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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8402
आईएसबीएन :978-1-61301-029-7

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चन्द्रकान्ता सन्तति - 4 का ई-पुस्तक संस्करण...

आठवाँ बयान


हम ऊपर लिख आये हैं कि लक्ष्मीदेवी और बलभद्रसिंह अजायबघर के किसी तहखाने में कैद किये गये थे। मगर मायारानी और हेलासिंह इस बात को नहीं जानते थे कि उन दोनों को दारोगा ने कहाँ कैद कर रखा है।

इसके कहने की कोई आवश्यकता नहीं कि बलभद्रसिंह और लक्ष्मीदेवी कैदखाने में क्योंकर मुसीबत के दिन काटते थे। ताज्जुब की बात तो यह थी कि दारोगा अक्सर इन दोनों के पास जाता और बलभद्रसिंह के ताने और गालियाँ बरदाश्त करता। मगर उसे किसी तरह की शर्म नहीं आती थी। जिस घर में वे दोनों कैद थे, उसमें रात और दिन का विचार करना कठिन था। उन दोनों से थोड़ी ही दूर पर एक चिराग दिन-रात जला करता था, जिसकी रोशनी में वे एक दूसरे के उदास और रंजीदे चेहरे को बराबर देखा करते थे।

जिस कोठरी में वे दोनों कैद थे, उसके आगे लोहे का जंगला लगा हुआ था, तथा सामने की तरफ एक दालान और दाहिने तरफ एक कोठरी तथा बायीं तरफ ऊपर चढ़ जाने का रास्ता था। एक दिन आधी रात के समय एक खटके की आवाज सुनकर लक्ष्मीदेवी जो एक मामूली कम्बल पर सोयी हुई थी, उठ बैठी और सामने की तरफ देखने लगी। उसने देखा की सामने से सीढ़ियाँ उतरकर चेहरे पर नकाब डाले हुए एक आदमी आ रहा है। जब लोहे वाले जंगले के पास पहुँचा तो उसकी तरफ देखने लगा कि दोनों कैदी सोये हुए हैं, या जागते, मगर जब उसने लक्ष्मीदेवी को बैठे हुए पाया तो बोला, ‘‘बेटी, मुझे तुम दोनों की अवस्था पर बड़ा ही रंज होता है, क्या करूँ लाचार हूँ, अभी तक मौका मेरे हाथ नहीं लगा मगर फिर भी मैं यह कहे बिना नहीं रह सकता कि किसी-न-किसी दिन तुम दोनों को मैं कैद से छुड़ाऊँगा। आज इस समय मैं केवल यह कहने के लिए आया हूँ कि आज दारोगा ने बलभद्रसिंह को जो खाने की चीजें दी थीं, उसमें जहर मिला हुआ था। अफसोस कि बेचारा बलभद्रसिंह उसे खा गया ताज्जुब नहीं कि वह इस दुनिया से घण्टे-ही-दो-घण्टे में कूच कर जाये, लेकिन यदि तू उसे जगा दे और जोकुछ मैं कहूँ करे, तो निःसन्देह उसकी जान बच जायेगी।’’

बेचारी लक्ष्मीदेवी के लिए पहिले की मुसीबतें क्या कम थीं और इस खबर ने उसके दिल पर क्या असर किया सो वही जानती होगी। वह घबराई हुई अपने बाप के पास गयी, जो एक कम्बल पर सो रहा था। उसने उसे उठाने की कोशिश की, मगर उसका बाप न उठा, तब उसने समझा कि बेशक जहर ने उसके बाप की जान ले ली, मगर जब उसने नब्ज की उँगली रक्खी तो नब्ज पर तेजी के साथ चलता पाया। लक्ष्मीदेवी की आँखों से बेअन्दाज आँसू जारी हो गये। वह लपककर जंगले के पास आयी और उस आदमी से हाथ जोड़कर बोली, ‘‘निःसन्देह तुम कोई देवता हो, जो इस समय मेरी मदद के लिए आये हो! यद्यपि मैं यहाँ मुसीबत के दिन काट रही हूँ, मगर फिर भी अपने पिता को अपने पास देखकर मैं मुसीबत को कुछ नहीं गिनती थी, अफसोस दारोगा मुझे इस सुख से भी दूर किया चाहता है। जो कुछ तुमने कहा सो बहुत ठीक है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं कि दारोगा ने मेरे बाप को जहर दे दिया, मगर मैं तुम्हारी दूसरी बात पर भी विश्वास करती हूँ, जो तुम अभी कह चुके हो कि यदि तुम्हारी बतायी हुई तरकीब की जायगी तो इनकी जान बच जायगी।’’

नकाबपोश : बेशक, ऐसा ही है (एक पुड़िया जंगले के अन्दर फेंककर) यह दवा तुम उनके मुँह में डाल दो, घण्टे ही भर में जहर का असर दूर हो जायगा, और मैं प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ कि इस दवा की तासीर से भविष्य में इन पर किसी जहर का असर न होने पावेगा।

लक्ष्मीदेवी : अगर ऐसा हो तो क्या बात है!

नकाबपोश : बेशक, ऐसा ही है, पर अब विलम्ब न करो और वह दवा शीघ्र अपने बाप के मुँह में डाल दो, लो अब मैं जाता हूँ, ज्यादे देर तक ठहर नहीं सकता।

इतना कहकर नकाबपोश चला गया और लक्ष्मीदेवी ने पुड़िया खोलकर अपने बाप के मुँह में वह दवा डाल दी।

इस जगह यह कह देना हम उचित समझते हैं कि यह नकाबपोश जो आया था, दारोगा का वही मित्र जैपालसिंह था और इसे दारोगा ने अपने इच्छानुसार खूब सिखा-पढ़ाकर भेजा था। वह अपने चेहर और बदन को विशेष कर इसलिए ढके हुए था कि उसका चेहरा और तमाम बदन गर्मी के जख्मों से गन्दा हो रहा था और उन्हीं जख्मों की बदौलत वह दारोगा का एक भारी काम निकालना चाहता था।

दवा देने के घण्टे-भर बाद बलभद्रसिंह होश में आया। उस समय लक्ष्मीदेवी बहुत खुश हुई और उसने अपने बाप से मिजाज का हाल पूछा। बलभद्रसिंह ने कहा, ‘‘मैं नहीं जानता कि मुझे क्या हो गया था, और अब मेरे बदन में चिनगारियाँ क्यों छूट रही हैं।’’ लक्ष्मीदेवी ने सब हाल कहा, जिसे सुन बलभद्रसिंह बोला, ‘‘ठीक है, तुम्हारी खिलायी हुई दवा ने मेरी जान तो बचा ली, परन्तु मैं देखता हूँ कि जहर का असर मुझे साफ छोड़ा नहीं चाहता, निःसन्देह इसकी गर्मी मेर तमाम बदन को बिगाड़ देगी!’’ इतना कहकर बलभद्रसिंह चुप हो गया और गर्मी की बेचैनी से हाथ-पैर मारने लगा। सुबह होते-होते उसके तमाम बदन में फफोले निकल आये, जिसकी तकलीफ से वह बहुत ही बेचैन हो गया। बेचारी लक्ष्मीदेवी उसके पास बैठकर सिवा रोने के और कुछ भी नहीं कर सकती थी। दूसरे दिन जब दारोगा उसके तहखाने में आया तो बलभद्रसिंह का हाल देखकर पहिले तो लौट गया, मगर थोड़ी ही देर बाद पुनः दो आदमियों को साथ लेकर आया और बलभद्रसिंह को हाथोंहाथ उठवाकर तहखाने के बाहर ले गया। इसके बाद आठ दिन तक बेचारी लक्ष्मीदेवी ने अपने बाप की सूरत नहीं देखी। नवें दिन कमबख्त दारोगा ने बलभद्रसिंह की जगह अपने दोस्त जैपालसिंह को उस तहखाने में ला डाला, और ताला बन्द करके चला गया। जैपालसिंह को देखकर लक्ष्मीदेवी ताज्जुब में आ गयी और बोली, ‘‘तुम कौन हो और यहाँ पर क्यों लाये गये?’’

जैपालसिंह : बेटी, क्या तू मुझे इसी आठ दिन में भूल गयी। क्या तू नहीं जानती कि जहर के असर ने मेरी दुर्गति कर दी है? क्या तेरे सामने ही मेरे तमाम बदन में फफोले नहीं उठ आये थे? ठीक है, बेशक तू मुझे नहीं पहचान सकी होगी, क्योंकि मेरा तमाम बदन जख्मों से भरा हुआ है, चेहरा बिगड़ गया है, मेरी आवाज खराब हो गयी है, और मैं बहुत ही दुःखी हो रहा हूँ!

लक्ष्मीदेवी को यद्यपि अपने बाप पर शक हुआ था, मगर मोढ़े पर का वही दाँत-काटा निशान जो इस समय भी मौजूद था और जिसे दारोगा ने कारीगर जर्राह की बदौलत बनवा दिया था, देखकर चुप हो रही और उसे निश्चय हो गया कि मेरा बाप बलभद्रसिंह यही है। थोड़ी देर बाद लक्ष्मीदेवी ने पूछा, ‘‘तुम्हें जब दारोगा यहाँ से ले गया, तब उसने क्या किया?’’

नकली बलभद्र : तीन दिन तक तो मुझे तनोबदन की सुध नहीं रही।

लक्ष्मीदेवी : अच्छा फिर।

नकली बलभद्र : चौथे दिन जब मेरी आँख खुली तो मैंने अपने को एक तहखाने में कैद पाया, जहाँ सामने चिराग जल रहा था, कुर्सी पर बेईमान दारोगा बैठा हुआ था और एक जर्राह मेरे जख्मों पर मरहम लगा रहा था।

लक्ष्मीदेवी : आश्चर्य है कि जब दारोगा ने तुम्हारी जान लेने के लिए जहर ही दिया तो...

नकली बलभद्र : मैं खुद आश्चर्य कर रहा हूँ कि जब दारोगा मेरी जान ही लिया चाहता था और इसीलिए उसने मुझको जहर दिया था तो यहाँ से ले जाकर उसने मुझे जीता क्यों छोड़ा, मेरा सिर क्यों नहीं काट डाला बल्कि मेरा इलाज क्यों कराने लगा?

लक्ष्मीदेवी : ठीक है, मैं भी यही सोच रही हूँ, अच्छा तब क्या हुआ? हुआ तब दारोगा ने मुझसे कहा, ‘‘देखो बलभद्रसिंह, निःसन्देह तुम मेरे दोस्त थे, मगर दौलत की लालच ने मुझे तुम्हारे साथ दुश्मनी करने पर मजबूर किया। जो कुछ मैं किया चाहता था, सो मैं यद्यपि कर चुका, अर्थात तुम्हारी लड़की की जगह हेलासिंह की लड़की मुन्दर को राजरानी बना दिया, मगर फिर मैंने सोचा कि अगर तुम दोनों बचकर निकल जाओगे तो मेरा भेद खुल जायगा और मैं मारा जाऊँगा, इसीलिए मैंने तुम दोनों को कैद किया। फिर हेलासिंहने राय दी कि बलभद्रसिंह को मारकर सदैव के लिए टण्टा देना चाहिए और इसीलिए मैंने तुमको जहर दिया, मगर आश्चर्य है कि तुम मरे नहीं। जहाँ तक मैं समझता हूँ, मेरे किसी नौकर ने ही मेरे साथ दगा की अर्थात् मेरे दवा के सन्दूक में से संजीवनी की पुड़िया जो केवल एक ही खूराक थी और जिसे वर्षों मेहनत करके मैंने तैयार किया था, निकालकर तुम्हें खिला दी और तुम्हारी जान बच गयी। बेशक यही बात है और यह शक मुझे तब हुआ, जब मैंने अपने सन्दूक में संजीवनी की पुड़िया न पायी, और यद्यपि तुम उस संजीवनी की बदौलत बच गये, मगर फिर भी तेज जहर के असर से तुम्हारा बदन, तुम्हारी सूरत और तुम्हारी जिन्दगी खराब हुए बिना नहीं रह सकती। ताज्जुब नहीं कि आज नहीं तो दो चार वर्ष के अन्दर तुम मर जाओ, अतएव मैं तुम्हारे मारने के लिए कष्ट नहीं उठाता बल्कि, तुम्हारे इन जख्मों को आराम करने का उद्योग करता हूँ और इसमें अपना फायदा भी समझता हूँ।’’ इतना कह दारोगा चला गया और मुझे कई दिनों तक उसी तहखाने में रहना पड़ा। इस बीच में जर्राह दिन में तीन-चार दफे मेरे पास आता और जख्मों को साफ करके स्तु, इसका सबब भी इसी जगह लिख देना हम उचित समझते हैं।

कमबख्त दारोगा ने सोचा कि लक्ष्मीदेवी की जगह में मुन्दर को राजरानी बना तो दिया, मगर कहीं ऐसा न हो कि दो-चार बर्ष के बाद या किसी समय में लक्ष्मीदेवी की रिश्तेदारी में कोई या उसकी दोनों बहिनें मुन्दर से मिलने आवें, और लक्ष्मीदेवी के लड़कपन का जिक्र छेड़ दें, तो अगर उस समय मुन्दर उसका जवाब न दे सकी, तो उनको शक हो जायगा। सूरत-शक्ल के बारे में तो कुछ चिन्ता नहीं, जैसी लक्ष्मीदेवी खूबसूरत है, वैसी ही मुन्दर भी है और औरतों की सूरत-शक्ल प्रायः विवाह होने बाद शीघ्र ही बदल जाती है। अस्तु, सूरत-शक्ल के बारे में कोई कुछ कह नहीं सकेगा, परन्तु जब पुरानी बातें निकलेंगी और मुन्दर कुछ जवाब न दे सकेगी, तब कठिन होगा। अतएव लक्ष्मी का कुछ हाल उसके लड़कपन की कैफियत, उसके रिश्तेदारों और सखी सहेलियों के नाम और उनकी तथा उनके घरों की अवस्था से मुन्दर को पूरी तरह जानकारी हो जानी चाहिए। अगर वह सब हाल हम बलभद्रसिंह से पूछेंगे तो वह कदापि न बतायेगा। हाँ, अगर किसी दूसरे आदमी को बलभद्रसिंह बनाया जाय और वह कुछ दिनों तक लक्ष्मीदेवी के साथ रहकर इन बातों का पता लगावे, तब चल सकता है, इत्यादि बातों को सोचकर ही दारोगा ने उपरोक्त चालाकी की और कृतकार्य भी हुआ, अर्थात् दो ही चार महीने में नकली बलभद्रसिंह को लक्ष्मी का पूरा-पूरा हाल मालूम हो गया। उसने सब हाल दारोगा से कहा और दारोगा ने मुन्दर को सिखा-पढ़ा दिया।

जब इन बातों से दारोगा की दिलजमई हो गयी तो उसने नकली बलभद्रसिंह को कैदखाने से बाहर कर दिया और फिर मुद्दत तक लक्ष्मीदेवी को अकेले ही कैद की तकलीफ उठानी पड़ी।

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