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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8402
आईएसबीएन :978-1-61301-029-7

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...

चौथा बयान


जब जिन्न और भूतनाथ को पहाड़ के नीचे पहुँचाकर देवीसिंह चले गये तो वे दोनों आपुस में नीचे लिखी बातें करते हुए पूरब की तरफ रवाना हुए–

भूतनाथ : निःसन्देह आपने मुझ पर बड़ी कृपा की, यदि आज आप मेरे सहायक न होते तो मैं तबाह हो चुका था।

जिन्न : सो सब तो ठीक है, मगर देखो आज हमने तुमको अपनी जमानत पर इसलिए छु़ड़ा दिया है कि तुम जिस तरह हो असली बलभद्रसिंह को खोज निकालो, और उन्हें अपने साथ लेकर राजा बीरेन्द्रसिंह के पास हाजिर हो जाओ, लेकिन ऐसा न करना कि बलभद्रसिंह का पता लगाने के बदले तुम स्वयं अन्तर्ध्यान हो जाओ और हमको राजा बीरेन्द्रसिंह के आगे झूठा करो।

भूतनाथ : नहीं नहीं, ऐसा कदापि नहीं हो सकता। यदि मुझे नेकनामी के साथ राजा बीरेन्द्रसिंह का ऐयार बनने का शौक न होता तो मैं इन बखेड़ों में क्यों पड़ता? बिना कुछ पाये उनका इतना काम क्यों करता? रुपये की मुझे कुछ परवाह न थी, मैं किसी दूसरे देश में चला जाता और खुशी के साथ जिन्दगी बिताता। मगर नहीं, मुझे राजा बीरेन्द्रसिंह के साथ रहने का बड़ा उत्साह है और जिस दिन से राजा गोपालसिंह का पता लगा है, उसी दिन से मैं उनके दुश्मनों की खोज में लगा हूँ, और बहुत-सी बातों का पता लगा भी चुका हूँ।

जिन्न : (बात काटकर) तो क्या तुमको इस बात की खबर न थी कि मायारानी ने गोपालसिंह को कैद करके किसी गुप्त स्थान में रख दिया है?

भूतनाथ : नहीं बिल्कुल नहीं।

जिन्न : और इस बात की भी खबर न थी कि मायारानी वास्तव में लक्ष्मीदेवी नहीं है?

भूतनाथ : इस बात को तो मैं अच्छी तरह जानता था।

जिन्न : तो तुमने राजा गोपालसिंह के आदमियों को इस बात की खबर क्यों नहीं की?

भूतनाथ : मैंने इसलिए मायारानी का असल हाल किसी से नहीं कहा कि मुझे राजा गोपालसिंह के मरने का पूरा-पूरा विश्वास हो चुका था, और उसके पहिले मैं रणधीरसिंहजी के यहाँ नौकर था, तब मुझे दूसरे राज्य के भले-बुरे कामों से मतबल ही क्या था?

जिन्न : तुमसे और हेलासिंह से जब दोस्ती थी, तब तुम किसके नौकर थे?

भूतनाथ : मुझसे और हेलासिंह से कभी दोस्ती थी ही नहीं! मैं तो आपसे कैद खाने के अन्दर ही कह चुका हूँ कि राजा गोपालसिंह के छूटने के बाद मैंने उन कागजों का पता लगाया है, जो इस समय मेरे ही साथ दुश्मनी कर रहे हैं और...

जिन्न : हाँ हाँ, जो कुछ तुमने कहा था, मुझे बखूबी याद है, अच्छा अब यह बताओ कि इस समय तुम कहाँ जाओगे और क्या करोगे?

भूतनाथ : मै खुद नहीं जानता कि कहाँ जाऊँगा और क्या करूँगा, बल्कि यह बात मैं आप ही से पूछनेवाला था।

जिन्न : (ताज्जुब से) क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि बलभद्रसिंह को किसने कैद किया और अब वह कहाँ है?

भूतनाथ : इतना तो मैं जानता हूँ कि बलभद्रसिंह को मायारानी के दारोगा ने कैद किया था, मगर यह नहीं मालूम कि इस समय वह कहाँ है।

जिन्न : अगर ऐसा ही है तो कमलिनी के तिलिस्मी मकान के बाहर तुमने तेजसिंह से क्यों कहा था कि मेरे साथ कोई चले तो मैं असली बलभद्रसिंह को दिखा दूँगा? इस बात से तुम खुद झूठे साबित होते हो!

भूतनाथ : जी हाँ, बेशक मैंने नादानी की, जो ऐसा कहा, मगर मुझे इस बात का निश्चय हो चुका है कि बलभद्रसिंह अभी तक जीता है, और उसे तिलिस्मी दारोगा ने कैद कर लिया था।

जिन्न : इसी से तो मैं पूछता हूँ कि अब तुम कहाँ जाओगे और क्या करोगे?

भूतनाथ : अगर वह दारोगा मेरे काबू में होता तब तो मैं सहज ही में पता लगा लेता, मगर अब मुझे इसके लिए बहुत कुछ उद्योग करना होगा, तथापि इस समय मैं जमानिया में राजा गोपालसिंह के पास जाता हूँ, यदि उन्होंने मेरी मदद की तो अपना काम बहुत जल्द कर सकूँगा, मगर आशा नहीं है कि वे मेरी मदद करेंगे, क्योंकि जब वे मेरे मुकद्दमें का हाल सुनेंगे तो जरूर मुझको नालायक बनायेंगे। (कुछ सोचकर) अभी तक यह भी मुझे मालूम नहीं हुआ कि आप कौन हैं, अगर जानता तो कहता कि राजा गोपालसिंह के नाम की आप एक चीठी लिख दें।

जिन्न : मेरा परिचय तुम्हें सिवाय इसके और कुछ नहीं मिल सकता कि मैं जिन्न हूँ और हर जगह पहुँचने की ताकत रखता हूँ। खैर, तुम राजा गोपालसिंह के पास जाओ और उनसे मदद माँगो, मैं तुम्हें एक सिफारिशी चीठी देता हूँ, तुम्हारे पास कागज, कलम, दवात है?

भूतनाथ : जी हाँ, आपकी कृपा से मुझे मेरी ऐयारी का बटुआ मिल गया है, और उसमें सब सामान मौजूद है।

इतना कहकर भूतनाथ रुक गया और एक पेड़ के नीचे बैठने के लिए जिन्न को कहा, मगर जिन्न ने ऐसा करने से इनकार किया, और आगे की तरफ इशारा करके कहा, ‘‘उस पेड़ के नीचे चलकर हम ठहरेंगे, क्योंकि वहाँ हमारा घोड़ा मौजूद है।’’

थोड़ी ही देर में दोनों आदमी उस पेड़ के नीचे जा पहुँचे। भूतनाथ ने देखा कि कसे-कसाये दो उम्दा घोड़े उस पेड़ की जड़ के साथ बागडोर के सहारे बँधे हैं, और जिन्न ही की सूरत-शक्ल चाल-ढाल का एक आदमी उनके पास टहल रहा है, जिन्न के वहाँ पहुँचते ही सलाम करके एक किनारे खड़ा हो गया। जिन्न ने भूतनाथ से कलम, दावात और कागज लेकर कुछ लिखा और भूतनाथ को देकर कहा, ‘‘यह चीठी राजा गोपालसिंह को देना, बस अब तुम जाओ।’’ इतना कहकर जिन्न एक घोड़े पर सवार हो गया, जिन्न की सूरत का दूसरा आदमी जो वहाँ मौजूद था, दूसरे घोड़े पर सवार हो गया और भूतनाथ के देखते-ही-देखते दूर जाकर वे दोनों उसकी नजरों से गायब हो गये। भूतनाथ दरद्दुद और परेशानी के सबब से उदास और सुस्त हो गया था, इसलिए थोड़ी देर तक आराम करने की नियति से उसी पेड़ के नीचे बैठ जाने बाद उस पत्र को पढ़ने लगा, जो जिन्न ने राजा गोपालसिंह के लिए लिख दिया था, मगर हजार कोशिश करने पर भी उससे वह चीठी पढ़ी न गयी क्योंकि सिवाय टेढ़ी-मेढ़ी और पेचीली लकीरों के किसी साफ अक्षर का उसके अन्दर भूतनाथ को पता ही न लगा।

आधे घण्टे तक आराम करने बाद भूतनाथ उठ खड़ा हुआ और ‘लामाघाटी’ की तरफ रवाना हुआ।

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