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चन्द्रकान्ता सन्तति - 5

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :256
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8403
आईएसबीएन :978-1-61301-030-3

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चन्द्रकान्ता सन्तति 5 पुस्तक का ई-संस्करण...

आठवाँ बयान


महल के बाहर आने पर भी देवीसिंह के दिल को किसी तरह चैन न पड़ा। यद्यपि रात बहुत बीत चुकी थी, तथापि राजा बीरेन्द्रसिंह से मिलकर उस तस्वीर के विषय में बातचीत करने की नीयत से वह राजा साहब के कमरे में चले गये, मगर वहाँ जाने पर मालूम हुआ कि बीरेन्द्र महल में गये हुए हैं, लाचार होकर लौटा ही चाहते थे कि राजा बीरेन्द्रसिंह भी आ पहुँचे और अपने पलँग के पास देवीसिंह को देखकर बोले, "रात को भी तुम्हें चैन नहीं पड़ती! (मुस्कुराकर) मगर ताज्जुब यह है कि चम्पा ने तुम्हें इतने जल्दी बाहर आने की छुट्टी क्योंकर दे दी?"

देवी : इस हिसाब से तो मुझे भी आप पर ताज्जुब करना चाहिए, मगर नहीं, असल तो यह है कि मैं एक ताज्जुब की बात आपको सुनाने के लिए यहाँ चला आया हूँ।

बीरेन्द्रसिंह : वह कौन-सी बात है और तुम्हारे हाथ में यह कपड़े का पुलिन्दा कैसा है?

देवी : इसी कमबख्त ने तो मुझे इस आनन्द के समय में आपसे मिलने पर मजबूर किया।

बीरेन्द्र : सो क्या? (चारपाई पर बैठकर) बैठके बातें करो।

देवीसिंह ने महल में चम्पा के पास जाकर जोकुछ देखा और सुना था, सब बयान किया, इसके बाद वह कपड़ेवाली तस्वीर खोलकर दिखायी तथा उस नक्शे को भी अच्छी तरह समझाने के बाद कहा, "न मालूम यह नक्शा तारा को क्योंकर और कहाँ से मिला और उसने इसे अपनी माँ को क्यों दे दिया!"

बीरेन्द्र : तारासिंह से तुमने क्यों नहीं पूछा।

देवी : अभी तो मैं सीधा आपही के पास चला आया हूँ, अब जोकुछ मुनासिब हो किया जाय। कहिए तो लड़के को इसी जगह बुलाऊँ?

बीरेन्द्र : क्या हर्ज है, किसी को कहो बुला लावे।

देवीसिंह कमरे के बाहर निकले और पहरे के एक सिपाही को तारासिंह को बुलाने की आज्ञा देकर कमरे में चले गये और राजा साहब से बातचीत करने लगे। थोड़ी देर में पहरेवाले ने वापस आकर अर्ज किया कि ‘तारासिंह से मुलाकात नहीं हुई और इसका भी पता न लगा कि वे कब और कहाँ गये हैं, उनका खिदमतगार कहता है कि सन्ध्या होने के पहले से उनका पता नहीं है'।

बेशक यह बात ताज्जुब की थी। रात के समय बिना आज्ञा लिये तारासिंह का गैरहाजिर रहना सभों को ताज्जुब में डाल सकता था, मगर राजा बीरेन्द्रसिंह ने यह सोचा कि आखिर तारासिंह ऐयार है, शायद किसी काम की जरूरत समझकर कहीं चला गया हो। अस्तु, राजा साहब ने भैरोसिंह को तलब किया और थोड़ी ही देर में भैरोसिंह ने हाजिर होकर सलाम किया।

बीरेन्द्र : (भैरो से) तुम जानते हो कि तारासिंह क्यों और कहाँ गया है?

भैरो : तारा तो आज सन्ध्या होने के पहिले ही से गायब है, पहर-भर दिन बाकी था जब वह मुझसे मिला था, उसे तरद्दुद में देखकर मैंने पूछा भी था कि आज तुम तरद्दुद में क्यों मालूम पड़ते हो, मगर इसका उसने कोई जवाब नहीं दिया।

बीरेन्द्र : ताज्जुब की बात है! हमें उम्मीद थी कि तुम्हें उसका हाल जरूर मालूम होगा।

भैरो : क्या मैं सुन सकता हूँ कि इस समय उसे याद करने की जरूरत क्यों पड़ी?

बीरेन्द्र : जरूर सुन सकते हो।

इतना कहकर बीरेन्द्रसिंह ने देवीसिंह की तरफ देखा और देवीसिंह ने कुछ कमोबेश अपना और भूतनाथ का किस्सा बयान करने बाद उस तस्वीर का हाल कहा और तस्वीर भी दिखायी। अन्त में भैरोसिंह ने कहा, "मुझे कुछ भी मालूम नहीं कि तारासिंह को यह तस्वीर कब और कहाँ से मिली मगर अब इसका हाल जानने की कोशिश जरूर करूँगा।"

हुक्म पाकर भैरोसिंह बिदा हुआ और थोड़ी देर तक बातचीत करने बाद देवीसिंह भी चले गये।

दूसरे दिन मामूली कामों से छुट्टी पाकर राजा बीरेन्द्रसिंह जब दरबारे-खास में बैठे तो पुनः तारासिंह के विषय की बातचीत शुरू हुई और इसी बात में नकाबपोशों का भी जिक्र छिड़ा। इस समय वहाँ राजा बीरेन्द्रसिंह, गोपालसिंह और तेजसिंह तथा देवीसिंह वगैरह अपने ऐयारों के अतिरिक्त कोई गैर आदमी न था। जितने थे, सभी ताज्जुब के साथ तारासिंह के विषय में तरह-तरह की बातें कर रहे थे और मौके पर भूतनाथ तथा नकाबपोशों का भी जिक्र आता था। दोनों नकाबपोश वहाँ आके इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का किस्सा सुना गये थे, उसे आज तीन दिन का जमाना गुजर गया। इस बीच में न तो वे दोनों नकाबपोश आये थे और न उनके विषय में कोई बात ही सुनी गयी। साथ ही इसके अभी तक भूतनाथ का कोई हाल-चाल मालूम न हुआ। खुलासा यह कि इस समय के दरबार में इन्हीं सब बातों की चर्चा थी और तरह-तरह के खयाल दौड़ाये जा रहे थे। इसी समय चोबदार ने दोनों नकाबपोशों के आने की इत्तिला की। हुक्म पाकर वे दोनों हाजिर किये गये और सलाम करके आज्ञानुसार उचित स्थान पर बैठ गये।

एक नकाबपोश : (हाथ जोड़के राजा बीरेन्द्रसिंह से) महाराज ताज्जुब करते होंगे कि ताबेदारों ने हाजिर होने में दो-तीन दिन का नागा किया।

बीरेन्द्र : बेशक ऐसा ही है, क्यों कि हम लोग इन्द्रजीत और आनन्द का तिलिस्मी किस्सा सुनने के लिए बेचैन हो रहे थे।

नकाबपोश : ठीक है, हम लोग हाजिर न हुए इसके कई सबब हैं। एक तो इसका पता हम लोगों को लग चुका था कि भूतनाथ जो हम लोगों की फिक्र में गया था, अभी तक लौटकर नहीं आया और इस सबब से कैदियों के मुकदमे में दिलचस्पी नहीं आ सकती थी, जिनका हाल दरियाफ्त करना बहुत जरूरी था और इस काम के लिए हम लोग तिलिस्म के अन्दर गये हुए थे।

बीरेन्द्र : क्या आप लोग जब चाहे तब उस तिलिस्म के अन्दर जा सकते हैं, जिसे दोनों लड़के फतह कर रहे हैं?

नकाबपोश : जी सब जगह तो नहीं, मगर खास-खास ठिकाने कभी-कभी जा सकते हैं, जहाँ तक की हमारे गुरु महाराज जाया करते थे, मगर उनकी खबर एक-एक घड़ी हम लोगों को मिला करती है।

बीरेन्द्र : आप लोगों के गुरु कौन और कहाँ है?

नकाबपोश : अब तो वे परमधाम को चले गये।

बीरेन्द्र : खैर, तो जब आप लोग तिलिस्म में गये थे तो क्या दोनों लड़कों से मुलाकात हुई थी?

नकाबपोश : मुलाकात तो नहीं हुई, मगर जिन बातों का शक था, वह मिट गया और जो बातें मालूम न थीं, वे मालूम हो गयीं, जिससे इस समय हम लोग पुनः उनका किस्सा कहने के लिए तैयार हैं। (देवीसिंह की तरफ देखकर) आपने भूतनाथ को अकेला ही छोड़ दिया।

देवी : हाँ, क्योंकि मुझे आप लोगों का भेद जानने का उतना शौक न था, जितना भूतनाथ को है। मैं तो उस दिन केवल इतना ही जानने के लिए गया था कि देखें भूतनाथ कहाँ जाता है और क्या करता है, मगर मेरी तबीयत इतने ही में भर गयी।

नकाबपोश: मगर भूतनाथ की तबीयत अभी नहीं भरी।

तेज : वह भी विचित्र ढंग का ऐयार है? साफ-साफ देखता है कि आप लोग उसके पक्षपाती हैं, मगर फिर भी आप लोगों का असल हाल जानने के लिए बेताब हो रहा है। यह उसकी भूल है, तथापि आशा है कि आप लोगों की तरफ से किसी तरह की तकलीफ न पहुँचेगी।

नकाबपोश : नहीं नहीं, कदापि नहीं। (बीरेन्द्रसिंह की तरफ देखके और हाथ जोड़के) हम लोगों को अपना लड़का समझिए और विश्वास रखिए कि आपके किसी ऐयार को हम लोगों की तरफ से किसी तरह की तकलीफ नहीं पहुँच सकती, चाहे वे लोग हमें किसी तरह का रंज पहुँचावें।

बीरेन्द्र : आशा तो ऐसी ही है और हमारे ऐयार भी बड़े ही नालायक होंगे, अगर आप लोगों की किसी तरह की तकलीफ पहुँचाने का इरादा करेंगे।

देवी : मैं कल से एक और तरद्दुद में पड़ गया हूँ।

नकाबपोश : वह क्या?

देवी : कल से मेरे लड़के तारासिंह का पता नहीं है, न मालूम वह क्यों और कहाँ चला गया।

नकाबपोश : तारासिंह के लिए आपको तरद्दुद न करना चाहिए, आशा है कि घण्टे-भर के अन्दर ही यहाँ आ पहुँचेगा।

देवी : आपके इस कहने से तो मालूम होता है कि आपको उसका भी हाल मालूम है।

नकाबपोश : बेशक मालूम है, मगर मैं अपनी जुबान से कुछ भी न कहूँगा, आप स्वयं उससे जोकुछ पूछना होगा, पूछ लेगें। (बीरेन्द्रसिंह से) आज जिस समय हम लोग घर से यहाँ की तरफ रवाना हो रहे थे, उसी समय एक चीठी कुँअर इन्द्रजीतसिंह की मुझे मिली, जिसमें उन्होंने लिखा था कि तुम महाराज के पास जाकर मेरी तरफ से अर्ज करो कि महाराज भैरोसिंह और तारासिंह को मेरे पास भेज दें, क्योंकि उनके बिना हम लोगों को कई बातों की तकलीफ हो रही है, साथ ही इसके एक चीठी महाराज के नाम की भी उन्होंने भेजी है।

इतना कहके नकाबपोश ने अपनी जेब में से एक बन्द लिफाफा निकालकर बीरेन्द्रसिंह के हाथ में दिया।

बीरेन्द्र : (ताज्जुब के साथ लिफाफा लेकर) सीधे मेरे पास क्यों नहीं भेजा?

नकाबपोश : वे न तो खुद तिलिस्म के बाहर आ सकते हैं और न किसी को भेज सकते हैं, हम लोगों का आदमी हरदम तिलिस्म के अन्दर मौजूद रहता है और उनके हालचाल की खबर लिया करता है, इसलिए उसके मारफत पत्र भेज सकते हैं।

इतना सुनकर बीरेन्द्रसिंह चुप हो रहे और लिफाफा खोलकर पढ़ने लगे। प्रणाम इत्यादि के बाद यह लिखा था— 

"हम दोनों भाई कुशलपूर्वक तिलिस्म की कार्रवाई कर रहे हैं, परन्तु कोई ऐयार या मददगार न रहने के कारण कभी-कभी तकलीफ हो जाती है, इसलिए आशा है कि भैरोसिंह और तारासिंह को शीघ्र भेज देंगे। यहाँ तिलिस्म में ईश्वर ने हमें दो मददगार बहुत अच्छे पहुँचा दिये हैं, जिनका नाम रामसिंह और लक्ष्मणसिंह हैं। ये दोनों मायारानी और तिलिस्मी दारोगा इत्यादि के भेदों से खूब वाकिफ हैं। यदि इन लोगों के सामने दुष्टों के मुकद्दमे का फैसला करेंगे तो आशा है कि देखने-सुननेवालों को एक अपूर्व आनन्द मिलेगा। इन्हीं दोनों की जुबानी हम दोनों भाइयों का हाल पूरा-पूरा मिला करेगा और ये ही दोनों भैरोसिंह को भी हम लोगों के पास पहुँचा देंगे। भाई गोपालसिंहजी से कह दीजियेगा कि उनके दोस्त भरतसिंह जी भी इस तिलिस्म में मुझे मिले हैं। उन्हें कमबख्त दारोगा ने कैद किया था, ईश्वर की कृपा से उनकी जान बच गयी। भाई गोपालसिंह मुझसे बिदा होते समय तालाबवाले नहर के विषय में गुप्त रीति से जोकुछ कह गये थे, वह ठीक निकला, चाँदवाला पताका भी हम लोगों को मिल गया।

आपके आज्ञाकारी पुत्र—
इन्द्रजीत, आनन्द।"

इस चीठी को पढ़कर बीरेन्द्रसिंह बहुत ही प्रसन्न हुए, मगर साथ ही इसके उन्हें ताज्जुब भी हद्द से ज्यादे हुआ। इन्द्रजीतसिंह के हाथ के अक्षर पहचानने में किसी तरह की भूल नहीं हो सकती थी, तथापि शक मिटाने के लिए बीरेन्द्रसिंह ने वह चीठी राजा गोपालसिंह के हाथ में दे दी, क्योंकि उनके विषय में भी दो-एक गुप्त बातों का ऐसा इशारा था, जिसके पढ़ने से एक बात का रत्ती भर भी शक नहीं हो सकता था कि यह चीठी कुमार के हाथ की लिखी हुई नहीं है या ये नकाबपोश जाल करते हैं।

चीठी पढ़ने के साथ ही राजा गोपालसिंह हद्द से ज्यादा खुश होकर चौंक पड़े, और राजा बीरेन्द्रसिंह की तरफ देखकर बोले, "निःसन्देह यह पत्र इन्द्रजीतसिंह के हाथ का लिखा हुआ है। बिदा होते समय जो गुप्त बातें मैं उनसे कह आया था, इस चीठी में उनका जिक्र एक अपूर्व आनन्द दे रहा है, तिस पर अपने मित्र भरतसिंह के पा जाने का हाल पढ़कर मुझे दोहरी प्रसन्नता हुई, उसे मैं शब्दों द्वारा प्रकट नहीं कर सकता हूँ। (नकाबपोशों की तरफ देखके) अब मालूम हुआ कि आप लोगों के नाम रामसिंह और लक्ष्मणसिंह है, जरूर आप लोग बहुत-सी बातों को छिपा रहे हैं, परन्तु जिस समय भेदों को खोलेंगे, उस समय निःसन्देह एक अद्भुत आनन्द मिलेगा।"

इतना कहकर राजा गोपालसिंह ने वह चीठी तेजसिंह के हाथ में दे दी, और उन्होंने ने पढ़कर देवीसिंह को और देवीसिंह ने पढ़कर और ऐयारों को भी दिखाई, जिसके सबब से सभों के चेहरे पर प्रसन्नता दिखायी देने लगी। इसी समय तारासिंह भी वहाँ आ पहुँचा।

नकाबपोश ने जोकुछ कहा था, वही हुआ अर्थात् थोड़ी देर में तारासिंह ने भी वहाँ पहुँचकर, सभों के दिल से खुटका दूर किया मगर हमारे राजा साहब और ऐयारों को इस बात का ताज्जुब जरूर था कि नकाबपोश को तारासिंह का हाल क्योंकर मालूम हुआ और उसने किस जानकारी पर कहा कि वह घण्टे-भर के अन्दर आ जायगा। खैर, इस समय तारासिंह के आ जाने से सभों को प्रसन्नता ही हुई और देवीसिंह को भी उस तस्वीर के विषय में कुछ खुलासा हाल पूछने का मौका मिला, मगर नकाबपोश के सामने उस विषय में बातचीत करना उचित न जाना।

नकाबपोश : (बीरेन्द्रसिंह से) देखिए, तारासिंह आ गये, जो मैंने कहा था, वही हुआ। अब इन दोनों के विषय में क्या हुक्म होता है? क्या आज ये दोनों ऐयार कुँअर इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह पास जाने के लिए तैयार हो सकते हैं।

तेज : हाँ, तैयार हो सकते हैं और आप लोगों के साथ जा सकते हैं, मगर दो-एक जरूरी कामों की तरफ ध्यान देने से यही उचित जान पड़ता है कि आज नहीं, बल्कि कल इन दोनों भाइयों को आपके साथ विदा किया जाय।

नकाबपोश : जैसी मर्जी, अब आज्ञा हो तो हम लोग विदा हों।

तेज : क्या आज इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह का किस्सा आप न सुनावेंगे?

नकाबपोश : देर तो हो गयी, मगर फिर भी कुछ थोड़ा-सा हाल सुनाने के लिए हम लोग तैयार हैं, आप दरियाफ्त करायें यदि बड़े महाराज निश्चिन्त हों तो...

इशार पाते ही भैरोसिंह बड़े महाराज अर्थात् महाराज सुरेन्द्रसिंह के पास चले गये और थोड़ी देर में लौट आकर बोले, "महाराज आप लोगों का इन्तजार कर रहे हैं।"

इतना सुनते ही बीरेन्द्रसिंह के साथ-ही-साथ सब कोई उठ खड़े हुए और बात-की-बात में यह दरबार-खास महाराज सुरेन्द्रसिंह का दरबार-खास हो गया।

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