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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8402
आईएसबीएन :978-1-61301-029-7

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...

दसवाँ बयान


अब हम अपने पाठकों को काशीपुरी में एक चौमंजिले मकान के ऊपर ले चलते हैं। यह निहायत संगीन और मजबूत बना हुआ है। नीचे से ऊपर तक गेरू से रँगे रहने के कारण देखनेवाला, तुरन्त कह देगा कि यह किसी गुसाईं की मठ है। काशी के मठधारी गुसाईं नाम ही के साधु या गुसाईं होते है, वास्तव में उनकी बदौलत उनका व्यापार उनका रहन-सहन और वर्ताव किसी तरह गृहस्थों और बनियों से कम नहीं होता, बल्कि दो हाथ ज्यादे ही होता है। अगर किसी ने धर्म और शास्त्र पर कृपा करके गुसाईंपने की कोई निशानी रख भी ली तो केवल इतना ही कि एक टोपी गेरूए रंग की सिर पर या गेरूए रंग का एक दुपट्टा कन्धे पर रख लिया, सो भी भरसक रेशमी और बेशकीमत तो होना ही चाहिए, बस। अस्तु, इस समय जिस मकान में हम अपने पाठकों को ले चलते हैं, देखने वाले उस मकान को भी किसी ऐसे ही साधु या गुसाईं का मठ कहेंगे, पर वास्तव में ऐसा नहीं है, इस मकान के अन्दर कोई बिचित्र मनुष्य रहता है, और उसके काम भी बड़े ही अनूठे हैं।

यह मकान कई मंजिल का है। नीचेवाली तीन मंजिलों को छोड़कर इस समय हम ऊपरवाली चौथी मंजिल पर चलते हैं, जहाँ एक छोटे से कमरे में तीन औरतें बैठी हुई आपुस में बातें कर रही हैं। रात दो पहर से कुछ ज्यादे जा चुकी है। कमरे के अन्दर यद्यपि बहुत से शीशे लगे हैं, मगर रोशनी सिर्फ एक शमादान और एक दीवारगीर की ही हो रही है। शमादान फर्श के उपर जल रहा है, जहाँ तीनों औरते बैठी हैं। उनमें एक औरत तो निहायत हसीन और नाजुक है, और यद्यपि उसकी उम्र लगभग चालीस वर्ष के पहुँच गयी होगी, मगर नजाकत सुडौली और चेहरे का लोच अभी तक कायम है, उसकी बड़ी-बड़ी आँखों में अभी तक गुलाबी डोरियाँ और मस्तानापन मौजूद है, सर के बड़े-बड़े और घने बालों में चाँदी की तरह चमकनेवाले बाल दिखायी नहीं देते और न अलग से देखने में ज्यादा उम्र की ही मालूम पड़ती है, साथ ही इसके बाली, पत्ते, गोप, सिकरी, कड़े,छन्द और अँगूठियों की तरफ ध्यान देने से वह रुपये वाली भी मालूम पड़ती है। उसके पास बैठी हुई दोनों औरतें भी उसी की तरह कमसिन और खूबसूरत नहीं तो बदसूरत भी नहीं है। जो बहुत हसीन और इस मकान की मालिक औरत है उसका नाम बेगम* है और बाकी की दोनों औरतों का नाम नौरतन और जमालो है। (* बेगम नाम से मुसलमान न समझना चाहिए।)

बेगम : चाहे जैपालसिंह गिरफ्तार हो गया हो, मगर भूतनाथ उसका मुकाबला नहीं कर सकता और न भूतनाथ उसे अपनी हिफाजत ही में ही रख सकता है।

जमालो : ठीक है, मगर जब लक्ष्मीदेवी और राजा बीरेन्द्रसिंह को यह मालूम हो गया कि यह असली बलभद्रसिंह नहीं और इसने बहुत बड़ा धोखा देना चाहा था तो वे उसे जीता कब छोड़ेंगे।

बेगम : तो क्या वह खाली उतने ही कसूर पर मारा जायगा कि उसने अपने को बलभद्रसिंह जाहिर किया?

जमालो : क्या यह छोटा सा कसूर है। फिर असली बलभद्रसिंह का पता लगाने के लिए भी तो लोग उसे दिक करेंगे।

बेगम : अगर इन्साफ किया जायगा तो जैपालसिंह गदाधरसिंह से ज्यादे दोषी न ठहरेगा, ऐसी अवस्था में मुझे यह आशा नहीं होती कि राजा बीरेन्द्रसिंह उसे प्राणदण्ड देंगे।

नौरतन : राजा बीरेन्द्रसिंह चाहे उसे प्राणदण्ड की आज्ञा न भी दें, मगर इन्द्रदेव उसे कदापि न जीता छोड़ेगा और यह बात बहुत ही बुरी हुई कि राजा बीरेन्द्रसिंह ने उसे इन्द्रदेव के हवाले कर दिया।

बेगम : जो हो, मगर जिस समय मैं उन लोगों के सामने जा खड़ी होऊँगी, उस समय जैपाल को छुड़ा ही लाऊँगी, क्योंकि उसी की बदौलत अमीरी कर रही हूँ, और उसके लिए नीच-से-नीच काम करने को भी तैयार हूँ।

जमालो : सो कैसे? क्या तुम असली बलभद्रसिंह के साथ उसका बदला करोगी?

बेगम : हाँ, मैं इन्द्रदेव और लक्ष्मीदेवी से कहूँगी कि तुम जैपालसिंह को मेरे हवाले करो तो मैं असली बलभद्रसिंह को तुम्हारे हवाले कर दूँगी। अफसोस तो इतना ही है कि गदाधरसिंह की तरह जैपालसिंह दिलावर और जीवट का आदमी नहीं है। अगर जैपालसिंह के कब्जे में बलभद्रसिंह होता तो वह थोड़ी ही तकलीफ में इन्द्रदेव या लक्ष्मीदेवी को उसका हाल बता देता।

जमालो : ठीक है, मगर जब बलभद्रसिंह तुम्हारे कब्जे से निकल जायगा, तब जैपालसिंह तुम्हारी इज्जत और कदर क्यों करेगा और क्यों दबेगा? सिवाय इसके अब तो दारोगा भी स्वतन्त्र नहीं रहा, जिसके भरोसे पर जैपाल कूदता था और तुम्हारा घर भरता था।

बेगम : (कुछ सोचकर) हाँ, बहिन सो तो तुम सच कहती हो। और बलभद्रसिंह को छोड़ने से पहिले मुझे अपना घर ठीक कर लेना चाहिए, मगर ऐसा करने में भी दो बातों की कसर पड़ती है।

जमालो : वह क्या?

बेगम : एक तो बीरेन्द्रसिंह के पक्षवाले मुझ पर यह दोष लगावेंगे कि तूने बलभद्रसिंह को क्यों कैद कर रक्खा था, दूसरे जब से मनोरमा के हाथ तिलिस्मी खंजर लगा है तब से उसका दिमाग आसमान पर चढ़ गया है, वह मुझसे कसम खाकर कह गयी है कि थोड़े ही दिनों में राजा बीरेन्द्रसिंह और उनके पक्षवालों को दुनियाँ से उठा दूँगी। अगर उसका कहना सच हुआ और उसने फिर मायारानी को जमानिया की गद्दी पर ला बैठाया तो मायारानी मुझ पर दोष लगावेंगी कि तूने जैपाल को इतने दिनों तक क्यों छिपा रक्खा और दारोगा से मिलकर मुझे धोखे में क्यों डाला।

नौरतन : बेशक ऐसा ही होगा, मगर इस बात को मैं कभी नहीं मान सकती कि अकेली मनोरमा एक तिलिस्मी खंजर पाकर राजा बीरेन्द्रसिंह के ऐयारों का मुकाबला करेगी और उनके पक्षवालों को इस दुनिया से उठा देगी। क्या उन लोगों के पास तिलिस्मी खंजर न होगा?

जमालो : मैं भी यही कहनेवाली थी, मैंने इस बिषय पर बहुत गौर किया, मगर सिवा इसके मेरा दिल और कुछ भी नहीं कहता कि राजा बीरेन्द्रसिंह उनके लड़के और उनके ऐयारों का मुकाबला करनेवाला आज दिन इस दुनिया में कोई भी नहीं है, और एक बड़े भारी तिलिस्म के राजा गोपालसिंह भी प्रकट हो गये हैं। ऐसी अवस्था में मायारानी और उनके पक्षवालों की जीत कदापि नहीं हो सकती।

बेगम : ऐसा ही है, और गदाधरसिंह भी किसी-न-किसी तरह अपनी जान बचा ही लेगा? देखो इतना बखेड़ा हो जाने पर भी लोगों ने गदाधरसिंह को, जिसने अपना नाम अब भूतनाथ रख लिया है, छोड़ दिया और अब वह चारों तरफ उपद्रव मचा रहा है। ताज्जुब नहीं कि वह जमीन की मिट्टी सूँघता हुआ मेरे घर में भी आ पहुँचे यद्यपि उसे मेरा पता कुछ भी मालूम नहीं है, मगर वह विचित्र आदमी है, मिट्टी और हवा में मिल गयी चीज का भी पता लगा लेता है। (ऊँची साँस लेकर) अगर मुझसे और उससे लड़ाई न हो गयी होती तो आज मैं भी तीन हाथ की ऊँची गद्दी पर बैठने का साहस करती मगर अफसोस भूतनाथ ने मेरे साथ बहुत ही बुरा सलूक किया! (कुछ सोचकर) यदि बलभद्रसिंह को लेकर मैं राजा बीरेन्द्रसिंह के पास चली जाऊँ और भूतनाथ के ऊपर नालिश करूँ तो मैं बहुत अच्छी रहूँ? मेरे मुकद्दमे की जवाबदेही भूतनाथ कदापि नहीं कर सकता और राजा साहब उसे प्राणदण्ड की आज्ञा देंगे। बलभद्रसिंह को छिपा रखने का यदि मुझ पर दोष लगाया जायगा तो मैं कह सकूँगी कि जिस जमाने में जो राजा होता है, प्रजा उसी का पक्ष करती है, अगर मैंने मायारानी और दारोगा के जमाने में उन लोगों का पक्ष किया तो कोई बुरा नहीं किया मैं इस बात को बिल्कुल नहीं जानती थी, बल्कि दारोगा भी नहीं जानता था कि राजा गोपालसिंह को मायारानी ने कैद कर रक्खा है।

अस्तु अब आपका राज्य हुआ है तो मैं आपकी सेवा में उपस्थित हुई हूँ।

जमालो : बात तो बहुत अच्छी है, फिर इस बात में देर क्यों कर रही हो? इस काम को जहाँ तक जल्द करोगी, तुम्हारा भला होगा।

बेगम : (कुछ सोचकर) अच्छी बात है ऐसा करने के लिए मैं कल ही यहाँ से रवाना हो जाऊँगी।

इतने ही में दरवाजे के बाहर से यह आवाज आयी, ‘‘मगर भूतनाथ को भी तो अपनी जान प्यारी है, वह ऐसा करने के लिये तुम्हें जाने कब देगा?’’

तीनों ने चौंककर दरवाजे की तरफ निगाह की और भूतनाथ को कमरे के अन्दर आते हुए देखा।

बेगम : (भूतनाथ से) आओ जी मेरे पुराने दोस्त, भला तुमने मेरे सामने आने का साहस तो किया!

भूतनाथ : साहस और जीवट तो हमारा असली काम है।

बेगम : (अपनी बाँयी तरफ इशारा करके) इधर बैठ जाओ। मालूम होता है कि पुरानी बातों को तुम बिल्कुल ही भूल गये।

भूतनाथ : (बेगम की दाहिनी तरफ बैठकर) हम दुनिया में आने से भी छः महीने पहिले की बात याद रखनेवाले आदमी हैं, आज वह दिन नहीं है, जिस दिन तुम्हें और जैपाल को देखने के साथ ही डर से मेरे बदन का खून रगों के अन्दर ही जम जाता था, बल्कि आज का दिन उसके बिल्कुल बिपरीत है।

बेगम : अर्थात् आज तुम मुझे देखकर खुश होते हो।

भूतनाथ : बेशक!

बेगम : क्या आज तुम मुझसे बिल्कुल नहीं डरते?

भूतनाथ : रत्ती-भर नहीं!

बेगम : क्या अब मैं अगर राजा बीरेन्द्रसिंह के यहाँ तुम पर नालिश करूँ तो मेरा मुकदमा न सुना जायगा और तुम साफ छूट जाओगे?

भूतनाथ : मगर अब तुम्हें राजा बीरेन्द्रसिंह के सामने पहुँचने ही कौन देगा?

बेगम : (क्रोध से) रोकेगा ही कौन?

भूतनाथ : गदाधरसिंह, जो तुम्हें अच्छी तरह सता चुका है और आज फिर सताने के लिए आया है।

बेगम : (क्रोध को पचाकर और कुछ सोचकर) मगर यह तो बताओ कि तुम बिना इत्तिला कराये, यहाँ चले क्यों आये और पहरेवाले सिपाहियों ने तुम्हें आने कैसे दिया?

भूतनाथ : तुम्हारे दरवाजे पर कौन है, जिसकी जुबानी मैं इत्तिला करवाता, या जो मुझे यहाँ आने से रोकता?

बेगम : क्या पहरे के सिपाही सब मर गये?

भूतनाथ : मर ही गये होंगे!

बेगम : क्या सदर दरवाजा हुआ और सुनसान है।

भूतनाथ : सुनसान तो है, मगर खुला हुआ नहीं है, कोई चोर न घुस आवे इस खयाल से आती समय मैं सदर दरवाजा भीतर से बन्द करता आया हूँ। डरो मत कोई तुम्हारी रकम उठाकर न ले जायगा।

बेगम : (मन-ही-मन चिढ़के) जमालो, जरा नीचे जाकर देख तो सही कमबख्त सिपाही सब क्या कर रहे हैं।

भूतनाथ : (जमालों से) खबरदार यहाँ से उठना मत इस समय इस मकान में मेरी हुकूमत है बेगम या जैपाल की नहीं। (बेगम से) अच्छा अब सीधी तरह से बता दो कि बलभद्रसिंह को कहाँ पर कैद कर रक्खा है।

बेगम : मैं बलभद्रसिंह को क्या जानूँ?

भूतनाथ : तो अभी किसको लेकर राजा बीरेन्द्रसिंह के पास जाने के लिए तैयार हो गयी थी।

बेगम : तेरे बाप को लेकर जानेवाली थी!

इतना सुनते ही भूतनाथ ने कसके एक चपत बेगम के गाल पर जमायी, जिससे वह तिलमिला गयी और कुछ ठहरने के बाद तकिये के नीचे से छूरा निकालकर भूतनाथ पर झपटी। भूतनाथ ने बायें हाथ से उसकी कलाई पकड़ ली और दाहिने हाथ से तिलिस्मी खंजर निकालकर उसके बदन में लगा दिया, साथ ही इसके फुर्ती से नौरतन और जमालों के बदन में भी तिलिस्मी खंजर लगा दिया, जिससे बात-की-बात में सभी बेहोश होकर जमीन पर लम्बी हो गयीं। इसके बाद भूतनाथ ने बड़े गौर से चारों तरफ देखना शुरू किया। इस कमरे में दो आलमारियाँ थीं, जिनमें बड़े-बड़े ताले लगे हुए थे, भूतनाथ ने तिलिस्मी खंजर मारकर एक अलमारी का कब्जा काट डाला और आलमारी खोलकर उसके अन्दर की चीजें देखने लगा। पहिले एक गठरी निकाली, जिसमें बहुत से कागज बँधे हुए थे। और पढ़ने लगा यहाँ तक कि सब कागज देख गया और शमादान में लगा-लगाकर सब जला के खाक कर दिये। इसके बाद एक सन्दूकड़ी निकाली, जिसमें ताला लगा हुआ था। इस सन्दूकड़ी में भी कागज भरे हुए थे। भूतनाथ ने उन कागजों को जला दिया, इसके बाद फिर आलमारी में ढूँढ़ना शुरू किया, मगर और कोई चीज उसके काम की न निकली।

भूतनाथ ने अब दूसरी आलमारी का कब्जा भी खंजर से काट डाला और अन्दर की चीजों को ध्यान देकर देखना शुरू किया। इस आलमारी में यद्यपि बहुत-सी चीजें भरी हुई थीं, मगर भूतनाथ ने केवल तीन चीजें उसमें से निकाल लीं। एक तो दस-बारह पन्ने की छोटी-सी किताब थी, जिसे पाकर भूतनाथ बहुत खुश हुआ, और चिराग के सामने जल्दी-जल्दी उलट-पलटकर दो तीन-पन्ने पढ़ गया, दूसरा एक ताली का गुच्छा था, भूतनाथ ने उसे लिया और तीसरी चीज एक हीरे की अँगूठी थी, जिसके साथ एक पुर्जा भी बँधा हुआ था। यह अँगूठी एक डिबिया के अन्दर रक्खी हुई थी। भूतनाथ ने अँगूठी में से पुर्जा खोलकर पढ़ा और इसके पाने से बहुत प्रसन्न होकर धीरे से बोला, ‘‘बस अब मुझे और किसी चीज की जरूरत नहीं है।’’

इन कामों से छुट्टी पाकर भूतनाथ बेगम के पास आया, जो अभी तक बेहोश पड़ी हुई थी, और उसकी तरफ देखकर बोला, ‘‘अब यह मेरा कुछ बिगाड़ नहीं सकती, ऐसी अवस्था में एक औरत के खून से हाथ रँगना व्यर्थ है।’’

भूतनाथ हाथ में शमादान लिये निचले खण्ड में उतर गया जहाँ, उसके दो आदमी हाथ में नंगी तलवार लिये हुए मौजूद थे। उसने अपने साथियों की तरफ देखकर कहा, ‘‘बस हमारा काम हो गया। बलभद्रसिंह इसी मकान में कैद है, उसे निकालकर यहाँ से चल देना चाहिए।’’ इतना कहकर भूतनाथ ने शमादान अपने एक साथी के हाथ में दे दिया और एक कोठरी के दरवाजे पर जा खड़ा हुआ, जिसमें दोहरा ताला लगा हुआ था। तालियों का गुच्छा जो ऊपर से लाया था, उसी से ताली लगाकर ताला खोला और अपने आदमियों को साथ लिये हुए कोठरी के अन्दर घुसा। वह कोठरी खाली थी, मगर उसमें एक दूसरी कोठरी में जाने के लिए दरवाजा था, और उसकी जंजीर में भी ताला लगा हुआ था। ताली लगाकर उस ताले को भी खोला और दूसरी कोठरी के अन्दर गया। इसी कोठरी में लक्ष्मीदेवी कमलिनी और लाडिली का बाप बलभद्रसिंह कैद था।

दरवाजा खोलते समय जंजीर खटकने के साथ ही बलभद्रसिंह चैतन्य हो गया था। जिस समय उसकी निगाह यकायक भूतनाथ पर पड़ी, वह चौंक उठा और ताज्जुब भरी निगाहों से भूतनाथ को देखने लगा। भूतनाथ ने भी ताज्जुब की निगाह से बलभद्रसिंह को देखा और अफसोस किया, क्योंकि बलभद्रसिंह की अवस्था बहुत खराब हो रही थी। शरीर सूख के काँटा हो गया था, चेहरे पर और बदन में झुर्रियाँ पड़ गयी थीं, सर मूँछ और दाढ़ी के बाल इतने बढ़ गये थे कि जंगली मनुष्यों में और उसमें कुछ भी भेद नहीं जान पड़ता था, अँधेरे में रहते-रहते बदन पीला पड़ गया था, सूरत-शक्ल से भी बहुत डरावना मालूम पड़ता था। एक कम्बल, मिट्टी की ठिलिया और पीतल का लोटा बस यही उसकी बिसात थी,कोठरी में और कुछ भी न था। भूतनाथ को देखकर वह जिस ढंग से चौंका और काँपा, उसे देख भूतनाथ ने गर्दन नीची कर ली और तब धीरे से कहा, ‘‘आप उठिए और जल्दी निकल चलिए, मैं आपको छुड़ाने के लिए आया हूँ।’’

बलभद्र : (आश्चर्य से) क्या तू मुझे छुड़ाने के लिए आया है! क्या यह बात सच है?

भूतनाथ :  जी हाँ।

बलभद्र : मगर मुझे विश्वास नहीं होता।

भूतनाथ : खैर, इस समय आप यहाँ से निकल चलिए, फिर जो कुछ सवाल-जवाब या सोच-विचार करना हो कीजिएगा।

बलभद्र : (खड़े होकर) कदाचित् यह बात सच हो! और अगर झूठ भी हो तो कोई हर्ज नहीं, क्योंकि मैं इस कैद में रहने के बनिस्बत जल्द मर जाना अच्छा समझता हूँ!

भूतनाथ ने इस बात का कुछ जवाब न दिया और बलभद्रसिंह को अपने पीछे-पीछे आने का इशारा किया। बलभद्रसिंह इतना कमजोर हो गया था कि उसे मकान के नीचे उतरना कठिन जान पड़ता था, इसलिए भूतनाथ ने उसका हाथ थाम लिया और नीचे उतरकर दरवाजे के बाहर ले गया। मकान के दरवाजे के बाहर, बल्कि गली-भर में सन्नाटा छाया हुआ था, क्योंकि यह मकान ऐसी अँधेरी और सन्नाटे की गली में था कि वहाँ शायद महीने में एक दफे किसी भले आदमी का गुजर नहीं होता होगा। दरवाजे पर पहुँचकर भूतनाथ ने बलभद्रसिंह से पूछा, ‘‘आप घोड़े पर सवार हो सकते हैं?’’

इसके जवाब में बलभद्रसिंह ने कहा, ‘‘मुझे उचककर सवार होने कि ताकत तो नहीं। हाँ, अगर बिठा दोगे तो गिरूँगा नहीं!’’

भूतनाथ ने शमादान मकान के भीतर चौक में रख दिया और तब बलभद्रसिंह को आगे बढ़ा ले गया। थोड़ी ही दूर पर एक आदमी दो कसे कसाये घोड़ों की बागडोर थामें हुए बैठा था। भूतनाथ एक घोड़े पर बलभद्रसिंह को सवार कराके दूसरे घोड़े पे आप जा बैठा, और आपने तीनों आदमियों को कुछ कहकर वहाँ से रवाना हो गया।

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