर दया आवेगी।

इन्द्रजीत : हाँ हाँ, हम सुनने के लिए तैयार हैं, कहो और शीघ्र कहो। इन्दिरा अपना किस्सा शुरू ही किया चाहती थी कि उसकी बिगाड़ निगाह यकायक राजा गोपालसिंह पर जा पड़ी, जो उसके सामने और दोनों कुमारों के पीछे की तरफ से हाथ में लालटेन लिये हुए आ रहे थे। वह चौंककर उठ खड़ी हुई और उसी समय कुँअर इन्द्रजीतसिंह तथा आनन्दसिंह ने भी घूमकर राजा गोपालसिंह को देखा। जब राजा साहब दोनों कुमारों के पास पहुँचे तो इन्दिरा ने प्रणाम किया और हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी। कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का चेहरा खुशी से दमक रहा था, और वे हर तरह से प्रसन्न मालूम होते थे।

इन्द्रजीत : (गोपालसिंह से) आपने तो कई दिन लगा दिये।

गोपाल : हाँ, एक ऐसा ही मामला आ पड़ा था कि जिसका पूरा पता लगाये बिना यहाँ आ न सका, पर आज मैं अपने पेट में ऐसी-ऐसी खबरें भरके लाया हूँ कि जिन्हें सुनकर आप लोग बहुत प्रसन्न होंगे और साथ ही इसके आश्चर्य भी करेंगे। मैं सब हाल आपसे कहूँगा, मगर (इन्दिरा की तरफ इशारा करके) इस लड़की का हाल सुन लेने के बाद। (अच्छी तरह देखकर) निःसन्देह इसकी सूरत उस पुलती की तरह ही है।

आनन्द : कहिए भाईजी, अब तो सच्चा ठहरा न!

गोपाल : बेशक, तो क्या इसने अपना हाल आप लोगों से कहा?

इन्द्रजीत : जी यह अपना हाल कहा ही चाहती थी कि आप दिखायी पड़ गये। यह यकायक हम लोगों के पास नहीं आयी, बल्कि पत्र द्वारा इसने पहिले मुझसे प्रतिज्ञा करा ली कि हम लोग इसका दुःख दूर करेंगे और आप (राजा गोपालसिंह) भी इस पर खफा न होंगे।

गोपाल : (ताज्जुब से) मैं इस पर क्यों खफा होने लगा! (इन्दिरा से) क्योंजी तुम्हें मुझसे डर क्यों पैदा हुआ?

इन्दिरा : इसलिए कि मेरा किस्सा, आपके किस्से से बहुत सम्बन्ध रखता है, और हाँ इतना मैं भी इसी समय कह देना उचित समझती हूँ कि मेरा चेहरा, जिसे आप लोग देख रहें हैं,असली नहीं बनावटी है। यदि आज्ञा हो तो इसी नहर के जल से मैं मुँह धो लूँ, तब आश्चर्य नहीं कि आप लोग मुझे पहिचान लें।

गोपाल :( ताज्जुब से)क्या मैं तुम्हें पहिचान लूँगा?

इन्दिरा  : यदि ऐसा हो तो आश्चर्य नहीं।

गोपाल : अच्छा अपना मुँह धो डालो।

इतना कहकर राजा गोपालसिंह लालटेन जमीन पर रखकर बैठ गए और कुँअर इन्द्रजीतसिंह तथा आनन्दसिंह को भी बैठने के लिए कहा। जब इन्दिरा अपना चेहरा साफ करने के लिए नहर के किनारे चलकर कुछ आगे बढ़ गई, तब इन तीनों में यों बात-चीत होने लगी–

इन्द्रजीतसिंह : हाँ, यह तो कहिए आप क्या खबर लायें हैं?

गोपाल : वह किस्सा बहत बड़ा है, पहिले इस लड़की का हाल सुन लें तो कहें। हाँ इसने अपना नाम क्या बताया था?

इन्द्रजीत : इन्दिरा।

गोपाल : (चौंककर) इन्दिरा!

इन्द्रजीत : जी, हाँ।

गोपाल : (सोचते हुए, धीरे से) कौनसी इन्दिरा? वह इन्दिरा तो नहीं मालूम पड़ती, कोई दूसरी होगी, मगर शायद वही हो। हाँ, वह तो कह चुकी है कि मेरी सूरत बनावटी है, आश्चर्य नहीं कि चेहरा साफ करने पर वही निकले, अगर वही हो तो बहुत अच्छा है!

इन्द्रजीत : खैर, वह आती ही है सब हाल मालूम हो जायेगा, तब तक अपनी अनूठी खबरों में से दो एक सुनाइए।

गोपाल : यहाँ से जाने के बाद मुझे रोहतासगढ़ का पूरा-पूरा हाल मालूम हुआ है, क्योंकि आज कल राजा बीरेन्द्रसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह, भैरोंसिंह, तारासिंह, किशोरी, कामिनी, कमलिनी, लाडली और मेरी स्त्री लक्ष्मीदेवी इत्यादि सब कोई वहाँ ही जुटे हुए हैं, और एक अजीबो गरीब मुकदमा पेश है।

इन्द्रजीत : (चौंककर) लक्ष्मीदेवी! क्या उनका पता लग गया?

गोपाल : हाँ, लक्ष्मीदेवी वही तारा निकली जो कमलिनी के यहाँ उसकी सखी बनकर रहती थी और जिसे आप जानते हैं।

इन्द्रजीत : (आश्चर्य से) वह लक्ष्मीदेवी थी!

गोपाल : हाँ, वह लक्ष्मीदेवी ही थी, जो बहुत दिनों से अपने को छिपाए हुए दुश्मनों से बदला लेने का मौका ढ़ूँढ रही थी, और समय पाकर अनूठे ढंग से यकायक प्रगट हो गई। उसका किस्सा भी बड़ा अनूठा है।

आनन्द : तो क्या आप रोहतासगढ़ गए थे?

गोपल :  नहीं

इन्द्रजीत : सो क्यों?  इतना सब हाल सुनने पर भी आप लक्ष्मीदेवी को देखने के लिए, वहाँ क्यों नहीं गए?

गोपाल : वहाँ न जाने का सबब भी बतावेंगे।

इन्द्रजीत : खैर, यह बताइए कि लक्ष्मीदेवी यकायक किस अनूठे ढंग से प्रकट हो गयी और रोहतासगढ़ में कौन सा अजीबोगरीब मुकदमा पेश है?

गोपाल : मैं सब हाल आप से कहूँगा, देखिए वह इन्दिरा आ रही है, पर कोई चिन्ता नहीं, अगर यह वही इन्दिरा है जो मैं सोचे हुआ हूँ, तो मैं उसके सामने भी सब हाल बेखटके कह दूँगा।

पर कोई चिन्ता नहीं, अगर यह वही इन्दिरा है जो मैं सोचे हुआ हूँ, जो उसके सामने भी सब हाल बेखटके कह दूँगा।

इतने में ही अपना चेहरा साफ करके इन्दिरा भी वहाँ आ पहुँची। चेहरा धोने व साफ करने से उसकी खूबसूरती में किसी तरह की कमी नहीं आया थी, बल्कि वह पहिले से ज्यादे खूबसूरत मालूम पड़ती थी, हाँ अगर कुछ फर्क पड़ा था, तो केवल इतना ही कि पहिले के अब वह कम उम्र की मालूम पड़ती थी।

इन्दिरा के पास आते ही और उसकी सूरत देखते ही गोपालसिंह झट उठ खड़े हुए और उसका हाथ पकड़कर बोला, ‘‘हैं, इन्दिरा! बेशक वह तू वही इन्दिरा है, जिसके होने की मैं आशा करता था! यद्यपि कई वर्षों के बाद आज किस्मत ने तेरी सूरत दिखायी है, और जब मैंने आखिरी मर्तबे तेरी सूरत देखी थी, तब तू निरी लड़की थी, मगर फिर भी मैं तुझे आज भी पहिचाने बिना नहीं रह सकता। तू मुझसे डर मत और अपने दिल में किसी तरह का खटका भी मत ला, मुझे खूब मालूम हो गया है कि मेरे मामले में तू बिल्कुल बेकसूर है। मैं तुझे धर्म की लड़की समझता हूँ, और समझूँगा,  मेरे सामने बैठ जा और अपना अनूठा किस्सा कह। हाँ, पहिले यह तो बता कि तेरी माँ कहाँ है? कैद से छूटने पर मैंने उसकी बहुत खोज की, मगर कुछ भी पता न लगा। निःसन्देह तेरा किस्सा बड़ा ही अनूठा होगा!

इन्दिरा : (बैठने के बाद आँसू से भरी हुई आँखों को आँचल से पोंछती हुई) मेरी माँ  बेचारी भी इसी तिलिस्म में कैद है।

गोपाल : (ताज्जुब से) इसी तिलिस्म में कैद है!

इन्दिरा : जी हाँ, इसी तिलिस्म में कैद है। बड़ी कठिनाइयों से उसका पता लगाती हुई, मैं यहाँ तक पहुँची। अगर मैं यहाँ तक पहुँचकर उससे न मिलती तो निःसन्देह वह अब तक मर गयी होती। मगर न तो मैं उसे कैद से छुड़ा सकती हूँ, और न स्वयं इस तिलिस्म के बाहर ही निकल सकती हूँ। दस-पन्द्रह दिन के लगभग हुए होंगे कि अकस्मात एक किताब मेरे हाथ लग गयी, जिसके पढ़ने से इस तिलिस्म का कुछ-कुछ हाल मुझे मालूम हो गया है, और मैं यहाँ घूमने-फिरने लायक भी हो गयी हूँ, मगर इस तिलिस्म के बाहर नहीं निकल सकती। क्या कहूँ उस किताब का मतलब पूरा-पूरा समझ में नहीं आता, यदि मैं उसे अच्छी तरह समझ सकती तो निःसन्देह यहाँ से बाहर जा सकती और आश्चर्य नहीं कि अपनी माँ को छुड़ा लेती।

गोपाल : वह किताब कौनसी है और कहाँ है?

इन्दिरा : (कपड़े के अन्दर से एक छोटीसी किताब निकालकर और गोपालसिंह के हाथ में देकर) लीजिए यही है।

यह किताब लम्बाई-चौड़ाई में बहुत छोटी थी और उसके अक्षर भी बड़े ही महीन थे, मगर इसे देखते ही गोपालसिंह का चेहरा खुशी  से दमक उठा और उन्होंने इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह की तरफ देखकर कहा, ‘‘यही मेरी वह किताब है, जो खो गयी थी। (किताब चूमकर) आह इसके खो जाने से तो मैं अधमूआ-सा हो गया था! (इन्दिरा से) यह तेरे हाथ कैसे लग गयी?’’

इन्दिरा : इसका हाल भी बड़ा विचित्र है, अपना किस्सा जब मैं कहूँगी तो उसी के बीच में वह भी आ जायगा।

इन्द्रजीत : (गोपालसिंह से) मालूम होता है कि इन्दिरा का किस्सा बहुत बड़ा है, इसलिए आप पहिले रोहतासगढ़ का हाल सुना दीजिए तो एक तरफ से दिलजमई हो जाय।

कमलिनी के मकान की तबाही, किशोरी कमालिनी और तारा की तकलीफ, नकली बलभद्रसिंह के कारण भूतनाथ की परेशानी, लक्ष्मीदेवी, दारोगा और शेरअलीखाँ का रोहतासगढ़ में गिरफ्तार होना, राजा बीरेन्द्रसिंह का वहाँ पहुँचना, भूतनाथ के मुकदमें की पेशी, कृष्णाजिन्न का पहुँचकर इन्दिरा वाले कलमदान का पेश करना और असली बलभद्रसिंह का पता लगाने के लिए भूतनाथ को छुट्टी दिला देना इत्यादि, जो कुछ बातें हम ऊपर लिख आये हैं, वह सब हाल राजा गोपालसिंह ने इन्दिरा के सामने ही दोनों कुमारों से बयान किया और सभी ने बड़े गौर से सुना।

इन्दिरा : बड़े आश्चर्य की बात है कि वह कलमदान, जिस पर मेरा नाम लिखा हुआ था, कृष्णाजिन्न के हाथ क्योंकर लगा। हाँ, उस कलमदान का हमारे कब्जे से निकल जाना बहुत ही बुरा हुआ। यदि आज वह मेरे पास होता तो मैं बात-की-बात में भूतनाथ के मुकदमे का फैसला करा देती, मगर अब क्या हो सकता है।

गोपाल : इस समय वह कलमदान राजा बीरेन्द्रसिंह के कब्जे में है, इसलिए उसका तुम्हारे हाथ लगना कोई बड़ी बात नहीं है।

इन्दिरा : ठीक है, मगर उन चीजों का मिलना तो अब कठिन हो गया, जो उसके अन्दर थीं और उन्हीं चीजों का मिलना सबसे ज्यादे जरूरी था।

गोपाल : ताज्जुब नहीं कि वे चीजें भी कृष्णाजिन्न के पास हों और वह महाराज के कहने से तुम्हें दे दें।

इन्द्रजीत : या उन चीजों से स्वयं कृष्णाजिन्न वह काम निकालें जो तुम कर सकती हो?

इन्दिरा : नहीं, उन चीजों का मतलब जितना मैं बता सकती हूँ, उतना कोई दूसरा नहीं बता सकता।

गोपाल : खैर, जो कुछ होगा देखा जायगा।

आनन्द : (गोपालसिंह से) यह सब हाल आपको कैसे मालूम हुआ? क्या आपने कोई आदमी रोहतासगढ़ भेजा था? या खुद पिताजी ने यह सब हाल कहला भेजा है?

गोपाल : भूतनाथ स्वयं मेरे पास मदद लेने के लिए आया था, मगर मैंने मदद देने से इनकार किया?

इन्द्रजीत : (ताज्जुब से) ऐसा क्यों किया?

गोपाल : (ऊँची साँस लेकर) विधाता के हाथों से मैं बहुत सताया गया हूँ। सच तो ये है कि अभी तक मेरे होश-हवास ठिकाने नहीं हुए, इसलिए मैं कुछ मदद करने लायक नहीं हूँ। इसके अतिरिक्त मैं खुद अपनी तिलिस्मी किताब खो जाने के गम में पड़ा हुआ था, मुझे किसी की बात कब अच्छी लगती थी।

इन्द्रजीत : (मुस्कुराकर) जी नहीं, ऐसा करने का सबब कुछ दूसरा ही है, मैं कुछ-कुछ समझ गया, खैर देखा जायगा, अब इन्दिरा का किस्सा सुनना चाहिए।

गोपाल : (इन्दिरा से) अब तुम अपना हाल कहो, यद्यपि तुम्हारा हाल और तुम्हारी माँ का हाल मैं बहुत कुछ जानता हूँ, मगर इन दोनों भाइयों को तुम्हारी कुछ भी खबर नहीं है, बल्कि तुम दोनों का कभी नाम भी शायद इन्होंने सुना हो।

इन्द्रजीत : बेशक, ऐसा ही है।

गोपाल : इसलिए तुम्हें चाहिए कि अपना और अपनी माँ का हाल शुरू से कह सुनाओ, मैं समझता हूँ कि तुम्हें अपनी माँ का कुछ हाल मालूम होगा?

इन्दिरा : जी हाँ, मैं अपनी माँ का हाल खुद उसकी जुबानी और कुछ इधर-उधर से भी पूरी तरह सुन चुकी हूँ।

गोपाल : अच्छा तो अब कहना आरम्भ करो।

इस समय रात घण्टे भर से कुछ ज्यादे जा चुकी थी। इन्दिरा ने पहिले अपनी माँ का और फिर अपना हाल इस तरह बयान किया-

इन्दिरा : मेरी माँ का नाम सर्यू और पिता का नाम इन्द्रदेव है।

इन्द्रजीत : (ताज्जुब से) कौन इन्द्रदेव?

गोपाल : वही इन्द्रदेव जो दारोगा का गुरुभाई है, जिसने लक्ष्मीदेवी की जान बचायी थी, और जिसका जिक्र भी मैं कर चुका हूँ।

इन्द्रजीत : अच्छा तब!

इन्दिरा : मेरे नाना बहुत अमीर आदमी थे। लाखों रुपये की मौरूसी जायदाद उनके हाथ लगी थी, और वह खुद भी बहुत पैदा करते थे, मगर सिवाय मेरी माँ के उनको और कोई औलाद न थी, इसलिए वह मेरी माँ को बहुत प्यार करते थे और धन दौलत बहुत ज्यादे दिया करते थे। इसी कारण मेरी माँ का रहना बनिस्बत ससुराल के नैहर में ज्यादे होता था। जिस जमाने का मैं जिक्र करती हूँ, उस जमाने में मेरी उम्र सगभग सात-आठ वर्ष के होगी मगर मैं बातचीत और समझ-बूझ में होशियार थी और उस समय की बात आज भी मुझे इस तरह याद है, जैसे कल ही की बातें हों।

जाड़े का मौसम था, जबसे मेरा किस्सा शुरू होता है। मैं अपने ननिहाल में थी। आधी रात का समय था, मैं अपनी माँ के पास पलंग पर सोयी हुई थी। यकायक दरवाजा खुलने की आवाज आयी, और किसी आदमी को कमरे में आते देख मेरी माँ उठ बैठी, साथ ही इसके मेरी नींद टूट गयी। कमरे के अन्दर इस तरह यकायक आनेवाले मेरे नाना थे, जिन्हें देख मेरी माँ को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और वह पलंग के नीचे उतरकर खड़ी हो गयी।

आनन्द : तुम्हारे नाना का क्या नाम था?

इन्दिरा : मेरे नाना का नाम दामोदरसिंह था, और वे इसी शहर जमानिया में रहा करते थे।

आनन्द : अच्छा तब क्या हुआ?

इन्दिरा : मेरी माँ को घबराई हुई देखकर नाना साहब ने कहा, ‘‘सर्यू, इस समय यकायक मेरे आने से तुझे ताज्जुब होगा और निःसन्देह यह ताज्जुब की बात है भी, मगर क्या करूँ किस्मत और लाचारी मुझसे ऐसा कराती है। सर्यू, इस बात को मैं खूब जानता हूँ कि लड़की को अपनी मर्जी से ससुराल की तरफ बिदा कर देना सभ्यता के विरुद्ध और लज्जा की बात है, मगर क्या करूँ, आज ईश्वर ही ने ऐसा करने के लिए मुझे मजबूर किया है। बेटी, आज मैं जबर्दस्ती अपने हाथ से अपने कलेजे को निकालकर बाहर फेंकता हूँ, अर्थात् अपनी एक मात्र औलाद को (तुझको) जिसे देखे बिना कल नहीं पड़ती थी, जबर्दस्ती उसके ससुराल की तरफ बिदा करता हूँ। मैंने सभों  की चोरी बालाजी को बुलवा भेजा है और मुझे खबर लगी है कि दो घण्टे के अन्दर ही वह आया चाहते हैं। इस समय तुझे यह इत्तिला देने आया हूँ कि इसी घण्टे-दो-घण्टे के अन्दर तू भी अपने जाने की तैयारी कर ले!’’ इतना कहते-कहते नाना साहब का जी उमड़ आया, गला भर गया, और उनकी आँखों से टपटप आँसू की बूँदें गिरने लगीं।

इन्द्रजीत : बालाजी किसका नाम है?

इन्दिरा : मेरे पिता को मेरे ननिहाल में सब कोई बालाजी कहकर पुकारा करते थे।

इन्द्रजीत : अच्छा फिर?

इन्दिरा : उस समय अपने पिता की ऐसी अवस्था देखकर मेरी माँ बदहवास हो गयी और उखड़ी हुई आवाज में बोली, ‘‘पिताजी यह क्या? आपकी ऐसी अवस्था क्यों हो रही है? मैं यह बात क्यों देख रही हूँ? जो बात मैंने आज तक नहीं सुनी थी, वह क्यों सुन रही हूँ। मैंने ऐसा क्या कसूर किया है जो आज इस घर से निकाली जाती हूँ?’’

दामोदरसिंह ने कहा, ‘‘बेटी तूने कसूर नहीं किया, सब कसूर मेरा है। जो कुछ मैंने किया है, उसी का फल भोग रहा हूँ। बस इससे ज्यादे और मैं कुछ नहीं कहा चाहता। हाँ, तुझसे मैं एक बात की अभिलाषा रखता हूँ, आशा है कि तू अपने बाप की बात कभी न टालेगी तू खूब जानती है कि इस दुनिया में तुझसे बढ़कर मैं किसी को नहीं मानता हूँ, और न तुझसे बढ़कर किसी पर मेरा स्नेह है, अतएव इसके बदले में केवल इतना ही चाहता हूँ कि इस अन्तिम समय में जोकुछ मैं तुझे कहता हूँ, उसे तू अवश्य पूरा करे और मेरी याद अपने दिल में बनाये रहे...

इतना कहते-कहते मेरे नाना की बुरी हालत हो गयी। आँसुओं ने उनके रोआबदार चेहरे को तर कर दिया और गला ऐसा भर गया कि कुछ कहना कठिन हो गया। मेरी माँ भी अपने पिता की विचित्र बातें सुनकर अधमुई-सी हो गयी। पितृस्नेह ने उनका कलेजा हिला दिया, न रुकनेवाले आँसुओं को पोंछकर और मुश्किल से अपने दिल को सम्हालकर वह बोली, ‘‘पिताजी कहो, शीघ्र कहो कि आप मुझसे क्या चाहते हैं? मैं आपके चरणों पर जान देने के लिए तैयार हूँ।’’

इसके जवाब में दामोदरसिंह ने यह कहा कि मैं भी तुझसे यही आशा रखता हूँ, अपने कपड़ों के अन्दर से एक कलमदान निकाला और मेरी माँ को देकर कहा, ‘‘इसे अपने पास हिफाजत से रखियो और जब तक मैं इस दुनिया में कायम रहूँ, इसे कभी मत खोलियो। देख इस कलमदान के ऊपर तीन तस्वीरें बनी हुई हैं। बिचली तस्वीर के नीचे इन्दिरा का नाम लिखा हुआ है। जब तेरा पति इस कलमदान के अन्दर का हाल पूछे तो कह दीजियो कि मेरे पिता ने यह कलमदान इन्दिरा को दिया है, और इस पर उसका नाम भी लिख दिया है, तथा ताकीद कर दी है कि जब तक इन्दिरा की शादी न हो जाय यह कलमदान खोला न जाय। अस्तु, जिस तरह हो यह कलमदान खुलने न पाये। यह तकलीफ तुझे ज्यादे दिन तक भोगनी न पड़ेगी क्योंकि मेरी जिन्दगी का अब कोई ठिकाना नहीं रहा। मैं इस समय खूँखांर दुश्मनों से घिरा हुआ हूँ, नहीं कह सकता कि आज मरूँ या कल, मगर तू मेरे मरने का अच्छी तरह से निश्चय कर लीजियो, तब इस कलमदान को खोलियो। इसकी ताली मैं तुझे नहीं देता, जब इसके खोलने का समय आवे, तब जिस तरह हो सके खोल डालियो।’’ इतना कहकर मेरे नाना वहाँ से चले गये और रोती हुई मेरी माँ को उसी तरह छोड़ गये।

इन्द्रजीत : मैं समझता हूँ, यह वही कलमदान था जो कृष्णाजिन्न ने महाराज के सामने पेश किया था और जिसका हाल अभी तुम्हारे सामने भाई साहब ने बयान किया है!

इन्दिरा : जी हाँ!

इन्द्रजीत : निःसन्देह यह अनूठा किस्सा है, अच्छा तब क्या हुआ?

इन्दिरा : घण्टे भर तक मेरी माँ तरह-तरह की बातें सोचती और रोती रही, इसके बाद दामोदरसिंह पुनः उस कमरे में आये और मेरी माँ को रोती हुई देखकर बोले, ‘‘सर्यू तू अभी तक बैठी रो रही है! अरी बेटी तुझे तो अब अपने प्यारे बाप के लिए जन्म-भर रोना है, इस समय तू अपने दिल को सम्हाल और जाने की शीघ्र तैयारी कर, अगर तू बिलम्ब करेगी तो मुझे बड़ा कष्ट होगा और मुझे कष्ट देना तेरा धर्म नहीं है। बस अब अपने को सम्हाल। हाँ, मैं एक दफे पुनः तुझसे पूछता हूँ कि उस कलमदान के विषय में जोकुछ मैंने कहा तू वैसा ही करेगी न?’’ इसके जवाब में मेरी माँ ने सिसककर कहा, ‘‘जो कुछ आपने आज्ञा की है, मैं उसका पालन करूँगी, परन्तु मेरे पिता, यह तो बताओ कि तुम ऐसा क्यों कर रहे हो?’’

मेरी माँ ने बहुत कुछ मिन्नत और आजिजी की, मगर नाना ने अपनी बदहवासी का सबब कुछ भी बयान न किया और बाहर चले गये। थोड़ी ही देर बाद किसी लौंड़ी ने आकर खबर दी कि बालाजी (मेरे पिता इन्द्रदेव) आ गये। उस समय मेरी माँ को नाना साहब की बातों का निश्चय हो गया और वह समझ गयी कि अब इसी समय यहाँ से रवाना हो जाना पड़ेगा।

थोड़ी देर बाद मेरे पिता घर आये। माँ ने उनसे आने का सबब पूछा, जिसके जवाब में उन्होंने कहा कि ‘तुम्हारे पिता ने एक विश्वासी आदमी के हाथों मुझे पत्र भेजा, जिसमें केवल इतना ही लिखा था कि इस पत्र को देखते ही चल पड़ो और जितनी जल्दी हो सके, हमारे पास पहुँचो। मैं पत्र पढ़ते ही घबड़ा गया, उस आदमी से पूछा कि घर में कुशल तो हैं। उसने कहा कि सब कुशल हैं, मैं बहुत तेजी घोड़े पर सवार कराके तुम्हारे पास भेजा गया हूँ, अब मेरा घोड़ा लौट जाने लायक नहीं है, मगर तुम बहुत जल्द उनके पास जाओ। मैं घबड़ाया हुआ, एक तेज घोड़े पर सवार होके उस वक्त चल पड़ा, मगर इस समय यहाँ पहुँचने पर उनसे ऐसा करने का सबब पूछा तो कोई भी जवाब न मिला, उन्होंने एक कागज मेरे हाथ में देकर कहा कि इसे हिफाजत से रखना, इस कागज में मैंने अपनी कुल जायदाद इन्दिरा के नाम लिख दी है। मेरी जिन्दगी का अब कोई ठिकाना नहीं। तुम इस समय कागज को अपने पास रक्खो और अपनी स्त्री तथा लड़की को लेकर, इसी समय यहाँ से चले जाओ, क्योंकि अब जमानिया में बड़ा भारी उपद्रव उठा चाहता है, बस इससे ज्यादे और कुछ न कहेंगे। तुम्हारी बिदाई का सब बन्दोबस्त हो चुका है, सवारी इत्यादि तैयार है’।

इतना कहकर मेरे पिता चुप हो गये और दम-भर के बाद, उन्होंने मेरी माँ से पूछा कि इन सब बातों का सबब यदि तुम्हें कुछ मालूम होता तो कहो। मेरी माँ ने भी थोड़ी देर पहिले जोकुछ हो चुका था, कह सुनाया, मगर कलमदान के बारे में केवल इतना ही कहा कि पिताजी यह कलमदान इन्दिरा के लिए दे गये हैं, और कह गये हैं कि कोई इसे खोलने न पावे, जब इन्दिरा की शादी हो जाय तो वह अपने हाथ से इसे खोले।

इसके बाद मेरे पिता मिलने के लिए मेरी नानी के पास गये और देखा कि रोते-रोते उसकी अजीब हालत हो गयी है। मेरे पिता को देखकर वह और भी रोने लगी, मगर इसका सबब कुछ भी न बता सकी कि उसके मालिक को आज क्या हो गया है, वे इतने बदहवास क्यों हैं, और अपनी लड़की को इसी समय यहाँ से बिदा करने पर क्यों मजबूर हो रहे है, क्योंकि उस बेचारी को भी इसका सबब कुछ मालूम न था।

अब सब बातें जो मैं ऊपर कह आयी हूँ सिवाय हम पाँच आदमी के और किसी को मालूम न थी। उस घर का और कोई भी यह नहीं जानता था कि आज दामोदरसिंह बदहवास हो रहे हैं, और अपनी लड़की को किसी लाचारी से इसी समय बिदा कर रहे हैं।

थोड़ी देर बाद हम लोग बिदा कर दिये गये मेरी माँ रोती हुई मुझे साथ लेकर रथ में रवाना हुई, जिसमें दो मजबूत घोड़े जुते हुए थे, और इसी तरह के दूसरे रथ पर बहुत सा सामान लेकर मेरे पिता सवार हुए और हम लोग वहाँ से रवाना हुए। हिफाजत के लिए कई हथियारबन्द सवार भी हम लोगों के साथ थे।

जमानिया से मेरे पिता का मकान केवल तीस-पैंतीस कोस की दूरी पर होगा। जिस वक्त हम लोग घर से रवाना हुए, उस वक्त दो घण्टे रात बाकी थी और जिस समय हम लोग घर पहुँचे, उस समय पहर-भर से भी ज्यादे दिन बाकी था। मेरी माँ तमाम रास्ते रोती गयी, और घर पहुँचने पर भी कई दिनों तक उसका रोना बन्द न हुआ। मेरे पिता के रहने का स्थान बड़ा ही सुन्दर और रमणीक है, मगर उसके अन्दर जाने का रास्ता बहुत ही गुप्त रक्खा गया है।

इस जगह इन्दिरा ने इन्द्रदेव के मकान और रास्ते का थोड़ा-सा हाल बयान किया और उसके बाद फिर अपना किस्सा कहने लगी–

इन्दिरा : मेरे पिता तिलिस्म के दारोगा हैं और यद्यपि खुद भी बड़े भारी ऐयार हैं, तथापि उनके यहाँ कई ऐयार नौकर हैं। उन्होंने अपने दो ऐयारों को इसलिए जमानिया भेजा कि वे एक साथ मिलकर या अलग-अलग होकर दामोदरसिंह की बदहवासी और परेशानी का पता गुप्त रीति से लगावें और यह मालूम करें कि वह कौन से दुश्मनों की चाल-बाजियों के शिकार हो रहे हैं। इस बीच मेरे पिता ने पुनः मेरी माँ से कलमदान का हाल पूछा, जो उसके पिता ने उसे दिया था, और मेरी माँ ने उसका हाल साफ-साफ कह दिया अर्थात् जो कुछ उस कलमदान के विषय में दामोदरसिंह ने नसीयत इत्यादि की थी, वह साफ-साफ कह सुनायी।

जिस दिन मैं अपनी माँ के साथ पिता के घर गयी, उसके ठीक पन्द्रहवें दिन सन्ध्या के समय मेरे पिता के एक ऐयार ने यह खबर पहुँचायी कि जमानिया में प्रातःकाल सरकारी महल के पासवाले चौमुहाने पर दामोदरसिंह का लाश पायी गयी, जो लहू से भरी हुई थी और सर का पता न था। महाराज ने उस लाश को अपने पास उठवा मँगाया और तहकीकात हो रही है। इस खबर के सुनते ही मेरी माँ जोर-जोर से रोने और अपना माथा पीटने लगी। थोड़ी ही देर के बाद मेरे ननिहाल का भी एक दूत आ पहुँचा और उसने भी वही खबर सुनायी। पिताजी ने मेरी माँ को बहुत समझाया और कहा कि कलमदान देते समय तुम्हारे पिता ने तुमसे कहा था कि मेरे मरने के बाद इस कलमदान को खोलना, मगर मेरे मरने का अच्छी तरह निश्चय कर लेना। उनका यह कहना बेसबब न था।‘मरने का निश्चय कर लेना’ यह बात उन्होंने निःसन्देह इसीलिए कही होगी कि उनके मरने के विषय में लोग हम सभों को धोखा देंगे, यह बात उन्हें अच्छी तरह मालूम थी। अस्तु, तुम अभी से रो-रोकर अपने को हलकान मत करो और पहिले मुझे जमानिया जाकर उनके मरने के विषय में निश्चय कर लेने दो। यह जरूर ताज्जुब और शक की बात है कि उन्हें मारकर कोई उन का सर ले जाय और धड़ उसी तरह रहने दे। इस के अतिरिक्त तुम्हारी माँ का भी बन्दोबस्त करना चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि वह किसी दूसरे ही की लाश के साथ सती हो जाय।

मेरी माँ ने जमानिया जाने की इच्छा प्रकट की, परन्तु पिता ने स्वीकार न करके कहा कि यह बात तुम्हारे पिता को भी स्वीकार न थी, नहीं तो अपनी जिन्दगी में ही तुम्हें यहाँ बिदा न कर देते, इत्यादि बहुत कुछ समझा-बुझाकर उसको शान्त किया और स्वयं उसी समय दो-तीन ऐयारों को साथ लेकर जमानिया की तरफ रवाना हो गये।

इतना कहकर इन्दिरा रुक गयी और एक लम्बी साँस लेकर फिर बोली–

इन्दिरा : उस समय मेरे पिता पर जो कुछ मुसीबत बीती थी, उसका हाल उन्हीं की जुबानी सुनना अच्छा मालूम होगा, तथापि जो कुछ मुझे मालूम है, मैं बयान करती हूँ। मेरे पिता जब जमानिया पहुँचे तो सीधे घर चले गये। वहाँ पर देखा तो मेरी नानी को अपने पति की लाश के साथ सती होने की तैयारी करते पाया, क्योंकि देखभाल करने के बाद राजा साहब ने उनकी लाश उनके घर भेजवा दी थी। मेरे पिता ने मेरी नानी को बहुत कुछ समझाया और कहा कि इस लाश के साथ तुम्हारा सती होना उचित नहीं है, दूसरे की लाश निकली तो तुम स्वयं विचार सकती हो कि तुम्हारा सती होना कितना बुरा होगा। अस्तु, तुम इसकी दाह क्रिया होने दो और इस बीच में मैं इस मामले का असल पता लगा लूँगा, अगर यह लाश वास्तव में उन्हीं की होगी तो खूनी का या उनके सर का पता लगाना कोई कठिन न होगा। इत्यादि बहुत सी बातें समझाकर उनको सती होने से रोका और स्वयं खूनियों का पता लगाने का उद्योग करने लगे।

आधी रात का समय था, सर्दी खूब पड़ रही थी। लोग लिहाफ के अन्दर मुँह छिपाये अपने-अपने घरों में सो रहे थे। मेरे पिता सूरत बदले और चेहरे पर नकाब डाले, घूमते-फिरते उसी चौमुहाने पर जा पहुँचे, जहाँ मेरे नाना की लाश पायी गयी थी। उस समय चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था। वे एक दूकान की आड़ में खड़े होकर कुछ सोच रहे थे कि दाहिनी तरफ से एक आदनी को आते देखा वह आदमी भी अपने चेहरे को नकाब से छिपाए हुए था। मेरे पिता को देखते-ही-देखते वह उस चौमुहाने पर कुछ रखकर पीछे की तरफ मुड़ गया। मेरे पिता ने पास जाकर देखा तो एक लिफाफे पर नजर पड़ी, उसे उठा लिया और घर लौट आये। शमादान के सामने लिफाफा खोला, उसके अन्दर एक चीठी थी और उसमें यह लिखा था–

‘‘दामोदरसिंह के खूनी का जो कोई पता लगाना चाहे, उसे अपनी तरफ से भी होशियार रहना चाहिए। ताज्जुब नहीं कि उसकी भी वही दशा हो, जो दामोदरसिंह की हुई।’’

इस पत्र को पढ़कर मेरे पिता तरद्दुद में पड़ गये और सवेरा होने तक तरह-तरह की बातें सोचते-विचारते रहे। उन्हें आशा थी कि सवेरा होने पर उनके ऐयार लोग घर लौट आयेंगे और रात-भर में जो कुछ उन्होंने किया है, उसका हाल कहेंगे, क्योंकि ऐसा करने के लिये उन्होंने अपने ऐयारों को ताकीद कर दी थी, मगर उनका विचार ठीक न निकला, अर्थात् उनके ऐयार लौट कर न आये। दूसरा दिन भी बीत गया और तीसरे दिन भी दो पहर रात जाते-जाते तक मेरे पिता ने उन लोगों का इन्तजार किया, मगर सब व्यर्थ था, उन ऐयारों का हाल कुछ भी मालूम न हुआ। आखिर लाचार होकर स्वयं उनकी खोज में जाने के लिए तैयार हो गये और घर से बाहर निकला ही चाहते थे कि कमरे का दरवाजा खुला और महाराज के एक चोबदार को साथ लिये हुए नाना साहब का एक सिपाही कमरे के अन्दर दाखिल हुआ। पिता को बड़ा ताज्जुब हुआ और उन्होंने चोबदार से वहाँ आने का सबब पूछा। चोबदार ने जवाब दिया कि आपको कुँअर साहब (गोपालसिंह) ने शीघ्र ही बुलाया है और अपने साथ लाने के लिए मुझे सख्त ताकीद की है।

गोपाल : हाँ, ठीक है, मैंने उन्हें अपनी मदद के लिये बुलाया था, क्योंकि मेरे और इन्द्रदेव के बीच दोस्ती थी और उस समय मैं दिली तकलीफों से बहुत बेचैन था। इन्द्रदेव से और मुझसे अब भी वैसी ही दोस्ती है, वह मेरा सच्चा दोस्त है, चाहे वर्षों हम दोनों में पत्र-व्यवहार न हो, मगर दोस्ती में किसी तरह की कमी नहीं आ सकती।

इन्दिरा : बेशक ऐसा ही है! तो उस समय का हाल और उसके बाद मेरे पिता से और आपसे जो-जो बातें हुई थीं, सो आप अच्छी तरह बयान कर सकते हैं।

गोपाल : नहीं नहीं, जिस तरह तुम और हाल कह रही हो, उसी तरह वह भी कह जाओ, मैं समझता हूँ कि इन्द्रदेव ने यह सब हाल तुमसे कहा होगा।

इन्दिरा : जी हाँ, इस घटना के कई वर्ष बाद पिताजी ने मुझसे सब हाल कहा था, जो अभी तक मुझे अच्छी तरह याद है, मगर मैं उन सभों को मुख्तसर ही में बयान करती हूँ।

गोपाल : क्या हर्ज है तुम मुख्तसर में बयान कर जाओ, जहाँ भूलोगी मैं बता दूँगा, यदि वह हाल मुझे भी मालूम होगा।

इन्दिरा : जो आज्ञा! मेरे पिता जब चोबदार के साथ राजमहल में गये तो मालूम हुआ कि कुँअर साहब घर में नहीं है, कहीं बाहर गये हुए हैं। आश्चर्य में आकर उन्होंने कुँअर साहब के खास खिदमतगार से दरियाफ्त किया तो जवाब दिया कि आपके पास चोबदार भेजने के बाद-बहुत देर तक बैठकर आपका इन्तजार करते रहे, मगर जब आपके आने में देर हुई तो घबड़ाकर खुद आपके मकान की तरफ चले गये। यह सुनते ही मेरे पिता घबड़ाकर वहाँ से लौटे और फौरन ही घर पहुँचे, मगर कुँअर साहब से मुलाकात न हुई। दरियाफ्त करने पर पहरेदार ने कहा कि कुँअर साहब यहाँ नहीं आये हैं। वे पुनः लौटकर राजमहल में गये, पर कुँअर साहब का पता न लगना था और न लगा। मेरे पिता की वह तमाम रात परेशानी में बीती और उस समय उन्हें नाना साहब की बात याद आयी, जो उन्होंने मेरे पिता से कही थी कि अब जमानिया में बड़ा भारी उपद्रव उठा चाहता है।

तमाम रात बीत गयी, दूसरा दिन चला गया, तीसरा दिन गुजर गया, मगर कुँअर साहब का पता न लगा, सैकड़ों आदमी खोज में निकले तमाम शहर में कोलाहल मच गया! जिसे देखिए, वह इन्हीं के विषय में तरह-तरह की बातें कहता और आश्चर्य करता था। उन दिनों कुँअर साहब (गोपालसिंह) की शादी लक्ष्मीदेवी से लगी हुई थी और तिलिस्मी दारोगा साहब शादी के विरुद्ध बातें किया करते थे, इस बात की चर्चा भी शहर में फैली हुई थी।

चौथे दिन आधी रात के समय मेरे पिता नाना साहबवाले मकान में फाटक के ऊपरवाले कमरे के अन्दर पलँग पर लेटे हुए कुँअर साहब के विषय में कुछ सोच रहे थे कि यकायक कमरे का दरवाजा खुला और आप (गोपालसिंह) कमरे के अन्दर आते हुए दिखायी पड़े। मुहब्बत और दोस्ती में बड़ाई-छुटाई का दर्जा कायम नहीं रहता। कुँअर साहब को देखते ही मेरे पिता उठ खड़े हुए और दौड़कर उनके गले से लिपटकर बोले, ‘‘क्यों साहब आप इतने दिन तक कहाँ थे?’’

उस समय कुँअर साहब की आँखों से आँसू की बूँदे टपटपाकर गिर पड़ी थीं, चेहरे पर उदासी और तकलीफ की निशानी पायी जाती थी, और उन तीन दिनों में ही उनके बदन की यह हालत हो गयी थी कि महीनों के बीमार मालूम पड़ते थे। मेरे पिता ने हाथ-मुँह धुलवाया तथा अपने पलँग पर बैठाकर हाल-चाल पूछा और कुँअर साहब ने इस तरह अपना हाल बयान किया–

‘‘उस दिन मैंने तुमको बुलाने के लिए चोबदार भेजा, जब तक चोबदार तुम्हारे यहाँ से लौटकर आये उसके पहिले ही मेरे एक खिदमतगार ने मुझे इत्तिला दी कि इन्द्रदेव ने आपको अपने घर अकेले ही बुलाया है। मैं उसी समय उठ खड़ा हुआ और अकेले तुम्हारे मकान की तरफ रवाना हुआ। जब आधे रास्ते में पहुँचा तो तुम्हारे यहाँ का अर्थात् दामोदरसिंह का खिदमतदार, जिसका नाम रामप्यारे है, मिला और उसने कहा कि इन्द्रदेव गंगा किनारे की तरफ गये हैं, और आपको उसी जगह बुलाया है। मैं क्या जानता था कि एक अदना खिदमतगार मुझसे दगा करेगा। मैं बेधड़क उसके साथ गंगा के किनारे की तरफ रवाना हुआ। आधी रात से ज्यादा तो जा ही चुकी थी, अतएव गंगा के किनारे बिल्कुल सन्नाटा छाया हुआ था। मैंने वहाँ पहुँचकर जब किसी को न पाया तो उस नौकर से पूछा कि इन्द्रदेव कहाँ हैं! उसने जवाब दिया कि ठहरिए, आते होंगे। उस घाट पर केवल एक डोंगी बँधी हुई थी, मैं कुछ विचारता हुआ उस डोंगी की तरफ देख रहा था कि यकायक दोनों तरफ से दस-बारह आदमी चेहरे पर नकाब डाले हुए आ पहुँचे और उन सभों ने फुर्ती के साथ मुझे गिरफ्तार कर लिया। वे सब बड़े मजबूत और ताकतवर थे, और सब-के-सब एक साथ मुझसे लिपट गये, एक ने मेरे मुँह पर एक मोटा कपड़ा कस दिया कि न तो मैं बोल सकता था और न कुछ देख सकता था। बात-की-बात में मेरी मुश्कें बाँध दी गयीं, और जबर्दस्ती उसी डोंगी पर बैठा दिया गया, जो घाट के किनारे बँधी हुई थी। डोंगी किनारे से खोल दी गयी और बड़ी तेजी से चलायी गयी। मैं नहीं कह सकता कि वे लोग कै आदमी थे और दो ही घण्टे में जब तक कि मैं उस पर सवार था, डोंगी को लेकर कितनी दूर ले गये। जब लगभग दो घण्टे के बीत गये तब डोंगी किनारे लगी और मैं उस पर से उतरकर एक घोड़े पर चढ़ाया गया, मेरे दोनों पैर नीचे की तरफ मजबूती के साथ बाँध दिये गये, हाथ की रस्सी ढीली कर दी, जिसमें मैं घोड़े की काठी पकड़ सकूँ और घोड़ा तेजी के साथ एक तरफ दौड़ाया गया। मैं दोनों हाथों से घोड़े की काठी पकड़े हुए था। यद्यपि मैं देखने और बोलने से लाचार कर दिया गया था, मगर अन्दाज से और घोड़े की टापों की आवाज से मालूम हो गया कि मुझे कई सवार घेरे हुए जा रहे हैं, और मेरे घोड़े की भी लगाम किसी सवार के हाथ में है। कभी तेजी से कभी धीरे-धीरे चलते-चलते दो पहर से ज्यादे बीत गये पैरों में दर्द होने लगा और थकावट ऐसी जान पड़ने लगी कि मानों तमाम बदन चूर-चूर हो गया है। इसके बाद घोड़े रोके गये और मैं नीचे उतारकर एक पेड़ के साथ कस के बाँध दिया गया, और उस समय मेरे मुँह का कपड़ा खोल दिया गया। मैंने चारों तरफ निगाह दौड़ायी तो अपने को एक घने जंगल में पाया। दस आदमी मोटे मुसण्डे और उनकी सवारी के दस घोड़े सामने खड़े थे। पास में ही पानी का एक चश्मा बह रहा था, कई आदमी जीन खोलकर घोड़ों को ठण्डा करने और चराने की फिक्र में लगे और बाकी के शैतान हाथ में नंगी तलवार लेकर मेरे चारों तरफ खड़े हो गये। मैं चुपचाप सभों की तरफ देखता था, और मुँह से कोई भी न बोलता था और न वे लोग ही कोई मुझसे बात करते थे। (लम्बी साँस लेकर) यदि गर्मी का दिन होता तो शायद मेरी जान निकल जाती, क्योंकि उन कमबख्तों ने मुझे पानी तक के लिए नहीं पूछा और स्वयं खा-पीकर ठीक हो गये। अस्तु, पहर-भर के बाद फिर मेरी वही दुर्दशा की गयी, अर्थात् देखने और बोलने से लाचार करके घोड़े पर उसी तरह बैठाया गया और फिर सफर शुरू हुआ। पुनः दो पहर से ज्यादे देर तक सफर करना पड़ा और इसके बाद मैं घोड़े से नीचे उतरकर पैदल चलाया गया। मेरे पैर दर्द और तकलीफ से बेकार हो रहे थे, मगर लाचारी ने फिर भी चौथाई कोस तक चलाया और इसके बाद चौखट लाँघने की  नौबत आयी, तब मैंने समझा कि अब किसी मकान में जा रहा हूँ। मुझे चार दफे चौखट लाँघनी पड़ी, जिसके बाद मैं एक खम्भे के साथ बाँध दिया गया, तब मेरे मुँह पर से कपड़ा हटाया गया।

तिलिस्मी लेख

बाजे से निकली आवाज का मतलब यह है–

सारा तिलिस्म तोड़ने का खयाल न करो और तिलिस्म की ताली किसी चलती-फिरती से प्राप्त करो। इस बाजे में वे सब बातें भरी हैं जिनकी तुम्हें जरूरत है, ताली लगाया करो और सुना करो। अगर एक ही दफे सुनने से समझ में न आवे तो दोहरा करके भी सुन सकते हो। इसकी तरकीब और ताली इसी कमरे में हैं ढूँढ़ों।

महाराज सूर्यकान्त की तस्वीर के नीचे लिखे हुए बारीक अक्षरोंवाले मजमून का अर्थ यह है–

स्वर दै गिनकै वर्ग पै

खूब समझ के तब आगे पैर रक्खो

बाजेवाले चौतरे में खोजो, तिलिस्मी खंजर अपने देह से अलग मत करो नहीं तो जान पर आ बनेगी।


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