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चन्द्रकान्ता सन्तति - 6

देवकीनन्दन खत्री

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प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2011
पृष्ठ :237
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8404
आईएसबीएन :978-1-61301-031-0

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चन्द्रकान्ता सन्तति 6 पुस्तक का ईपुस्तक संस्करण...

सातवाँ बयान


जरूरी कामों से छुट्टी पाकर ऐयारों ने रसोई बनायी, क्योंकि इस बँगले में खाने-पीने की सभी चीजें मौजूद थीं और सभों ने खुशी-खुशी भोजन किया। इसके बाद सब कोई उसी कमरे में आकर बैठे, जिसमें रात को चलती-फिरती तस्वीरों का तमाशा देखा था। इस समय भी सभी की निगाहें ताज्जुब के साथ उन्हीं तस्वीरों पर पड़ रही थीं।

सुरेन्द्र : मैं बहुत गौर कर चुका, मगर अभी तक समझ में न आया कि इन तस्वीरों में किस तरह की कारीगरी खर्च की गयी है, जो ऐसा तमाशा दिखाती हैं। अगर मैं अपनी आँखों से इस तमाशे को देखे हुए न होता और कोई गैर आदमी मेरे सामने ऐसे तमाशे का जिक्र करता तो मैं उसे पागल समझता, मगर स्वयं देख लेने पर भी विश्वास नहीं होता कि दीवार पर लिखी तस्वीरें इस तरह काम करेंगी।

जीत : बेशक, ऐसी ही बात है। इतना देखकर भी किसी के सामने यह कहने का हौसला न होगा कि मैंने ऐसा तमाशा देखा था और सुनने वाला भी कभी विश्वास न करेगा।

ज्योति : आखिर तिलिस्म ही है, इसमें सभी बातें आश्चर्य की दिखायी देती हैं।

जीत : चाहे तिलिस्म हो, मगर इसके बनानेवाले तो आदमी ही थे। जो बात मनुष्य के किये नहीं हो सकती, वह तिलिस्म में भी नहीं दिखायी दे सकती।

गोपाल : आपका कहना बहुत ठीक है, तिलिस्म की बातें चाहे कैसी ही ताज्जुब पैदा करने वाली क्यों न हों मगर गौर करने से उनकी कारीगरी का पता लग ही जायगा। यह आपने बहुत ठीक कहा कि आखिर तिलिस्म के बनाने वाले भी तो मनुष्य ही थे!

बीरेन्द्र : जब तक समझ में न आवे, तब तक उसे चाहे कोई जादू कहे या करामत कहे, मगर हम लोग सिवाय कारीगरी के कुछ भी नहीं कह सकते और पता लगाने तथा भेद मालूम हो जाने पर यह बात सिद्ध हो ही जाती है। इन चित्रों की कारीगरी पर भी अगर गौर किया जायगा तो कुछ-न-कुछ पता लग ही जायगा। ताज्जुब नहीं कि इन्द्रजीतसिंह को इसका भेद मालूम हो।

सुरेन्द्र : बेशक, इन्द्रजीतसिंह को इसका भेद मालूम होगा। (इन्द्रजीतसिंह की तरफ देखकर) तुमने किस तरकीब से इन तस्वीरों को चलाया था?

इन्द्रजीतः (मुस्कुराते हुए) मैं आपसे अर्ज करूँगा और यह बात भी बताऊँगा कि इसमें भेद क्या है। मालूम हो जाने पर आप इसे एक साधारण बात समझेंगे। पहिली दफे जब मैंने इस तमाशे को देखा था तो मुझे भी बड़ा ही ताज्जुब हुआ था, मगर तिलिस्मी किताब की मदद से जब मैं इस दीवार के अन्दर पहुँचा, तो सब भेद खुल गया।

सुरेन्द : (खुश होकर) तब तो हम लोग बेफायदे परेशान हो रहे हैं और इतना सोच-विचार कर रहे हैं। तुम अब तक चुप क्यों थे?

इन्द्रजीत : ऐयारों की तबीयत देख रहे थे।

सुरेन्द्र : खैर, बताओ तो सही कि इसमें क्या कारीगरी है?

इतना सुनते ही इन्द्रजीत उठकर उस दीवार के पास चले गये और सुरेन्द्रसिंह की तरफ देखकर बोले, ‘‘आप जरा तकलीफ कीजिए तो मैं इस भेद को समझा दूँ!’’

महाराज सुरेन्द्रसिंह उठकर कुमार के पास चले गये और उनके पीछे-पीछे और लोग भी वहाँ जाकर खड़े हो गये। इन्द्रजीतसिंह ने दीवार पर हाथ फेरकर सुरेन्द्रसिंह से कहा, ‘‘देखिए असल में इस दीवार पर किसी तरह की चित्रकारी या तस्वीर नहीं है, दीवार साफ है और वास्तव में शीशे की है, तस्वीरें जो दिखायी देती हैं, वे इसके अन्दर और दीवार से अलग हैं।’’

कुमार की बात सुनकर सभों ने ताज्जुब के साथ दीवार पर हाथ फेरा और जीतसिंह ने खुश होकर कहा–‘‘ठीक है, अब हम इस कारीगरी को समझ गये! ये तस्वीरें अलग-अलग किसी धातु के टुकड़ों पर बनी हुई है और ताज्जुब नहीं तार या कमानी पर जड़ी हों, किसी तरह की शक्ति पाकर उस तार या कमानी की हरकत होती है, और उस समय ये तस्वीरें चलती हुई दिखायी देती हैं।’’

इन्द्रजीत : बेशक, यही बात है, देखिए अब मैं इन्हें फिर चलाकर आपको दिखाता हूँ, और इसके बाद दीवार के अन्दर ले चलकर, सब भ्रम दूर कर दूँगा।

इस दीवार में जिस जगह जमानिया के किले की तस्वीर बनी थी, उसी जगह किले के बुर्ज के ठिकाने पर कई सूराख भी दिखाये गये थे, जिनमें से एक छेद (सूराख) वास्तव में सच्चा था पर वह केवल इतना ही लम्बा-चौड़ा था कि एक मामूली खंजर का कुछ हिस्सा उसके अन्दर जा सकता था। इन्द्रजीतसिंह ने कमर से तिलिस्मी खंजर निकालकर उसके अन्दर डाल दिया और महाराज सुरेन्द्रसिंह तथा जीतसिंह की तरफ देखकर कहा, ‘‘इस दीवार के अन्दर जो पुर्जे बने हैं, वे बिजली का असर पहुँचने ही से चलने-फिरने या हिलने लगते हैं। इस तिलिस्मी खंजर में आप जानते ही हैं कि पूरे दर्जे की बिजली भरी हुई है। अस्तु, उन पुर्जों के साथ इनका संयोग होने से काम हो जाता है।

इतना कहकर इन्द्रजीतसिंह चुपचाप खड़े हो गये और सभों ने बड़े गौर से उन तस्वीरों को देखना शुरू किया, बल्कि महाराज सुरेन्द्रसिंह, बीरेन्द्रसिंह, जीतसिंह, और राजा गोपालसिंह ने तो कई तस्वीरों के ऊपर हाथ भी रख दिया। इतने ही में दीवार चमकने लगी और इसके बाद तस्वीरों ने वही रंगत पैदा की, जो हम ऊपर के बयान में लिख आये हैं। महाराज और राजा गोपालसिंह वगैरह ने जो अपना हाथ तस्वीरों पर रख दिया था, वह ज्यों-का-त्यों बना रहा और तस्वीरें उनके हाथों के नीचे से निकलकर इधर-से-उधऱ आने जाने लगीं, जिसका असर उनके हाथों पर कुछ भी नहीं होता था, इस सबब से सभों को निश्चय हो गया कि उन तस्वीरों का इस दीवार से कोई सम्बन्ध नहीं! इस बीच में कुँअर इन्द्रजीतसिंह ने अपना तिलिस्मी खंजर दीवार के अन्दर से खींच लिया। उसी समय दीवार का चमकना बन्द हो गया और तस्वीरें जहाँ की तहाँ खड़ी हो गयीं, अर्थात् जो जितनी चल चुकी थी, उतनी ही चलकर रुक गयीं। दीवार पर गौर करने से मालूम होता था कि तस्वीरें पहिले ढंग की नहीं बल्कि दूसरे ही ढंग की बनी हुई हैं।

जीत : यह भी बड़े मजे की बात है, लोगों को तस्वीरों के विषय में धोखा देने और ताज्जुब में डालने के लिए इससे बढ़कर कोई खेल हो नहीं सकता।

तेज : जी हाँ, एक दिन में पचासों तरह की तस्वीरें इस दीवार पर लोगों को दिखा सकते हैं, पता लगाना तो दूर रहे गुमान भी नहीं हो सकता कि यह क्या मामला है और ऐसी अनूठी तस्वीरें नित्य क्यों बन जाती हैं।

सुरेन्द्र : बेशक, यह खेल मुझे बहुत अच्छा मालूम हुआ, परन्तु अब इन तस्वीरों को ठीक अपने ठिकाने पर पहुँचाकर छोड़ देना चाहिए।

‘‘बहुत अच्छा’’ कहकर इन्द्रजीतसिंह आगे बढ़ गये और पुनः तिलिस्मी खंजर उसी सूराख में डाल दिया, जिससे उसी तरह दीवार चमकने और तस्वीरें चलने लगीं। ताज्जुब के साथ लोग उसका तमाशा देखते रहे। कई घण्टे बाद जब तस्वीरों की लीला समाप्त हुई और एक विचित्र ढंग के खटके की आवाज आयी तब इन्द्रजीतसिंह ने दीवार के अन्दर से तिलिस्मी खंजर निकाल लिया और दीवार का चमकना भी बन्द हो गया।

इस तमाशे से छुट्टी पाकर महाराज सुरेन्द्रसिंह ने इन्द्रजीतसिंह की तरफ देखा और कहा, ‘‘अब हम लोगों को इस दीवार के अन्दर ले चलो।’’

इन्द्रजीत : जो आज्ञा, पहिले बाहर से जाँचकर आप अन्दाजा कर लें कि यह दीवार कितनी मोटी है।

सुरेन्द्र : इसका अन्दाज हमें मिल चुका है, दूसरे कमरे में जाने के लिए इसी दीवार में जो दरवाजा है, उसकी मोटाई से पता लग जाता है, जिस पर हमने गौर किया है।

इन्द्रजीत : अच्छा, तो अब एक दफे आप पुनः उसी कमरे में चलें, क्योंकि इस दीवार के अन्दर जाने का रास्ता उधर ही से है।

इन्द्रजीतसिंह की बात सुनकर महाराज सुरेन्द्रसिंह तथा और सब कोई उठ खड़े हुए और कुमार के साथ-साथ पुनः उसी कमरे में गये, जिसमें दो चबूतरे बने हुए थे।

इस कमरे में तस्वीर वाले कमरे की तरफ जो दीवार थी, उसमें एक आलमारी का निशान दिखायी दे रहा था और उसके बीचोबीच में लोहे की एक खूँटी गड़ी हुई थी, जिसे इन्द्रजीतसिंह ने उमेठना शुरू किया। तीस पैंतीस दफे उमेठकर अलग हो गये और दूर खड़े होकर उस निशान की तरफ देखने लगे। थोड़ी देर बाद वह आलमारी हिलती हुई मालूम पड़ी और फिर यकायक उसके दोनों पल्ले दरवाजे की तरह खुल गये। साथ ही उसके अन्दर से दो औरतें निकलती हुई दिखायी पड़ीं, जिनमें एक तो भूतनाथ की स्त्री थी और दूसरी देवीसिंह की स्त्री चम्पा। दोनों औरतों पर निगाह पड़ते ही भूतनाथ और देवीसिंह चमक उठे और उनेक ताज्जुब का कोई हद न रहा, साथ ही इसके दोनों ऐयारों को क्रोध भी चढ़ आया और लाल-लाल आँखें करके उन औरतों की तरफ देखने लगे। उन्हीं के साथ-ही-साथ और लोगों ने भी ताज्जुब के साथ उन औरतों को देखा।

इस समय उन दोनों औरतों का चेहरा नकाब से खाली था मगर भूतनाथ और देवीसिंह के चेहरे पर निगाह पड़ते ही उन दोनों ने आँचल से अपना चेहरा छिपा लिया और पलटकर पुनः उसी आलमारी के अन्दर जा लोगों की निगाह से गायब हो गयीं। उनकी इस करतूत ने भूतनाथ और देवीसिंह के क्रोध को और भी बढ़ा दिया।

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