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चन्द्रकान्ता सन्तति - 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :237
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8404
आईएसबीएन :978-1-61301-031-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 6 पुस्तक का ईपुस्तक संस्करण...

आठवाँ बयान


रात पहर-भर से ज्यादे जा चुकी है। एक सुन्दर सजे हुए कमरे में राजा गोपालसिंह और इन्द्रदेव बैठे हैं और उनके सामने नानक हाथ जोड़े बैठा दिखायी देता है।

गोपाल : (नानक से) ठीक है, यद्यपि इन बातों में तुमने अपनी तरफ से कुछ नमक-मिर्च जरूर लगाया होगा, मगर फिर भी मुझे कोई ऐसी बात नहीं जान पड़ती, जिससे भूतनाथ को दोषी ठहराऊँ। उसने जोकुछ तुम्हारी माँ से कहा सच कहा और उसके साथ जैसा बर्ताव किया, वह उचित ही था। इस विषय में मैं भूतनाथ को कुछ भी नहीं कह सकता और न अब तुम्हारी बातों पर भरोसा ही कर सकता हूँ। बड़े अफसोस की बात है कि मेरी नसीहत ने तुम्हारे दिल पर कुछ भी असर न किया* और अगर कुछ किया भी तो वह दो-चार दिन बाद जाता रहा। अगर तुम अपनी माँ के साथ नन्हों के मकान में गिरफ्तार न हुए होते तो कदाचित् मैं तुम्हारे धोखे में आ जाता, मगर अब मैं किसी तरह भी तुम्हारा साथ नहीं दे सकता। (*देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति -5, उन्नीसवाँ भाग, तीसरा बयान।)

नानक: मगर आप मेरा कसूर माफ कर चुके हैं और…

इन्द्रदेव : (नानक से) अगर तुम उस माफी को पाकर खुश हुए थे, तो फिर पुराने रास्ते पर क्यों गये और पुनः अपनी माँ को लेकर नन्हों के पास क्यों पहुँचे? तुम्हें बात करते शर्म नहीं आती!!

गोपाल : फिर भी मैं अपनी जबान (माफी) का खयाल करूँगा और तुम्हें किसी तरह की तकलीफ न दूँगा, मगर अब भूतनाथ की तरह मैं भी तुम्हारी सूरत देखना पसन्द नहीं करता और न भूतनाथ को इस विषय में कुछ कहना चाहता हूँ। इन्द्रदेव ने तुम्हारे साथ इतनी ही रेयाअत की सो बहुत किया कि तुमको यहाँ से निकल जाने की आज्ञा दे दी, नहीं तो तुम इस लायक थे कि जन्म-भर कैद में पड़े सड़ा करते।

नानक : जो आज्ञा, मगर मेरे पिता से इतना तो दिला दीजिए की मेरी माँ जन्म-भर खाने-पीने की तरफ से बेफिक्र रहे।

इन्द्रदेव : अबे कमीने, तुझे यह कहते शर्म नहीं मालूम होती! इतना बड़ा होके भी तू अपनी माँ के लायक दाना-पानी नहीं जुटा सकता? खैर, अब तुझे आखिरी मर्तबे कहा जाता है कि अब हम लोगों से किसी तरह की उम्मीद न रख और अपनी माँ को साथ लेकर यहाँ से चला जा। भूतनाथ ने भी मुझे ऐसा ही कहने के लिए कहला भेजा है।

इतना कहकर इन्द्रदेव ने ताली बजायी और साथ ही अपने ऐयार सर्यूसिंह को कमरे के अन्दर आते देखा।

इन्द्रदेव : (सर्यू से) भूतनाथ कहाँ है?

सर्यू : नम्बर पाँच के कमरे में देवीसिंहजी से बातें कर रहे हैं, वे दोनों यहाँ आये भी थे, मगर यह सुनकर कि नानक यहाँ बैठा हुआ है, पिछले पैर लौट गये।

इन्द्रदेव : अच्छा तुम जाओ और उन्हें यहाँ बुला लाओ।

सर्यू : जो आज्ञा, परन्तु मुझे आशा नहीं है कि वे लोग नानक के रहते यहाँ आवेंगे।

इन्द्रदेव : अच्छा तो मैं खुद जाता हूँ।

गोपाल : हाँ, तुम्हारा ही जाना ठीक होगा, देवीसिंह को भी बुलाते आना।

इन्द्रदेव उठकर चले गये और थोड़ी ही देर में भूतनाथ तथा देवीसिंह को साथ लिये हुए आ पहुँचे।

गोपाल : (भूतनाथ से) क्यों साहब, आप यहाँ तक आकर लौट क्यों गये?

भूतनाथ : यों ही, मैंने समझा कि आप लोग किसी खास बात में लगे हुए हैं।

गोपाल : अच्छा बैठिए और एक बात का जवाब दीजिए।

भूतनाथ : कहिए?

गोपाल : रामदेई और नानक के बारे में आप क्या हुक्म देते हैं?

भूतनाथ : महाराज ने क्या आज्ञा दी है?

गोपाल : उन्होंने इसका फैसला आपही के ऊपर छोड़ा है।

भूतनाथ : फिर जो राय आप लोगों की हो, मैंने तो इन दोनों के बारे में इसकी माँ को हुक्म सुना ही दिया है।

गोपाल : इनके कसूर तो आप सुन ही चुके होंगे।

भूतनाथ : पिछले कसूरों को तो मैं सुन ही चुका हूँ, हाँ, नया कसूर सिर्फ इतना ही मालूम हुआ है कि ये दोनों नन्हों के यहाँ गिरफ्तार हुए हैं।

गोपाल : इसके अतिरिक्त एक बात और है।

भूतनाथ : वह क्या?

गोपाल : यही कि ये दोनों अगर खाली हाथ न होते तो बेचारी शान्ता को जान से मार डालते।

इतने ही में नानक बोल उठा, ‘‘नहीं नहीं, यह आपके जासूसों ने हमारे ऊपर झूठा इलजाम लगाया है!’’

भूतनाथ : अगर यह बात है तो मैं इसे हथकड़ी से खाली क्यों देखता हूँ?

इन्द्रदेव : इसीलिए कि हमारे हाते के अन्दर ये लोग कुछ कर नहीं सकते। जब ये लोग यहाँ गिरफ्तार होकर आये तो कुछ दिन तक तो भलमनसी के साथ रहे, मगर आज इनकी नीयत बिगड़ी हुई मालूम पड़ी।

भूतनाथ : खैर, अब आप ही इनके लिए हुक्म सुनाइए। मगर इन्द्रदेव, आप यह न समझियेगा कि इन लोगों के बारे में मुझे किसी तरह का रंज है! मैं सच कहता हूँ कि इन दोनों का यहाँ आना मेरे लिए बहुत अच्छा हुआ! मैं इन लोगों के फेर में बेतरह फँसा हुआ था। आज मालूम हुआ कि ये लोग जहर हलाहल से भी बढ़े हुए हैं। अस्तु, आज इन लोगों से पीछा छुड़ाकर मैं बहुत ही प्रसन्न हुआ। मेरे सिर से बोझा उतर गया और अब मेरी जिन्दगी खुशी के साथ बीतेगी। आपका कहना सच निकला, अर्थात् इनका यहाँ आना मेरे लिए खुशी का सबब हुआ।

इन्द्रदेव : अच्छा यह बताइए कि ये अगर इसी तरह छोड़ दिये जायँ, तो आपके खजाने को तो किसी तरह का नुकसान नहीं पहुँचा सकते, जो ‘लामाघाटी’ के अन्दर है?

भूतनाथ : कुछ भी नहीं और ‘लामाघाटी’ के अन्दर जेवरों के अतिरिक्त और कुछ है भी नहीं, सो जेवरों को मैं वहाँ से मँगवा ले सकता हूँ।

इन्द्रदेव : अगर सिर्फ नानक की माँ के जेवरों से आपका मतलब है, तो वह अब मेरे कब्जे में हैं, क्योंकि नन्हों के यहाँ वह बिना जेवरों के नहीं गयी थी।

भूतनाथ : बस तो मैं उस तरफ से बेफिक्र हो गया, यद्यपि उन जेवरों की मुझे कोई परवाह नहीं है, मगर उसके पास मैं एक कौड़ी भी नहीं छोड़ा चाहता। इसके अतिरिक्त यह भी जरूर कहूँगा कि अब ये लोग सूखा छोड़ देने लायक नहीं रहे।

इन्द्रेदेव : खैर, जैसी राय होगी वैसा ही किया जायगा।

इतना कहकर इन्द्रदेव ने पुनः सर्यूसिंह को बुलाया और जब वह कमरे के अन्दर आ गया तो कहा–‘‘थोड़ी देर के लिए नानक को बाहर ले जाओ।’’

नानक को लिए हुए सर्यूसिंह कमरे के बाहर चला गया और इसके बाद चारों आदमी विचार करने लगे कि नानक और उसकी माँ के साथ क्या बर्ताव करना चाहिए। देर तक सोच-विचार कर यही निश्चय किया कि उन दोनों को देश से निकाल दिया जाय और कह दिया जाय कि जिस दिन हमारे महाराज की अमलदारी में दिखायी दोगे, उसी दिन मार डाले जाओगे।

इस हुक्म पर महाराज से आज्ञा लेने की इन लोगों को कोई जरूरत न थी, क्योंकि उन्होंने सब बातें सुन-सुनाकर पहिले ही हुक्म दे दिया था कि भूतनाथ की आज्ञानुसार काम किया जाय। अस्तु, नानक कमरे के अन्दर बुलाया गया और इसके बाद रामदेई भी बुलायी गयी। जब दोनों इकट्ठे हो गये तो उन्हें हुक्म सुना दिया गया।

यह हुक्म यद्यपि साधारण मालूम होता है, मगर इन दोनों के लिए ऐसा न था, जिन्हें भूतनाथ की बदौलत शाहखर्ची की आदत पड़ गयी थी। नानक और रामदेई की आँखों से आँसू जारी था, जब इन्द्रदेव ने सर्यूसिंह को हुक्म दिया कि चार आदमी इन दोनों को ले जाँय और महाराज की सरहद के बाहर कर आवें। सर्यूसिंह दोनों को लिये हुए कमरे के बाहर निकल गया।

भूतनाथ : सिर से बोझ उतरा और कमबख्तों से पीछा छूटा, अच्छा अब बतलाइए कि कल क्या-क्या होगा?

गोपाल : महाराज ने तो यही हुक्म किया है कि कल यहाँ से डेरा कूच किया जाय और तिलिस्म की सैर करते हुए चुनारगढ़ पहुँचें, चम्पा, शान्ता, हरनामसिंह, भरतसिंह और दलीपशाह वगैरह बाहर की राह से चुनार भेज दिये जाँय, यदि हमारे किसी ऐयार की भी इच्छा हो तो उनके साथ चला जाय।

भूतनाथ : ऐसा कौन बेवकूफ होगा, जो तिलिस्म की सैर छोड़ उनके साथ जायगा!

देवी : सभी कोई ऐसा ही कहते हैं।

भूतनाथ : हाँ, यह तो बताइए कि मैंने नानक को जब दरबार में देखा था तो उसके हाथ में एक लपेटी तस्वीर थी, अब वह तस्वीर कहाँ है, और उसमें क्या बात थी?

इन्द्रदेव : वह कागज, जिसे आप तस्वीर समझे हुए हैं, मेरे पास है, आपको दिखाऊँगा। असल में वह तस्वीर नहीं है, बल्कि नानक ने उसमें एक बहुत बड़ी दरखास्त लिखकर तैयार की थी, जो दरबार में आकर पेश किया चाहता था, मगर ऐसा कर न सका।

भूतनाथ : उसमें लिखा क्या था?

इन्द्रदेव : जो लोग उसे गिरफ्तार कर लाये हैं, उनकी शिकायत के सिवाय और कुछ भी नहीं। साथ ही इसके उस दरखास्त में इस बात पर बहुत जोर दिया गया था कि कमला की माँ वास्तव में मर गयी है, और आज जिस शान्ता को सब कोई देख रहे हैं, वह वास्तव में नकली है।

भूतनाथ : वाह रे शैतान! (कुछ सोचकर) तो शायद वह दरखास्त महाराज के हाथ तक नहीं पहुँची?

इन्द्रदेव : क्यों नहीं, मैंने जान-बूझकर ऐसा करने का मौका दिया। वह रात को पहरेवालों से इत्तिला कराकर खुद महाराज के पास पहुँचा और उनके सामने वह दरखास्त रख दी। उस समय महाराज ने मुझे बुलाया और मुझी को वह दरखास्त पढ़ने के लिए दी गयी। उसे सुनकर महाराज ने मुस्कुरा दिया और इशारा किया कि वह कमरे के बाहर निकाल दिया जाय, क्योंकि इसके पहिले मैं शान्ता और हरनामसिंह का पूरा-पूरा हाल महाराज से अर्ज कर चुका था।

भूतनाथ : अच्छा मुझे भी वह दरखास्त दिखाइयेगा।

इन्द्रदेव : (उँगली से इशारा करके) वह कारनिस के ऊपर पड़ी हुई है, देख लिजिए।

भूतनाथ ने दरखास्त उतारकर पढ़ी और इसके बाद कुछ देर तक उन लोगों में बातचीत होती रही।

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