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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8402
आईएसबीएन :978-1-61301-029-7

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...

नौवाँ बयान


रात, आधी से कुछ ज्यादे जा चुकी है, और दोनों कुमार बाग के बीचवाले उसी दालान में सोये हुए हैं। यकायक किसी तरह की भयानक आवाज सुनकर दोनों भाइयों की नींद टूट गयी और वे दोनों उठकर जँगले के नीचे चले आये। चारों तरफ देखने पर जब इनकी निगाह उस तरफ गयी, जिधर वह पिण्डी थी तो कुछ रोशनी मालूम पड़ी, दोनों भाई उसके पास गये तो देखा कि उस पिण्डी में से हाथ-भर ऊँची लाट निकल रही है। यह लाट (आग की ज्योति) नीले और कुछ पीले रंग की मिली-जुली थी। साथ ही इसके यह भी मालूम हुआ कि लाह या राल की तरह वह पिण्डी गलती हुई जमीन के अन्दर धँसती चली जा रही है। उस पिण्डी में से जो धुआँ निकल रहा था, उसमें धूप या लोबान की-सी खुशबू आ रही थी।

थोड़ी देर तक दोनों कुमार वहाँ खड़े रहकर यह तमाशा देखते रहे, इसके बाद इन्द्रजीतसिंह यह करते हुए बँगले की तरफ लौटे, ‘‘ऐसा तो होना ही था, मगर उस भयानक आवाज का पता न लगा, शायद इसी में से वह आवाज भी निकली हो।’’ इसके जवाब में आनन्दसिंह ने कहा, ‘‘शायद ऐसा ही हो!’’

दोनों कुमार अपने ठिकाने चले गये और बची हुई रात बात-चीत में काटी क्योंकि खुटका हो जाने के कारण फिर उन्हें नींद न आयी। सवेरा होने पर जब वे दोनों पुनः उस पिण्डी के पास गये तो देखा कि आग बुझी हुई है और पिण्डी की जगह बहुत-सी पीले रंग की राख मौजूद है। यह देख दोनों भाई वहाँ से लौट आये और अपने नित्यकर्म से छुट्टी पा पुनः वहाँ जाकर उस पीले रंग की राख को निकाल वह जगह साफ करने लगे। मालूम हुआ कि वह पिण्डी जो जलकर राख हो गयी है, लगभग तीन हाथ के जमीन के अन्दर थी और इसलिए राख साफ हो जाने पर तीन हाथ का गड़हा इतना लम्बा-चौड़ा निकल आया कि जिसमें दो आदमी बखूबी जा सकते थे। गड़हे के पेंदे में लोहे का एक तख्ता था, जिसमें कड़ी लगी हुई थी। इन्द्रजीतसिंह ने कड़ीं में हाथ डालकर वह लोहे का तख्ता उठा लिया और आनन्दसिंह को देकर कहा, ‘‘इसे किनारे रख दो।’’

लोहे का तख्ता हटा देने के बाद ताले के मुँह की तरह एक सूराख नजर आया, जिसमें इन्द्रजीतसिंह ने वही तिलिस्मी ताली डाली, जो पुतली के हाथों में से ली थी। कुछ तो वह ताली ही विचित्र बनी हुई थी, और कुछ ताला खोलते समय इन्द्रजीतसिंह को बुद्धिमानी से भी काम लेना पड़ा। ताला खुल जाने बाद जब दरवाजे की तरह का एक पल्ला हटाया गया तो नीचे उतरने के लिए सीढ़ियाँ नजर आयी। तिलिस्मी खञ्जर की रोशनी के सहारे दोनों भाई नीचे उतरे और भीतर से दरवाजा बन्द कर लिया, क्योंकि ताले का छेद दोनों तरफ था, और वही ताली दोनों तरफ काम देती थी।

पन्द्रह या सोलह सीढ़ियाँ उतर जाने के बाद दोनों कुमारों को थोड़ी दूर तक एक सुरंग में चलना पड़ा। इसके बाद ऊपर चढ़ने के लिए पुनः सीढ़ियाँ मिली और तब उसी ताली से खुलने लायक एक दरवाजा। सीढ़ियाँ चढ़ने और दरवाजा खोलने के बाद कुमारों को कुछ मिट्टी हटानी पड़ी, और इसके बाद वे दोनों जमीन के बाहर निकले।

इस समय दोनों ने अपने को एक और ही बाग में पाया जो लम्बाई-चौड़ाई में उस बाग से कुछ छोटा था, जिसमें से कुमार आये थे। पहिले बाग की तरह यह बाग भी एक प्रकार से जंगल हो रहा था। इन्दिरा की माँ अर्थात् इन्द्रदेव की स्त्री, इसी बाग में मुसीबत की घड़ियाँ काट रही थी और इस समय भी इस बाग में मौजूद थी, इसीलिए बनिस्बत पहिले बाग के इस बाग का नक्शा कुछ खुलासे तौर पर लिखना आवश्यक है।

इस बाग में किसी तरह की इमारत न थी, न तो कोई कमरा था और न कोई बँगला या दालन था, इसलिए बेचारी सर्यू को जाड़े के मौसम की कलेजा दहलाने वाली सर्दी, गर्मी की कड़कती हुई धूप और बरसात का मूसलाधार पानी अपने कोमल शरीर ही के ऊपर बर्दाश्त करना पड़ता था। हाँ, कहने के लिए ऊँचे बड़, और पीपल के पेड़ों का कुछ सहारा हो तो हो, मगर बड़े प्यार से पाली जाकर दिन-रात सुख ही से बितानेवाली एक पतिव्रता के लिए जंगलों और भयानक पेड़ों का सहारा, सहारा नहीं कहा जा सकता बल्कि वह उसके लिए डराने और सताने का सामान माना जा सकता है। हाँ, वहाँ थोड़े से पेड़ ऐसे भी जरूर थे जिनकें फलों को खाकर पति-मिलाप की आशालता में उलझी हुई, अपनी जान को बचा सकती थी, और प्यास दूर करने के लिए उस नहर का पानी भी मौजूद था, जो मनुवाटिका में से होती हुई इस बाग में भी आकर बेचारी सर्यू की जिन्दगी का सहारा हो रही थी। पर तिलिस्म बनानेवालों ने उस नहर को इस योग्य नहीं बनाया था कि कोई उसके मुहाने को दम-भर के लिए सुरंग मानकर एक बाग से दूसरे बाग में जा सके। इस बाग की चहारदीवारी में भी विचित्र कारीगरी की गयी थी। दीवार कोई छू भी नहीं सकता था, कई प्रकार की धातुओं से इस बाग की सात हाथ ऊँची दीवार बनायी गयी थी। जिस तरह रस्सियों के सहारे कनात खड़ी की जाती है, शक्ल-सूरत में वह दीवार वैसी ही मालूम पड़ती थी, अर्थात् एक-एक-दो-दो कहीं-कहीं तीन-तीन हाथ की दूरी पर दीवार में लोहे की जंजीरे लगी हुई थीं, जिसका एक सिरा तो दीवार के अन्दर घुस गया था, और दूसरा सिरा जमीन के अन्दर। चारों तरफ की दीवार में से किसी भी जगह हाथ लगाने से आदमी के बदन में बिजली का असर हो जाता था, और वह बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ता था। यही सबब था कि बेचारी सर्यू उस दीवार के पार हो जाने के लिए कोई उद्योग न कर सकी, बल्कि इस चेष्टा में उसे कई दफे तकलीफ भी उठानी पड़ी।

इस बाग के उत्तर तरफ की दीवार के साथ सटा हुआ एक छोटा सा मकान था। इस बाग में खड़े होकर देखनेवालों को तो यह मकान ही मालूम होता था, मगर हम नहीं कह सकते कि दूसरी तरफ से उसकी क्या सूरत थी। इसकी सात खिड़कियाँ इस बाग की तरफ थीं, जिनसे मालूम होता था कि यह इस मकान का एक खुलासा कमरा है। इस बाग में आने पर सबसे पहिले, जिस चीज पर कुँअर इन्द्रजीतसिंह की निगाह पड़ी, वह यही कमरा था, और उसकी तीन खिड़कियों में से इन्दिरा, इन्द्रदेव और राजा गोपालसिंह इस बाग की तरफ झाँककर किसी को देख रहे थे, और इसके बाद जिस पर उनकी निगाह पड़ी, वह जमाने के हाथों से सतायी हुई बेचारी सर्यू थी, मगर उसे दोनों कुमार पहिचानते न थे।

जिस तरह कुँअर इन्द्रजीतसिंह और उनके बताने से आनन्दसिंह ने राजा गोपालसिंह इन्द्रदेव और इन्दिरा को देखा, उसी तरह उन तीनों ने भी दोनों कुमारों को देखा और दूर ही से साहब सलामत की।

इन्दिरा ने हाथ जोड़कर और अपने पिता की तरफ बताकर कुमारों से कहा, ‘‘आप ही के चरणों की बदौलत मुझे अपने पिता के दर्शन हुए?’’

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