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चन्द्रकान्ता सन्तति - 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8403
आईएसबीएन :978-1-61301-030-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...

छठवाँ बयान


कुमार की आज्ञानुसार इन्दिरा ने अपना किस्सा यों बयान किया—

इन्दिरा : मैं कह चुकी हूँ कि ऐयारी का कुछ सामान लेकर जब मैं उस खोह के बाहर निकली और पहाड़ तथा जंगल पार करके मैदान में पहुँची तो यकायक मेरी निगाह एक ऐसी चीज पर पड़ी, जिसने मुझे चौंका दिया और मैं घबड़ाकर उस तरफ देखने लगी।

जिस चीज को देखकर मैं चौंकी वह एक कपड़ा था, जो मुझसे थोड़ी ही दूर पर ऊँचे पेड़ की डाल के साथ लटक रहा था और उस पेड़ के नीचे मेरी माँ बैठी हुई कुछ सोच रही थी। जब मैं दौड़ती हुई उसके पास पहुँची तो वह ताज्जुब भरी निगाहों से मेरी तरफ देखने लगीं, क्योंकि उस समय ऐयारी से मेरी सूरत बदली हुई थी। मैंने बड़ी खुशी के साथ कहा, "माँ, तू यहाँ कैसे आ गयी?" जिसे सुनते ही उसने उठकर मुझे गले लगा लिया और कहा, "इन्दिरा यह तेरा क्या हाल है? क्या तूने ऐयारी सीख ली है!" मैंने मुख्तर में अपना सब हाल बयान किया, मगर उसने अपने विषय में केवल इतना ही कहा कि अपना किस्सा मैं आगे चलकर तुझसे बयान करूँगी इस समय केवल इतना ही कहूँगी कि दारोगा ने मुझे एक पहाड़ी में कैद किया था, जहाँ से एक स्त्री की सहायता पाकर परसों मैं निकल भागी, मगर अपने घर का रास्ता न पाने के कारण इधर-उधर भटक रही हूँ।

अफसोस उस समय मैंने बड़ा ही धोखा खाया और उसके सबब से मैं बड़े संकट में पड़ गयी, क्योंकि वास्तव में मेरी माँ न थी, बल्कि मनोरमा थी और यह हाल मुझे कई दिनों बाद मालूम हुआ। मैं मनोरमा को पहिचानती न थी मगर पीछे मालूम हुआ कि वह मायारानी की सखियों में से थी और गौहर के साथ वह वहाँ तक गयी थी, मगर इसमें भी कोई शक नहीं कि वह बड़ी शैतान, बेदर्द और दुष्टा थी। मेरी किस्मत में दुःख भोगना बदा हुआ था, जो मैं उसे माँ समझकर कई दिनों तक उसके साथ रही और उसने भी नहाने-धोने के समय अपने को मुझसे बहुत बचाया। प्रायः कई दिनों बाद वह नहाया करती और कहती कि मेरी तबीयत ठीक नहीं हैं।

साथ ही इसके यह भी शक हो सकता है कि उसने मुझे जान से क्यों नहीं मार डाला? इसके जवाब में मैं कह सकती हूँ कि वह जान से मार डालने के लिए तैयार थी, मगर वह भी उसी कमबख्त दारोगा की तरह मुझसे कुछ लिखवाया चाहती थी। अगर मैं उसकी इच्छानुसार लिख देती तो वह निःसन्देह मुझे मारकर बखेड़ा तै करती मगर ऐसा न हुआ।

जब उसने मुझसे यह कहा कि ‘रास्ते का पता न जानने के कारण से भटकती फिरती हूँ तब मुझे एक तरह का तरद्दुद हुआ, मगर मैंने कुछ जोश के साथ उसी समय जवाब देना—"कोई चिन्ता नहीं मैं अपने मकान का पता लगा लूँगी।"

मनोरमा : मगर साथ ही इसके मुझे एक बात और भी कहनी है।

मैं : वह क्या?

मनोरमा : मुझे ठीक खबर लगी है कि कमबख्त दारोगा ने तेरे बाप को गिरफ्तार कर लिया है और इस समय वह काशी में मनोरमा के मकान में कैद है।

मैं : मनोरमा कौन?

मनोरमा : राजा गोपालसिंह की स्त्री लक्ष्मीदेवी (जिसे अब लोग मायारानी के नाम से पुकारते हैं) की सखी...

मैं : असली लक्ष्मीदेवी से गोपालसिंह की शादी हुई ही नहीं, वह बेचारी तो...

मनोरमा : (बात काटकर) हाँ हाँ, यह हाल मुझे भी मालूम है, मगर इस समय जो राजरानी बनी हुई है, लोग तो उसी को न लक्ष्मीदेवी समझे हुए हैं, इसी से मैंने उसे लक्ष्मीदेवी कहा!

मैं : (आँखों में आँसू भरकर) तो क्या मेरा बाप भी कैद हो गया?

मनोरमा : बेशक मैंने उसके छुड़ाने का भी बन्दोबस्त कर लिया है।

क्योंकि तुझे तो शायद मालूम ही होगा कि तेरे बाप ने मुझे भी थोड़ी-बहुत ऐयारी सिखा रक्खी है। अस्तु वही ऐयारी इस समय मेरे काम आयी और आवेगी।

मैं : (ताज्जुब से) मुझे तो नहीं मालूम कि पिताजी ने तुम्हें भी ऐयारी सिखायी है।

मनोरमा : ठीक है, तू उन दिनों बहुत नादान थी, इसलिए आज वे बातें तुझे याद नहीं हैं, पर मेरा मतलब यही है कि मैं कुछ ऐयारी जानती हूँ और इस समय तेरे बाप को छुड़ा भी सकती हूँ।

मनोरमा की बात ऐसी थी कि मुझे उस पर शक हो सकता था, मगर उसकी मीठी-मीठी बातों ने मुझे धोखे में डाल दिया और सच तो यों है कि मेरी किस्मत में दुःख भोगना बदा था। अस्तु, मैंने कुछ सोचकर यही जवाब दिया कि अच्छा जो उचित समझो सो करो। ऐयारी तो थोड़ी-सी मुझे भी आ गयी है इसका हाल भी मैं तुम्हें कह चुकी हूँ कि चम्पा ने मुझे अपनी चेली बना लिया है'।

मनोरमा : हाँ, ठीक है, तो अब सीधे काशी ही चलना चाहिए और वहाँ चलने का सबसे ज्यादे सुभीता डोंगी पर हैं, इसलिए जहाँ तक जल्द हो सके गंगा किनारे चलना चाहिए, वहाँ कोई-न-कोई डोंगी मिल ही जायगी।

मैं : बहुत अच्छा चलो।

उसी समय हम लोग गंगा की तरफ रवाना हो गये और उचित समय पर वहाँ पहुँचकर अपने योग्य डोंगी किराये पर ली। डोंगी किराये पर करने में किसी तरह की तकलीफ न हुई क्योंकि वास्तव में डोंगीवाले भी उसी दुष्ट मनोरमा के नौकर थे मगर उस कमबख्त ने ऐसे ढंग से बातचीत की मुझे किसी तरह का शक न हुआ या यों समझिए कि मैं अपनी माँ से मिलकर एक तरह पर कुछ निश्चिन्त-सी हो रही थी। रास्ते ही में मनोरमा ने मल्लाहों से इस किस्म की बातें भी शुरू कर दीं कि काशी पहुँचकर तुम्हीं लोग हमारे लिए एक छोटा-सा मकान भी किराये पर तलाश कर देना इसके बदले में तुम्हें बहुत कुछ इनाम दूँगी।

मुख्तसर यह कि हम लोग रात के समय काशी पहुँचे। मल्लाहों द्वारा मकान का बन्दोबस्त हो गया और हम लोगों ने उसमें जाकर डेरा भी डाल दिया। एक दिन उसमें रहने बाद मनोरमा ने कहा कि बेटी तू इस मकान के अन्दर दरवाजा बन्द करके बैठ तो मैं जाकर मनोरमा का हाल दरियाफ्त कर आऊँ। अगर मौका मिला तो मैं उसे जान से माल डालूँगी और तब स्वयं मनोरमा बनकर उसके मकान असबाब और नौकरों पर कब्जा करके तुझे लेने के लिए यहाँ आऊँगी, उस समय तू मुझे मनोरमा की सूरत-शक्ल में देखकर ताज्जुब न कीजियो, अब मैं तेरे सामने आकर ‘चापगेच' शब्द कहूँ तब समझ जाइयो कि यह वास्तव में मेरी माँ है, मनोरमा नहीं, क्योंकि उस समय कई सिपाही और नौकर मुझे मालिक समझकर आज्ञानुसार मेरे साथ होंगे। तेरे बारे में मैं उन लोगों में यही मशहूर करूँगी कि यह मेरी रिश्तेदार है, इसे मैंने गोद लिया है और अपनी लड़की बनाया है। तेरी जरूरत की सब चीजें यहाँ मौजूद हैं, तुझे किसी तरह की तकलीफ न होगी"।

इत्यादि बहुत-सी बातें समझा-बुझाकर मनोरमा मकान के बाहर हो गयी और मैंने भीतर से दरवाजा बन्द कर लिया, मगर जहाँ तक मेरा खयाल है, वह मुझे अकेला छोड़कर न गयी, होगी बल्कि दो-चार आदमी उस मकान के दरवाजे पर इधर-उधर हिफाजत के लिए जरूर लगा गयी होगी।

ओफ ओह, उसने अपनी बातों की तरकीबों का ऐसा मजबूत जाल बिछाया कि मैं कुछ कह नहीं सकती। मुझे उस पर रत्ती-भर भी किसी तरह का शक न हुआ और मैं पूरा धोखा खा गयी। इसके दूसरे ही दिन वह मनोरमा बनी हुई कई नौकरों को साथ लिये मेरे पास पहुँची और ‘चापगेच' शब्द सुनकर मुझे अपना परिचय दिया। मैं यह समझकर बहुत प्रसन्न हुई कि माँ ने मनोरमा को मार दिया, अब मेरे पिता भी कैद से छूट जायेंगे। अस्तु, जिस रथ पर सवार होकर मुझे लेने के लिए आयी थी, उसी पर मुझे अपने साथ बैठाकर वह अपने घर ले गयी और उस समय मैं हर तरह से उसके कब्जे में पड़ गयी।

मनोरमा के घर पहुँचकर मैं उस सच्ची मुहब्बत को खोजने लगी जो माँ को अपने बच्चे के साथ होती है, मगर मनोरमा में वह बात कहाँ से आती? फिर भी मुझे इस बात का गुमान न हुआ कि यहाँ धोखे का जाल बिछा हुआ है, जिसमें मैं फँस गयी हूँ, बल्कि मैंने यह समझा कि वह मेरे पिता को छुड़ाने की फिक्र में लगी हुई है और इसी से मेरी तरफ ध्यान नहीं देती और वह मुझसे घड़ी-घड़ी यही बात कहा भी करती कि बेटी, मैं तेरे बाप को छुड़ाने की फिक्र में पागल हो रही हूँ।

जब तक मैं उसके घर में बेटी कहलाकर रही तब तक न तो उसने स्नान किया और न अपना शरीर ही देखने का कोई ऐसा मौका मुझे दिया, जिसमें मुझको शक होता कि यह मेरी माँ नहीं, बल्कि दूसरी औरत है। और हाँ मुझे भी वह असली सूरत में रहने नहीं देती थी, चेहरे में कुछ फर्क डालने के लिए उसने एक तेल बनाकर मुझे दिया, जिसे दिन में एक या दो दफे में नित्य लगा लिया करती थी। इससे केवल मेरे रंग में फर्क पड़ गया था और कुछ नहीं।

उसके यहाँ रहनेवाले सभी मेरी इज्जत करते और जो कुछ मैं कहती उसे तुरन्त मान लेते, मगर मैं उस मकान के हाते के बाहर जाने का इरादा नहीं कर सकती थी। कभी अगर ऐसा करती तो सभी लोग मना करते और रोकने को तैयार हो जाते।

इसी तरह वहाँ रहते मुझे कई दिन बीत गये। एक दिन जब मनोरमा रथ पर सवार होकर कहीं बाहर गयी थी, मैं समझती हूँ कि मायारानी से मिलने गयी होगी, सन्ध्या के समय जब थोड़ा-सा दिन बाकी था, मैं धीरे-धीरे बाग में टहल रही थी कि यकायक किसी का फेंका हुआ पत्थर का छोटा-सा टुकड़ा मेरे सामने आकर गिरा। जब मैंने ताज्जुब से उसे देखा तो उसमें बँधे कागज के एक पुर्जे पर मेरी निगाह पड़ी। मैंने झट उठा लिया और पुर्ज खोलकर पढ़ा, उसमें यह लिखा हुआ था—"अब मुझे निश्चय हो गया कि तू इन्दिरा है। अस्तु तुझे होशियार करे देता हूँ और कहे देता है कि तू वास्तव में मायारानी की सखी मनोरमा के फन्दे में फँसी हुई है! यह तेरी माँ बनकर तुझे फँसा लायी है और राजा गोपालसिंह के दारोगा की इच्छानुसार अपना काम निकालने बाद तुझे मार डालेगी। मुझे जोकुछ कहना था कह दिया, अब जैसा तू उचित समझ कर। तुझे धर्म की शपथ है, इस पुर्जे को पढ़कर तुरन्त फाड़ दे।"

मैंने उस पुर्जे को पढ़ने बाद उसी समय टुकड़े-टुकड़े करके फेंक दिया और घबड़ाकर चारों तरफ देखने अर्थात् उस आदमी को ढूँढ़ने लगी, जिसने वह पत्थर का टुकड़ा फेंका था, मगर कुछ पता न लगा और न कोई मुझे दिखायी ही पड़ा।

उस पुर्जे को पढ़ने से मेरी जो कुछ हालत हुई, मैं बयान नहीं कर सकती। उस समय मैं मनोरमा के विषय में ज्यों-ज्यों पिछली बातों पर ध्यान देने लगी, त्यों-त्यों मुझे निश्चय होता गया कि यह वास्तव में मनोरमा है, मेरी माँ नहीं और अब अपने किये पर पछताने और अफसोस करने लगी कि क्यों उस खोह के बाहर पैर रक्खा और आफत में फँसी?

उसी समय से मेरे रहन-सहन का ढंग भी बदल गया और मैं दूसरी ही फिक्र में पड़ गयी। सबसे ज्यादे फिक्र मुझे उसी आदमी के पता लगाने की हुई, जिसने वह पुर्जा मेरी तरफ फेंका था। मैं उसी समय वहाँ से हटकर मकान में चली गयी, इस खयाल से कि जिस आदमी ने मेरी तरफ वह पुर्जा फेंका था और उसे फाड़ डालने के लिए कसम दी थी, वह जरूर मनोरमा से डरता होगा और यह जानने के लिए कि मैंने पुर्जा फाड़कर फेंक दिया या नहीं, उस जगह जरूर जायगा, जहाँ (बाग में) टहलती समय मुझे पुर्जा मिला था।

जब मैं छत पर चढ़कर और छिपकर उस तरफ देखने लगी, जहाँ मुझे वह पुर्जा मिला था तो एक आदमी को धीरे-धीरे टहलकर उस तरफ जाते देखा। जब वह उस ठिकाने पर पहुँच गया, तब उसने इधर-उधर देखा और सन्नाटा पाकर पुर्जे के उन टुकड़ों को चुन लिया, जो मैंने फेंके थे और उन्हें कमर में छिपाकर उसी तरह धीरे-धीरे टहलता हुआ उस मकान की तरफ चला आया, जिसकी छत पर से मैं यह तमाशा देख रही थी। जब वह मकान के पास पहुँचा, तब मैंने उसे पहिचान लिया। मनोरमा से बातचीत करती समय मैं कई दफे उसका नाम नानू सुन चुकी थी।

इन्दिरा अपना किस्सा यहाँ तक बयान कर चुकी थी कि कमलिनी ने चौंककर इन्दिरा से पूछा, "क्या नाम लिया नानू।"

इन्दिरा : हाँ उसका नाम नानू था।

कमलिनी : वह तो इस लायक नहीं था कि तेरे साथ ऐसी नेकी करता और तुझे आने वाली आफत से होशियार कर देता। वह बड़ा ही शैतान और पाजी आदमी था, ताज्जुब नहीं कि किसी दूसरे ने तेरे पास वह पुर्जा फेंका और नानू ने देख लिया हो और उसके साथ दुश्मनी की नीयत से उन टुकड़ों को बटोरा हो।

इन्दिरा : (बात काटकर) बेशक ऐसा ही है, इस बारे में भी मुझे धोखा हुआ, जिसके सबब से मेरी तकलीफ बढ़ गयी, जैसा कि मैं आगे चलकर बयान करूँगी।

कमलिनी : ठीक है, मैं उस कमबख्त नानू को खूब जानती हूँ। जब मैं मायारानी के यहाँ रहती थी, तब वह मायारानी और मनोरमा की नाक का बाल हो रहा था और उनकी खैरखाही के पीछे प्राण दिये देता था, मगर अन्त में न मालूम क्या सबब हुआ कि मनोरमा या नागर ही ने उसे फाँसी देकर मार डाला। इसका सबब मुझे आज तक मालूम न हुआ और न होने की आशा ही है, क्योंकि उन लोगों में से इसका सबब कोई भी न बतावेगा। मैं भी उसके हाथ से बहुत तकलीफ उठा चुकी हूँ, जिसका बदला तो मैं ले न सकी मगर उसकी लाश पर थूकने का मौका मुझे जरूर मिल गया। (लक्ष्मीदेवी की तरफ देखके) जब मैं भूतनाथ के कागजात लेने के लिए मनोरमा के मकान पर जाकर नागर को धोखा दिया था, तब मैंने अपनी कोठरी में इसी की लटकती हुई लाश पर थूका था*। (*देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति-2, सातवाँ भाग, सातवाँ बयान।)

उसी कोठरी में मैंने अफसोस के साथ ‘बरदेबू' को भी मुर्दा पाया था, उसके मरने का सबब मुझे न मालूम हुआ और न होगा। वास्तव में ‘बरदेबू' बड़ा ही नेक आदमी था और उसने मेरे साथ बड़ी नेकियाँ की थीं। मुझे यह खबर उसी ने दी थी कि ‘अब मायारानी तुम्हें मार डालने का बन्दोबस्त कर रही है'। वह उन दिनों खास बाग के मालियों का दारोगा था।

इन्दिरा : बेशक बरदेबू बड़ा नेक आदमी था, असल में वह पुर्जा उसी ने मेरी तरफ फेंका था और कमबख्त नानू ने देख लिया था, मगर मैं धोखा खा गयी मेरी समझ में आया कि वह पुर्जा नानू का फेंका हुआ है और उन टुकड़ों को इस खयाल से उसने चुन लिया है कि कोई देखने न पावे या किसी दुश्मन के हाथ में पड़कर मेरा...

कमलिनी : अच्छा फिर आगे क्या हुआ सो कहो।

इन्दिरा : जब मैंने यह समझ लिया कि यह नेकी नानू ने ही मेरे साथ की है और वह टहलता हुआ मकान के पास आ गया तो मैं छत से उतरकर पुनः बाग में आयी और टहलती हुई उसके पास पहुँची।

मैं : (नानू से) आपने मुझ पर बड़ी कृपा की है, जो मुझे आनेवाली आफत से होशियार कर दिया। मैं अभी तक मनोरमा को अपनी माँ ही समझ रही थी।

नानू : ठीक है, मगर तुम्हें मुझसे ज्यादा बातचीत न करनी चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि लोगों को मुझ पर शक हो जाय।

मैं : इस समय यहाँ कोई भी नहीं है, इसलिए मैं यह प्रार्थना करने आयी हूँ कि जिस तरह आपने मुझ पर इतनी कृपा की है, इसी तरह मेरे निकल भागने में भी मदद देकर अनन्त पुण्य के भागी हों।

नानू : अच्छा, मैं इस काम में भी तुम्हारी मदद करूँगा मगर तुम भागने में जल्दी न करना, नहीं तो सब काम चौपट हो जायगा क्योंकि यहाँ के सभी आदमी तुमपर गहरी हिफाजत की निगाह रखते हैं और ‘बरदूबे' तो तुम्हारा पूरा दुश्मन है, उससे कभी बातचीत न करना, वह बड़ा ही धोखेबाज ऐयार है। बरदेबू को जानती हो न?

मैं : हाँ, मैं बरदेबू को जानती हूँ।

नानू : बस तो तुम यहाँ से चलो जाओ, मैं फिर किसी समय किसी बहाने से तुम्हारे पास आऊँगा तब बातें करूँगा।

मैं खुशी-खुशी वहाँ से हटी और बाग के दूसरे हिस्से में जाकर टहलने लगी, जहाँ से पहरेवाले बखूबी देख रहे थे

जैसे-जैसे अन्धकार बढ़ता जाता था मुझ पर हिफाजत की निगाह भी बढ़ती जाती थी, यहाँ तक कि आधी घड़ी रात जाने पर लौंडियों और खिदमतगारों ने मुझे मकान के अन्दर जाने पर मजबूर किया और मैं भी लाचार होकर अपने कमरे में आ बिस्तर पर लेट गयी, सभों ने खाने पीने के लिए कहा मगर इस समय मुझे खाना-पीना कहाँ सूझता था, अस्तु, बहाना करके टाल दिया और लेटे-लेटे सोचने लगी कि अब क्या करना चाहिए।

मैं समझे हुए थी कि नानू मेरे पास आकर मुझे यहाँ से निकल जाने के विषय में राय देगा, जैसाकि वह वादा कर चुका था, मगर मेरा खयाल गलत था, आधी रात तक इन्तजार करने पर भी वह मेरे पास न आया। इसके अतिरिक्त रोज मेरी हिफाजत के लिए रात को दो लौंडियाँ मेरे कमरे में रहती थीं, मगर आज चार लौंडियों को रोज से ज्यादे मस्तैदी के साथ पहरा देते देखा। उस समय मुझे खुटका हुआ, मैं सोचने लगी कि निःसन्देह इन लोगों को मेरे बारे में कुछ सन्देह हो गया है। मैं नींद न पड़ने और सिर में दर्द होने से बेचैनी दिखाकर उठी और कमरे में टहलने लगी, यहाँ तक की दरवाजे के बाहर निकलकर सहन में पहुँची, और तब देखा कि आज तो बाहर भी पहरे का इन्तजाम बहुत सख्त हो रहा है। मैंने प्रकट में किसी तरह का आश्चर्य नहीं किया, और पुनः अपने बिस्तरे पर आकर लेट रही, और तरह-तरह की बातें सोचने लगी। उस समय मुझे निश्चय हो गया कि उस पुर्जे को फेंकने वाला नानू नहीं कोई दूसरा है, अगर नानू होता तो इस बात की खबर फैल न जाती क्योंकि उन टुकड़ों को तो नानू ने मेरे सामने ही बटोर लिया था। अफसोस मैंने बहुत बुरा किया, अगर वे थोड़े से शब्द मैं न कहती तो नानू सहज में ही उन टुकड़ों से कोई मतलब नहीं निकाल सकता था, मगर अब तो असल भेद खुल गया और मेरे पैरों में दोहरी जंजीर पड़ गयी अस्तु, अब क्या करना चाहिए।

रात-भर मुझे नींद न आयी और सुबह को जैसे ही मैं बिछावन पर से उठी तो सुना कि मनोरमा आ गयी है। कमरे के बाहर निकलकर सहन में गयी, जहाँ मनोरमा एक कुर्सी पर बैठी नानू से बात कर रही थी। दो लौंडियाँ उसके पीछे खड़ी थीं और उसके बगल में दो तीन खाली कुर्सियाँ भी पड़ी हुई थीं। मनोरमा ने अपने पास एक कुर्सी खैंचकर मुझे बड़े प्यार से उस पर बैठने के लिए कहा, और अब मैं बैठ गयी तो बातें होने लगीं!

मनोरमा: (मुझसे) बेटी तू जानती है कि यह (नानू की तरफ बताकर) आदमी हमारा कितना बड़ा खैरखाह है!

मैं : शायद यह तुम्हारा खैरखाह होगा, मगर मेरे लिए तो पूरा दुश्मन है।

मनोरमा : (चौंककर) क्यों क्यों, सो क्यों?

मैं : सैकड़ों मुसीबतें झेलकर तो मैं तुम्हारे पास पहुँची और तुमने भी मुझे अपनी लड़की बनाकर मेरे साथ जो सलूक किया, वह प्रायः यहाँ के रहनेवाले सभी कोई जानते होंगे, मगर यह नानू नहीं चाहता कि मैं अब भी किसी तरह सुख की नींद सो सकूँ। कल शाम को जब मैं बाग में टहल रही थी तो यह मेरे पास आया और एक पुर्जा मेरे हाथ में देकर बोला कि इसे पढ़ और होशियार हो जा, मगर खबरदार मेरा नाम न लीजियो।'

नानू : (मेरी बात काटकर क्रोध से) क्यों मुझ पर तूफान बाँध रही हो! क्या यह बात मैंने तुमसे कही थी!

मैं : (रंग बदलकर) बेशक तूने पूर्जा देकर यह बात कही थी और मुझे भाग जाने के लिए भी ताकीद की। आँखे क्यों दिखाता है! जो बातें तूने...

मनोरमा : (बात काटकर) अच्छा अच्छा, तू क्रोध मत कर जो कुछ होगा मैं समझ लूँगी, तू जो कहती थी उसे पूरा कर। (नानू से) बस चुपचाप बैठे रहो, जब यह अपनी बात पूरी कर ले तब जो कुछ कहना हो, कहना।

मैं : मैंने उस पुर्जे को खोलकर पढ़ा तो उसमें यह लिखा हुआ पाया—"जिसे तू अपनी माँ समझती है, वह मनोरमा है, तुझे अपना काम निकालने के लिए यहाँ ले आयी है, काम निकल जाने पर तुझे जान से मार डालेगी, अस्तु, जहाँ तक जल्द हो सके निकल भागने की फिक्र कर।" इत्यादि और भी कई बातें उसमें लिखी हुई थीं, जिन्हें पढ़कर मैं चौंकी और बात बनाने के तौर पर नानू से बोली, "आपने बड़ी मेहरबानी की जो मुझे होशियार कर दिया, जब भागने में भी आप मेरी मदद करेंगे तो जान बचेगी।" इसके जवाब में इसने खुश होकर कहा कि तुम्हें, मुझसे ज्यादे बातचीत न करनी चाहिए, कहीं ऐसा न हो कि लोगों को मुझ पर शक हो जाय। मैं भागने में भी तुम्हारी मदद करूँगा, मगर इस बात को बहुत छिपाये रखना, क्योंकि यहाँ बरबूदे नाम का आदमी तुम्हारा दुश्मन है।'

नानू : (बात काटकर) हाँ, बेशक यह बात मैंने तुमसे जरूर कही थी कि...

मैं : धीरे-धीरे तुम सभी बात कबूल करोगे, मगर ताज्जुब यह है कि मना करने पर भी तुम टोके बिना नहीं रहते।

मनोरमा : (क्रोध से) क्या तुम चुप न रहोगे?

इसका जवाब नानू ने कुछ न दिया और चुप हो रहा। इसके बाद मनोरमा की इच्छानुसार मैंने यों कहना शुरू किया—

मैं : मैंने इस पुर्जे को पढ़कर टुकड़े-टुकड़े कर डाला और फेंक दिया। इसके बाद नानू भी उसी तरफ देखने लगा, जहाँ उस पुर्जे को फाड़कर फेंक आयी थी। थोड़ी देर बाद पुनः इसको (नानू को) उसी जगह पहुँचकर कागज के उन टुकड़ों को चुनते और बटोरते देखा। जब यह उन टुकड़ों को बटोरकर कमर में रख चुका और इस मकान की तरफ आया तो मैं भी तुरन्त छत पर से उतरकर इसके पास चली आयी और बोली, "कहिए, अब मुझे कब यहाँ से बाहर कीजिएगा?' इसके जवाब में इसने कहा कि मैं रात को एकान्त में तुम्हारे पास आऊँगा तो बातें करूँगा इतना कहकर यह चला गया और पुनः मैं बाग में टहलने लगी। जब अन्धकार हुआ तो मैं घूमती हुई (हाथ का इशारा करके) उस झाड़ी की तरफ से निकली और किसी के बात की आहट पा पैर दबाती हुई आगे बढ़ी, यहाँ तक की थोड़ी ही दूर पर दो आदमी के बात करने की आवाज साफ-साफ सुनायी देने लगी। मैंने आवाज से नानू को तो पहिचान लिया, मगर दूसरे को पहिचान न सकी कि वह कौन था। हाँ, पीछे मालूम हुआ कि वह बरदेबू था।

मनोरमा अच्छा खैर, यह बता कि इन दोनों में क्या बातें हो रही थीं।

मैं : सब बातें तो मैं सुन न सकी। हाँ, जोकुछ सुनने और समझने में आया सो कहती हूँ। इस नानू ने दूसरे से कहा कि ‘नहीं नहीं अब मैं इरादा पक्का कर चुका हूँ और उस छोकरी को भी मेरी बातों पर पूरा विश्वास हो चुका है, निःसन्देह उसे ले जाकर मैं बहुत रुपये उसके बदले में पा सकूँगा, अगर तुम इस काम में मेरी मदद करोगे तो मैं उसमें से आधी रकम तुम्हें दूँगा। इसके जवाब में दूसरे ने कहा कि देखो, नानू यह काम तुम्हारे योग्य नहीं है, मालिक के साथ दगा करने वाला कभी सुख नहीं भोग सकता बेहतर है कि तुम मेरी बात मान जाओ नहीं तो तुम्हारे लिए अच्छा न होगा और मैं तुम्हारा दुश्मन बन जाऊँगा, यह जवाब सुनते ही नानू क्रोध में आकर उसे बुरा-भला कहने और धमकाने लगा। उसी समय इसके सम्बोधन करने पर मुझे मालूम हुआ कि उस दूसरे का नाम बरदेबू है। खैर, जब मैंने जाना कि अब ये दोनों अलग होते हैं, तो मैं चुपके से चल पड़ी और अपने कमरे में लेट  रही। थोड़ी ही देर में यह मेरे पास पहुँचा और बोला, "बस अब जल्दी से उठ खड़ी हो और मेरे पीछे चली आओ, क्योंकि अब वह मौका आ गया है कि मैं तुम्हें इस आफत से बचाकर बाहर निकाल दूँ।" इसके जवाब में मैंने कहा कि बस रहने दीजिए, आपकी सब कलई खुल गयी, मैं आपकी बरदेबू की बातें छुपकर सुन चुकी हूँ। इतना सुनते ही यह लाल-पीला होकर बोला कि खैर देख लेना कि मैं तेरी खबर लेता हूँ या तू मेरी खबर लेती है। बस यह कहके चला गया और थोड़ी देर में मैंने अपने को सख्त पहरे में पाया।

मनोरमा : ठीक है, अब मुझे असल बातों का पता लग गया।

नानू : (क्रोध के साथ) ऐसी तेज और धूर्त लड़की तो आज तक मैंने देखी ही नहीं! मेरे सामने ही मुझे झूठा और दोषी बना रही है और अपने सहायक बरदेबू को निर्दोष बनाना चाहती है।

इतना कहकर इन्दिरा कुछ देर के लिए रुक गयी और थोड़ा-सा जल पीने बाद बोली—

"जोकुछ मैंने कहा उस पर मनेरमा को विश्वास हो गया।"

इन्द्रजीत : विश्वास होना ही चाहिए, इसमें कोई शक नहीं है कि तूने जोकुछ मनोरमा से कहा, उसका एक-एक अक्षर चालाकी और होशियारी से भरा हुआ था।

कमला : निःसन्देह, अच्छा तब क्या हुआ?

इन्दिरा : नानू ने मुझे झूठा बनाने के लिए बहुत जोर मारा मगर कुछ कर न सका क्योंकि मनोरमा के दिल पर मेरी बातों का असर पड़ चुका था। उस पुर्जे के टुकड़े ने उसी को दोषी ठहराया जो उसने बरदेबू को दोषी ठहराने के लिए चुन रक्खे थे, क्योंकि बरदेबू ने यह पुर्जा अक्षर बिगाड़कर ऐसे ढंग से लिखा था कि उसके कलम का लिखा हुआ कोई कह नहीं सकता था। मनोरमा ने इशारे से मुझे हट जाने के लिए कहा और मैं उठकर कमरे के अन्दर चली गयी। थोड़ी देर बाद जब मैं उसके बुलाने पर पुनः बाहर गयी तो वहाँ मनोरमा को अकेले बैठे हुए पाया उसके पास वाली कुर्सी पर बैठकर मैंने पूछा कि माँ नानू कहाँ गया? इसके जवाब में मनोरमा ने कहा कि बेटी नानू को मैंने कैदखाने में भेज दिया। ये लोग उस कमबख्त दारोगा के साथी और बड़े ही शैतान हैं, इसलिए किसी-न-किसी तरह इन लोगों को दोषी ठहराकर जहन्नुम में मिला देना ही उचित है। अब मैं उस दारोगा से बदला लेने की धुन में लगी हुई हूँ, इसी काम के लिए मैं बाहर गयी थी, और इस समय पुनः जाने के लिए तैयार हूँ, केवल तुझे देखने के लिए चली आयी थी, तू बेफिक्री के साथ यहाँ रह, आशा है कि कल शाम तक मैं अवश्य लौट आऊँगी जब तक मैं उस कमबख्त से बदला न ले लूँ और तेरे बाप को कैद से न छुड़ा लूँ, तब तक एक घड़ी के लिए भी अपना समय नष्ट करना नहीं चाहती बरदेबू को अच्छी तरह समझा जाऊँगी, वह तुझे किसी तरह की तकलीफ न होने देगा।

इन बातों को सुनकर मैं बहुत खुश हुई और सोचने लगी कि यह कमबख्त जहाँ तक शीघ्र चली जाय उत्तम है और यहाँ से यकायक निकल जाना भी कठिन है। साथ ही इसके मेरा दिल कह रहा था कि मेरा बाप कैद नहीं हुआ, यह सब मनोरमा की बनावट है, जो मेरे बाप का कैद होना बता रही है।

मनोरमा चली गयी, मगर उसने शायद ठीक मुझको यह न बताया कि नानू के साथ क्या सलूक किया या अब वह कहाँ है, फिर भी मनोरमा के चले जाने बाद मैंने नानू को न देखा और न किसी लौंडी या नौकर ही ने उसके बारे में कभी मुझसे कुछ कहा।

अबकी दफे मनोरमा के चले जाने बाद मुझ पर उतना सख्त पहरा नहीं रहा, जितना नानू ने बढ़ा दिया था, मगर वहाँ का कोई आदमी मेरी तरफ से गाफिल भी न था।

उसी दिन आधी रात के समय जब मैं कमरे में चारपाई पर पड़ी हुई नींद आने के कारण तरह-तरह के मनसूबे बाँध रही थी, यकायक बरदेबू मेरे सामने आकर खड़ा हो गया और बोला, "शाबाश, तूने बड़ी चालाकी से मुझे बचा लिया, और ऐसी बातें गढ़ी कि मनोरमा को नानू ही पर पूरा शक हो गया और इस आफत से बच गया नहीं तो नानू ने मुझे पूरी तरह फाँस दिया था, क्योंकि वह पुर्जा वास्तव में मेरा ही लिखा हुआ था। मैं तुझसे बहुत खुश हूँ और तुझे इस योग्य समझता हूँ कि तेरी साहयता करूँ।

मैं : आपको मेरी बातों का हाल क्योंकर मालूम हुआ?

बरदेबू : एक लौंडी की जुबानी मालूम हुआ, जो उस समय मनोरमा के पास खड़ी थी।

मैं : ठीक है, मुझे विश्वास होता है कि आप मेरी सहायता करेंगे और किसी तरह इस आफत से बाहर कर देंगे, क्योंकि मनोरमा के न रहने से अब मौका भी बहुत अच्छा है।

बरदेबू : बेशक मैं तुझे आफत से छुड़ाऊँगा, मगर आज ऐसा करने का मौका नहीं है, मनोरमा की मौजूदगी में यह काम अच्छी तरह हो जायेगा और मुझ पर किसी तरह का शक न होगा, क्योंकि जाते समय मनोरमा तुझे मेरी हिफाजत में छोड़ गयी है। इस समय मैं केवल इसलिए आया हूँ कि तुझे हर तरह से बातें समझा बुझाकर यहाँ से निकल भागने की तरकीब बता दूँ और साथ ही इसके यह भी कह दूँ कि तेरी माँ दारोगा की बदौलत जमानिया के तिलिस्म के अन्दर कैद है और इस बात की खबर गोपालसिंह को नहीं है। मगर मैं उससे मिलने की तरकीब तुझे अच्छी तरह बता दूँगा।

बरदेबू घण्टे-भर तक मेरे पास बैठा रहा और उसने वहाँ की बहुत-सी बातें मुझे समझायीं और निकल भागने के लिए जोकुछ तरकीब सोची थी, वह भी कही, जिसका हाल आगे चलकर मालूम होगा, साथ ही इसके बरदेबू ने मुझे यह भी समझा दिया कि मनोरमा की उँगली में एक अँगूठी रहती है, जिसका नोकीला नगीना बहुत ही जहरीला है, किसी के बदन में कहीं भी रगड़ देने से बात-की-बात में उसका तेज जहर तमाम बदन में फैल जाता है और तब सिवाय मनोरमा की मदद के वह किसी तरह नहीं बच सकता। वह जहर की दवाइयों को (जिन्हें मनोरमा ही जानती है) घोड़े का पेट चीरकर और उसकी ताजी आँतों में उनको रखकर तैयार करती है...

इतना सुनते ही कमलिनी ने रोककर कहा, "हाँ हाँ, यह बात मुझे भी मालूम है। जब मैं भूतनाथ के कागजात लेने वहाँ गयी थी तो उसी कोठरी में एक घोड़े की दुर्दशा भी देखी थी, जिसमें नानू और बरदेबू की लाश देखी, अच्छा तब क्या हुआ?" इसके जवाब में इन्दिरा ने फिर कहना शुरू किया—

बरदेबू मुझे समझा-बुझाकर और बेहोशी की दवा की दो पुड़ियाएँ देकर चला गया और उसी समय से मैं मनोरमा के आने का इन्तजार करने लगी। दो दिन तक वह न आयी और इस बीच में पुनः दो दफे बरदेबू से बातचीत करने का मौका मिला। और सब बातें तो नहीं मगर यह मैं इसी जगह कह देना उचित समझती हूँ कि बरदेबू ने वह दवा की पुड़ियाएँ मुझे क्यों दी थीं। उनमें से एक तो बेहोशी की दवा थी, और दूसरी होश में लाने की। मनोरमा के यहाँ एक ब्राह्मणी थी, जो उसकी रसोई बनाती थी, और उस मकान में रहने तथा पहरा देनेवाली ग्यारह लौंड़ियों को भी उसी रसोई में खाना मिलता था। इसके अतिरिक्त एक ठकुरानी और थी, जो मांस बनाया करती थी। मनोरमा को खाने का शौक था और प्रायः नित्य खाया करती थी। मांस ज्यादे बना करता पर जो बच जाता वह सब लौंडियों नौकरों और मालिकों को बाँट दिया जाता था। कभी-कभी मैं भी रसोई बानानेवाली मिसरानी या ठकुरानी के पास बैठकर उसके काम में सहायता कर दिया करती थी और वह बेहोशी की दवा बरदेबू ने इसलिए दी थी कि समय आने पर खाने की चीजों तथा मांस इत्यादि में जहाँ तक हो सके, मिला दी जाय।

आखिर मुझे अपने काम में सफलता प्राप्त हुई, अर्थात् चौथे या पाँचवे दिन सन्ध्या के समय मनोरमा आ पहुँची और माँस के बटुए में बेहोशी की दवा मिला देने का भी मौका मिल गया।

रात के समय जब भोजन इत्यादि की छुट्टी पाकर मनोरमा अपने कमरे में बैठी तो उसने मुझे भी अपने पास बुलाकर बैठा लिया और बातें करने लगी। उस समय सिवाय हम दोनों के वहाँ और कोई भी न था।

मनोरमा : अबकी का सफर मेरा बहुत अच्छा हुआ और मुझे बहुत-सी बातें नयी मालूम हो गयीं, जिससे तेरे बाप के छुड़ाने में एक किसी तरह की कठिनाई नहीं रही। आशा है कि दो-ही-तीन दिन में वह कैद से छूट जाँयेंगे और हम लोग भी इस भेष को छोड़कर अपने घर जा पहुँचेंगे।

मैं : तुम कहाँ गयी थी और क्या करके आयी?

मनोरमा : मैं जमानिया गयी थी। वहाँ के राजा गोपालसिंह की मायारानी तथा दारोगा से भी मुलाकात की। मायारानी ने वहाँ अपना पूरा दखल जमा लिया है और वहाँ की तथा तिलिस्म की बहुत-सी बातें उसे मालूम हो गयी हैं। इसलिए अब वह राजा गोपालसिंह को भी मार डालने का बन्दोबस्त कर रही है।

मैं : तिलिस्म कैसा?

मनोरमा : (ताज्जुब के साथ) क्या तू नहीं जानती कि जमानिया का खास बाग एक बड़ा भारी तिलिस्म है?

मैं : नहीं, मुझे तो यह बात नहीं मालूम और तुमने भी कभी मुझे कुछ नहीं बताया।

यद्यपि मुझे जमानिया के तिलिस्म का हाल मालूम था और इस विषय की बहुत-सी बातें अपनी माँ से सुन चुकी थी, मगर इस समय मनोरमा से यही कह दिया कि नहीं यह बात भी मालूम नहीं है और तुमने भी इस विषय में कभी कुछ नहीं कहा। इसके जवाब में मनोरमा ने कहा, "हाँ ठीक है, मैंने नादान समझकर तुझे वे बातें नहीं कहीं थी।"

मैं : अच्छा यह तो बताओ कि मायारानी को थोड़े ही दिन में वहाँ का सब हाल कैसे मालूम हो गया?

मनोरमा : ये सब बातें मुझे मालूम न थीं मगर दारोगा ने मुझको असली मनोरमा समझकर बता दिया। अस्तु, जोकुछ उसकी जुबानी सुनने में आया है, सो तुझे कहती हूँ। मायारानी को वहाँ का हाल यकायक थोड़े ही दिनों में मालूम न हो जाता और दारोगा भी इतनी जल्दी से उसे होशियार न कर देता, मगर उसके (मायारानी के) बाप ने उसे हर तरह से होशियार कर दिया है क्योंकि उसके बड़े लोग दीवान के तौर पर वहाँ की हुकूमत कर चुके हैं और इसलिए उसके बाप को भी न मालूम किस तरह पर वहाँ की बहुत-सी बात मालूम हैं।

मैं : खैर, इन सब बातों से मुझे कोई मतलब नहीं, यह बताओ कि मेरे पिता कहाँ हैं और उन्हें छुड़ाने के लिए तुमने क्या बन्दोबस्त किया? वह छूट जाँय तो राजा गोपालसिंह को मायारानी के फन्दे से बचा लें। हम लोगों के किये इस बारे में कुछ न हो सकेगा!

मनोरमा : उन्हें छुड़ाने के लिए भी मैं सब बन्दोबस्त कर चुकी हूँ, देर बस इतनी ही है कि तू एक चीठी गोपालसिंह के नाम की उसी मजमून की लिखे दे, जिस मजमून की लिखने के लिए दारोगा तुझे कहता था। अफसोस इसी बात का है कि दारोगा को तेरा हाल मालूम हो गया है। वह तो मुझे नहीं पहिचान सका, मगर इतना कहता था कि इन्दिरा को तूने अपनी लड़की बनाकर घर में रख लिया है सो खैर तेरे मुलाहिजे से मैं उसे छोड़ देता हूँ मगर उसके हाथ से मजमून की चीठी लिखाकर जरूर भेजना होगा। (कुछ रुककर) न मालूम क्यों मेरा सिर घूमता है।

मैं : खाने को ज्यादा खा गयी होगी!

मनोरमा : नहीं मगर...

इतना कहते-कहते मनोरमा ने गौर की निगाह से मुझे देखा और मैं अपने को बचाने की नीयत से उठ खड़ी हुई। उसने यह देख मुझे पकड़ने की नीयत से उठना चाहा, मगर उठ न सकी और उस बेहोशी की दवा का पूरा-पूरा असर उस पर हो गया, अर्थात् वह बेहोश होकर गिर पड़ी। उस समय मैं उसके पास से चली आयी और कमरे से बाहर निकली। चारों तरफ देखने से मालूम हुआ कि सब लौंडी, नौकर, मिसरानी और माली वगैरह जहाँ-तहाँ बेहोश पड़े हैं, किसी को तनोबदन की सुध नहीं है। मैं एक जानी हुई जगह से मजबूत रस्सी लेकर पुनः मनोरमा के पास पहुँची और उसी से खूब जकड़कर दूसरी पुड़िया सुघाँ उसे होश में लायी। चैतन्य होने पर उसने हाथ में खंजर लिये मुझे सामने खड़े पाया! वह उसी का खंजर था, जो मैंने ले लिया था।

मनोरमा : हैं यह क्या? तूने मेरी ऐसी दुर्दशा क्यों कर रक्खी है?

मैं : इसलिए कि वास्तव में तू मेरी माँ नहीं है और मुझे धोखा देकर यहाँ ले आयी है।

मनोरमा : यह तुझे किसने कहा?

मैं : तेरी बातों और करतूतों ने।

मनोरमा : नहीं नहीं, यह सब तेरा भ्रम है।

मैं : अगर यह सब मेरा भ्रम है और तू वास्तव में मेरी माँ है तो बता मेरे नाना ने अपने अन्तिम समय में क्या कहा था?

मनोरमा : (कुछ सोचकर) मेरे पास आ तो बताऊँ।

मैं : मैं तेरे पास आ सकती हूँ, मगर इतना समझ ले कि अब जहरीली अँगूठी तेरी उँगली में नहीं है।

इतना सुनते ही वह चौंक पड़ी। इसके बाद भी खूब-खूब बातें उससे हुईं, जिससे निश्चय हो गया कि मेरी ही करनी से वह बेहोश हुई थी और अब मैं उसके फेर में नहीं आ सकती। मैं उसे निःसन्देह जान से मार डालती मगर बरदेबू ने ऐसा करने से मुझे मना कर दिया था। वह कह चुका था कि मैं तुझे इस कैद से छुड़ा तो देता हूँ, मगर मनोरमा की जान पर किसी तरह की आफत नहीं ला सकता, क्योंकि उसका नमक खा चुका हूँ।"

यही सबब था कि उस समय मैंने उसे केवल बातों की ही धमकी देकर छोड़ दिया। बची हुई बेहोशी की दबा जबर्दस्ती उसे सुँघाकर बेहोश करने बाद मैं कमरे के बाहर निकली और बाग में चली आयी, जहाँ प्रतिज्ञानुसार बरदेबू खड़ा मेरी राह देख रहा था। उसने मेरे लिए एक खंजर और ऐयारी का बटुआ भी तैयार कर रक्खा था, जो मुझे देकर उसके अन्दर की सब चीजों के बारे में अच्छी तरह समझा दिया और इसके बाद जिधर मालिकों के रहने का मकान था, उधर ले गया। माली सब तो बेहोश थे ही। अस्तु, कमन्द के सहारे मुझे बाग की दीवार के बाहर कर दिया और फिर मुझे मालूम न हुई कि बरदेबू ने क्या कार्रवाइयाँ की और उस पर तथा मनोरमा इत्यादि पर क्या बीती।

मनोरमा के घर से बाहर निकलते ही मैं सीधे जमानिया की तरफ भागी, क्योंकि एक तो अपनी माँ को छुड़ाने की फिक्र लगी हुई थी, जिसके लिए बरदेबू ने कुछ रास्ता भी बता दिया था, मगर इसके इलावे मेरी किस्मत में भी यही लिखा था कि बनिस्बत घर जाने के जमानिया जाना पसन्द करूँ और वहाँ अपनी माँ की तरह खुद भी फँस जाऊँ अगर मैं घर जाकर अपने पिता से मिलती और यह सब हाल कहती तो दुश्मनों का सत्यानाश भी होता और मेरी माँ भी छूट जाती, मगर सो न तो मुझको सूझा और न हुआ। इस सम्बन्ध में उस समय मुझको घड़ी-घड़ी इस बात का भी खयाल होता था, मनोरमा मेरा पीछा जरूर करेगी, अगर मैं घर की तरफ जाऊँगी तो निःसन्देह गिरफ्तार हो जाऊँगी।

खैर, मुख्तसर यह है कि बरदेबू के बताये हुए रास्ते से मैं इस तिलिस्म के अन्दर आ पहुँची। आज तो यहाँ की सब बातों का भेद जान ही गये होंगे, इसलिए विस्तार के साथ कहने की कोई जरूरत नहीं, केवल इतना ही कहना काफी होगा कि गंगा किनारे एक श्मशान पर जो महादेव का लिंग एक चबूतरे के ऊपर है, वही रास्ता आने के लिए बरदेबू ने मुझे बताया था।

इन्दिरा ने अपना हाल यहाँ तक बयान किया था कि कमलिनी ने रोका और कहा, " हाँ हाँ, उस रास्ते का हाल मुझे मालूम है, (कुमार से) जिस रास्ते से मैं आप लोगों को निकालकर तिलिस्म के बाहर ले गयी थी*!" (*देखिए आठवाँ भाग, दूसरे बयान का अन्त।)

इन्द्रजीत : ठीक है, (इन्दिरा से) अच्छा तब क्या हुआ?

इन्दिरा : मैं इस तिलिस्म के अन्दर जा पहुँची और घूमती-फिरती उसी कमरे में पहुँच गयी, जिसमें आपने उस दिन मुझे मेरे पिता और राजा गोपालसिंह को देखा था, जिस दिन आप उस बाग में पहुँचे थे, जिसमें मेरी माँ कैद थी।

इन्द्रजीत : अच्छा ठीक है, तो उसी खिड़की में से तूने भी अपनी माँ को देखा होगा?

इन्दिरा : जी हाँ, दूर ही से उसने मुझे देखा और मैंने उसे देखा, मगर उसके पास न पहुँच सकी। उस समय हम दोनों की क्या अवस्था होगी, इसे आप स्वयं समझ सकते हैं, मुझमें कहने की सामर्थ्य नहीं है। (एक लम्बी साँस लेकर) कई दिन तक व्यर्थ उद्योग करने पर भी जब मुझे निश्चय हो गया कि मैं किसी तरह उसके पास नहीं पहुँच सकती और न उसके छुड़ाने का कुछ बन्दोबस्त ही कर सकती हूँ, तब मैंने चाहा कि अपने पिता को इन सब बातों की इत्तिला दूँ। मगर अफसोस, यह काम भी मेरे किये न हो सका। मैं किसी तरह इस तिलिस्म के बाहर न जा सकी और मुद्दत तक यहाँ रहकर ग्रहदशा के दिन काटती रही।

इन्द्रजीत : अच्छा यह बता कि राजा गोपालसिंहवाली तिलिस्मी किताब तुझे क्योंकर मिली?

इन्दिरा : यह हाल भी आपसे कहती हूँ।

इतना कहकर इन्दिरा थोड़ी देर के लिए चुप हो गयी और उसके बाद फिर अपना किस्सा शुरू किया ही चाहती थी कि कमरे का दरवाजा जोकुछ घूमा हुआ था, यकायक जोर से खुला और राजा गोपालसिंह आते हुए दिखायी पड़े।

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