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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8402
आईएसबीएन :978-1-61301-029-7

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...

पाँचवाँ बयान


कुमार की आज्ञानुसार इन्दिरा ने पुनः अपना किस्सा कहना शुरू किया।

‘‘चम्पा ने मुझे दिलासा देकर बहुत कुछ समझाया और मेरी मदद करने का वायदा किया और यह भी कहा कि आज से अपना नाम बदल दे। मैं तुझे अपने घर ले चलती हूँ, मगर इस बात का खूब ध्यान रखियो कि यदि कोई तुझसे तेरा नाम पूछे तो सरला बताइयो और यह सब हाल जो तूने मुझसे कहा है, अब और किसी से बयान न कीजियो। मैंने चम्पा की बात कबूल कर ली और वह मुझे अपने साथ चुनारगढ़ ले गयी। वह पहुँचने पर जब मुझे चम्पा की इज्जत और मर्तबें का हाल मालूम हुआ तो मैं अपने दिल में बहुत खुश हुई और विश्वास हो गया कि वहाँ रहने में मुझे किसी तरह का डर नहीं है, और इसकी मेहरबानी से अपने दुश्मनों से बदला ले सकूँगी।

चम्पा ने मुझे हिफाजत और आराम से अपने यहाँ रक्खा, और मेरा सच्चा हाल अपनी प्यारी सखी चपला के सिवाय और किसी से भी न कहा। निःसन्देह उसने मुझसे लड़की के समान रक्खा, और ऐयारी की विद्या भी दिल लगाकर सिखलाने लगी, मगर अफसोस किस्मत ने मुझे बहुत दिनों तक उसके पास रहने न दिया, और थोड़े ही जमाने के बाद (इन्द्रजीतसिंह की तरफ इशारा करके) आपको गया की रानी माधवी ने धोखा देकर गिरफ्तार कर लिया। चम्पा और चपला आपकी खोज में निकलीं, मुझे भी उनके साथ जाना पड़ा और उसी जमाने में मेरा और चम्पा का साथ छूटा।’’

आनन्द : तुम्हें यह कैसे मालूम हुआ कि भैया को माधवी ने गिरफ्तार कराया था?

इन्दिरा : माधवी के दो आदमियों को चम्पा और चपला ने अपने काबू में कर लिया। पहिले छिपकर उन दोनों की बातें सुनीं, जिससे विश्वास हो गया कि दोनों माधवी के नौकर हैं और कुँअर साहब को गिरफ्तार कर लेने में दोनों शरीक थे, मगर यह समझ में न आया कि जिसके ये लोग नौकर हैं, वह माधवी कौन है, और कुँअर साहब को ले जाकर उसने कहाँ रक्खा है। लाचार चम्पा ने धोखा देकर उन लोगों को अपने काबू में किया और कुँअर साहब का हाल उनसे पूछा। मैंने उन दोनों के ऐसा जिद्दी आदमी कोई न देखा होगा। आपने स्वयं देखा था कि चम्पा ने उस खोह में उसे कितना दुःख देकर मारा, मगर उस कमबख्त ने ठीक-ठीक पता नहीं दिया। उस समय वहाँ चम्पा का नौकर भी हबशी के रूप में काम कर रहा था, आपको याद होगा।

आनन्द : वह माधवी ही का आदमी था?

इन्दिरा जी हाँ, और उसकी बातों का आपने दूसरा ही मतलब लगा लिया था।

आनन्द : ठीक है, अच्छा फिर उस दूसरे आदमी की क्या दशा हुई क्योंकि चम्पा ने तो दो आदमियों को पकड़ा था?

इन्दिरा : वह दूसरा आदमी भी चम्पा के हाथ से उसी रोज उसके थोड़ी देर पहिले मारा गया था।

आनन्द : हाँ ठीक है, उसके थोड़ी देर पहिले चम्पा ने एक और आदमी को मारा था। जरूर यह वही होगा, जिसके मुँह से निकले हुए टूटे-फूटे शब्दों ने हमें धोखे में डाल दिया था। अच्छा उसके बाद क्या हुआ? तुम्हारा साथ उनसे कैसे छूटा?

इन्दिरा : चम्पा और चपला जब वहाँ से जाने लगीं तो ऐयारी का बहुत कुछ सामान और खाने-पीने की चीजें उसी खोह में रखकर मुझसे कह गयीं कि जब तक हम दोनों या दोनों में से कोई एक लौटकर न आवे तब तक तू तो इसी जगह रहियो-इत्यादि, मगर मुझे बहुत दिनों तक उन दोनों का इन्तजार करना पड़ा, यहाँ तक कि जी ऊब गया और मैं ऐयारी का कुछ सामान लेकर उस खोह से बाहर निकली, क्योंकि चम्पा की बदौलत मुझे कुछ-कुछ ऐयारी भी आ गयी थी। जब मैं उस पहाड़ और जंगल को पार करके मैदान में पहुँची तो सोचने लगी कि अब क्या करना चाहिए, क्योंकि बहुतसी बँधी हुई उम्मीदों का उस समय खून हो रहा था, और अपनी माँ की चिन्ता के कारण, मैं बहुत ही दुखी हो रही थी। यकायक मेरी निगाह एक ऐसी चीज पर पड़ी, जिसने मुझे चौंका दिया और मैं घबड़ाकर उस तरफ देखने लगी...

इन्दिरा और कुछ कहा ही चाहती थी कि यकायक जमीन के अन्दर से बड़े जोर शोर के साथ घड़घड़ाहट की आवाज आने लगी, जिसने सभों को चौंका दिया और इन्दिरा घबड़ाकर राजा गोपालसिंह का मुँह देखने लगी। सवेरा हो चुका था और पूरब तरफ से उदय होनेवाले सूर्य की लालिमा ने आसमान का कुछ भाग अपनी बारीक चादर के नीचे ढाँक लिया था।

गोपाल : (कुमार से) अब आप दोनों भाइयों का यहाँ ठहरना उचित नहीं जान पड़ता, यह आवाज जो जमीन के नीचे से आ रही है, निःसन्देह तिलिस्मी कल-पुर्जों के हिलने या घूमने के सबब से है। एक तौर पर आप तिलिस्म तोड़ने में हाथ लगा चुके हैं। अस्तु, इस काम में रुकावट नहीं हो सकती। इस आवाज को सुनकर आपके दिल में भी यही खयाल पैदा हुआ होगा। अस्तु, अब आप क्षण-भर भी विलम्ब न कीजिए।

कुमार : बेशक ऐसी ही बात है, आप भी यहाँ से शीघ्र चले जाइए, मगर इन्दिरा का क्या होगा?

गोपाल : इन्दिरा को इस समय मैं अपने साथ ले जाता हूँ फिर जोकुछ होगा देखा जायगा।

कुमार : अफसोस कि इन्दिरा का कुल हाल सुन न सके, खैर लाचारी है।

गोपाल : कोई चिन्ता नहीं, आप तिलिस्म का काम तमाम करके इसकी माँ को छुड़ाएँ, फिर सब हाल सुन लीजिए। हाँ, आपसे वादा किया था कि अपनी तिलिस्मी किताब आपको पढ़ने के लिए दूँगा, मगर वह किताब गायब हो गयी थी, इसलिए दे न सका था, अब (किताब दिखाकर) इन्दिरा के साथ ही किताब भी मुझे मिल गयी है, इसे पढ़ने के लिए मैं आपको दे सकता हूँ, यदि आप इसे अपने साथ ले जाना चाहें तो ले जाँय।

इन्द्रजीत : समय की लाचारी इस समय हम लोगों को आपसे जुदा करती है और यह निश्चय नहीं हो सकता कि पुनः कब आपसे मुलाकात होगी और यह किताब हम लोग ले जाँयगे तो कब वापस करने की नौबत आवेगी। तिलिस्मी किताब जो मेरे पास, है, उसके पढ़ने और बाजे की आवाज को सुनने से मुझे विश्वास होता है कि आपकी किताब पढ़े बिना भी हम लोग तिलिस्म तोड़ सकेंगे। यदि मेरा यह खयाल ठीक है, तो आपके पास से यह किताब ले जाकर आपका बहुत बड़ा हर्ज करना समयानुकूल न होगा।

गोपाल : ठीक है, इस किताब के बिना आपको कोई खास हर्ज नहीं हो सकता और इसमें कोई शक नहीं कि बिना इसके मैं बेहाथ-पैर का हो जाऊँगा।

इन्द्रजीत : तो इस किताब को आप-आपने पास ही रहने दीजिए, फिर जब मुलाकात होगी तो देखा जायगा, अब हम लोग बिदा होते हैं।

गोपाल : खैर जाइए, हम आप दोनो भाइयों को दयानिधि ईश्वर के सुपुर्द करते हैं।

इसके बाद राजा गोपालसिंह ने जल्दी-जल्दी कुछ बातें दोनों कुमारों को समझाकर बिदा किया और आप भी इन्दिरा को साथ ले महल की तरफ रवाना हो गये।

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