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चन्द्रकान्ता सन्तति - 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :237
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8404
आईएसबीएन :978-1-61301-031-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 6 पुस्तक का ईपुस्तक संस्करण...

दूसरा बयान


जब मेरी आँख खुली, मैंने अपने को अपने आदमियों से घिरा हुआ पाया। मशालों की रोशनी खूब हो रही थी। जाँच करने पर मालूम हुआ कि मैं आधी घड़ी से ज्यादे देर तक बेहोश नहीं रहा। जब मैंने दुश्मन के बारे में दरियाफ्त किया तो मालूम हुआ कि वे दोनों भी भाग गये, मगर मेरे आदमियों के सबब से उस गठरी को न ले जा सके। मैंने अपनी हिम्मत और ताकत पर खयाल किया तो मालूम हुआ कि मैं इस समय उनका पीछा करने लायक नहीं हूँ। आखिर लाचार हो और पहरे का इन्तजाम करके मैं गठरी लिये हुए अपने कमरे में चला आया, मगर अपने मित्र की तरफ से मेरा दिल बड़ा ही बेचैन रहा और तरह-तरह के शक पैदा होते रहे।

मेरे कमरे में रोशनी बखूबी हो रही थी। दरवाजा बन्द करके मैंने गठरी खोली और उसके अन्दर की चीजों को बड़े गौर से देखने लगा।

गठरी में दो जोड़े तो कपड़े निकले, जिन्हें मैं पहिचानता न था, मगर वे कपड़े पहिरे हुए और मैले थे। कागजों का एक मुट्ठा निकला, जिसे देखते ही मैं पहिचान गया कि यह रणधीरसिंह के खास सन्दूक के कागज हैं। मोम का एक साँचा कई कपड़ो की तह में लपेटा निकला, जो खास रणधीरसिंहजी की मोहर पर से उठाया गया था। इन चीजों के अतिरिक्त मोतियों की एक माला, एक कण्ठा और तीन जड़ाऊ अँगूठियाँ निकलीं। ये चीजें मेरे मित्र दयारामसिंह की थीं। इन सब चीजों को पहिरे हुए ही आज वे मेरे यहाँ से गायब हुए थे।

इन सब चीजों को देखकर मैं बड़ी देर तक सोच-विचार में पड़ा रहा। उसी समय कमरे का वह दरवाजा खुला, जो जनाने मकान में जाने के लिए था और मेरी स्त्री, कमला की माँ आती हुई दिखायी पड़ी। उस समय वह एक बच्चे की माँ हो चुकी थी और अपने बच्चे को भी गोद में लिए हुए थी। इसमें कोई शक नहीं कि मेरी स्त्री बुद्धिमान थी और छोटे-मोटे कामों में मैं उसकी राय भी लिया करता था।

उसकी सूरत देखते ही मैं पहिचान गया कि तरद्दुद और घबराहट ने उसे अपना शिकार बना लिया है। अस्तु, मैंने उसे बुलाकर अपने पास बैठाया और सब हाल कह सुनाया, साथ ही इसके यह भी कहा कि मैं इसी समय अपने दोस्त का पता लगाने के लिए जाया चाहता हूँ। मगर उसने इस आखिरी बात को कबूल न किया और कहा कि ‘मेरी राय में पहिले रणधीरसिंहजी से मिल लेना चाहिए।

कई बातों को सोंचकर मैंने उसकी राय कबूल कर ली और उस गठरी को लेकर रणधीरसिंहजी से मिलने के लिए रवाना हुआ। मुझे इस बात का भी धोखा लगा हुआ था कि रास्ते में कहीं दुश्मनों से मुलाकात न हो जाय, जो जरूर इस गठरी को छीन लेने की धुन में लगे हुए होंगे, इसलिए मैंने अपने दो शागिर्दों को भी साथ में ले लिया।

रणधीरसिंहजी बेफिक्र और आराम की नींद सो रहे थे, जब मैंने पहुँचकर उन्हें उठाया। जागने के साथ ही वे मुझे देखकर चौंके और बोले, ‘‘क्यों क्या मामला है, जो इस समय ऐसे ढंग से यहाँ आये हो? दयाराम कुशल से तो है?’’

मेरी सूरत देखते ही उन्होंने दयाराम का कुशल पूछा इससे मुझे बड़ा ही ताज्जुब हुआ। खैर, मैं उनके पास बैठ गया और जो कुछ मामला हुआ था, साफ-साफ कह सुनाया।

मैं इस किस्से को मुख्तसर ही में बयान करूँगा। रणधीरसिंहजी इस हाल को सुनकर बहुत ही दुःखी और उदास हुए। बहुतकुछ बातचीत करने के बाद अन्त में बोले, ‘‘दयाराम मेरा एक ही वारिस और तुम्हारा दिली दोस्त है, ऐसी अवस्था में उसके लिए क्या करना चाहिए सो तुम ही सोच लो मैं क्या कहूँ। मैं तो समझ चुका था कि दुश्मनों की तरफ से अब निश्चिन्त हुआ, मगर नहीं...।’’

इतना कहकर वे कपड़े से अपना मुँह ढाँपकर रोने लगे। मैं उन्हें बहुत-कुछ समझा-बुझाकर बिदा हुआ और अपने घर चला आया। अपनी स्त्री से मिलकर सब हाल कहने और समझाने-बुझाने के बाद मैं अपने शागिर्दों को साथ लेकर घर से बाहर निकला। बस यहीं से मेरी बदकिस्मती का जमाना शुरू हुआ।

इतना कहकर भूतनाथ अटक गया और सिर नीचा करके कुछ सोचने लगा। सबकोई बेचैनी के साथ उसकी तरफ देख रहे थे और भूतनाथ की अवस्था से मालूम होता था कि वह इस बात को सोच रहा है कि मैं अपना किस्सा आगे बयान करूँ या नहीं। उसी समय दो आदमी और कमरे के अन्दर चले आये और महाराज को सलाम करके खड़े हो गये। इनकी सूरत देखते ही भूतनाथ के चेहरे का रंग उड़ गया और वह डरे हुए ढंग से उन दोनों की तरफ देखने लगा।

दोनों आदमी जो अभी-अभी कमरे में आये, वे ही थे, जिन्होंने भूतनाथ को अपना नाम ‘दलीपशाह’ बतलाया था। इन्द्रदेव की आज्ञा पाकर वे दोनों भूतनाथ के पास ही बैठ गये।


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