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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8402
आईएसबीएन :978-1-61301-029-7

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...

नौवाँ बयान


लक्ष्मीदेवी, कमलिनी, लाडिली और नकली बलभद्रसिंह को लिये हुए इन्द्रदेव अपने गुप्त स्थान में पहुँच गये। दोपहर का समय है। एक सजे हुए कमरे के अन्दर ऊँची गद्दी के ऊपर इन्द्रदेव बैठ हुए हैं, पास ही में एक दूसरी गद्दी बिछी हुई है जिस पर लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाडिली बैठी हुई हैं, उनके सामने हथकड़ी बेड़ी और रस्सियों से जकड़ा हुआ नकली बलभद्रसिंह बैठा है, और उसके पीछे हाथ में नंगी तलवार लिये इन्द्रदेव का ऐयार सर्यूसिंह खड़ा है।

नकली बलभद्रसिंह : (इन्द्रदेव से) जिस समय मुझसे और भूतनाथ से मुलाकात हुई थी, उस समय भूतनाथ की क्या दशा हुई सो स्वयं तेजसिंह देख चुका हैं। अगर भूतनाथ सच्चा होता तो मुझसे क्यों डरता। मगर बड़े अफसोस की बात है कि राजा बीरेन्द्रसिंह ने कृष्णाजिन्न के कहने से भूतनाथ को छोड़ दिया और जिस सन्दूकड़ी को मैंने पेश किया था, उसे न खोला, वह खुलती तो भूतनाथ का बाकी भेद छिपा न रहता।

इन्द्रदेव : जो हो, मैं राजा साहब की बातों में दखल नहीं दे सकता, मगर इतना कह सकता हूँ कि भूतनाथ ने चाहे तुम्हारे साथ हद से ज्यादे बुराई की हो, मगर लक्ष्मीदेवी के साथ कोई बुराई नहीं की थी, इसके अतिरिक्त छोड़ दिये जाने पर भी भूतनाथ भागने का उद्योग नहीं करता और समय पड़ने पर हम लोगों का साथ देता है।

नकली बलभद्रसिंह : अगर भूतनाथ आप लोगों का काम न करे तो आप लोग उस पर दया नहीं करेंगे, यही समझकर वह...

 इन्द्रदेव : (चिढ़कर) ये सब वाहियात बातें हैं, मैं तुमसे बकवाद करना पसन्द नहीं करता, तुम यह बताओ कि तुम जैपाल हो या नहीं।

नकली बलभद्रसिंह : मैं वास्तव में बलभद्रसिंह हूँ।

इन्द्रदेव:(क्रोध के साथ) अब भी तू झूठ बोलने से बाज नहीं आता, मालूम होता है कि तेरी मौत आ चुकी है, अच्छा देख मैं तुझे किस दुर्दशा के साथ मारता हूँ। (सर्यूसिंह से) तुम पहिले इसकी दाहिनी आँख उँगली डालकर निकाल लो!

नकली बलभद्र: (लक्ष्मीदेवी से) देखो तुम्हारे बाप की क्या दुर्दशा हो रही है!

लक्ष्मीदेवी : मुझे अब अच्छी तरह से निश्चय हो गया कि तू हमारा बाप नहीं है। आज जब मैं पुरानी बातों को याद करती हूँ तो तेरी और दारोगा की बेईमानी साफ मालूम होती है। सबसे पहिले जिस दिन तू कैदखाने में मुझसे मिला था, उसी दिन मुझे तुझ पर शक हुआ था, मगर तेरी इस बात कि ‘जहरीली दवा के कारण मेरा बदन खराब हो गया है’ मैं धोखे में आ गयी थी।

नकली बलभद्रसिंह : और यह मोढ़ेवाला निशान?

लक्ष्मीदेवी : यह भी बनावटी है, अच्छा अगर तू मेरा बाप है तो मेरी एक बात का जवाब दे।

लक्ष्मीदेवी : जिन दिनों मेरी शादी होनेवाली थी और जमानिया जाने के लिए पालकी पर सवार होने लगी थी, तब मेरी क्या दुर्दशा हुई थी और मैं किस ढंग से पालकी पर बैठायी गयी थी?

नकली बलभद्रसिंह : (कुछ सोचकर) अब इतनी पुरानी बात तो मुझे याद नहीं है, मगर मैं सच कहता हूँ, कि मैं ही बलभद्रसिंह...

इन्द्रदेव : (क्रोध से सर्यू सिंह से) बस अब विलम्ब करने की आवश्यकता नहीं।

इतना सुनते ही सर्यूसिंह ने धक्का देकर नकली बलभद्रसिंह को गिरा दिया और औजार डालकर उसकी दाहिनी आँख निकाल ली। नकली बलभद्रसिंह, जिसे अब हम जैपाल के नाम से लिखेंगे दर्द से तड़पने लगा और बोला, ‘‘अफसोस मेरे हाथ-पैर बँधे हुए हैं, अगर खुले होते तो मैं इस बेदर्दी का मजा चखा देता!’’

इन्द्रदेव : अभी अफसोस क्या करता है, थोड़ी देर में तेरी दूसरी आँख भी निकाली जायगी और उसके बाद तेरा एक-एक अंग काटकर अलग किया जायगा! (सर्यूसिंह से) हाँ, सर्यूसिंह अब इसकी दूसरी आँख भी निकाल लो और इसके दोनों पैर काट डालो।

जैपाल : (चिल्लाकर) नहीं नहीं जरा ठहरो मैं तुम्हें बलभद्रसिंह का सच्चा हाल बताता हूँ।

इन्द्रदेव : अच्छा बताओ।

जैपाल : पहिले मेरी आँख में कोई दवा लगाओ, जिसमें दर्द कम हो जाय, तब मैं तुमसे सब हाल कहूँगा।

इन्द्रदेव : ऐसा नहीं हो सकता है, बताना हो तो जल्द बता नहीं तेरी दूसरी आँख भी निकाल ली जायगी।

जैपाल : अच्छा, मैं अभी बताता हूँ। दारोगा ने उसे बँगले में कैद कर रक्खा था, मगर अफसोस मायारानी ने उस बँगले को बारूद के जोर से उड़ा दिया, उम्मीद है कि उसी में उस बेचारे की हड्डी-पसली भी उड़ गयी होगी।

इन्द्रदेव : (सर्यूसिंह से) सर्यूसिंह, यह हरामजादा अपनी बदमासी से बाज न आवेगा। अस्तु, तुम एक काम करो, इसकी जो आँख तुमने निकाली है, उसके गड़हे में पिसी हुई लाल मिर्च भर दो।

इतना सुनते ही जैपाल चिल्ला उठा और हाथ जोड़कर बोला–

जैपाल : माफ करो, अब मैं झूठ नहीं बोलूँगा, मुझे जरा दम लेने दो, जो कुछ हाल है, मैं सच-सच कह दूँगा, इस तरह तड़प-तड़पकर जान देना मुझे मंजूर नहीं। मुझे क्या पड़ी है जो दारोगा का पक्ष करके इस तरह अपनी जान दूँ, कभी नहीं अब मैं कदापि तुमसे झूठ न बोलूँगा।

इन्द्रदेव : अच्छा अच्छा, दम ले ले, कोई चिन्ता नहीं जब तू बलभद्रसिंह का हाल बताने को तैयार ही है तो मैं तुझे क्यों सताने लगा।

जैपाल : (कुछ ठहरकर) इसमें कोई शक नहीं कि बलभद्रसिंह अभी तक जीता है और इन्दिरा तथा इन्दिरा की माँ के विषय में भी मैं आशा करता हूँ कि जीती होंगी।

इन्द्रदेव : बलभद्रसिंह के जीते रहने का तो तुझे निश्चय है, मगर इन्दिरा और उसकी माँ  के बारे में ‘आशा है’ से क्या मतलब?

जैपाल : इन्दिरा और इन्दिरा की माँ को दारोगा ने तिलिस्म में बन्द करना चाहा था, उस समय न मालूम किस ढंग से इन्दिरा तो छूटकर निकल गयी, मगर उसकी माँ जमानिया तिलिस्म के चौथे दर्जे में कैद कर दी गयी, इसी से उसके बारे में निश्चित रूप से नहीं कह सकता, मगर बलभद्रसिंह अभी तक जमानिया में उस मकान के अन्दर कैद है, जिसमें दारोगा रहता था। यदि आप मुझे छुट्टी दें या मेरे साथ चलें तो मैं उसे बाहर निकाल दूँ, या आप खुद जाकर, जिस ढंग से चाहें उसे छुड़ा लें।

इन्द्रदेव : मुझे तेरी यह बात भी सच नहीं जान पड़ती।

जैपाल : नहीं नहीं, अबकी दफे मैंने सच-ही-सच बता दिया है।

इन्द्रदेव : यदि मैं वहाँ जाऊँ और बलभद्रसिंह न मिले तो!

जैपाल : मिलने-न-मिलने से मुझे कोई मतलब नहीं, क्योंकि उस मकान में से ढूँढ़ निकालना आपका काम है, अगर आप ही पता लगाने में कसर कर जायँगे तो मेरा क्या कसूर! हाँ एक बात और है, इधर थोड़े दिन के अन्दर दारोगा ने किसी दूसरी जगह उन्हें रख दिया हो तो मैं नहीं जानता, मगर दारोगा का रोजनामचा यदि आपको मिल जाय, और उसे पढ़ सकें तो बलभद्रसिंह के छूटने में कुछ कसर न रहे।

इन्द्रदेव : क्या दारोगा रोचनामचा बराबर लिखा करता था?

जैपाल : जी हाँ, वह अपना रत्ती-रत्ती हाल रोजनामचे में लिखा करता था।

इन्द्रदेव : वह रोजनामचा क्योंकर मिलेगा?

जैपाल : जमानिया के पक्के घाट के ऊपर ही एक तेली रहता है, उसका मकान बहुत बड़ा है और दारोगा की बदौलत वह भी अमीर हो गया है। उसका नाम भी जैपाल है, और उसके पास दारोगा का रोजनामचा है, यदि आप उससे ले सकें तो अच्छी बात है, नहीं तो कहिए मैं उसके नाम की एक चीठी लिख दूँगा।

इन्द्रदेव : (कुछ सोचकर) बेशक, तुझे उसके नाम की एक चीठी लिख देनी होगी, मगर इतना याद रखियो कि यदि तेरी बात झूठ निकली तो मैं बड़ी दुर्दशा के साथ तेरी जान लूँगा।

जैपाल : और अगर सच निकली तो क्या छोड़ दिया जाऊँगा?

इन्द्रदेव (मुस्कुराकर) हाँ, अगर तेरी मदद से बलभद्रसिंह को हम पा जाएँगे तो तेरी जान छोड़ दी जायगी, मगर तेरे दोनों पैर काट डाले जाँयगे या तेरी दूसरी आँख भी बेकाम कर दी जायगी।

जैपाल : सो क्यो?

इन्द्रदेव : इसलिए कि तू किसी काम लायक न रहे और न किसी के साथ बुराई कर सके।

जैपाल : फिर मुझे खाने को कौन देगा?

इन्द्रदेव : मैं दूँगा।

जैपाल : खैर, जैसी मर्जी आपकी मुझे स्वीकार है, मगर इस समय तो मेरी आँख में कोई दवा डालिये, नहीं तो मैं मर जाऊँगा।

इन्द्रदेव : हाँ हाँ, तेरी आँख का इलाज भी किया, जायगा, मगर पहिले तू उस तेली के नाम की चीठी लिख दे।

जैपाल : अच्छा मैं लिख देता हूँ, हाथ खोलकर कलम, दावात कागज मेरे आगे रक्खो।

यद्यपि आँख की तकलीफ बहुत ज्यादे थी, मगर जैपाल भी बड़े कड़े दिल का आदमी था। उसका एक हाथ खोल दिया गया, कलम, दावात, कागज उसके सामने रक्खा गया, और उसने जैपाल तेली के नाम एक चीठी लिखकर अपनी निशानी कर दी। चीठी में यह लिखा हुआ था–

‘‘मेरे प्यारे जैपाल चकी,

दारोगा बाबावाला रोजनामचा इन्हें दे देना, नहीं तो मेरी और दारोगा की जान न बचेगी। हम दोनों आदमी इन्हीं के कब्जे में हैं।’’

इन्द्रदेव ने वह चीठी लेकर अपने जेब में रक्खी और सर्यूसिंह को जैपाल को दूसरी कोठरी में ले जाकर कैद करने का हुक्म दिया तथा जैपाल की आँख में दवा लगाने के लिए भी कहा।

धूर्तराज जैपाल ने निःसन्देह इन्द्रदेव को धोखा दिया। उसने जो तेली के नाम चीठी लिखकर दी उसके पढ़ने से दोनों मतलब निकलते हैं। ‘‘हम दोनों आदमी इन्हीं के कब्जे में हैं’’ ये ही शब्द इन्द्रदेव को फँसाने के लिए काफी थे। अस्तु देखा चाहिए वहाँ जाने पर इन्द्रदेव की क्या हालत होती है।

लक्ष्मीदेवी, कमलिनी और लाडिली को हर तरह से समझा-बुझाकर दूसरे दिन प्रातःकाल इन्द्रदेव जमानिया की तरफ रवाना हुए।

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