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चन्द्रकान्ता सन्तति - 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8403
आईएसबीएन :978-1-61301-030-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...

छठवाँ बयान


अपनी स्त्री की सूरत देखकर, जितना ताज्जुब भूतनाथ को हुआ उतना ही आश्चर्य देवीसिंह को भी हुआ। यह विचार कर रंज गम, और गुस्से से देवीसिंह का सिर घूमने लगा कि इसी तरह मेरी स्त्री भी अवश्य नकाबपोश के यहाँ होगी, और हम लोगों को उसकी सूरत देखने में किसी तरह का भ्रम नहीं हुआ। यदि सोचा जाय कि जिन दोनों औरतों को हम लोगों ने देखा था, वे वास्तव में हम लोगों की औरतें न थीं, बल्कि वे औरतों की सूरत में ऐयार थे तो इसका निश्चय भी इसी समय हो सकता है। वह औरत सामने मौजूद ही है, देख लिया जाय कि कोई ऐयार है या वास्तव में भूतनाथ की स्त्री।

उस स्त्री ने भूतनाथ के मुँह से यह सुनकर कि यह तो मेरी स्त्री है—क्रोध भरी आँखों से भूतनाथ की तरफ देखा और कहा, "एक तो तुमने जबर्दस्ती मेरी नकाब उलट दी दूसरे बिना कुछ सोचे-विचारे आवारा लोगों की तरह यह कह दिया कि यह मेरी स्त्री है। क्या सभ्यता इसी को कहते है? (देवीसिंह की तरह देखके) आप ऐसे सज्जन और प्रतापी राजा बीरेन्द्रसिंह के ऐयार होकर क्या इस बात को पसन्द करते हैं?"

देवी : अगर तुम भूतनाथ की स्त्री नहीं हो तो मैं जरूर इस बर्ताव को बुरा समझता हूँ, जो भूतनाथ ने तुम्हारे साथ किया है।

औरत : (भूतनाथ से) क्यों साहब, आपने मेरी ऐसी बेइज्जती क्यों की! अगर मेरा मालिक या कोई वारिश इस समय होता तो अपने दिल में क्या कहता?

भूतनाथ : (ताज्जुब से उसका मुँह देखता हुआ) क्या मैं भ्रम में पड़ा हुआ हूँ या मेरी आँखे मेरे साथ दगा कर रही हैं?

औरत : सो तो आप ही जाने, क्योंकि दिमाग आपका है और आँखे भी आपकी हैं। हाँ, इतना मुझे अवश्य कहना पड़ेगा कि आप आपनी असभ्यता का परिचय देकर पुरानी बदनामी को चरितार्थ करते हैं। कौन-सी बात आपने मुझमें ऐसी देखी, जिससे आपको इतना कहने का साहस हुआ?

भूतनाथ : मालूम होता है कि या तो तू कोई ऐयार है और या फिर किसी दूसरे ने तेरी सूरत मेरी स्त्री के ढंग की बना दी है, जिसे तूने शायद कभी देखा नहीं।

भूतनाथ ने उस औरत की बातों का जवाब तो दिया, मगर वास्तव में वह खुद भी बहुत घबरा गया था। अपनी स्त्री की ढिठाई और चपलता पर उसे तरह-तरह के शक होने लगे और वह बड़ी बेचैनी के साथ सोच रहा था कि अब क्या करना चाहिए कि इसी बीच में उस स्त्री ने भूतनाथ की बात का यों जवाब दिया—

"यों आप जिस तरह चाहें सोच-समझकर अपनी तबीयत खुश कर लें, मगर इस बात को खूब समझ रक्खें कि मैं भी लावारिस नहीं हूँ और अगर आप मेरे साथ कोई बेअदबी का बरताव करेंगे तो उसका बदला भी अवश्य पावेंगे, साथ ही इस बात को भी समझ लें कि आप के इस कहने पर कि तू कोई ऐयार है, आपके सामने अपना चेहरा धोने की बेइज्जती बर्दाश्त नहीं कर सकती।"

भूतनाथ : मगर अफसोस है कि मैं बिना जाँच किये बिना तुम्हें छोड़ भी नहीं सकता।

स्त्री : (देवीसिंह की तरफ देखके) बहादुरी तो तब थी, जब आप लोग किसी मर्द के साथ ढिठाई का बर्ताव करते। एक कमजोर औरत को इस तरह मजबूर करके फजीहत करना ऐयारों और बहादुरों का काम नहीं है। हाय, इस जगह अगर कोई होता तो यह दु:ख न भोगना पड़ता। (यह कह कर वह आँसू बहाने लगी)

उस औरत की बातचीत कुछ ऐसे ढंग की थी कि सुनने वाले को उस पर दया आ सकती थी और यही मालूम होता था कि यह जो कुछ कह रही है, उसमें झूठ का लेश नहीं है, यहाँ तक की स्वयं भूतनाथ को भी उसकी बातों पर सहम जाना पड़ा और वह ताज्जुब के साथ उस औरत का मुँह देखने लगा, खास करके इस खयाल से भी कि देखें की आँसू बहने के सबब से उसके चेहरे का रंग कुछ बदलता है या नहीं। उधर देवीसिंह तो उसकी बातों से बहुत ही हैरान हो गये और उनके जी में रह-रह के यह बात पैदा होने लगी कि भूतनाथ इसके पहिचानने में धोखा खा गया और वास्तव में यह भूतनाथ की स्त्री नहीं है। अक्सर लोगों ने एक ही रंग-रूप के दो आदमी देखे हैं, ताज्जुब नहीं कि यहाँ भी वैसा ही कुछ मामला आ पड़ा हो।

देवी : (स्त्री से) तो तू इस भूतनाथ की स्त्री नहीं है?

स्त्री : जी नहीं।

देवी : आखिर इसका फैसला क्योंकर हो?

स्त्री : आप लोग जरा तकलीफ करके मेरे घर तक चलें, वहाँ मेरे बच्चों को देखने और मेरे मालिक से बातचीत करने पर आपको मालूम हो जायेगा कि मेरा कहना सच है या झूठ।

देवी : (औरत की बात पसन्द करके) तुम्हारा घर यहाँ से कितनी दूर है?

स्त्री : (हाथ का इशारा करके) इसी तरफ है, यहाँ से थोड़ी ही दूर पर। इन घने पेड़ो के पार होते ही आपको वह झोपड़ी दिखाई देगी, जिसमें आजकल हम लोग रहते हैं।

देवी : क्या तुम झोपड़ी में रहती हो? मगर तुम्हारी सूरत-शक्ल किसी झोपड़ी में रहने योग्य नहीं है।

स्त्री : जी, मेरे दो लड़के बीमार हैं, उनकी तन्दुरुसती का खयाल करके हवा-पानी बदलने की नीयत से आजकल हम लोग यहाँ आ टिके हैं। (हाथ जोड़कर) आप कृपाकर शीघ्र उठिये और मेरे डेरे पर चलकर इस बखेड़े को तय कीजिये, विलम्ब होने से मैं मुफ्त में सतायी जाऊँगी।

देवी : (भूतनाथ से) क्या हर्ज है, अगर इसके डेरे पर चलकर शक मिटा लिया जाये?

भूतनाथ : जो कुछ आपकी राय हो मैं करने को तैयार हूँ, मगर यह तो मुझे अजीब ढंग से अन्धा बना रही है।

देवी : अच्छा फिर उठो, अब देर करना उचित नहीं!

उस औरत की अनूठी बातचीत ने इन दोनों को इसबात पर मजबूर  किया कि उसके साथ-साथ डेरे तक जहाँ वह ले जाय, चुपचाप चले जाँय और देखें कि जो वह कहती है, कहाँ तक सच है और आखिर ऐसा ही हुआ।

इशारा पाते ही औरत उठ खड़ी हुई। देवीसिंह और भूतनाथ उसके पीछे-पीछे रवाना हुए। उस औरत को घोड़े पर सवार होने की आज्ञा न मिली, इसलिए वह घोड़े की लगाम थामे हुए धीरे-धीरे इन दोनों के साथ चली।

लगभग आध कोस के गये होंगे कि दूर से एक छोटा-सा कच्चा मकान दिखायी पड़ा, जिसे एक तौर पर झोपड़ी कहना उचित है। इस मकान के ऊपर खपड़े की जगह केवल पत्ते ही से छाया हुआ था।

जब ये लोग झोंपड़ी के दरवाजे पर पहुँचे, तब उस औरत ने अपने घोड़े को खूँटे के साथ बाँधकर थोड़ी-सी घास उसके आगे डाल दी, जो उसी जगह एक पेड़ के नीचे पड़ी हुई थी और जिसे देखने से मालूम होता था कि रोज इसी जगह घोड़ा बँधा करता है। उसके बाद उसने देवीसिंह और भूतनाथ से कहा, "आप लोग जरा सा इसी जगह ठहर जाँय मैं अन्दर जाकर आप लोगों के लिए चारपाई ले आती हूँ और अपने मालिक तथा लड़कों को भी बुला लाती हूँ।"

देवीसिंह और भूतनाथ ने इस बात को कबूल किया और कहा, "क्या हर्ज है, जाओ मगर जल्दी आना, क्योंकि हम लोग ज्यादे देर तक यहाँ ठहर नहीं सकते।"

वह औरत मकान के अन्दर चली गयी और वे दोनों देर तक बाहर खड़े रहकर उसका इन्तजार करते रहे, यहाँ तक कि घण्टा-भर से ज्यादे बीत गया और वह औरत मकान के बाहर न निकली। आखिर भूतनाथ ने पुकारना और चिल्लाना शुरू किया, मगर इसका भी कोई नतीजा न निकला अर्थात् किसी ने भी उसे किसी तरह का जवाब न दिया। तब लाचार होकर वे दोनों मकान के अन्दर घुस गये, मगर फिर भी किसी आदमी को यहाँ तक कि उस औरत की भी सूरत दिखायी न पड़ी। उस छोटी झोंपड़ी में किसी को ढूँढ़ना या पता लगाना कौन कठिन था। अस्तु, बित्ता-बित्ता भर जमीन देख डाली, मगर सिवाय एक सुरंग के और कुछ भी दिखायी न पड़ा। न तो मकान में किसी तरह का असबाब ही था और न चारपाई बिछावन, कपड़ा, लत्ता या अन्न और बरतन इत्यादि ही दिखायी पड़ा। अस्तु, लाचार होकर भूतनाथ ने कहा, "बस बस, हम लोगों को उल्लू बनाकर वह इसी सुरंग की राह निकल गयी।"

बेवकूफ बनाकर इस तरह उस औरत के निकल जाने से दोनों ऐयारों को बड़ा ही अफसोस हुआ भूतनाथ ने सुरंग के अन्दर घुसकर उस औरत को ढूँढ़ने का इरादा किया। पहिले तो इस बात का खयाल हुआ कि कहीं उस सुरंग में दो-चार आदमी घुसकर बैठे न हों, जो हम लोगों पर बेमौके वार करें, मगर जब अपने तिलिस्मी खंजर का ध्यान आया तो यह खायल जाता रहा और बेफिक्री के साथ हाथ में तिलिस्मी खंजर लिये हुए भूतनाथ उस सुरंग के अन्दर घुसा, पीछे-पीछे देवीसिंह ने भी उसके अन्दर पैर रक्खा।

वह सुरंग लगभग पाँच सौ कदम के लम्बी होगी। उसका दूसरा सिरा घने जंगल में पेड़ों के झुरमुट के अन्दर निकला था। देवीसिंह और भूतनाथ भी उसी सुरंग के अन्दर-ही-अन्दर वहाँ तक चले गये और इन्हें विश्वास हो गया कि अब उस औरत का पता किसी तरह नहीं लग सकता।

इस समय इन दोनों के दिल की क्या कैफियत थी, सो वे ही जानते होंगे। अस्तु, लाचार होकर देवीसिंह ने घर लौट चलने का विचार किया, मगर भूतनाथ ने इस बात को स्वीकार न करके कहा, "इस तरह तकलीफ उठाने और बेइज्जत होने पर भी बिना कुछ काम किये घर लौट चलना मेरे खयाल से उचित नहीं है।"

देवी : आखिर फिर किया ही क्या जायगा? मुझे इतनी फुर्सत नहीं है कि कई दिनों तक बेफिक्री के साथ इन लोगों का पीछा करूँ। उधर दरवार की जो कुछ कैफियत है, तुम जानते ही हो! ऐसी अवस्था में मालिक की प्रसन्नता का खयाल न करके एक साधारण काम में दूसरी तरफ उलझे रहना मेरे लिए उचित नहीं है।

भूतनाथ : आपका कहना ठीक है, मगर इस समय मेरी तबीयत का क्या हाल है, सो भी आप अच्छी तरह समझते होंगे।

देवी : मेरे खयाल से तुम्हारे लिए कोई ज्यादे तरद्दुद की बात नहीं है। इसके अतिरिक्त घर लौट चलने पर भी अपनी औरत को देखूँगा, अगर वह मिल गयी तो तुम भी अपनी स्त्री की तरफ से बेफिक्र हो जाओगे।

भूतनाथ : अगर आपकी स्त्री घर पर मिल जाय तो भी मेरे दिल का खुटका न जायगा।

देवी : अपनी स्त्री का हाल-चाल लेने के लिए तुम भी अपने आदमियों को भेज सकते हो।

भूतनाथ : यह सबकुछ ठीक है, मगर क्या करूँ, इस समय मेरे पेट में अजब तरह की खिचड़ी पक रही है और क्रोध क्षण-क्षण में बढ़ा ही चला आता है।

देवी : अगर ऐसा ही है तो जोकुछ तुम्हें उचित जान पड़े सो करो, मैं अकेला ही घर की तरफ लौट जाऊँगा।

भूतनाथ : अगर ऐसा ही कीजिए तो मुझ पर बड़ी कृपा होगी, मगर जब महाराज इस बारे में पूछेंगे तब क्या जवाब...

देवी : (बात काटकर) महाराज की तरफ से तुम बेफिक्र रहो, मैं जैसा मुनासिब समझूँगा कह-सुन लूँगा मगर इस बात का वादा कर जाओ कि कितने दिन पर तुम वापस आओगे या तुम्हारा हाल मुझे कब और क्योंकर मिलेगा?

भूतनाथ : मैं आपसे सिर्फ तीन दिन की छुट्टी लेता हूँ। अगर इससे ज्यादे दिन तक अटकने की नौबत आयी तो किसी-न-किसी तरह अपने हाल-चाल की खबर आप तक पहुँचा दूँगा।

देवी : बहुत अच्छा, (मुस्कुराते हुए) अब आप जाइए और पुनः लात खाने का बन्दोबस्त कीजिए, मैं तो घर की तरफ रवाना होता हूँ, जय माया की!

भूतनाथ : जय माया की!

भूतनाथ को उसी जगह छोड़कर देवीसिंह रवाना हुए और सन्ध्या होने के पहिले ही तिलिस्मी इमारत के पास आ पहुँचे।

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