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चन्द्रकान्ता सन्तति - 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8403
आईएसबीएन :978-1-61301-030-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...

दूसरा बयान


जब दोनों ऐयार उस कमरे में अकेले रह गये तब थोड़ी देर तक अपनी अवस्था और भूल पर गौर करने बाद आपुस में यों बातें करने लगे—

देवी : यद्यपि तुम मुझसे और मैं भी तुमसे छिपकर यहाँ आया, मगर आने पर वह छिपना बिल्कुल व्यर्थ रह गया तुम्हारे गिरफ्तार हो जाने का तो ज्यादे रंज न होना चाहिए, क्योंकि तुम्हें अपनी जान की फिक्र पड़ी थी, अतएव अपनी भलाई के लिए तुम यहाँ आये थे और जोकुछ किसी तरह फायदा उठाना चाहता है, उसे कुछ-न-कुछ तकलीफ भी जरूर ही भोगनी पड़ती है, मगर मैं तो दिल्लगी-ही-दिल्लगी में बेवकूफ बन गया। न तो मुझे इन लोगों से कोई मतलब ही था और न यहाँ आये बिना मेरा कुछ हर्ज ही होता था।

भूतनाथ : (मुस्कुराकर) मगर आने पर आपका भी एक काम निकल आया, क्योंकि यहाँ अपनी स्त्री को देखकर अब किसी तरह भी जाँच किये बिना, आप नहीं रह सकते।

देवी : ठीक है! मगर भूतनाथ, तुम बड़े ही निडर और हौसले के ऐयार हो, जो ऐसी अवस्था में भी हँसने और मुस्कुराने से बाज नहीं आते!

भूतनाथ : तो क्या आप ऐसा नहीं कर सकते?

देवी : अगर बनावट के तौर पर हँसने या मुस्कुराने की जरूरत न पड़े तो मैं ऐसा नहीं कर सकता। मैं इस बात को खूब समझता हूँ कि तुम्हारे जीवट और हौसले की इतनी तरक्की क्योंकर हुई, मगर वास्तव में तुम निराले ढंग के आदमी हो, सच तो यह है कि तुम्हारी ठीक-ठीक अवस्था जानना कठिन ही नहीं, बल्कि असम्भव है।

भूतनाथ : आपका कहना बहुत ठीक है, मगर तभी तक मेरे जीवट और मर्दानगी का अन्दाजा मिलना कठिन है, जब तक कि मैं अपने को मुर्दा समझे हुए हूँ, जिस दिन मैं अपने को जिन्दा समझूगाँ, उस दिन यह बात न रहेगी।

देवी : तो क्या तुम अभी तक भी अपने को मुर्दा ही समझे हुए हो?

भूतनाथ : बेशक, क्योंकि अब मैं बेइज्जती और बदनामी के साथ जीने को मरने के बराबर समझता हूँ। जिस दिन मैं राजा बीरेन्द्रसिंह का विश्वासपात्र बनने योग्य हो जाऊँगा, उस दिन समझूँगा कि जी गया। मैं आपसे इस किस्म की बातें कदापि न करता, अगर आपको अपना मेहरबान और मददगार न समझता। आपको जैपाल या नकली बलभद्रसिंह की पहिली मुलाकात का दिन याद होगा, जब आपने मुझ पर मेहरबानी रखने और मुझे अपनाने का शपथपूर्वक इकरार किया था।

देवी : बेशक, मुझे याद है, जब तुम घबराये हुए और बेबसी की अवस्था में थे, तब मैंने तुमसे कहा था कि यदि मुझे यह भी मालूम हो जायगा कि तुम मेरे पिता के घातक हो, जिन पर मेरा बड़ा स्नेह था, तब भी मैं तुम्हें इसी तरह मुहब्बत की निगाह से देखूँगा जैसे कि अब मैं देख रहा हूँ*। कहो है न यही बात? (*देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति-3, ग्यारहवें भाग का आखिरी बयान।)

भूतनाथ : बेशक ये ही शब्द आपने कहे थे।

देवी : और अब भी मैं उसी बात का इकरार करता हूँ।

भूतनाथ : (प्रसन्नता से) आपकी सचाई पर भी मुझे उतना ही विश्वास है, जितना एक और एक दो होने पर!

देवी : यह बात तो तुम सच नहीं कहते!

भूतनाथ : (चौंककर) सो कैसे?

देवी : इसी से कि तुमने भेद की कोई बात आज तक मुझसे नहीं कही, यहाँ तक कि इस तरह आने की इच्छा भी मुझ पर प्रकट न की।

भूतनाथ : (शरमिन्दगी से सिर नीचा करके) बेशक, यह मेरा कसूर है, जिसके लिये (हाथ जोड़कर) मैं आपसे माफी माँगता हूँ, क्योंकि मैं इस बात को अच्छी तरह देख चुका हूँ कि आपने अपनी बात का निर्वाह पूरा-पूरा किया।

देवी : खैर, अब भी अगर तुम मुझे अपना विश्वासपात्र समझोंगे तो मेरे दिल का रंज निकल जायगा, असल तो यों है कि इस मौके पर तुमसे मिलने के लिए ही मैने यहाँ आने का इरादा भी किया, क्योंकि मुझे विश्वास था कि तुम यहाँ जरूर आओगे। खैर, अब तुम अपने कौल और इकरार को याद रक्खो और इस समय इन बातों को इसी जगह छोड़कर इस बात पर विचार करो कि अब हम लोगों को क्या करना चाहिए। मैं समझता हूँ कि तुम्हारे पास तिलस्मी खंजर मौजूद है।

भूतनाथ : जी हाँ, (खंजर की तरफ इशारा करके) यह तैयार है।

देवी : (अपने खंजर की तरफ बताकर) मेरे पास भी है।

भूतनाथ : आपको कहाँ से मिला?

देवी : तेजसिंह ने दिया था। यह वही खंजर है, जो मनोरमा के पास था, कमबख्त ने उसके जोड़ की अँगूठी अपनी जंघा के अन्दर छिपा रक्खी थी, जिसका पता बड़ी मुश्किल से लगा और तब से इस ढंग को मैंने भी पसन्द किया।

भूतनाथ : अच्छा तो अब आपकी क्या राय होती है? यहाँ से निकल भाने की कोशिश की जाय या यहाँ रहकर कुछ भेद जानने की?

देवी : इन दोनों खंजरों की बदौलत शायद हम यहाँ से निकल सकें, मगर ऐसा करना न चाहिए। अब जब गिरफ्तार होने की शरमिन्दगी उठा ही चुके तो बिना कुछ किये चले जाना उचित नहीं है, जिस पर यहाँ आकर मैंने अपनी स्त्री को और तुमने अपनी स्त्री को देखा लिया, अब क्या बिना उन दोनों का असल भेद मालूम किये यहाँ से चलने की इच्छा हो सकती है!

भूतनाथ : बेशक ऐसा ही है...

इतना कहते-कहते ही भूतनाथ यकायक रुक गया, क्योंकि उसके कान में किसी के जोर से हँसने की आवाज आयी और यह आवाज कुछ पहिचानी हुई-सी जान पड़ी। देवीसिंह ने भी इस आवाज पर गौर किया और उन्हें भी इस बात का शक हुआ कि इस आवाज को मैं कई दफे सुन चुका हूँ। मगर इस बात का कोई निश्चय वे दोनों नहीं कर सके कि यह आवाज किसकी है।

देवीसिंह और भूतनाथ दोनों ही आदमी इस बात को गौर से देखने और जाँचने लगे कि यह आवाज किधर से आयी या हम उसे किसी तरह देख भी सकते हैं या नहीं, जिसकी यह आवाज है। यकायक उन दोनों ने दीवार में ऊपर की तरफ दो सूराख देखे, जिनमें आदमी का सर बखूबी जा सकता था। ये सूराख छत से हाथ भर नीचे हटकर बने हुए थे और हवा आने-जाने के लिए बनाये गये थे। दोनों को ख्याल हुआ कि इसी सूराख में से आवाज आती है और उसी समय पुनः हँसने की आवाज आने से इस बात का निश्चय हो गया।

फौरन ही दोनों के मन में यह बात पैदा हुई कि किसी तरह उस सूराख तक पहुँचकर देखने चाहिए कि कुछ दिखायी देता है या नहीं, मगर इस ढंग से कि उस दूसरी तरफवालों को हमारी इस ढिठाई का पता न लगे।

हम लिख चुकें हैं कि इस कमरे में दो चारपाइयाँ बिछी हुई थीं। देवीसिंह ने उन्हीं दोनों चारपाइयों को उस सूराख तक पहुँचाने का जरिया बनाया, अर्थात् बिछावन हटा देने बाद एक चारपाई दीवार के सहारे खड़ी करके दूसरी चारपाई उसके ऊपर खड़ी की और कमन्द से दोनों के पावे अच्छी तरह मजबूती के साथ बाँधकर एक प्रकार की सीढ़ी तैयार की। इसके बाद देवीसिंह ने भूतनाथ के कन्धे पर चढ़कर कन्दील की रोशनी बुझा दी और तब उस चारपाई की अनूठी सीढ़ी पर चढ़ने का विचार किया, उस समय मालूम हुआ कि उस सूराख में से थोड़ी-थोड़ी रोशनी भी आ रही है। भूतनाथ ने नीचे खड़े रहकर चारपाई को मजबूती के साथ थामा और बिनवट के सहारे अँगूठा अड़ाते हुए देवीसिंह ऊपर चढ़ गये। वे सूराख टेढ़े अर्थात् दूसरी तरफ को झुकते हुए थे। एक सूराख में गर्दन डालकर देवीसिंह ने देखना शुरू किया। उधर नीचे की मंजिल में एक बहुत बड़ा कमरा था जिसकी ऊँची छत इस कमरे की छत के बराबर पहुँची हुई थी, जिसमें देवीसिंह और भूतनाथ थे। उस कमरे में सजावट की कोई चीज न थी सिर्फ जमीन पर साफ सुफेद फर्श बिछा हुआ और दो शमादान जल रहे थे। वहाँ पर देवीसिंह ने दो नकाबपोशों को ऊँची गद्दी पर और चार को गद्दी के नीचे बैठे हुए पाया और एक तरफ जिधर कोई मर्द न था अपनी और भूतनाथ की स्त्री को भी देखा। ये लोग आपुस में धीरे-धीरे बातें कर रहे थे इनकी बातें साफ समझ में नहीं आती थी, जोकुछ टूटी-फूटी बातें सुनने में आयीं, उनका मतलब यही था कि सुरंग का दरवाजा बन्द करने में भूल हो जाने के सबब से भूतनाथ और देवीसिंह वहाँ आ गये। अस्तु, अब ऐसी भूल न होनी चाहिए, जिसमें यहाँ तक कोई आ सके इत्यादि, इसी बीच में वहाँ एक और नकाबपोश आ पहुँचा, जो इस समय अपने नकाब को उलटकर सिर के ऊपर फेंके हुए था। इस आदमी की सूरत देखते ही देवीसिंह ने पहिचान लिया कि भूतनाथ का लड़का और कमला का सगा तथा बड़ा भाई हरनामसिंह है देवीसिंह ने अपनी जिन्दगी में हरनामसिंह को शायद एक या दो दफे किसी मौके पर देखा होगा, इसलिए उसने पहिचान तो लिया मगर ताज्जुब के साथ-ही-साथ शक बना रहा। अस्तु, इस शक को मिटाने के लिए देवीसिंह नीचे उतर आये और चारपाई को खुद पकड़कर भूतनाथ को ऊपर चढ़ने और उस सूराख के अन्दर झाँकने के लिए कहा।

जब भूतनाथ चारपाई की बिनन के सहारे ऊपर चढ़ गया और उस सूराख में झाँककर देखा तो अपने लड़के हरनामसिंह को पहिचानकर उसे बड़ा ही ताज्जुब हुआ और वह बड़े गौर से देखने तथा उन लोगों की बातें सुनने लगा।

पाठक, ताज्जुब नहीं कि आप इस हरनामसिंह को एकदम ही भूल गये हों, क्योंकि जहाँ तक हमें याद है, इसका नाम शायद चन्द्रकान्ता सन्तति के दूसरे भाग के पाँचवे बयान में आकर रह गया और फिर कहीं इसका जिक्र तक नहीं आया। यह वह हरनामसिंह नहीं है, जो मायारानी का ऐयार था, बल्कि यह कमला का बड़ा भाई तथा खास भूतनाथ का पहिला और असल लड़का हरनामसिंह है। इसे बहुत दिनों बाद आज यहाँ देखकर आप निःसन्देह आश्चर्य करेंगे, परन्तु खैर अब हम यह लिखते हैं कि भूतनाथ ने सूराख के अन्दर झाँककर क्या देखा।

भूतनाथ ने देखा कि उसका लड़का हरनामसिंह गद्दी के ऊपर बैठे हुए दोनों नकाबपोशों के सामने खड़ा है और सदर दरवाजे की तरफ बड़े गौर से देख रहा है। उसी समय एक आदमी लपेटे हुए मोटे कपड़े का बहुत का बहुत बड़ा लम्बा पुलन्दा लिये हुए आ पहुँचा और इस पुलिन्दे की गद्दी पर रखके खड़ा हो हाथ जोड़कर भर्राई हुई आवाज में बोला, ‘कृपानाथ, बस मैं इसी का दावा भूतनाथ पर करूँगा।"

गद्दी के नीचे बैठे हुए दो आदमियों ने इशारा पाकर लपेटे हुए कपड़े को खोला और तब भूतनाथ ने भी देखा कि वह एक बहुत बड़ी और आदमी के कद के बराबर तस्वीर है।

उस तस्वीर पर निगाह पड़ते ही भूतनाथ की अवस्था बिगड़ गयी और वह डर के मारे थरथर काँपने लगा। बहुत कोशिश करने पर भी वह अपने को सम्हाल न सका और उसके मुँह से एक चीख की आवाज निकल ही गयी, अर्थात् वह चिल्ला उठा। उसी समय उसने यह भी देखा कि उसकी आवाज उन लोगों के कानों में पहुँच गयी और इस सबब से वे लोग ताज्जुब के साथ ऊपर की तरफ देखने लगे।

भूतनाथ जल्दी के साथ चारपाई के नीचे उतर आया और काँपती हुई आवाज में देवीसिंह से बोला, "ओफ, मैं अपने को सम्हाल न सका और मेरे मुँह से चीख की आवाज निकल ही गयी, जिसे उन लोगों ने सुन लिया, ताज्जुब नहीं कि उन लोगों में से कोई यहाँ आये। अस्तु, आप जो उचित समझिए कीजिए, कुछ देर बाद मैं अपना हाल कहूँगा।" इतना कह भूतनाथ जमीन पर बैठ गया।

देवीसिंह ने झटपट अपने बटुए में से सामान निकालकर मोमबत्ती जलायी, दो तीन डपट की बातें कह भूतनाथ को चैतन्य किया और उसके मोढ़े पर चढ़कर कन्दील जलाने बाद मोमबत्ती बुझाकर बटुए में रख ली और इसके बाद दोनों चारपाई उसी तरह दुरुस्त कर दीं, जिस तरह पहिले थी, इसके बाद एक चारपाई पर भूतनाथ को सुलाकर पेट दर्द का बहाना करने और हाय-हाय करके कराहने के लिए कहकर आप उस चारपाई के सहारे बैठ गये। उसी समय कमरे का दरवाजा खुला और तीन-चार नकाबपोश अन्दर आते हुए दिखायी पड़े।

उन आदमियों ने पहिले तो गौर से कमरे के अन्दर की अवस्था देखी और तब उनमें से एक ने आगे बढ़कर देवीसिंह से पूछा, "क्या अभी तक आप लोग जाग रहे हैं?

देवी : हाँ, (भूतनाथ की तरफ इशारा करके) इनके पेट में यकायक दर्द पैदा हो गया और बड़ी तकलीफ है, अक्सर दर्द की तकलीफ से चिल्ला उठते हैं।

नकाबपोश : (भूतनाथ की तरफ देखके) आज यहाँ कुछ खाने में भी तो नहीं आया।

देवी : पहिले ही की कुछ कसर होगी।

नकाबपोश : फिर कुछ दवा वगैरह का बन्दोवस्त किया जाय?

देवी : मैंने दो दफे दवा दिलायी है, अब तो कुछ आराम हो रहा है, पहिले बड़ी तेजी पर था।

इतना सुनकर वे लोग चले गये और जाती समय पहिले की तरह दरवाजा पुनः बन्द करते गये।

अब फिर उस कमरे में सन्नाटा हो गया और भूतनाथ तथा देवीसिंह को धीरे-धीरे बातचीत करने का मौका मिला।

देवी : हाँ, अब बताओ तुमने पिछले कमरे में क्या देखा और तुम्हारे मुँह से चीख की आवाज क्यों निकल गयी?

भूतनाथ : ओफ, मेरे प्यारे दोस्त देवीसिंह क्योंकि अब मैं आपको खुशी और सच्चे दिल से अपना दोस्त कह सकता हूँ, चाहे आप मुझसे हर तरह पर बड़े क्यों न हों, उस कमरे में जोकुछ मैंने देखा वह मुझे दहला देने के लिए काफी था। पहिले तो वहाँ मैंने अपने लड़के को देखा, जिसे उम्मीद है कि आपने भी देखा होगा।

देवी : बेशक, उसे मैंने देखा था, मगर शक मिटाने के लिए तुम्हें दिखाना पड़ा, चाहे वह कोई ऐयार ही सूरत बदले क्यों न हो मगर शकल ठीक वैसी ही थी।

भूतनाथ : अगर उसकी सूरत बनावटी नहीं है तो वह मेरा लड़का हरनामसिंह ही है। खैर, उसके बारे में तो मुझे कुछ ज्यादे तरद्दुद न हुआ, मगर उसके कुछ ही देर बाद मैंने एक ऐसी चीज देखी कि जिससे मुझे हौल हो गया और मेरे मुँह से चीख की आवाज निकल पड़ी।

देवी : वह क्या चीज थी?

भूतनाथ : एक बहुत बड़ी तस्वीर थी, जिसे एक आदमी ने पहुँचकर उन नकाबपोशों के आगे रख दिया, जो गद्दी पर बैठे हुए थे और कहा, "बस मैं इसी का दावा भूतनाथ पर करूँगा।"

देवी : वह किसकी तस्वीर थी, किसी मर्द की या औरत की? भूतनाथ : (एक लम्बी साँस लेकर) वह औरत, मर्द, जंगल, पहाड़, बस्ती, उजाड़ सभी की तस्वीर थी, क्या बताऊँ किसकी तस्वीर थी एक यही बात है, जिसे मैं अपने मुँह से नहीं निकाल सकता! मगर अब मैं आपसे कोई बात न छिपाऊँगा चाहे कुछ ही क्यों न हो। आप यह तो अच्छी तरह जानते हैं कि मैं उस पीतल की सन्दूकड़ी से कितना डरता हूँ, जो नकली बलभद्रसिंह की दी हुई अभी तक तेजसिंह के पास है।

देवी : मैं खूब जानता हूँ और उस दिन भी मेरा खयाल उसी सन्दूकड़ी की तरफ चला गया था, जब एक नकाबपोश ने दरबार में खड़े होकर तुम्हारी तारीफ की थी और तुम्हें मुँहमाँगा इनाम देने के लिए कहा था।

भूतनाथ : ठीक है, बलभद्रसिंह ने भी मुझे यही कहा था कि ये नकाबपोश तुम्हारे मददगार हैं और तुम्हारा भेद ढंके रहने के लिए महाराज से यह सन्दूकड़ी तुम्हें दिलाया चाहते हैं। मैं भी यह सोचकर प्रसन्न था और चाहता था कि मुकदमा फैसल होने के पहिले ही इनाम माँगने का मुझे कोई मौका मिल जाय, मगर इस तस्वीर ने जिसे मैं अभी देख चुका हूँ, मेरी हिम्मत तोड़ दी और मैं पुनः अपनी जिन्दगी से नाउम्मीद हो गया हूँ।

देवी : तो उस सन्दूकड़ी से और इस तस्वीर से क्या सम्बन्ध है?

भूतनाथ : वह सन्दूकड़ी अपने पेट में जिस भेद को छिपाये हुए है, उसी भेद को यह तस्वीर प्रकट करती है। इसके अतिरिक्त मैं सोचे हुए था कि अब उसका कोई दावेदार नहीं है, मगर अब मालूम हो गया कि उसका दावेदार भी आ पहुँचा और उसी ने यह तस्वीर नकाबपोश के आगे पेश की!

देवी : क्या तुम यह नहीं बता सकते कि उस सन्दूकड़ी और इस तस्वीर में क्या भेद है?

भूतनाथ : (लम्बी साँस लेकर) अब मैं आपसे कोई बात छिपा न रक्खूगा, मगर इतना समझ रखिए कि उस भेद को सुनकर आप अपने ऊपर एक तरद्दुद का बोझा डाल लेंगे।

देवी : खैर, जोकुछ, होगा सहना ही पड़ेगा और तुम्हारी मदद भी करनी ही पड़ेगी, मगर सबके पहिले मैं यह जानना चाहता हूँ कि उस भेद से हमारे महाराज का भी कुछ सम्बन्ध है या नहीं।

भूतनाथ : अगर कुछ सम्बन्ध है भी तो केवल इतना ही कि उस भेद को सुनकर वे मुझ पर घृणा करेंगे नहीं तो महाराज से और उस भेद से कुछ सम्बन्ध नहीं। मैंने महाराज के विपक्ष में कोई बुरा काम नहीं किया, जो कुछ बुरा किया है, वह सिर्फ अपने और अपने दुश्मनों के साथ।

देवी : जब महाराज से उस भेद का कोई सम्बन्ध नहीं है तो मैं हर तरह पर तुम्हारी मदद कर सकता हूँ, अच्छा तो अब बताओ कि वह कौन सा भेद है।

भूतनाथ : इस समय न पूछिए क्योंकि हम लोग विचित्र स्थान में कैद है, ताज्जुब नहीं कि हम दोनों की बातें कोई किसी जगह पर छिपकर सुनता हो। हाँ मैदान में निकल चलने पर जरूर कहूँगा।

देवी : अच्छा ये बताओ कि उस आदमी की सूरत भी तुमने अच्छी तरह देख ली है या नहीं, जिसने यह तस्वीर नकाबपोश के आगे पेश की थी!

भूतनाथ : हाँ, उसकी सूरत मैंने बखूबी देखी थी। मैं उसे खूब पहिचानता हूँ, क्योंकि दुनिया में मेरा सबसे बड़ा दुश्मन वही है और उसे अपनी ऐयारी का भी घमंड है।

देवी : अगर वह तुम्हारे कब्जे में आ जाये तो?

भूतनाथ : जरूर उसे फँसाने, बल्कि मार डालने की फिक्र करूँगा! मैं तो उसकी तरफ से बिल्कुल बेफिक्र हो गया था, मुझे इस बात की रत्ती-भर भी उम्मीद न थी कि वह जीता है।

देवी : खैर, कोई चिन्ता नहीं जैसा होगा देखा जायेगा, तुम अभी से हताश क्यों हो रहे हो!

भूतनाथ : अगर वह सन्दूकड़ी मुझे मिल जाती और उसके खुलने की नौबत न आती तो...

देवी : वह सन्दूकड़ी मैं तुझे दिला दूँगा और उसे किसी के सामने खुलने भी न दूँगा, उसकी तरफ से तुम बेफिक्र रहो।

भूतनाथ : (मोहब्बत से देवीसिंह का पंजा पकड़ के) अगर ऐसा करो तो क्या बात है!

देवी : ऐसा ही होगा,। खैर, अब यह सोचना चाहिए कि इस समय हम लोगों को क्या करना उचित है, मैं समझता हूँ कि सुबह होने के साथ ही हम लोग इस हद के बाहर पहुँचा दिए जाएँगे।

भूतनाथ : मेरा खयाल भी यही है, लेकिन अगर ऐसा न हुआ तो आपकी और मेरी स्त्री के बारे में किसी बात का पता न लगेगा।

देवीसिंह और भूतनाथ इस विषय पर बहुत देर तक बात-चीत और राय पक्की करते रहे, यहाँ तक की सवेरा हो गया, कई नकाबपोश उस कमरे को खोलकर भूतनाथ तथा देवीसिंह के पास पहुँचे और उन्हें बाहर तचलने के लिए कहा।

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